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31.
32.
जब तक घ्राणेन्द्रिय की ज्ञान - ( शक्तियाँ) कम नहीं (होती हैं), जब तक रसनेन्द्रिय की ज्ञान - ( शक्तियाँ) कम नहीं होती हैं), जब तक स्पर्शनेन्द्रिय की ज्ञान - ( शक्तियाँ) क्रम नहीं (होती हैं), ( तब तक ) इन इस प्रकार अनेक भेद (वाली) अक्षीण (इन्द्रिय) ज्ञान- ( शक्तियों) द्वारा (तू) उचित प्रकार से आत्महित को सिद्ध कर ले | इस प्रकार ( मैं ) कहता हूं । (जो ) वेचैनी को ( ही ) समाप्त कर देता है, (होता है); (ऐसा व्यक्ति) पल भर में वन्धन
जाता है) ।
(आध्यात्मिक गुरु की) अनाजा से ग्रस्त कुछ ( साधक) ही ( अन्तर्यात्रा में ) रुक जाते हैं। (ऐसे) (साधक) मूर्ख (हैं) (और) श्रासक्ति से घिरे हुए हैं) ।
33. वे मनुष्यं निश्चय ही (दुःख ) - मुक्त हैं, जो मनुष्य (विषमतानों के) पार पहुँचने वाले ( हैं ) | ( साधक) प्रति तृष्णा को अतृष्णा से झिड़कता हुआ (आगे बढ़ता है), (और) प्राप्त हुए विषय भोगों का (भी) सेवन नहीं करता है ।
वह प्रज्ञावान् रहित (हो
34. (कोई ) नीच नहीं ( है ). ( कोई) उच्च नहीं ( है ) ।
35. भूमि व धन-दौलत की इच्छा करते हुए कुछ व्यक्तियों के लिए यहाँ अलग-अलग ( प्रकार का ) जीवन प्रिय ( है ) । उन ( व्यक्तियों) में तप श्रात्म- नियन्त्रण और सीमा - बन्धन नहीं देखा जाता है ।
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36. जो लोग परम शांति के इच्छुक ( हैं ) ( वे ) इस (महत्व से उत्पन्न व्याकुलता ) को विल्कुल नहीं चाहते हैं ।
(अतः ) (तू) जन्म-मरण (शान्ति) को जानकर दृढ़-संयम
पर चल ।
मृत्यु के लिए ( किसी क्षरण भी) न आना नहीं है ।
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