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किन्तु अपने आप पर तो प्रभाव पड़ ही जाता है । वे क्रियाएँ मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग वन जानी हैं। इसे ही कर्म - बन्धन कहते हैं । यह कर्म - बन्धन ही व्यक्ति के सुखात्मक और दुःखात्मक जीवन का आधार होता है । इस विराट् विश्व में हिंसा व्यक्तित्व को विकृत कर देती है और अपने तथा दूसरों के दुःखात्मक जीवन का कारण बनती है और अहिंसा व्यक्तित्व को विकसित करती हैं और अपने तथा दूसरों के सुखात्मक जीवन का कारण बनती है। हिंसा विराट् प्रकृति के विपरीत है । अतः वह हमारी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी होने से रोकती है और ऊर्जा को ध्वंस में लगा देती है, किन्तु श्रहिंसा विराट् प्रकृति के अनुकूल होने से हमारी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करती है और ऊर्जा को रचना में लगा देती है । हिमात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना को सिकोड़ देती हैं और उसको ह्राम की ओर ले जाती हैं, ग्रहिंसात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना को विकास की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार इन क्रियाओं का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है । अतः आचारांग ने कहा है कि जो मनुष्य कर्म-बन्धन और कर्म से छुटकारे के विषय में खोज करता है वह शुद्ध बुद्धि होता है | (50) 1
मूच्छित मनुष्य की दशा :
वास्तविक स्व-प्रस्तित्व का विस्मरण ही मूर्च्छा है । इसी विस्मरण के कारण मनुष्य व्यक्तिगत श्रवस्थाओं और सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न सुख-दुःख से एकीकरण करके सुखी - दुःखी होता रहता है । मूच्छित मनुष्य स्व-अस्तित्व ( श्रात्मा) के प्रति जागरुक नहीं होता है, वह शांति से पीड़ित होता है, समता-भाव से दरिद्र होता है, उसे ग्राहसा पर आधारित मूल्यों का ज्ञान देना कठिन होता है तथा वह अध्यात्म को समझने वाला नहीं होता है
चयनिका ]
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