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अचलगच्छ का इतिहास
१. अनेकार्थनाममाला ४ वि०सं० १७०२ / ई० स० १६४६
२. स्नात्रपंचाशिका ५ वि०सं० १७०४ / ई०स० १६४८
३. वृद्धचिन्तामणि अपरनाम विद्वद्विन्तामणि ६ (यह कृति सारस्वतव्याकरण के आधार पर रची गयी है)
भोजव्याकरण 19
विनयसागर के अध्ययनार्थ आचार्य कल्याणसागरसूरि ने मिश्रलिंगकोश' की रचना की थी ।
४.
महोपाध्याय विनयसागर के एक शिष्य ऋषि कीका ने वि० सं० १६९५ / ई० सन् १६४९ में धवलक्कनगरी में भर्तृहरिकृत शतकत्रय की प्रतिलिपि की । ९ वि०सं० १६९७ / ई० सन्. १६५१ में लिखी गयी नेमिनाथयादवरास की प्रतिलिपि में भी प्रतिलिपिकार के रूप में ऋषि कीका का नाम मिलता है । १०
महोपाध्याय विनयसागर के दूसरे शिष्य सौभाग्यसागर थे, जिन्होंने जामनगर के श्रेष्ठी वर्धमानशाह द्वारा निर्मित शान्तिनाथ जिनालय की वि०सं० १६९७ / ई० सन् १६४१ की शिलाप्रशस्ति ११ तथा वि०सं० १७१९ / ई० सन् १६६३ में वर्धमानपद्मसिंह श्रेष्ठीचरित १२ जिसका ऊपर उल्लेख आ चुका है, की रचना की ।
वि०सं० १६६२ में लिखी गयी सिद्धान्तचौपाई की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके प्रतिलिपिकार महोपाध्याय संयमसागर भीकीका रत्नसागर के शिष्य थे । १३ वि०सं० १६७६/ई०सन् १६२० में इनके एक शिष्य नयसागर ने चैत्यवन्दन की रचना की । १४
महोपाध्याय रत्नसागर के एक शिष्य पद्मसागर हुए जिन्होंने वि० सं० १७०४/ ई० सन् १६४८ में नारचन्द्रज्योतिष की प्रतिलिपि की । १५ पद्मसागर के शिष्य धीरसागर हुए, जिनके द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही प्रतिलिपि की गयी कोई रचना; किन्तु इनके शिष्य ऋद्धिसागर ने वि०सं० १७३९ / ई० सन् १६८३ में स्तम्भनपुर (थामणा) में परिभाषानोवृत्ति की प्रतिलिपि की । १६
श्रेष्ठी वर्धमान शाह द्वारा जामनगर में निर्मित जिनालय, जिसका ऊपर उल्लेख आ चुका है, की वि० सं० १६९७ / ई० सन् १६४१ की शिलाप्रशस्ति में मनमोहनसागर IT भी नाम मिलता है । १७ सौभाग्यसागर और मनमोहनसागर के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था? क्या वे परस्पर गुरुभ्राता थे अथवा गुरु-शिष्य; प्रमाणों के अभाव में यह निश्चित कर पाना कठिन है।
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