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विश्वास को पूर्व जन्म के ज्ञान पर ग्राश्रित किया है । ऐसा लगता है कि महावीर - युग में व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति में उतारने की क्रिया वर्तमान थी और यह आध्यात्मिक उत्थान के प्रति जागृति का सवल माध्यम था । जन्मों-जन्मों में स्व-प्रस्तित्व के होने में विश्वास करने वाला ही श्राचारांग की दृष्टि में आत्मा को मानने वाला होता हैं । जन्मों-जन्मों पर विश्वास से देश-काल में तथा पुद्गलात्मक लोक में विश्वास उत्पन्न होता है । इसी से मन-वचन-काय की क्रियाओं और उनमें उत्पन्न प्रभावों को स्वीकार किया जाता है । आचारांग का कहना है कि जो मनुष्य पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को नमक लेता है वह ही व्यक्ति श्रात्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी श्रीर क्रियावादी कहा गया है ( 3 ) । इसी आधार पर समाज में नैतिकआध्यात्मिक मूल्यों का भवन खड़ा किया जा सकता है और सामाजिक उत्थान को वास्तविक बनाया जा सकता है ।
क्रियाओंों की विपरीतता :
श्राचारांग इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि मनुष्य के द्वारा मन-वचन-काय की क्रिया की सही दिशा समझी हुई नहीं है । इसीलिए उनसे उत्पन्न कुप्रभावों के कारण वह थका देने वाले एक जन्म से दूसरे जन्म में चलता जाता है श्रोर अनेक प्रकार की योनियों में सुख-दुःखों का अनुभव करता रहता है ( 4 ) । मनुष्य की क्रियाओं के प्रयोजनों का विश्लेषण करते हुए श्राचारांग का कहना है कि मनुष्य के द्वारा मन-वचन-काय की क्रियाएँ जिन प्रयोजनों से की जाती हैं वे हैं: (i) वर्तमान जीवन की रक्षा के प्रयोजन से, (ii) प्रशंसा, आदर तथा पूजा पाने के प्रयोजन से, (iii) भावी जन्म की उपेड़-बुन के कारण, वर्तमान में मरण भय के कारण तथा परम शान्ति प्राप्त करने तथा दुःखों को दूर करने के प्रयोजन से (5,6 ) । जिसने क्रियायों के इतने शुरुआत जान लिए हैं उसने ही क्रियाओं
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