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(अनासक्ति) की मूल्यात्मक भावना को दृढ़ कर सकें, जिससे उनमें नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की चेतना सघन वन सके । अब हम इस चयनिका की विषय-वस्तु की चर्चा करेंगे । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म :
मनुष्य समय-समय पर मनुष्यों को मरते हुए देखता है । कभी न कभी उसके मन में स्व-ग्रस्तित्व की निरन्तरता का प्रश्न उपस्थित हो ही जाता है । जीवन के गम्भीर क्षरणों में यह प्रश्न उसके मानस पटल पर गहराई से अंकित होता है । यतः स्व ग्रस्तित्व का प्रश्न मनुष्य का मूलभूत प्रश्न है । आचारांग ने सर्वप्रथम इसी प्रश्न से चिन्तन प्रारम्भ किया है । आचारांग का यह विश्वास प्रनीत होता है कि इस प्रश्न के समाधान के पश्चात् ही मनुष्य स्थिर मन से अपने विकास की वातों की ओर ध्यान दे सकता है । यदि स्वअस्तित्व ही त्रिकालिक नहीं है तो मूल्यात्मक विकास का क्या प्रयोजन ? स्व-अस्तित्व में ग्रास्था उत्पन्न करने के लिए श्राचारांग पूर्वजन्म- पुनर्जन्म की चर्चा से शुरू होता है । श्राचारांग का कहना है कि यहाँ कुछ मनुष्यों में यह होश नहीं होता है कि वे अमुक दिशा से इस लोक में ग्राएँ हैं (1) 1 वे यह भी नहीं जानते हैं कि वे ग्रागामी जन्म में किस अवस्था को प्राप्त करेंगे ( 1 ) ? यहाँ प्रश्न यह है कि क्या स्व-अस्तित्व की निरन्तरता का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ? कुछ लोग तो पूर्वजन्म में स्व-ग्रस्तित्व का ज्ञान अपनी स्मृति के माध्यम से कर लेते हैं । कुछ दूसरे लोग प्रतीन्द्रिय ज्ञानियों के कथन से इसको जान पाते हैं तथा कुछ और लोग उन लोगों से जान लेते हैं जो अतीन्द्रिय ज्ञानियों के सम्पर्क में आए हैं ( 2 ) इस तरह से पूर्वजन्म में स्व-ग्रस्तित्व का ज्ञान स्वयं के देखने से अथवा अतीन्द्रिय ज्ञानियों के देखने से होता है । पूर्व जन्मों के ज्ञान से ही पुनर्जन्म के होने का विश्वास उत्पन्न हो सकता है । आचारांग ने पुनर्जन्म में
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[ श्राचारांग