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को तथा पशु-प्रवृत्तियों के प्रति लगाव को समाज के जीवन में सहन नहीं करता है ( 47 ) | आचारांग का शिक्षण है कि जिस काम को जाग्रत व्यक्ति करता है, व्यक्ति व समाज उसको करे (50) (vii) वह इन्द्रियों के विषयों को द्रष्टाभाव से जाना हुआा होता है, इसलिए वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् कहा जा सकता है ( 52 ) (viii) जो लोक में परम तत्त्व को देखने वाला है, वह वहाँ विवेक से जीने वाला होता है, वह तनाव से मुक्त, समतावान्, कल्याण करने वाला, सदा जितेन्द्रिय कार्यों के लिए उचित समय को चाहने वाला होता है तथा वह अनासक्तिपूर्वक लोक में गमन करता है (58) । (ix) उस महामानव के आत्मानुभव का वर्णन करने में सब शब्द लौट आते हैं, उसके विषय में कोई तर्क उपयोगी नहीं होता है, वुद्धि उसके विषय में कुछ भी पकड़ने वाली नहीं होती है ( 97 ) | आत्मानुभव की वह अवस्था ग्राभामयी होती है । वह केवल ज्ञाता - द्रष्टा - अवस्था होती है ( 97 ) ।
महावीर का साधनामय जीवन :
श्राचारांग ने महावीर के साधनामय जीवन पर प्रकाश डाला है । यह जीवन किसी भी साधक के लिए प्रेरणा-स्रोत वन सकता है । महावीर सांसारिक परतन्त्रता को त्यागकर श्रात्मस्वातन्त्र्य के मार्ग पर चल पड़े (103) उनकी साधना में ध्यान प्रमुख था । वे तीन घंटे तक विना पलक झपकाए आंखों को भीत पर लगाकर आन्तरिक रूप से ध्यान करते थे (104) । यदि महावीर गृहस्थों से युक्त स्थान में ठहरते थे तो भी वे उनसे मेल-जोल न बढ़ाकर ध्यान में ही लीन रहते थे । बाधा उपस्थित होने पर वे वहाँ से चले जाते थे । वे ध्यान की तो कभी भी उपेक्षा नहीं करते थे (105) । महावीर अपने समय को कथा - नाच-गान में, लाठी-युद्ध तथा
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मूठी युद्ध को
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[ आचारांग