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को समझकर कहा है कि मूल्यों का साधक लोक के द्वारा प्रशंसित होने के लिये इच्छा ही न करे (73)। वह तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मूल्यों की साधना से सदैव जुड़ा रहे।
साधना की पूर्णता
साधना की पूर्णता होने पर हमें ऐसे महामानव के दर्शन होते • हैं जो व्यक्ति के विकास और सामाजिक प्रगति के लिये प्रेरणा-स्तम्भ होता है। प्राचारांग में ऐसे महामानव की विशेषताओं को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। उसे द्रष्टा, अप्रमादी, जाग्रत, अनासक्त, वीर, कुशल आदि शब्दों से इंगित किया गया है। (i) द्रष्टा के लिए कोई उपदेश शेष नहीं है (38)। उसका कोई नाम नहीं है (71)। (ii) उसकी आँखें विस्तृत होती हैं अर्थात् वह सम्पूर्ण लोक को देखने वाला होता है (44)। (iii) वह बन्धन और मुक्ति के विकल्पों से परे होता है (50)। वह शुभ-अशुभ, आदि दोनों अन्तों से नहीं कहा जा सकता है, इसलिए वह द्वन्द्वातीत होता है (56,64) और उसका अनुभव किसी के द्वारा न छेदा जा सकता है, न भेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है तथा न नष्ट किया जा सकता है (64)। वह किसी भी विपरीत परिस्थिति में खिन्न नहीं होता है
और वह किसी भी अनुकूल परिस्थिति में खुश नहीं होता है । वास्तव में वह तो समता-भाव में स्थित रहता है (47)(iv) वह पूर्ण जागरूकता से चलने वाला होता है अतः वह वीर हिंसा से संलग्न नहीं किया जाता है (49) । वह सदैव ही आध्यात्मिकता में जागता है (51)। (v) वह अनुपम प्रसन्नता में रहता है (48)। (vi) वह कर्मों से रहित होता है । उसके लिए सामान्य लोक प्रचलित आचरणं आवश्यक नहीं होता है, (55)। किन्तु उसका आचरण व्यक्ति व समाज के लिए मार्ग-दर्शक होता है । वह मूल्यों से अलगाव चयनिका ]
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