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( आसक्ति से ) कोई लाभ नहीं ( है ) | ( तू समझ कि ) ( संसार में ) इन ( विषयों) से तेरे लिए कोई लाभ नहीं ( है ) । हे ज्ञानी ! (तू) इस (बात) को सीख ( कि) (आसक्ति) महाभंयकर (होती है) । (हे मनुष्य ! ) (तू) किसी भी तरह (प्राणियों को )
मत मार ।
41. वह वीर प्रशंसित (होता है), जो संयम से दूर नहीं होता है । 42. (यदि) लाभ (है), (तो) मद न कर; (यदि) हानि, (है), (तो)
शोक मत कर बहुत भी प्राप्त करके श्रासक्ति युक्त मत (वन) । अपने को परिग्रह से दूर रख । द्रष्टा उस (संयम के योग्य परिग्रह) का विपरीत रीति (अनासक्त भाव ) से परिभोग करता है ।
43. इच्छाएँ दुर्जय (होती हैं) । जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता (है) । यह मनुष्य इच्छाओं ( की तृप्ति) का ही इच्छुक (होता है), (इच्छाओं के तृप्त न होने पर) वह शोक करता है, क्रोध करता है, रोता है, (दूसरों को ) सताता है (और) (उनको) नुकसान पहुँचाता है ।
44. (जिसकी ) आँखें विस्तृत (होती हैं ), ( वह ) (सम्पूर्ण) लोक को देखने वाला (होता है) । ( वह) लोक के नीचे भाग को जानता है । ऊर्ध्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है, आसक्त (मनुष्य) (संसार में) फिरता हुआ (दुःखी) (होता है) । (अतः यहां अवसर को जान कर मनुष्य के द्वारा (इच्छात्रों से मुक्त होने का प्रयत्न किया जाना चाहिए), जो (इच्छाओं से) बँधे हुत्रों को मुक्त करता है, वह वीर प्रशंसित (होता है ) । 45. सचमुच यह मनुष्य संसार में प्रासक्त (है), (यह ) अति कपटी (है), (आसक्ति) के कारण (यह ) अज्ञानी ( बना है), इसलिए फिर ( विषयों की ) लोलुपता को करता है (श्रीर) ( इस तरह )
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