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सब (ही) प्राणी (ऐसे हैं) (जिनको) (अपने) आयु प्रिय (होते हैं), (जिनके लिए) (अपने) सुख अनुकूल (होते हैं), (अपने) दुःख प्रतिकूल (होते हैं), (अपने) वध अप्रिय (होते हैं), (अपनी) जिन्दा रहने वाली (स्थितियाँ) प्रिय होती हैं और (जो) अपने जीवन के इच्छुक (होते हैं)। सब (प्राणियों) के
लिए जीवन प्रिय (होता है)। 37. तो (व्यक्ति) मनुष्य और पशु को रखकर, (उमको) कार्य में
लगाकर तीनों प्रकार (किसी मनुष्य, पशु और स्वयं) के (साधनों) द्वारा (अर्थ को) बढ़ाकर (जीता है)। जो भी उसके पास उस अवसर पर अल्प या बहुत (धन की) मात्रा होती है, उसमें वह आसक्त रहता है (और) भोग के लिए (उस अर्थ को काम लेता है)। एक समय (भोग के) वाद में बचा हुआ, उपलब्ध (धन) उसके लिए महान् साधन हो जाता है। उसको भी एक समय उसके उत्तराधिकारी बांट लेते हैं या चोर उसका अपहरण कर लेता है या राजा उसको छीन लेते हैं या वह नष्ट हो जाता है, या वह वर्वाद हो जाता है या वह घर के दहन से जला दिया जाता है। इस प्रकार अज्ञानी दूसरे के प्रयोजन के लिए क्रूर कर्मों को करता हुआ उनके द्वारा (प्राप्त) दुःख से व्याकुल हुआ विपरीतता (अशांति) को प्राप्त होता है। ज्ञानी के द्वारा ही यह कहा गया (है)। ये (अशान्ति को प्राप्त करने वाले) पार जाने में असमर्थ (होते हैं)-संसाररूपी प्रवाह में तैरने के लिये विल्कुल (समर्थ) नहीं (हैं)। ये तीर पर जाने वाले नहीं हैं)-तीर
पर जाने के लिए बिल्कुल (समर्थ) नहीं (होते हैं)। ये पार चयनिका ]
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