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(18)। मूच्छित मनुष्य इन्द्रिय-विपयों में ही ठहरा रहता है (22)। वह आसक्ति-युक्त होता है और कुटिल आचरण में ही रत रहता है (22) । वह हिंसा करता हुआ भी दूसरों को अहिंसा का उपदेश देता रहता है । (25)। इस तरह से वह अर्हत् (जीवन-मुक्त) की आज्ञा के विपरीत चलने वाला होता है (22, 96) । स्व-अस्तित्व के प्रति जागरूक होना ही अर्हत् की आज्ञा में रहना है । इस जगत् में यह विचित्रता है कि सुख देने वाली वस्तु दुःख देने वाली बन जाती है
और दुःख देने वाली वस्तु सुख देने वाली बन जाती है। मूच्छित (आसक्ति-युक्त) मनुष्य इस बात को देख नहीं पाता है (39)। इसलिए वह सदैव वस्तुओं के प्रति आसक्त वना रहता है, यही उसका अज्ञान है (44) । विपयों में लोलुपता के कारण वह संसार में अपने लिए वैर की वृद्धि करता रहता है (45) और बार-बार जन्म-धारण करता रहता है (53) । अतः कहा जा सकता है कि मूच्छित (अज्ञानी) मनुष्य सदा सोया हुआ अर्थात् सत्मार्ग को भूला हुआ होता है (52) । जो मनुष्य मूर्छारूपी अंधकार में रहता है वह एक प्रकार से अंधा ही है । वह इच्छाओं में आसक्त बना रहता है और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह प्राणियों की हिंसा में संलग्न होता है (98) । वह प्राणियों को मारने वाला, छेदने वाला, उनकी हानि करने वाला तथा उनको हैरान करने वाला होता है (29)। इच्छाओं के तृप्त न होने पर वह शोक करता है, क्रोध करता है, दूसरों को सताता है और उनको नुकसान पहुंचाता है (43) । यहाँ यह समझना चाहिए कि सतत हिंसा में संलग्न रहने वाला व्यक्ति भयभीत व्यक्ति होता है । आचारांग ने ठीक ही कहा है कि प्रमादी (मूच्छित) व्यक्ति को सव ओर से भय होता है (69) । वह सदैव मानसिक तनावों से भरा रहता है । चूकि उसके अनेक चित्त होते हैं, इसलिए उसका अपने लिए शांति (तनाव-मुक्ति) का दावा करना
[ आचारांग