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अचलगच्छ का इतिहास
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७. शीलरत्न : इन्होंने वि०सं० १४९१/ई०स० १४३५ में अणहिलपुरपत्तन में
जैनमेघदूतकाव्य पर संस्कृत भाषा में टीका की रचना की।३४ इनके द्वारा रचित कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं।३५ स्तुतिचौरासी भी इन्हीं की कृति मानी जाती है।३६
जयकेशरीसूरि : पट्टधर ९. महीमेरुगणिः इनके द्वारा रचित क्रियागुप्ताअपरनाम जिनस्तुति-पंचाशिका,३७
कल्पसूत्रअवचूरि, ३८ मेघदूतटीका३८अ आदि कृतियाँ प्राप्त होती हैं। जयकीर्तिसूरि के समकालीन अंचलगच्छीय अन्य मुनिजन
आचार्य कलाप्रभसागरसूरि ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर जयकीर्तिसूरि के समकालीन जिन मुनिजनों का उल्लेख है३९ उनके नाम इस प्रकार हैं - १. धर्मशेखरसूरि, २. महीतिलकसूरि, ३. माणिक्यशेखरसूरि, ४. माणिक्यसुन्दरसूरि, ५. माणिक्यकुंजरसूरि, ६. महीनन्दनगणि, ७. मानतुंगसूरि, ८. मेरुनन्दनसूरि, ९. भुवनतुंगसूरि, १०. उपाध्याय धर्मनन्दनगणि।
आचार्य जयकीर्तिसूरि के पट्टधर जयकेशरीसूरि हुए। अंचलगच्छीय पट्टावलियों के अनुसार वि०सं० १४६१ (१४७१....?) में इनका जन्म हुआ, वि०सं० १४७५ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० १५०१ में गच्छनायक बने। जयकेशरीसूरि अपने समय के प्रभावक जैनाचार्यों में से एक थे। इनके द्वारा रचित आदिनाथस्तोत्र नामक कृति प्राप्त होती है।४० इनके उपदेश से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं जो वि०सं० १४९६ से लेकर वि०सं० १५३९ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है -
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