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वह संसार-प्रवाह को नष्ट कर देता है (62-70)। (vi) मानव-समाज में न कोई नीच है और न कोई उच्च है (34)। सभी के साथ समतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए । आचारांग के अनुसार समता में ही धर्म है (88)। (v) इस जगत् में सव प्राणियों के लिए पीड़ा अशान्ति है, दुःख-युक्त है (23)। सभी प्राणियों के लिए यहाँ सुख अनुकूल होते हैं, दुःख प्रतिकूल होते हैं, वध अप्रिय होते हैं तथा जिन्दा रहने की अवस्थाएँ प्रिय होती हैं । सब प्राणियों के लिए जीवन प्रिय होता है (36) । अतः पाचारांग का कथन है कि कोई भी प्राणी मारा नहीं जाना चाहिए, गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिए, शासित नहीं किया जाना चाहिए, सताया नहीं जाना चाहिए और प्रशान्त नहीं किया जाना चाहिए। यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, और शाश्वत है (72) । जो अहिंसा का पालन करता है, वह निर्भय हो जाता है (69) | हिंसा तीन से तीन होती है, किन्तु अहिंसा सरल होती है (69)। अतः हिंसा को मनुष्य त्यागे। प्राणियों में तात्विक समता स्थापित करते हुए आचारांग अहिंसाभावना को दृढ़ करने के लिए कहता है कि जिसको तू मारे जाने योग्य मानता है; वह तू ही है, जिसको तू शासित किए जाने योग्य मानता है- वह तू ही है, जिसको तू सताए जाने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसको तू गुलाम बनाए जाने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसको तू अशान्त किए जाने योग्य मानता है, वह तू ही है। (94) 1 इसलिए ज्ञानो, जीवों के प्रति दया का उपदेश दे और दया पालन की प्रशंसा करे (101) । (vi) आचारांग ने समता और अहिंसा की साधना के साथ सत्य की साधना को भी स्वीकार किया है। प्राचारांग का शिक्षण है कि हे मनुष्य ! तू सत्य का निर्णय कर, सत्य में धारणा कर और सत्य की आज्ञा में उपस्थित रह (59, 68)। (vii) संग्रह, समाज में आर्थिक विषमता पैदा करता है।
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