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60 यह मनुष्य सचमुच अनेक चित्तों को (धारण करता है)।
(प्रात्म-दृष्टि के उदय हुए बिना मनुष्य का शान्ति के लिए दावा करना ऐसे ही है जैसे कि) वह चलनी को (पानी से) भरने के लिए दावा करता है। [जैसे चलनी को पानी से भरा नहीं जा सकता है, उसी प्रकार चित्त-भूमि पर तनावमुक्ति सम्भव नहीं हैं। हे ज्ञानी! (जीवन में) निस्सार (अवस्था) को देखकर (तू समझ)। हे अहिंसक ! (दुःख पूर्ण) जन्म-मरण को जानकर समता का आचरण कर । वह (समता का आचरण करने वाला) न हिंसा करता है, न हिंसा कराता है, (और) न हिंसा करते हुए का अनुमोदन
करता है। 62 क्रोध आदि को (तथा) अहंकार को सर्वथा नष्ट करके वीर
प्रचण्ड नरक (मय) लोभ को (द्रष्टाभाव से) देखता है, इसलिए हो (कषायों का भार हटने के कारण) हलका होकर गमन करने वाला वीर हिंसा से मुक्त हुआ (संसार)-प्रवाह को नष्ट कर देता है। परिग्रह को (द्रष्टाभाव से) जानकर (तथा) (संसार)-प्रवाह को (भी) (द्रष्टाभाव से) जानकर वीर यहाँ आज (ही) आत्म-नियन्त्रित (होकर) व्यवहार करे । (अतः) (तू) मनुष्य होने के कारण (संसार-सागर से) बाहर निकलने के (अवसर को) प्राप्त करके यहाँ प्राणियों के प्राणों की हिंसा
मत कर। 64 वहाँ (जीवन में) समता को (मन में) धारण करके (व्यक्ति)
स्वयं को प्रसन्न करे।
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