Book Title: Achalgaccha ka Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास लेखक डॉ० शिवप्रसाद वाराणी पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-परिचय श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय में अंचलगच्छ ( वर्तमान में अचलगच्छ) का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। वि.सं. 1169 में आचार्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण यह गच्छ अस्तित्व में आया। इस गच्छ में आचार्य जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसिंह सूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि आदि विभिन्न प्रभावक एवं विद्वान् आचार्य हो चुके हैं। वर्तमान युग में आचार्य गौतमसागरसूरि ने इस गच्छ में संविग्नमार्ग की पुनः प्रतिष्ठा की। उनके पट्टधर आचार्य गुणसागरसूरि ने उक्त कार्य को और आगे बढ़ाया। वर्तमान गच्छाधिपति गुणोदयसागर सूरीश्वर जी व आचार्य कलाप्रभसागर जी के 'कुशल मार्गदर्शन में यह गच्छ उत्तरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर है। इस गच्छ से भी समय-समय पर विभिन्न शाखाएँ अस्तित्व में आयीं और समय के साथ-साथ नामशेष भी हो गयीं। इन सभी का शोधपूर्ण विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत है। अन्त में इस गच्छ के प्रमुख रचनाकारों के साहित्यावदान की सूची भी दी गयी है। For Privat jainaniprary org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला : १३५ प्राकृत भारती पुष्प : १४१ प्रधान सम्पादक प्रो. सागरमल जैन महोपाध्याय विनयसागर प्रो. भागचन्द्र जैन भास्कर কালের কৃতি लेखक डॉ. शिवप्रसाद पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर २००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला सं० प्राकृत भारती पुष्प १४१ लेखक पुस्तक प्रकाशक प्रथम संस्करण मूल्य अक्षर-सज्जा मुद्रक ISBN C Author Title Publisher First Edition Price Type Setting Printed at : डॉ० शिवप्रसाद : अचलगच्छ का इतिहास पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, करौंदी, वाराणसी- २२१००५ दूरभाष संख्या : ३१६५२१, ३१८०४६ फैक्स : ०५४२-३१८०४६ : प्राकृत भारती अकादमी, १३ - ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर - ३०२०१७ दूरभाष संख्या : ५२४८२७, ५२४८२८ २००१ ई० : २५०.०० रुपये मात्र :: : 45 :: Pārśwanātha Vidyāpitha Series No. 135 Prakrit Bharati Puspa-141 : : : : १३५ :: : :: : सरिता कम्प्यूटर्स, औरंगाबाद, वाराणसी - १० (फोन नं. ३५९५२१) वर्द्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी 81-86715-61-4 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Dr. Shiva Prasad Acala Gaccha Kā Itihas Pārśwanatha Vidyapitha, I.T.I., Road, Karaundi, Varanasi-221005 Telephone No. : 316521, 318046 Fax: 0542-318046 Prakrit Bharti Academy, 13-A, Main Malviya Nagar, Jaipur - 302017. Telephone No. : 524827, 524828 2001 Rs.250.00 only : Sarita Computers, Aurangabad, Varanasi. (Phone No. 359521 ) Vardhaman Mudranalaya, Bhelupur, Varanasi. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में अनेक झंझावतों को झेलने वाले, संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी पूज्य पिता स्व० श्री त्रिलोकीनाथ जी एवं माता श्रीमती सावित्रीदेवी जिनके असीम प्यार, आत्मीय सहयोग और कठोर अनुशासन ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया, उन्हीं माता-पिता की पुण्यस्मृति सादर समर्पित शिवप्रसाद Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अद्यावधि विद्यमान गच्छों में अचलगच्छ (अंचलगच्छ) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रकुल से निष्पत्र प्रवर्तमान गच्छों में प्राचीनता की दृष्टि से खरतरगच्छ के पश्चात् अंचलगच्छ का ही स्थान है। वि०सं० ११६९ में आचार्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण यह गच्छ अस्तित्व में आया। इस गच्छ में आचार्य जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसिंहसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, धर्ममूर्तिसूरि, दादा कल्याणसागरसूरि आदि विभिन्न प्रभावक एवं विद्वान् आचार्य हो चुके हैं। धीरे-धीरे इस गच्छ में भी शिथिलाचार प्रविष्ट हुआ और क्रमश: बढ़ता गया। विक्रम संवत् की २०वीं शती में हुए मुनि गौतमसागर जी ने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार का प्रबल विरोध करते हुए सुविहित मार्ग को पुनः प्रतिष्ठापित किया। वि०सं० २००४ में इस गच्छ के अन्तिम श्रीपूज्य आचार्य जिनेन्द्रसागरसूरि के निधन के पश्चात् यति-गोरजी की परम्परा यहाँ से समाप्त हो गयी और संवेगी मुनि गौतमसागर जी के नेतृत्व में गच्छ में पुन: नवीन स्फूर्ति आयी। वि०सं० २००८ में गौतमसागर जी म. सा. आचार्य और गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके निधन के पश्चात् आचार्य गुणसागरसूरि जी के नेतृत्व में इस गच्छ का चातुर्दिक विकास प्रारम्भ हुआ जो वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य गुणोदयसागरसूरि जी व आचार्य कलाप्रभसागरसूरि जी म.सा. के समय भी निर्बाध रूप से जारी है। अंचलगच्छ से भी समय-समय पर विभिन्न शाखायें अस्तित्व में आयीं, परन्तु वे सभी समय के साथ-साथ समाप्त हो गयीं। वर्तमान में इस गच्छ की कोई शाखा विद्यमान नहीं है। वर्षों पूर्व सुप्रसिद्ध विद्वान् भाई श्रीपार्श्व द्वारा लिखित अंचलगच्छीय दिग्दर्शन नामक एक बड़ा और प्रामाणिक ग्रन्थ गुजराती भाषा और उसी लिपि में प्रकाशित हुआ था, जो लम्बे समय से अनुपलब्ध रहा। हिन्दी भाषा में तो इस विषय पर कोई पुस्तक ही नहीं थी। संस्थान के प्रवक्ता डॉ० शिवप्रसाद ने इस कमी को पूर्ण करते हुए इस गच्छ का प्रारम्भ से लेकर वर्तमान समय तक का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है। प्रामाणिकता की पुष्टि हेतु लेखक के अनुरोध पर जैन इतिहास व पुरातत्त्व के अधिकारिक विद्वान् साहित्य वाचस्पति म० विनयसागर द्वारा इसका आद्योपान्त अवलोकन भी करवा दिया गया है। इसके प्रकाशन के लिये आचार्य कलाप्रभसागर जी म.सा० की प्रेरणा से आर्य जयकल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मुम्बई की ओर से ५ हजार रुपये की राशि प्राप्त हुई है, अत: हम आचार्यश्री एवं उक्त ट्रस्ट के ट्रस्टीजनों के आभारी हैं। इसके प्रकाशन सम्बन्धी जिम्मेदारी संस्थान के ही प्रवक्ता डॉ० विजयकुमार ने वहन की है, अत: हम उनके भी आभारी हैं। अन्त में सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिये सरिता कम्प्यूटर्स और मुद्रण के लिए वर्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं। संजय कुमार कानोडिया अध्यक्ष प्राकृत भारती अकादमी जयपुर प्रो० सागरमल जैन मंत्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छों में अचलगच्छ (पूर्व प्रचलित नाम विधिपक्ष और अंचलगच्छ) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बृहद्गच्छीय आचार्य जयचन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि०सं० ११६९/ई०स० १११३ में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसके पालन करने से यह गच्छ अस्तित्त्व में आया। अचलगच्छ नाम पड़ने के सम्बन्ध में प्रचलित कथा के अनुसार गूजरेश्वर जयसिंह सिद्धराज ने एक बार पुत्रकामेष्टि यज्ञ प्रारम्भ किया था। वहां सर्पदंश के कारण यज्ञमण्डप में ही गाय की मृत्यु हो गयी। यज्ञ की सफलता के लिये गाय का यज्ञस्थल से जीवित ही बाहर आना अनिवार्य था। इस समस्या के समाधान के लिये राजा ने आर्यरक्षितसूरि से निवेदन किया और आचार्य द्वारा परकायप्रवेशिनीविद्या के प्रयोग से गाय के सजीवन हो कर यज्ञस्थल से बाहर आने पर यज्ञ सफल हो गया। इस प्रकार आचार्य आर्यरक्षितसूरि के स्ववचन पर अचल रहने के कारण सिद्धराज ने उन्हें 'अचल' विरुद प्रदान किया। यह दन्तकथात्मक घटना वि०सं० ११८५-९५ के मध्य घटित हुई बतलायी जाती है। इस प्रकार विधिपक्ष का एक नाम अचलगच्छ प्रचलित हो गया। अंचलगच्छ नाम पड़ने के सम्बन्ध में जो कथा मिलती है उसके अनुसार चौलुक्यनरेश कुमारपाल ने आर्यरक्षितसूरि का यश सुनकर उन्हें अपनी सभा में आमन्त्रित किया। वहां उपस्थित कुडी व्यवहारी नामक श्रावक ने अपने उत्तरीय के एक छोर से भूमि का प्रमार्जन कर आर्यरक्षितसूरि को वन्दन किया और कुमारपाल की जिज्ञासा पर हेमचन्द्राचार्य ने वन्दन की उक्त विधि को शास्त्रोक्त बतलाया जिससे कुमारपाल ने विधिपक्ष को अंचलगच्छ नाम प्रदान किया। यह घटना वि०सं० १२१३/ई०स० ११५७ में हुई, ऐसा उल्लेख मिलता है। दोनों घटनाओं में द्वितीय घटना, जो कुमारपाल से सम्बन्धित है, वह सत्य के निकट प्रतीत होती है, क्योंकि प्राचीन प्रशस्तियों, शिलालेखों-प्रतिमालेखों आदि से भी अंचलगच्छ नाम की ही पुष्टि होती है, अचलगच्छ की नहीं। इस प्रकार अचलगच्छ नाम बाद में पड़ा प्रतीत होता है। वर्तमान में इस गच्छ अनुयायी श्रमण और श्रावक अलबत्ता अचलगच्छ शब्द का प्रयोग करने लगे हैं, अंचलगच्छ शब्द का नहीं। इस गच्छ में जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसिंहसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, धर्ममूर्तिसूरि, कल्याणसागरसूरि आदि प्रभावक और विद्वान् जैनाचार्य और मुनिजन हो चुके हैं। जैन-परम्परा में समय-समय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर अस्तित्त्व में आये अनेक गच्छ जहां विलुप्त हो गये, वहीं अंचलगच्छ आज भी न केवल विद्यमान है, बल्कि उत्तरोत्तर उसके प्रभाव में वृद्धि ही होती जा रही है, जिसका श्रेय इस गच्छ के क्रियासम्पन्न मुनिजनों को है। इसी गौरवशाली अचलगच्छ का सम्यक्, प्रामाणिक और सुव्यवस्थित विवरण प्रस्तुत पुस्तक में सनिहित है। इस अवसर पर संक्षेप में इस ग्रन्थ के प्रारूप और इसमें विवेचित सामग्री पर प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। किसी भी गच्छ के इतिहास के अध्ययन के मूल स्रोत के रूप में उससे सम्बद्ध रचनाकारों के कृतियों में दी गयी प्रशस्तियाँ, उनकी प्रेरणा से या स्वयं उनके द्वारा प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, विवेच्य गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों और सम्बद्ध गच्छ की पट्टावलियों का उपयोग अपरिहार्य है। अचलगच्छ के इतिहास के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात कही जा सकती है। चूंकि यह जीवन्त गच्छों में एक है अत: स्वाभाविक रूप से हमें इस गच्छ के उक्त तीनों प्रकार के साक्ष्य अत्यधिक संख्या में उपलब्ध हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में उन सभी का सम्यक् उपयोग किया गया है। अन्यान्य गच्छों की भाँति अंचलगच्छ (अचलगच्छ) से भी समय-समय पर विभिन्न कारणों से विभिन्न शाखायें अस्तित्त्व में आयीं। इनमें कीर्तिशाखा, गोरक्षशाखा, चन्द्रशाखा, पालितानाशाखा, लाभशाखा और सागरशाखा प्रमुख हैं। सम्भवतः ये सभी शाखायें मूल परम्परा की अनुगामी थीं। अंचलगच्छीय मुनिजनों में शनैः शनैः शिथिलाचार बढ़ता गया और १९वीं शताब्दी में मूलपरम्परा के गच्छनायक श्रीपूज्य कहे जाने लगे और मुनिजन यतियों के रूप में विचरण करने लगे। साध्वाचार का द्रुतगति से ह्रास होने लगा। फिर भी क्रियाशील मुनिजनों की परम्परा पूर्णतया समाप्त न हो सकी। सागरशाखा के यति देवसागर के प्रशिष्य और स्वरूपसागर के शिष्य गौतमसागर जी ने वि०सं० १९४६ में संवेगी दीक्षा लेकर साध्वाचार को पुनर्जीवित किया। गौतमसागर जी के कठोर प्रयासों से इस गच्छ में संविग्नपक्षीय मनिजनों की संख्या बढ़ने लगी और यति परम्परा का प्रभाव कम होने लगा। वि०सं० २००४ में जब अन्तिम श्रीपूज्य जिनेन्द्रसागर जी का निधन हुआ तो उन्हीं के साथ-साथ इस गच्छ के यति-गोरजी की परम्परा भी समाप्त हो गयी। वि० सं० २००८ में संघ ने गौतमसागर जी को आचार्य गच्छनायक (गच्छाधिपति) के रूप में प्रतिष्ठापित किया। उनके निधन के पश्चात् आचार्य गुणसागरजी के कुशल नायकत्व में इस गच्छ का द्रुत गति से विकास प्रारम्भ हुआ और बड़ी संख्या में बालक-पुरुष, बालिकायें एवं महिलाओं ने साधु-साध्वी की दीक्षा ग्रहण की। गच्छाधिपति आचार्य गणसागर जी ने साधु-साध्वियों के चातुर्दिक विकास के लिये उनकी शिक्षा की भी विशेष व्यवस्था की, परिणामस्वरूप आज इस गच्छ के प्राय: सभी साध-साध्वी उच्च शिक्षित हैं और उनमें से कुछ तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् हैं। ऐसे मुनिजनों में आचार्य कलाप्रभसागर जी का नाम अग्रगण्य है। आचार्य Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसागरसूरीश्वर जी के निधन के पश्चात् उनके शिष्य आचार्य गुणोदयसागर जी के नेतृत्व में यह गच्छ उत्तरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर है। प्रो० एम०ए० ढांकी, शोध निदेशक, अमेरिकन इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डियन स्टडीज, वाराणसी (वर्तमान में गुड़गाँव-हरियाणा) की प्रेरणा एवं सहयोग तथा प्रो०सागरमल जैन के निर्देशन में पार्श्वनाथ विद्यापीठ में रहते हुए मैंने श्वेताम्बर गच्छों के इतिहास लेखन का कार्य प्रारम्भ किया और पिछले १७ वर्षों में इस कार्य को एक सीमा तक पूर्ण करने का प्रयास किया, जिसका एक बड़ा भाग देश की प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित है। अचलगच्छ के इतिहास के लेखन में मुझे प्रो०एम०ए० ढ़ांकी, प्रो०सागरमल जैन, साहित्य महारथी श्री भंवरलाल जी नाहटा, महोपाध्याय विनयसागर जी आदि से जो सहयोग मिला उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना मेरे लिये कठिन है। आचार्य कलाप्रभसागर जी से मुझे न केवल समय-समय पर मार्गदर्शन मिला बल्कि उन्होंने इस गच्छ से सम्बद्ध अनेक दुर्लभ ग्रन्थों को मुझे उपलब्ध कराया जिससे लेखन कार्य में अत्यधिक सहायता मिली। प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन का पूर्ण श्रेय पूज्य आचार्यश्री कलाप्रभसागरसूरीश्वर जी म०सा०, मुम्बई विश्वविद्यालय के गुजराती भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० रमणलाल ची० शाह; पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मानद् निदेशक प्रो० सागरमल जैन; वर्तमान निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन तथा प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के निदेशक महोपाध्याय विनयसागर जी को है, अत: मैं इन सभी का हृदय से आभारी हूँ। शिवप्रसाद Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भगवान् महावीर का शासन आज ढाई हजार वर्ष से भारतवर्ष में अपने मूल आचार और सिद्धान्तों पर अविच्छिन्न रूप से विद्यमान है। इसी बीच अनेक उदय और अस्तकाल आये और श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचारचर्या में कई विभिन्नताएँ आयीं; किन्तु मूल सिद्धान्त के शाश्वत तत्त्वों में कोई भी विभेद न आया। श्वेताम्बर समाज में अनेक गच्छ एवं शाखा-प्रशाखाओं का जन्म हुआ और इतिहास में अनेक परम्पराएँ नाम शेष रह गईं और उनकी श्रुतज्ञान की सेवाएँ—असंख्य रचनाएँ निर्मित हुईं, विच्छेद हुईं, लुप्त हुईं, नामशेष भी न रहीं; किन्तु उनमें से आज भी विपुल परिमाण में उपलब्ध हैं। उनका लेखा-जोखा एवं परम्परा व रचनाओं को जो उपलब्ध हैं, उन्हें शोध-खोजपूर्वक प्रकाश में लाने का भगीरथ प्रयत्न करने के लिए जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान् डॉ० सागरमलजी जैन ने डॉ० शिवप्रसाद जी को सौंपा जिसे वे पूरी लगन से सम्पन्न कर रहे हैं। इसी महत्त्वपूर्ण निर्माण में बहुत कुछ कार्य सम्पन्न हुआ है। प्रस्तुत अचलगच्छ का इतिहास इसी प्रयत्न के फलस्वरूप पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित हो रहा है। गच्छ और परम्पराएँ प्रचुर परिमाण में विभिन्न प्रकार से शासन सेवा कर गईं; किन्तु वर्तमान में खरतरगच्छ, तपागच्छ, अचलगच्छ और पायचन्दगच्छ आदि ही विद्यमान रही हैं। प्रस्तुत अचलगच्छ वर्तमान में गुजरात-कच्छ और राजस्थान के कुछ नगरों में अपनी उन्नतिशील अवस्था में है। इत:पूर्व हमें कई स्थानों में आँचलियों का फलसा, जैसलमेर में चरण पादुकाएँ, प्रतिमाएँ तथा देशनोक (बीकानेर) में आँचलियों का वास आदि विद्यमान हैं। अहमदाबाद और आगरा आदि स्थानों के इतिहास में भी इस गच्छ का प्रमुख स्थान रहा दृष्टिगोचर होता है। समय ने करवट बदली है और शिथिलाचार समाप्त हो रहा है। हर्ष का विषय है कि साधुओं की संख्या में अभिवृद्धि हुई है और शासन सेवा, साहित्य सेवा में भी समाज और संघ सक्रिय हुआ है। सम्मेतशिखर जी का त्वरित निर्माण आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। गच्छ परम्पराओं में शाखा भेद होते हैं पर इस सन्दर्भ में नामान्त पद में शाखा भेद के बीज तपागच्छ और अंचलगच्छ (अचलगच्छ) में पाये जाते हैं जबकि खरतरगच्छ में नामान्त नन्दी की पद्धति भिन्न है और शाखा भेद भिन्न है। अचलगच्छ की परम्परा में प्रस्तुत ग्रन्थ में कीर्ति शाखा, सागर शाखा, गोरक्ष शाखा, चन्द्र शाखा और पालीताना शाखा और लाभ शाखा का विवरण/विवेचन है; किन्तु इनके अतिरिक्त और भी कुछ अवशिष्ट होगी। जैसलमेर में श्री समयसुन्दरजी के उपाश्रय में लाकर रखी हुई कई चरण पादुकाएँ हैं जिनमें अंचलगच्छीय महान् आचार्य श्रीधर्ममूर्तिसूरि जी की चरण पादुकाएँ भी हैं, जिन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास पर इस प्रकार लेख है - “संवत् १६७४ वर्षे आषाढ़ सुदि ९ गुरौ श्री अचल गच्छे पू० भट्टारक श्री धर्ममूर्ति सूरि पादुका कारितं श्री संघेन। श्री जेसलमेरु महादुर्गे रावलजी कल्याण'' गुणग्राहक महोपाध्याय समयसुन्दरजी ने अपने समय के तीन महान् आचार्यों को अपने गणनायक के समान प्रभावक और जिन शासन का सितारा मान कर स्तुति की है भट्टारक तीन भये बड़ भागी। जिण दीपायो श्री जिन शासन सबल पडूर सोभागी। भ०१। खरतर श्री जिनचन्द्र सूरीसर, तपा हीर विजय वैरागी। विधि पक्ष धरममूर्ति सूरीसर, मोटो गुण महा त्यागी। भ०२। मत कोउ गर्व करो गच्छ नायक, पुण्य दशा हम जागी। समयसुन्दर कहइ तत्त्व विचारउ, भरम जाय जिण भागी। भ०३। यह एक संयोग ही समझिये कि श्री धर्ममूर्तिसूरिजी की चरणपादुका भी समयसुन्दरजी के उपाश्रय में संघ द्वारा रखी गयी है। अचलगच्छ के आचार्य जिनालय निर्माण आदि का उपदेश देकर धर्म प्रचार करते और प्रतिभादि प्रतिष्ठा की प्रेरणा देते किन्तु स्वयं प्रतिष्ठापक बन कर अपना नाम नहीं देते थे। अंचलगच्छ की कई धातु प्रतिमाओं के पृष्ठ भाग में खड़ी हुई पुरुषाकृति दृष्टिगोचर होती है जो इन्द्रादि की हो सकती है। आगरा के आंगाणी लोढ़ा कुंअरपाल सोनपाल ने जब सम्मेतशिखर जी का सं० १६७१ में संघ निकाला तब तलहटी में अधिष्ठाता श्री भोमियाजी की मूर्ति स्थापित की थी, जिसकी प्रतिष्ठा संघ में पधारे हुए खरतरगच्छीय मुनि विनयसागर से कराई गयी थी। लेख जो प्राप्त हुआ वह श्री भोमियाजी के मन्दिर में एक स्तम्भ पर लगाया गया है - ___ सं० १६७१ वर्षे वैशाख कृष्णैकादश्यां आगरा निवासी संघपति आंगाणी लोढ़ा श्री कुंअरपाल सोनपालेन पतिसाह जहांगीर फरमाणेन संघ सह यात्रा कृत्वा सिखर गिरि तलहट्टिकायां वट वृक्ष तने अधिष्ठायक क्षेत्रपाल श्री भोमियाजी व कुलिका स्थापिता पालगंजराज श्री पृथ्वी संघ राज्ये प्रतिष्ठिता खरतरगच्छे मुनि विनयसागरेन। विधि पक्ष अचल गच्छे।। ___ लेखन ने अचलगच्छ और उसकी विभिन्न शाखाओं का शोधपूर्ण इतिहास तथा इस गच्छ के अनुयायियों के साहित्यावदान का विवरण प्रस्तुत कर प्रसंशनीय कार्य सम्पन्न किया है। (भंवरलाल नाहटा) ४, जगमोहन मल्लिक लेन कलकत्ता ७००००७ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैनसंघ के इतिहास को सम्यक् रूप से समझने के लिए भारतीय संस्कृति के अतीत की गहराई में डुबकी लगाना आवश्यक है। जहाँ एक ओर परम्परागत विद्वान् जैनधर्म को अनादि मानते हैं और वर्तमान अवसर्पिणी कालचक्र में इसके प्रथम प्रवर्तक के रूप में ऋषभदेव (आदिनाथ) को स्वीकार करते हैं वहीं दूसरी ओर जैनेतर विद्वान् सामान्यतया जैनधर्म के प्रवर्तक के रूप में महावीरस्वामी (वर्धमान) को स्वीकार करते हैं। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि ये दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी हैं। जबकि सत्य यह है कि दोनों ही मान्यताएं सापेक्षिक रूप में सत्य हैं। वस्तुतः विश्व में जब से मानव समाज का अस्तित्व है विवेक, तप-त्याग, ध्यान-योग और अहिंसा के जीवन मूल्य प्रतिष्ठित हैं और जीवन में तप, त्याग, विवेक और वैराग्य ही जैनधर्म है। मनुष्य जिस दिन मनुष्य बना, उसी दिन ये मूल्य जीवन में प्रतिष्ठित हुए होंगे, क्योंकि इनके अभाव में 'मानव' अस्तित्व की कल्पना ही निरर्थक है। अत: मानवीय मूल्यों की जीवन में प्रतिष्ठा और जैनधर्म सहगामी हैं। यदि तपत्याग और संयम की मानव जीवन में प्रतिष्ठा करने वाले किसी प्रथम पुरुष की खोज करना हो तो निश्चित रूप से यह मानना होगा कि भारतीय संस्कृति के इतिहास की दृष्टि से ये प्रथम पुरुष ऋषभदेव या आदिनाथ ही हैं। भरत क्षेत्र के वर्तमान कालचक्र में ऋषभ ने ही मानवीय समाज और सभ्यता का बीजवपन किया था, यह तथ्य जैन एवं जैनेतर साक्ष्यों से सिद्ध है। ऋग्वेद जो भारतीय साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है उसमें न केवल ऋषभ का उल्लेख है, अपितु उसमें श्रमण धारा से सम्बन्धित अर्हत् (अर्हन्त), व्रात्य, श्रमण, वातरसना मुनि आदि के भी उल्लेख हैं। पुन: ऋग्वेद आर्हत् (श्रमण परम्परा) और वार्हत् (वैदिक/ब्राह्मण परम्परा) --- दोनों परम्पराओं का उल्लेख करता है। अत: इन दोनों परम्पराओं का सह-अस्तित्व ऋग्वेद के काल जितना प्राचीन तो है ही। पुन: यह भी सत्य है वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा दोनों में ही ऋषभ को इस आर्हत् परम्परा अर्थात् तप-त्याग एवं ध्यान-योग की निवृत्तिमार्गी परम्परा का आदि पुरुष भी माना गया है। अत: वे श्रमण धारा के प्रथम प्रवर्तक हैं, इसमें संशय करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी आज का जैनधर्म ठीक वैसा ही है, जिस रूप में ऋषभ ने उसका प्रवर्तन किया था, यह कहना कठिन है। स्वयं जैन परम्परा भी इस तथ्य को स्वीकार करती है कि तीर्थङ्कर अपने देशकाल के अनुरूप धर्म के बाह्यस्वरूप में परिवर्तन करते हैं, फिर भी श्रमण संस्कृति की मूलात्मा अर्थात् तप-त्याग और निवृत्तिपरक जीवन मूल्य तो इन परिवर्तनों के बीच भी यथावत बने Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii अचलगच्छ का इतिहास रहते हैं। श्रमण परम्परा के बाह्य स्वरूप अर्थात् साधना के विधि-विधानों का देशकाल में परिवर्तन होता रहा है और उसके परिणाम यह श्रमणधारा भी विभिन्न वर्गों में विभाजित होती रही है। इनमें से कुछ तो जैसे आजीवक आदि कालकवलित हो गईं, तो कुछ जैसे- सांख्य-योग आदि आज बृहद् हिन्दूधर्म में, जो वैदिक एवं श्रमण धारा का समन्वित रूप है, विलीन हो गईं। औपनिषदिक चिन्तन जो मूलत: श्रमणधारा का अंग था, आज वैदिक परम्परा में आत्मसात् होकर उसका ही अंग बन गया है। वर्तमान में निवृत्तिमार्गी श्रमण धारा की जैन और बौद्ध- ये दो शाखाएँ स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में हैं। इनमें बौद्ध धारा- हीनयान, महायान और वज्रयान के रूप में मुख्यत: तीन भागों में विभाजित हुई, पुनः इनमें भी कालक्रम में अनेक निकाय अस्तित्व में आये। वस्तुत: जब भी किसी धर्म या साधना पद्धति का विकास होता है, तो वह देश-कालगत परिस्थितियों के कारण अथवा मान्यता भेद के कारण विभिन्न भागों में विभाजित हो ही जाती है। जैनधर्म भी उससे अप्रभावित नहीं रहा। ___ आज हम जिसे जैनधर्म के नाम से जानते हैं, वह नाम तो उसे ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में प्राप्त हुआ। अपभ्रंश जइण से जैन शब्द बना है। जिन के उपासक जइण कहलाये और यही उनका धर्म आगे चलकर जैनधर्म के नाम से प्रचलित हुआ। छठी-सातवीं शती के पूर्व इसके दो नाम प्राप्त होते है- (१) आर्हत्, (२) निर्ग्रन्थ। आर्हत् और निम्रन्थ में भी आर्हत् नाम अपेक्षाकृत प्राचीन है और निम्रन्थ नाम उससे परवर्ती है फिर भी यह नाम अशोक के अभिलेखों में जैनों के लिए व्यवहृत हुआ है। वस्तुत: पार्श्वनाथ और महावीर दोनों के ही अनुयायी निर्ग्रन्थ कहे जाते थे- अत: उन दोनों को अलग करने के लिए पापित्यीय श्रमण और ज्ञातृपुत्रीय श्रमण- ये नाम प्रचलित थे। ज्ञातव्य है कि इस समय बौद्ध श्रमण शाक्यपुत्रीय श्रमण और गोशालक की परम्परा के श्रमण आजीवक कहलाते थे। जैन परम्परा में पाँच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख मिलता है- १. शाक्यपुत्रीय श्रमण (बौद्ध), २. निर्ग्रन्थ (जैन), ३. आजीवक (मंखली गोशालक के अनुयायी), ४. तापस (सांख्य और योग परम्परा के अनुयायी) और ५. गैरुक (गेरुवा वस्त्र धारण करने वाले हिन्दू संन्यासी)। वस्तुत: अर्हत्, जिन, बद्ध और तीर्थङ्कर ऐसे नाम थे, जिन्हें श्रमण परम्परा की प्रत्येक शाखा अपने आराध्य या उपास्य के रूप में स्वीकार करती थी, अत: अपनी स्वतन्त्र पहचान के लिए ये अलग-अलग नाम दिये गये थे। सम्पूर्ण श्रमण परम्परा के लिए प्राचीनतम नाम आर्हत् ही था। आर्हतों में से विभिन्न श्रमण परम्पराएँ विकसित हुईं उनमें आजीवक, बौद्ध और निर्ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हुईं। इनमें भी आजीवक परम्परा चिरजीवी नहीं रह सकी और ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व ही वह नामशेष हो गई। आजीवकों के नामशेष हो जाने और तापस, गैरुक आदि के बृहत्तर हिन्दू समाज का अंग बन जाने पर श्रमणों की निर्ग्रन्थ और बौद्ध ये दो धाराएं ही चिरजीवी बनीं। इनमें भी बौद्धधारा विदेशों में तो पल्लवित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका एवं विकसित हुई, किन्तु दसवीं शती तक भारत में नामशेष हो गई और भारत में मात्र जैन/निर्ग्रन्थ धारा ही बची रही। निर्ग्रन्थों में हमें सर्वप्रथम पापित्य और ज्ञातृपुत्रीय ये दो वर्ग मिलते हैं, किन्तु ज्ञातृपुत्रीय श्रमणों बढ़ते हुए प्रभाव से महावीर के कुछ काल बाद पार्थापत्य श्रमण ज्ञातृपुत्रीय श्रमणों में अर्थात् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गये। महावीर के संघ ने पार्श्वनाथ को महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर के रूप में और उनके साहित्य को पूर्व साहित्य के रूप में मान्यता देकर अपने में आत्मसात् कर लिया। इस प्रकार निर्ग्रन्थों की दो प्रतिस्पर्धी परम्पराएं मिलकर एक हो गईं। यह तो स्पष्ट है कि गोशालक जो कुछ समय तक अपने को महावीर का शिष्य मानता था, वैचारिक मतभेदों के कारण उनसे अलग होकर आजीवक परम्परा में तीर्थङ्कर के समरूप प्रतिष्ठित हो गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि गोशालक और महावीर के बीच हुए मतभेद को जैन परम्परा में विशेष महत्त्व नहीं दिया गया; क्योंकि यह घटना महावीर के कैवल्य प्राप्ति और संघ-स्थापना के पूर्व ही हो चुका था। अत: जैन परम्परा में संघ भेद के रूप में इसे मान्यता नहीं मिली। जैनधर्म श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधि है और श्रमण संस्कृति ने भारत को संघीय साधना की एक ऐसी विशिष्ट पद्धति प्रदान की है जिसमें संघ सर्वोपरि था। वह तीर्थङ्कर या अनुशास्ता के लिए भी वन्दनीय है। तीर्थङ्कर भी 'नमो तित्थस्स' कहकर सर्वप्रथम संघ की वन्दना करता है। जैनधर्म में भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में जो विभिन्न गण, शाखाएं, कुल, अन्वय और गच्छ अस्तित्व में आये, उसके मुख्यत: दो कारण रहे हैं--- १. संघीय व्यवस्था एवं अनुशासन और २. विचार और आचार सम्बन्धी मतभेद। यद्यपि वैयक्तिक अहं, पदलिप्सा और पारस्परिक वैमनस्य भी इनके मूल में रहे होंगे; किन्तु इनके निमित्त से जो भी संघभेद हुए हैं वे भी स्पष्टत: इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं। सभी अपने संघभेद का कारण आचार-विचार सम्बन्धी मतभेद या संघीय अनुशासन में सुदृढ़ता ही बताते हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि व्यवस्था एवं अध्ययन की दृष्टि से महावीर ने स्वयं अपने शिष्यों को ९ गणों में विभाजित कर उन्हें ११ गणधरों के अधीन कर दिया था। ज्ञातव्य है कि जहाँ प्रथम सात गणधरों को स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने गणों का दायित्व सौंपा गया था वहीं अन्तिम गणधरों में दो-दो गणधरों को संयुक्त रूप से गण के संचालन का भार दिया गया था। वस्तुत: भगवान् महावीर प्रयोगधर्मी थे, उन्होंने अपने संघ में एकल अनुशासन और संयुक्त अनुशासन- दोनों ही व्यवस्थाओं को स्थान दिया था। भगवान् महावीर द्वारा दी गई यह व्यवस्था वस्तुत: संघीय अनुशासन और संघीय व्यवस्था की दृष्टि से एक विभाजन तो था; किन्तु यह संघभेद नहीं था। भगवान् महावीर के जीवन-काल में ही संघ भेद के प्रयत्न प्रारम्भ हो गये थे। संघ भेद, गण भेद या गच्छ भेद को निकृष्टतम कार्य माना गया था और ऐसे व्यक्ति के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त अर्थात् संघ से निष्कासन जैसे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अचलगच्छ का इतिहास कठोरतम दण्ड की व्यवस्था थी। वस्तुत: जो दण्ड एक मुनि की हत्या करने वाले का था उतना ही दण्ड एक संघ भेद करने वाले को था। फिर भी संघ स्थापना के बाद प्रथम संघ भेद जामालि द्वारा ‘क्रियमान कृत या अकृत' के दार्शनिक विवाद के आधार पर हुआ। जहाँ महावीर के संघ स्थापना के पूर्व ही गोशालक ने एकाकी रूप से अलग होकर भी एक बृहद् संघ की स्थापना कर ली थी और ऐसा भी कहा जाता है कि महावीर के संघ की अपेक्षा गोशालक का संघ बृहद्काय था। वहीं जामालि पांच सौ शिष्यों के साथ अलग होकर भी अन्त में एकाकी ही रह गया। उसके प्राय: सभी श्रमण और श्रमणियाँ पुन: महावीर के संघ में लौट गये। यह भी सम्भव है कि जामालि के मतभेद के पीछे मूलत: उसकी पदलिप्सा भी रही हो, क्योंकि महावीर का जामाता होने के कारण उसकी यह अपेक्षा रही हो कि महावीर अपने संघ में उसे विशेष स्थान दें या संघीय व्यवस्था में उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करें, किन्तु निस्पृह वीतराग महावीर के लिए यह सम्भव नहीं था। जामालि की अपेक्षा गोशालक का आजीवक संघ अधिक दीर्घजीवी रहा और महावीर के पश्चात् भी लगभग चार शताब्दियों का वह चलता रहा। जहाँ तक भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ की स्थिति का प्रश्न है, ऐसा लगता है कि आचार्य भद्रबाहु 'प्रथम' (ई०पू० तृतीय शती) तक यह संघ अविभाज्य रूप से चलता रहा। यद्यपि आर्य जम्बू के पश्चात् और भद्रबाहु के पूर्व के मध्यवर्ती आचार्यों के नामों को लेकर श्वेताम्बर-दिगम्बर पट्टावलियों में भिन्नता परिलक्षित होती है। जहाँ श्वेताम्बर पट्टावलियों में सुधर्मा और जम्बू के बाद प्रभव, स्वयंभव, यशोभद्र और सम्भूति- ये चार नाम आते हैं, वहाँ दिगम्बर पट्टावलियों में विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित और गोवर्धन ये चार नाम मिलते हैं। इस मतभेद का स्पष्टत: कारण क्या था, आज यह बता पाना कठिन है। भद्रबाहु के कथानक भी दोनों परम्पराओं में भिन्न-भिन्न हैं। मुझे ऐसा लगता है कि दिगम्बर परम्परा में जिस भद्रबाहु का उल्लेख है वे कहीं वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु (द्वितीय) तो नहीं हैं, यह भी सम्भव है कि उनके साथ उल्लेखित चन्द्रगुप्त कोई गुप्तवंशीय राजा हो। फिर भी इस सम्बन्ध में अभी खोज करने की आवश्यकता है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य कल्पसूत्र की पट्टावली से हमें इतना अवश्य ज्ञात होता है कि भद्रबाहु के शिष्य गोदास से गोदासगण निकला और उसी से पौण्डवर्धनिका, ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया और दासीखर्पटिका नामक चार शाखाएँ निकलीं। किन्तु आगे गोदासगण और उसकी इन चार शाखाओं का क्या हुआ, इसकी कोई भी जानकारी न तो श्वेताम्बर स्रोतों से उपलब्ध होती है और न उत्तर भारत में इसका कोई अभिलेखीय साक्ष्य ही प्राप्त होता है। दक्षिण भारत में आन्ध्रप्रदेश में वढ्ढमाणु से गोदासगण का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, इससे यह अनुमान लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा दक्षिण भारत में चली गई और वहीं निर्ग्रन्थ संघ के नाम से फूली-फली। दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ सम्बन्धी अभिलेख पाँचवीं शती तक मिलते Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हैं। उत्तर भारत में भद्रबाहु के शिष्य गोदास से गोदासगण की ये चारों शाखाएँ कालक्रम से नामशेष हो गई गयीं। बंगाल में बटगोहली से प्राप्त काशी की पंचस्तूपान्वय का एक अभिलेख प्राप्त होता है; किन्तु गोदासगण की चारों शाखाओं का कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे ऐसा लगता है कि उत्तर भारत में भद्रबाहु की परम्परा कालान्तर में विलुप्त हो गई। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में गोदासगण और उसकी शाखाओं को छोड़कर जिन गणों, शाखाओं और कुलों के उल्लेख हैं, वे सभी स्थूलिभद्र की परम्परा से हैं। कल्पसूत्र की इस 'स्थविरावली' से यह भी ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में निर्ग्रन्थ संघ में गण, शाखा और कुल के रूप में ही विभाजन था। गण शाखाओं में और शाखाएँ कुलों में विभाजित होती थीं। कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में इन सभी गणों, शाखाओं और कुलों का विस्तृत उल्लेख मिलता है जिनकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है।अत: इन गणों, शाखाओं और कुलों के अस्तित्व में अब सन्देह की कोई सम्भावना भी नहीं है। आर्य सुहस्ति के शिष्यों में आर्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध आचार्य हुए। पट्टावलियों के अनुसार इन्होंने एक करोड़ सूरिमन्त्र का जप किया अत: इनसे कोटिक गण उत्पन्न हुआ। किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि वस्तुत: कोटिकगण का नामकरण बंगाल में स्थित कोटिवर्षनगर के आधार पर होना चाहिए। सम्भावना है कि आर्य भद्रबाहु के शिष्य गोदास से जो गोदासगण निकला था, उसी एक शाखा कोटिवर्षीय थी। यही कोटिवर्षीय शाखा बाद में कोटिकगण के रूप में परिवर्तित हो गयी होगी। कोटिकगण का उल्लेख मथुरा के अभिलेखों एवं कल्पसूत्र में 'स्थविरावली' में है। इसी कोटिकगण में आर्य वज्र हुए। वज्र से कोटिकगण की वज्जी (वज्री) शाखा निकली। इनके शिष्य आर्य वज्रसेन हुए। आर्य वज्रसेन के चार प्रमुख शिष्य हुए– नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। इनसे नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर- ये चार कुल निकले। यद्यपि इस मान्यता का उल्लेख परवर्ती पट्टावलियों में प्राप्त होता है, परन्तु कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में आर्यव्रज के तीन शिष्यों- आर्य वज्रसेन, आर्यपद्म और आर्यरथ का उल्लेख है। पुन: आर्य वज्रसेन से आर्यनागिल, आर्यपद्म से आर्यपद्मा और आर्यरथ से आर्यजयन्ती शाखा निकलने का उल्लेख है। इसी स्थविरावली में ही अन्यत्र विद्याधर गोपाल से विद्याधरी और आर्य वज्रसेन से नाइली शाखा निकलने की चर्चा है। यही विद्याधरशाखा और नाइली शाखा आगे चलकर विद्याधर कुल और नागेन्द्र कुल के रूप में परिवर्तित हो गयी। हम देखते हैं कि भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग १४०० वर्षों बाद तक उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में गण, शाखा और कुल का ही व्यवहार होता रहा। हमें ईसा की नवी-दसवीं शती तक के किसी भी अभिलेख अथवा किसी भी ग्रन्थ प्रशस्ति में गच्छ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। लगभग ईसा की दसवीं शती से हमें गच्छ शब्द का प्रयोग मिलने लगता है। वस्तुत: गच्छ शब्द गमन अर्थ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xii अचलगच्छ का इतिहास का बोधक है, जो साधु साथ-साथ विहार या विचरण करते थे, उनका समूह गच्छ कहलाता था। इसके विपरीत एक आचार्य की शिष्य परम्परा कुल के नाम से अभिहित होती है। चूंकि एक ही आचार्य के शिष्य प्रायः साथ-साथ विहार करते हैं अतः वे कुल ही आगे चलकर ११वीं - १२वीं शताब्दी से गच्छ नाम से अभिहित होने लगे । चन्द्रकुल से चन्द्र गच्छ, नागेन्द्र कुल से नागेन्द्र गच्छ और विद्याधर कुल से विद्याधर गच्छ और निवृत्ति कुल से निवृत्ति गच्छ अस्तित्व में आये। बृहद्गच्छीय आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि० सं० ११६९ / ई० स० १११३ में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण उनका समुदाय विधिपक्ष कहलाया। इसके अंचल गच्छ नामकरण का मूल कारण यह रहा कि इस परम्परा ने श्रावकों के लिए धार्मिक क्रिया-कलापों में मुख वस्त्रिका एवं रजोहरण के स्थान पर उत्तरीय वस्त्र के एक छोर अर्थात् आंचल से ही काम चलाने का निर्देश किया था। अंचलगच्छ की उत्पत्ति के साथ जो क्रियोद्धार की घटना वर्णित है उसके सम्बन्ध में क्वचित् जानकारी आवश्यक है। वस्तुतः भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में ईस्वी सन् की पाँचवीं शती के पश्चात् वनवास के स्थान पर चैत्यवास अर्थात् मुनियों द्वारा चैत्यों में निवास की प्रथा प्रारम्भ हो गयी थी। जिसके परिणामस्वरूप आगे चलकर दिगम्बर परम्परा में भट्टारक संस्था और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यति परम्परा का विकास हुआ। ये यति गण न केवल चैत्यों में निवास करते थे अपितु चैत्यों के नाम पर सम्पत्ति का संग्रह करने के साथ-साथ अपने आचार एवं व्यवहार में सुविधावादी या शिथिलाचारी हो गये थे। इस शिथिलाचार के विरुद्ध समय-समय पर आवाजें उठीं । दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द (लगभग ६ - ७वीं शती) ने और श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र (८वीं शती) ने इसका घोर विरोध किया। इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्रसूरि का सम्बोधप्रकरण नामक ग्रन्थ पठनीय है। फिर भी जैन संघ में इस चैत्यवास की जड़ें इतनी गहरी पैठ चुकी थीं कि इन विरोधों के बावजूद भी यह परम्परा वर्तमान युग तक जीवित रही है। फिर भी समय-समय पर शुद्धाचार को पालने लिए क्रियोद्धार के प्रयत्न भी होते रहे और उसके परिणामस्वरूप सुविहितमार्ग, विधिपक्ष आदि का जन्म हुआ। चैत्यवास के विरोध में प्रथम प्रयत्न के फलस्वरूप लगभग ग्यारहवीं शती में खरतरगच्छ का जन्म हुआ और दूसरे प्रयत्न के फलस्वरूप वि० सं० १९६९ में विधिपक्ष अस्तित्व में आया। ऐसे ही प्रयास के फलस्वरूप समय-समय पर विभिन्न गच्छ और उनकी शाखायें अस्तित्त्व में आयीं। अंचलगच्छ के जन्म के समय यह यति परम्परा इतनी प्रभावशाली थी कि अंचलगच्छ के संस्थापक आर्यरक्षितसूरि स्वयं भी विजयचन्द्र मुनि के रूप में इसी यति परम्परा में दीक्षित हुए थे। कालान्तर में गुरु की आज्ञा प्राप्त होने पर क्रियोद्धार करके शुद्ध मुनि आचार का पालन करने लगे। अंचलगच्छ की यह परम्परा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इसी कारण विधिपक्ष के नाम से भी जानी जाती है। विधि पक्ष का अर्थ है-आगम विधि के अनुसार आचार-पालन का पक्षधर। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जो गच्छ या परम्पराएँ क्रियोद्धार द्वारा आगमिक आचार के पालन के लिए कटिबद्ध हुई थीं उनमें भी कालान्तर में शिथिलाचार का प्रवेश होता रहा और वे पुन: पुन: यति परम्परा के आचार में ढलती रही हैं। आर्यरक्षितसूरि ने यति परम्परा के विरोध में जिस विधिपक्ष की स्थापना की थी वह पुन: यति परम्परा से आक्रान्त हो गया और उसमें उत्तरमध्य युग में अनेक शाखा-प्रशाखाएँ बन गईं। अंचलगच्छ की मुख्य शाखाएँ निम्न हैं- (१) कीर्तिशाखा, (२) पालिताना शाखा, (३) गोरक्ष शाखा, (४) लाभ शाखा, (५) सागर शाखा और (६) चन्द्र शाखा। इनमें भी चन्द्र शाखा की दो आचार्य परम्परा दृष्टिगत होती है। इनमें अधिकांश तो यति परम्परा की ही पोषक थी। यही कारण था कि उत्तरमध्य युग में धर्ममूर्तिसूरि (सं० १६१४) और वर्तमान युग में गौतमसागरसूरि जी (संवत् १९४६) द्वारा पुन: क्रियोद्धार कर अंचलगच्छ में संवेगी मुनियों की परम्परा को पुनर्जीवित करना पड़ा। वर्तमान में अंचलगच्छ (अचलगच्छ) में जो मुनिगण एवं साध्वियाँ हैं, वे गौतमसागरसूरि की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही हैं। इस गच्छ में अन्तिम श्रीपूज्य (यति) आचार्य जिनेन्द्रसागरसूरि थे। ईस्वी सन् १९४७ में उनके स्वर्गवास के पश्चात् इस गच्छ की श्रीपूज्य परम्परा समाप्त हो गई। यद्यपि यह श्रीपूज्यों या यतियों की परम्परा आचार की अपेक्षा शिथिलाचारी थी, फिर भी इस वर्ग ने श्रावकवर्ग को जैनधर्म से जोड़े रखने तथा साहित्य और चिकित्सा के क्षेत्र में जो अवदान दिया है, उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। यदि हम अंचलगच्छ के साहित्यिक अवदान पर विचार करें तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि जैन विद्या के क्षेत्र में इस गच्छ अनुयायियों द्वारा निर्मित मन्दिरों एवं उनमें स्थापित प्रतिमाओं सम्बन्धी अभिलेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों की विस्तृत चर्चा श्री पार्श्व एवं आचार्य कलाप्रभसागर जी ने की है। डॉ० शिवप्रसाद जी ने भी अपनी इस कृति में इन सभी सूचनाओं को समाहित किया है। अत: यहाँ उनकी चर्चा करना अनावश्यक प्रतीत होता है। जहाँ तक वर्तमान श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के गच्छों का प्रश्न है उनमें खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ (अचलगच्छ) और पार्श्वचन्द्रगच्छ ही आज अस्तित्व में हैं, शेष गच्छ और उनकी विविध शाखाएँ आज इतिहास के पन्नों में ही संरक्षित हैं। उनमें भी प्रमुख तो तपागच्छ ही है, क्योंकि उसके साधु-साध्वियों की संख्या खरतरगच्छ और अंचलगच्छ की अपेक्षा कई गुना अधिक है, फिर भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन समाज में अपने प्रभुत्व की दृष्टि से खरतरगच्छ और अंचलगच्छ भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जहाँ तपागच्छ मुख्यत: गुजरात, मुम्बई और सौराष्ट्र में अधिक प्रभावशाली है, वहाँ खरतरगच्छ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर-पूर्वी भारत में अधिक प्रभावी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ πίν अचलगच्छ का इतिहास है । जहाँ तक अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का प्रश्न है वह उत्तरपश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, मुम्बई और कच्छ में आज अधिक प्रभावी है। कच्छी समुदाय जो आज जैन समाज का सम्पन्नवर्ग है, अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का ही अनुयायी है। कच्छी-व्यापारियों के सम्पूर्ण दक्षिणी-पश्चिमी भारत और विदेशों में बस जाने के कारण आज इस गच्छ में साधु-साध्वियों के अपेक्षाकृत अल्पसंख्या में होने पर भी यह अधिक प्रभावी है; क्योंकि जैन समाज का एक समृद्ध एवं सम्पन्न वर्ग उनका अनुयायी है। अंचलगच्छ (अचलगच्छ) के इतिहास के सम्बन्ध में इस गच्छ की दो पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं१. अंचलगच्छनी मोटी पट्टावली एवं २. विधिपक्षगच्छीय पट्टावली - (संस्कृत) । इनके अतिरिक्त श्रीपार्श्व द्वारा लिखित अंचलगच्छ दिग्दर्शन (गुजराती) और अंचलगच्छप्रतिष्ठालेखसंग्रह तथा आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ भी इस गच्छ के इतिहास के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं । किन्तु ये सभी ग्रन्थ मुख्यतः गुजराती भाषा एवं लिपि में प्रकाशित हैं। हिन्दी भाषा में अभी तक कोई ऐसी कृति नहीं थी, जो इस गच्छ का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करती हो। डॉ० शिवप्रसाद ने अपनी शोधोपाधि (पी-एच्०डी० ) को प्राप्त करने के पश्चात् जैनधर्म के इतिहास से सम्बन्धित किसी विधा पर शोधकार्य करने की भावना व्यक्त की । एतदर्थ पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से मैंने उन्हें श्वेताम्बर गच्छों के इतिहास पर कार्य करने का निर्देश दिया गया। उन्होंने जैन इतिहास के वरिष्ठतम विद्वान् प्रो० एम० ए० ढ़ांकी एवं मुझसे मार्गदर्शन लेते हुए यह कार्य प्रारम्भ किया था । प्रस्तुत कृति उसी बृहद्काय योजना का एक अंश है। प्रस्तुत कृति का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें परम्परागत श्रद्धाजनित अहोभाव से बचते हुए विशुद्ध रूप से अभिलेखों एवं ग्रन्थ प्रशस्तियों के आधार पर इन गच्छों के इतिहास को संकलित किया गया है अतः इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद है। इसमें पट्टावलियों का उपयोग मात्र उपलब्ध साक्ष्यों की पुष्टि के निमित्त ही किया गया है। हो सकता है कि भावनाप्रधान श्रद्धालुजनों को इसमें आचार्यों के सम्बन्ध में चाहे विस्तृत विवरण उपलब्ध न हो, किन्तु जो भी सूचनाएं इसमें उपलब्ध हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्णतः प्रामाणिक हैं । प्रस्तुत कृति के प्रथम अध्याय में लेखक ने उन ऐतिहासिक स्रोतों की चर्चा की है, जिनके आधार पर प्रस्तुत कृति तैयार की गई है। दूसरे अध्याय में अंचलगच्छ की मुख्य धारा के आचार्यों एवं मुनिजनों के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। अग्रिम अध्यायों में अंचलगच्छ की विभिन्न शाखाओं की क्रमशः चर्चा की गई है। प्रस्तुत कृति का अन्तिम अध्याय अंचलगच्छीय मुनिजनों द्वारा रचित कृतियों का निर्देश करता है। प्रस्तुत कृति में दी गई जानकारियाँ यद्यपि सूत्रशैली में दी गई हैं, फिर भी ये अंचलगच्छ (अचलगच्छ) के इतिहास को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ हैं। वस्तुतः डॉ० शिवप्रसाद ने गच्छों के इतिहास के मूल स्रोतों के महासागर में से Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका X जो नवनीत निकाल कर प्रस्तुत किया है, वह भविष्य में लिखे जाने वाले श्वेताम्बर गच्छों के इतिहास के लिए आधारभूत रहेगा। प्रस्तुत कृति का वैशिष्ट्य यह है कि यह मुख्यतः सूची प्रधान है और सामान्य लेखन को अपेक्षा सूची बनाकर सामग्री को संक्षेप में प्रस्तुत करना भी एक कला है और डॉ० शिवप्रसाद इस कला के सिद्धहस्त हैं । इतिहासप्रेमी इस कृति का अध्ययन करके उनके श्रम को सार्थक करेंगे, यही शुभ भावना है। माघ पूर्णिमा वीरनिर्वाण संवत् २५२७ शाजापुर ( म०प्र०) डॉ० सागरमल जैन मानद निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका y-vi xvi rvii पृष्ठसंख्या प्रकाशकीय दो शब्द ii-iv प्रस्तावना भूमिका viii-x v विषयानुक्रमणिका : संकेत-सूची प्रथम अध्याय : अचलगच्छ के इतिहास के स्रोत द्वितीय अध्याय : अचलगच्छ का इतिहास ६-१०७ तृतीय अध्याय : अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १०८-१५६ : अचलगच्छीय मुनिजनों का साहित्यावदान१५७-१९२ परिशिष्ट १९३-२०४ सहायक ग्रन्थ-सूची : २०५-२१२ १.५ य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० ले० सं० प्रा०ले० सं० : प्राचीनलेखसंग्रह, सम्पा० - १९२९ ई० । जै०धा०प्र०ले०सं० : जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १ - २; सम्पा ०. आचार्य बुद्धिसागरसूरि, श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, पादरा १९२४ ई० । अ०प्र०जै०० सं० बी० जै०० सं० O जै० धा० प्र०ले ० श्री० प्र०ले० सं० प्र०ले० सं० रा०प्र० ले० सं० अं०ले०सं० श०गि०५० श० वै० संकेत सूची : जैनलेखसंग्रह, भाग १ - ३, संपा० संग्राहक - श्री पूरनचन्द नाहर, कलकत्ता १९१८, १९२७, १९२९ ई० । -मुनि विद्याविजय जी, भावनगर, -- : अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंग्रह, ( आबू – भाग ५) संपा० - मुनि जयन्त विजय जी, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर, वि०सं० २००५ । : बीकानेरजैनलेखसंग्रह, सम्पा० – अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता १९५५ ई० । : जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०जी, जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, सूरत १९५० ई० । : श्रीप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०- - दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविन्द', यतीन्द्र साहित्य सदन, धामणिया १९५५ ई० । : प्रतिष्ठालेखसंग्रह, सम्पा०- महोपाध्याय विनयसागर, कोटा १९५३ ई० । : राधनपुरप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा० - • मुनि विशाल विजय, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर १९६० ई० । मुनि कान्तिसागर : अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, सम्पा० श्रीपार्श्व, श्री अखिल भारतीय अचलगच्छ (विधिपक्ष) श्वेताम्बर जैन संघ, झवेरी मेन्शन, पहला माला, ११४, केशव जी नायक रोड, मुम्बई १९७१ ई० । : शत्रुंजयगिरिराजदर्शन, सम्पा ०. ― - : शत्रुंजयवैभव, सम्पा० - १९९० ई० । मुनि कंचनसागर, श्री आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ५९, कपडवज १९८२ ई० । मुनि कान्तिसागर, जयपुर, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय अचलगच्छ के इतिहास के स्रोत किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के इतिहास के अध्ययन के स्रोत के रूप में साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्यों का अध्ययन अपरिहार्य है। प्राक् मध्य युग में निग्रर्थ दर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय में समय-समय पर उद्भूत विभिन्न गच्छों और उनसे निःशृत (उत्पन्न) शाखाओं-उपशाखाओं के इतिहास के अध्ययन के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। गच्छों के इतिहास से सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्यों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, प्रथम ग्रन्थ या पुस्तक प्रशस्तियाँ और द्वितीय विभिन्न गच्छों के मुनिजनों द्वारा रची गयी अपने-अपने गच्छों की पट्टावलियाँ। प्रशस्तियाँ पुस्तकों के साथ सम्बन्ध रखने वाली प्रशस्तियाँ दो प्रकार की होती हैं। इनमें से एक तो वे हैं जो ग्रन्थों के अन्त में उनके रचयिताओं द्वारा बनायी गयी होती हैं। इनमें मुख्य रूप से रचनाकार द्वारा गण-गच्छ तथा अपने गुरु-प्रगुरु आदि का उल्लेख होता है। किन्हीं प्रशस्तियों में रचनाकाल और रचनास्थान का भी निर्देश होता है। किसी-किसी प्रशस्ति में तत्कालीन शासक या किसी बड़े राज्याधिकारी का नाम और अन्यान्य ऐतिहासिक सूचनायें भी मिल जाती हैं। कुछ प्रशस्तियाँ छोटी-दो-चार पंक्तियों की और कुछ बड़ी होती हैं। इन प्रशस्तियों द्वारा भिन्न-भिन्न गण-गच्छों के जैनाचार्यों की गुरु-परम्परा, उनका समय, उनका कार्य क्षेत्र और उनके द्वारा की गयी समाजोत्थान एवं साहित्य सेवा का संकलन कर उनकी परम्पराओं का अत्यन्त प्रामाणिक इतिहास तैयार किया जा सकता है। दूसरे प्रकार की प्रशस्तियाँ वे हैं जो प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों के अन्त में लिखी होती हैं। ये भी दो प्रकार की होती हैं। प्रथम वे जो किन्ही मुनिजनों या श्रावक द्वारा स्वयं के अध्ययनार्थ लिखी गयी प्रतियों में होती हैं और दसरी वे जो श्रावकों द्वारा स्वयं के अध्ययनार्थ या किन्ही मुनिजनों को भेंट देने हेतु दूसरों से (लेहिया से) द्रव्य देकर लिखवायी जाती हैं। गच्छों के इतिहास की सामग्री की दृष्टि से ये प्रशस्तियाँ राजाओं के दानपत्रों और Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल अचलगच्छ का इतिहास मंदिरों के शिलालेखों के समान ही महत्त्वपूर्ण हैं। तथ्य की दृष्टि से से इनमें कोई अन्तर नहीं होता; अन्तर केवल यही है कि एक पाषाण या ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण होता है तो दूसरा ताड़पत्र या कागजों पर। गुजरात के पाटण, खंभात, अहमदाबाद, बड़ोदरा, लिम्बडी, राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, कोटा आदि तथा भंडारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे के ग्रन्थ भंडारों में जैन ग्रन्थों का विशाल संगह विद्यमान है। पीटर्सन, मुनिपुण्यविजय जी, मुनि जिनविजय जी, श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल, पं० लालचन्द भगवानदास गांधी, प्रो० हीरालाल रसिकलाल कापड़िया, पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, श्रीमती विधात्री वोरा, श्री जौहरीमल पारेख आदि के सद्प्रयत्नों से उक्त ग्रन्थ भण्डारों के विस्तृत सूचीपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। इनका विवरण इस प्रकार है1. P. Peterson, Operation in Search of Sanskrit Mss in the Bombay Circle, Vol. I-VI, Bombay 1882-1898 A.D. 2. C.D. Dalal, A Descriptivie Catalogue of Manuscripts in the Jain Bhandaras at Pattan, Vol. I, G.O.S. No. LXXVI, Baroda, 1937. H.R.Kapadia, Descriptive Catalogue of the Government Collections of Manuscripts deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. XVII-XIX, Poona 1935-1977 A.D.. Muni Punya Vijaya, Catalogue of Palm Leaf Mss. in the Shanti Natha Jain Bhandar, Cambay, Vol. I, II, G.O.S., No. 139, 149, Baroda 1961-1966 A.D. A.P. Shah, Catalogue of Sankrit & Prakrit Mss. Muni Shree Punya VijayaJis Collection, Vol. I, II, III,L.D. Series No. 2, 6, 15, Ahmedabad, 1962, 1965, 1968 A.D. A.P. Shah, Catalogue of Sanskirt & Prakirt Mss. Ac. Vijayadevasuris and Ac. Ksantisuris Collection, Part IV., L.D. Series, No. 20, Ahmedabad, 1968 A.D. Muni PunyaVijaya, New Catalogue of Sanskrit & Prakrit Mss : Jesalmer Collection, L.D. Series No. 36, Ahmedabad, 1972 A.D. Vidhatri Vora, Catalogue of Gujarati Mss in the Muniraj Shree PunyaVijayaJis Collection, L.D. Series No. 71, Ahmedabad, 1978 A.D. ९. अमृतलाल मगनलाल शाह, सम्पा०- श्रीप्रशस्तिसंग्रह, श्री जैन साहित्य प्रदर्शन, श्रीदेशविरति धर्माराजक समाज, अहमदाबाद वि०सं० १९९३. १०. मुनि जिनविजय, सम्पा०- जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १८, भारतीय विद्याभवन, मुम्बई १९४३ ई०. 6. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ के इतिहास के स्रोत पट्टावलियाँ इतिहास लेखन में अन्यान्य साधनों की भांति पट्टावलियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्वेताम्बर जैन मुनिजनों ने इनके माध्यम से इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है। शिलालेख, प्रतिमालेख और प्रशस्तियों से केवल हम इतना ही ज्ञात कर पाते हैं कि किस काल में किस मुनि ने क्या कार्य किया। अधिक से अधिक उस समय के शासक एवं मुनि के गुरु-परम्परा का भी परिचय मिल जाता है किन्तु पट्टावली में अपनी परम्परा से सम्बन्धित पट्ट परम्परा का पूर्ण परिचय होता है। इनमें किसी घटना विशेष के सम्बन्ध में अथवा किसी आचार्य विशेष के सम्बन्ध में प्राय: अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण भी मिलते हैं अत: ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से इनकी उपयोगिता पर पूर्णरूपेण विश्वास नहीं किया जा सकता। चूंकि इनके संकलन या रचना में किम्बदन्तियों एवं अनुश्रुतियों के साथ-साथ कदाचित् तत्कालीन रास-गीत- सज्झाय आदि का भी उपयोग किया जाता है इसीलिये इनके विवरणों पर पूर्णतः अविश्वास भी नहीं किया जा सकता है और इनके उपयोग में अत्यधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। ३ पट्टावलियाँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं। प्रथम शास्त्रीय पट्टावली और दूसरी विशिष्ट पट्टावली । प्रथम प्रकार में सुधर्मा स्वामी से लेकर देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक का विवरण मिलता है। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की पट्टावलियाँ इसी कोटि में आती हैं। गच्छभेद के बाद की विविध पट्टावलियाँ विशिष्ट पट्टावली की कोटि में रखी जा सकती हैं। इनकी अपनी-अपनी विशिष्टतायें होती है। पट्टावलियों द्वारा ही आचार्य परम्परा अथवा गच्छ का क्रमबद्ध पूर्ण विवरण प्राप्त होता है, जो इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। श्वेताम्बर परम्परा में विभिन्न गच्छों की जो पट्ट परम्परा मिलती है, उसका श्रेय पट्टावलियों को ही है । अन्यान्य गच्छों की भांति अचलगच्छ के इतिहास के अध्ययन हेतु इस गच्छ के विभिन्न मुनिजनों द्वारा समय-समय पर रचित विभिन्न पट्टावलियाँ मिलती हैं। श्री सोमचन्द धारसी, कच्छ-अंजार वालों ने इस गच्छ की कुछ पट्टावलियों को गुजराती भाषा में अंचलगच्छम्होटी पट्टावली के नाम से वि०सं० १९८५ में प्रकाशित किया है। श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई द्वारा लिखित जैनगूर्जरकविओ और मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह तथा मुनि कल्याणविजय द्वारा सम्पादित पट्टावलीपरागसंग्रह में इस गच्छ की पट्टावलियाँ दी गयी हैं। इसी प्रकार John Clate ने Indian Antiquary, Vol. XXIII, Page 169-183 पर इस गच्छ की एक पट्टावली प्रकाशित की है। प्रस्तुत पुस्तक में इन सभी का यथास्थान उपयोग किया गया है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास अभिलेखीयसाक्ष्य - श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विभिन्न गच्छों से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्य मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं - १. प्रतिमालेख, २. शिलालेख । ४ धातु या पाषाण की अनेक जिनप्रतिमाओं के पृष्ठ भाग या आसानों पर लेख उत्कीर्ण होते हैं। इसी प्रकार विभिन्न तीर्थस्थलों पर निर्मित जिनालयों से अनेक शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं। इन लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक या प्रतिमा की प्रतिष्ठा हेतु प्रेरणा देने वाले मुनि का नाम होता है तो किन्हीं - किन्हीं लेखों में उनके पूर्ववर्ती दो-चार मुनिजनों के भी नाम मिल जाते हैं । किन्ही - किन्ही लेखों में तत्कालीन शासक का भी नाम मिल जाता है। इतिहास लेखन में उक्त साक्ष्यों का बड़ा महत्त्व है । शिलालेखों में सामान्य रूप से जिनालयों के निर्माण, पुननिर्माण, जीर्णोद्धार आदि कराने वाले श्रावक का नाम, उसके कुटुम्ब एवं ज्ञाति आदि का परिचय, प्रेरणा देने वाले मुनिराज का नाम, उनके गच्छ का नाम, उनकी गुरु- परम्परा में हुए पूर्ववर्ती दो-चार मुनिजनों का नाम, शासक का नाम, तिथि आदि का सविस्तार परिचय दिया हुआ होता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध अभिलेखों लेखों के विभिन्न संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनका विवरण इस प्रकार है - जैनलेखसंग्रह, भाग १ - ३; सम्पा०१९२७, १९२९ ई० । प्राचीन जैनलेखसंग्रह, भाग २; सम्पा०सभा, भावनगर १९२१ ई० । मुनि जिनविजय, जैन आत्मानन्द - मुनि विद्याविजय, प्राचीनलेखसंग्रह, संग्रा० - आचार्य विजयधर्मसूरि, सम्पा० - यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर १९२९ ई० । जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १ - २, सम्पा० – आचार्य बुद्धिसागरसूरि, श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, पादरा १९२४ ई० । - अर्बुदप्राचीन जैनलेखसंदोह, ( आबू - भाग २) सम्पा०-- मुनि जयन्तविजय, विजयधर्मसूरि ज्ञान मंदिर, उज्जैन वि०सं० १९९४। अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह (आबू - भाग ५), सम्पा०जयन्तविजय, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर वि०सं० २००५ । मुनि पूरनचन्द नाहर, कलकत्ता १९१८, जैनधातुप्रतिमालेख, सम्पा०सूरत १९५० ई० । प्रतिष्ठालेखसंग्रह, सम्पा०१९५३ ई० । - - मुनि कान्तिसागर; श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार, - महोपाध्याय विनयसागर, सुमति सदन, कोटा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ के इतिहास के स्रोत बीकानेरजैनप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०- श्री अगरचन्द नाहटा एवं श्री भंवरलाल नाहटा, नाहटा ब्रदर्स, ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता १९५५ ई०। श्रीप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०- श्री दौलत सिंह लोढा 'अरविन्द', धामणिया, मेवाड़ १९५५ ई०। राधनपुरप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०– मुनि विशालविजय, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर १९६० ई०। अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, सम्पा०- श्रीपार्श्व, श्री अनन्तनाथ जी महाराजनुं जैन देरासर, ३०६, नरसीनाथा स्ट्रीट, मुम्बई १९६४ ई०। अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, सम्पा०– श्रीपार्श्व, श्री अखिलभारतीय अचलगच्छ (विधि पक्ष) श्वेताम्बर जैन संघ, झवेरी मेन्शन, पहला माला, ११४, केशव जी नायक रोड, मुम्बई १९७१ ई०। शत्रुजयगिरिराजदर्शन, सम्पा०- मुनि कंचनसागर, कपडवज १९८३ई० । शत्रुजयवैभव, सम्पा०– मुनि कांतिसागर, कुशल संस्थान, पुष्प ४, जयपुर १९९० ई०। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय अचलगच्छ का इतिहास श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छों में अचलगच्छ (पूर्व प्रचलित नाम विधिपक्ष और अंचलगच्छ) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बृहद्गच्छीय आचार्य जयचन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि०सं० ११६९/ई०स० १११३ में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसके पालन करने से यह गच्छ अस्तित्त्व में आया। अचलगच्छ नाम पड़ने के सम्बन्ध में प्रचलित कथा के अनुसार गूर्जरेश्वर जयसिंह सिद्धराज ने एक बार पुत्रकामेष्टि यज्ञ प्रारम्भ किया था। वहां सर्पदंश के कारण यज्ञमण्डप में ही गाय की मृत्यु हो गयी। यज्ञ की सफलता के लिये गाय का यज्ञस्थल से जीवित ही बाहर आना अनिवार्य था। इस समस्या के समाधान के लिये राजा ने आर्यरक्षितसूरि से निवेदन किया और आचार्य द्वारा परकायप्रवेशिनीविद्या के प्रयोग से गाय के सजीवन हो कर यज्ञस्थल से बाहर आने पर यज्ञ सफल हो गया। इस प्रकार आचार्य आर्यरक्षितसूरि के स्ववचन पर अचल रहने के कारण सिद्धराज ने उन्हें 'अचल' विरुद प्रदान किया। यह दन्तकथात्मक घटना वि०सं० ११८५-९५ के मध्य घटित हुई बतलायी जाती है। इस प्रकार विधिपक्ष का एक नाम अचलगच्छ प्रचलित हो गया। __ अंचलगच्छ नाम पड़ने के सम्बन्ध में जो कथा मिलती है उसके अनुसार चौलुक्यनरेश कुमारपाल ने आर्यरक्षितसूरि का यश सुनकर उन्हें अपनी सभा में आमन्त्रित किया। वहां उपस्थित कुडी व्यवहारी नामक श्रावक ने अपने उत्तरीय के एक छोर से भूमि का प्रमार्जन कर आर्यरक्षितसूरि को वन्दन किया और कुमारपाल की जिज्ञासा पर हेमचन्द्राचार्य ने वन्दन की उक्त विधि को शास्त्रोक्त बतलाया जिससे कुमारपाल ने विधिपक्ष को अंचलगच्छ नाम प्रदान किया। यह घटना वि०सं० १२१३/ई०स० ११५७ में हुई, ऐसा उल्लेख मिलता है। २अ दोनों घटनाओं में द्वितीय घटना, जो कुमारपाल से सम्बन्धित है, वह सत्य के निकट प्रतीत होती है, क्योंकि प्राचीन प्रशस्तियों, शिलालेखों-प्रतिमालेखों आदि से भी अंचलगच्छ नाम की ही पुष्टि होती है, अचलगच्छ की नहीं। इस प्रकार अचलगच्छ नाम बाद में पड़ा प्रतीत होता है। वर्तमान में इस गच्छ अनुयायी श्रमण और श्रावक अलबत्ता अचलगच्छ शब्द का प्रयोग करने लगे हैं, अंचलगच्छ शब्द का नहीं। - इस गच्छ में जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसिंहसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, धर्ममूर्तिसूरि, कल्याणसागरसूरि आदि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास प्रभावक और विद्वान् जैनाचार्य और मुनिजन हो चुके हैं। जैन परम्परा में समय-समय पर अस्तित्त्व में आये अनेक गच्छ जहां विलुप्त हो गये, वहीं अंचलगच्छ आज भी न केवल विद्यमान है, बल्कि उत्तरोत्तर उसके प्रभाव में वृद्धि ही होती जा रही है, जिसका श्रेय इस गच्छ के क्रियासम्पन्न मुनिजनों को है। इसी गौरवशाली अचलगच्छ का सम्यक्, प्रामाणिक और सुव्यवस्थित विवरण प्रस्तुत पुस्तक में सन्निहित है । अंचलगच्छ इस तरह एक जीवन्तगच्छ है और इससे सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में ग्रन्थ और पुस्तक प्रशस्तियां एवं पट्टावलियां-गुर्वावलियां आदि प्राप्त होती हैं। ठीक इसी प्रकार इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित अनेक प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेख प्राप्त होते हैं जो वि०सं० १२६३ से लेकर प्रायः वर्तमान काल तक के हैं। साम्प्रत लेख में हम सर्वप्रथम पट्टावलियों तत्पश्चात् ग्रन्थप्रशस्तियों एवं पुस्तकप्रशस्तियों और अन्त में अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत करेंगे। अंचलगच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में पट्टावलियां मिलती हैं जो वि०सं० की १५वीं शती से लेकर प्रायः वर्तमान काल तक की हैं। इनमें अपने-अपने समय तक की आचार्य परम्परा का इनके रचनाकारों ने उल्लेख किया है। चूंकि इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों के क्रम में कभी कोई विवाद नहीं रहा है अतः इन सभी पट्टावलियों में अपने-अपने समय तक का समान विवरण मिलता है। अंचलगच्छ से सम्बद्ध पट्टावलियों में कुछ तो प्रकाशित हैं और कुछ अप्रकाशित। इस गच्छ के विद्वान् श्रावक सोमचन्द्र धारसी, कच्छ-अंजार वालों ने वि०सं० १९८५ में अंचलगच्छम्होटीपट्टावली प्रकाशित की है जिसमें कुछ पट्टावलियों का गुजराती भाषान्तर दिया गया है, जो इस प्रकार हैं १- मेरुतुंगसूरि द्वारा रचित पट्टावली (संस्कृत) वि०सं० १४३८ २- धर्ममूर्तिसूरि द्वारा रचित पट्टावली (संस्कृत) वि०सं० १६१७ ३- अमरसागरसूरि द्वारा रचित पट्टावली (संस्कृत) वि०सं० १७४३ ४- ज्ञानसागर द्वारा रचित पट्टावली (संस्कृत) वि०सं० १८२४ ५- धर्मसागर द्वारा रचित पट्टावली (गुजराती) वि०सं० १९८४ इसी प्रकार विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह में मुनि जिनविजय ने अंचलगच्छीय आचार्य भावसागरसूरि द्वारा संस्कृत भाषा में रचित पट्टावली वीरवंशपट्टानुक्रमगुर्वावली प्रकाशित की है। ३ इस पट्टावली में रचनाकार ने सुधर्मास्वामी से लेकर अपने गुरु सिद्धान्तसागरसूरि तक का २३१ श्लोकों में विवरण प्रस्तुत किया है, जो इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयुक्त है। श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने स्वलिखित जैनगूर्जरकविओ, भाग २, खण्ड Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास १ के अन्त में गुजराती भाषा में अंचलगच्छ की भी एक पट्टावली प्रकाशित की है। ३अ इसी प्रकार The Indian Antiquary, Vol. xxiii में भी अंचलगच्छ की एक पट्टावली प्रकाशित है। ३ब अंचलगच्छ की अप्रकाशित पट्टावलियों में मेरुतुंगसरि के शिष्य कवि कान्ह (वि०सं० १४वीं शती का अंतिम चरण) द्वारा १४० कण्डिकाओं में रचित अंचलगच्छ नायकगुरुरास; कवि लाखाकृत गुरुपट्टावली (वि० सं० १६वीं शती के मध्य के आस-पास); अंचलगच्छीय लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य लावण्यचन्द्र द्वारा रचित वीरवंशानुक्रम (वि०सं० १७६३/ई०स० १७०७) आदि उल्लेखनीय हैं। चूंकि इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों के क्रम में कभी कोई विवाद नहीं है अत: इन सभी में अपने-अपने समय तक का समान विवरण मिलता है, जो इस प्रकार है आर्यरक्षितसूरि (वि०सं० १२३६ में स्वर्गस्थ) जयसिंहसूरि (वि०सं० १२५८ में स्वर्गस्थ) धर्मघोषसूरि (वि०सं० १२६८ में स्वर्गस्थ) महेन्द्रसिंहसूरि (वि०सं० १३०९ में स्वर्गस्थ) सिंहप्रभसूरि (वि०सं० १३१३ में स्वर्गस्थ) अजितसिंहसूरि (वि०सं० १३३९ में स्वर्गस्थ) देवेन्द्रसिंहसूरि (वि०सं० १३७१ में स्वर्गस्थ) धर्मप्रभसूरि (वि०सं० १३९३ में स्वर्गस्थ) सिंहतिलकसूरि (वि०सं० १३९५ में स्वर्गस्थ) महेन्द्रप्रभसूरि (वि०सं० १४४४ में स्वर्गस्थ) मेरुतुंगसूरि (वि०सं० १४७१ में स्वर्गस्थ) जयकीर्तिसूरि (वि०सं० १५०० में स्वर्गस्थ) जयकेशरीसूरि (वि०सं० १५४१ में स्वर्गस्थ) सिद्धान्तसागरसूरि (वि० सं० १५६० में स्वर्गस्थ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास भावसागरसूरि (वि०सं० १५८३ में स्वर्गस्थ) गुणनिधानसूरि (वि० सं० १६०२ में स्वर्गस्थ) धर्ममूर्तिसूरि (वि०सं० १६७० में स्वर्गस्थ) कल्याणसागरसूरि (वि०सं० १७१८ में स्वर्गस्थ) अमरसागरसूरि (वि०सं० १७६२ में स्वर्गस्थ) विद्यासागरसूरि (वि०सं० १७९७ में स्वर्गस्थ) उदयसागरसूरि (वि०सं० १८२६ में स्वर्गस्थ) कीर्तिसागरसूरि (वि०सं० १८४३ में स्वर्गस्थ) पुण्यसागरसूरि (वि०सं० १८७० में स्वर्गस्थ) राजेन्द्रसागरसूरि (वि०सं० १८९२ में स्वर्गस्थ) मुक्तिसागरसूरि (वि०सं० १९१४ में स्वर्गस्थ) रत्नसागरसूरि (वि०सं० १९२८ में स्वर्गस्थ) विवेकसागरसूरि (वि०सं० १९४८ में स्वर्गस्थ) जिनेन्द्रसागरसूरि (वि०सं० २००४ में स्वर्गस्थ) गौतमसागरसूरि (वि०सं० २००९ में स्वर्गस्थ) गुणसागरसूरि (वि०सं० २०४४ में स्वर्गस्थ) गुणोदयसागरसूरि (वर्तमान गच्छाधिपति) अंचलगच्छ के आदिम आचार्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा रचित कोई भी कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। यही बात इनके शिष्य एवं पट्टधर यशश्चन्द्रगणि अपरनाम जयसिंहसूरि के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, किन्तु इस गच्छ के तृतीय पट्टधर आचार्य धर्मघोषसूरि द्वारा रचित ऋषिमण्डल Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अचलगच्छ का इतिहास एवं शतपदी५ अपरनाम प्रश्नोत्तरपद्धति नामक कृति का उल्लेख मिलता है। शतपदी पर उनके विद्वान् शिष्य एवं प्रसिद्ध रचनाकार महेन्द्रसिंहसूरि ने शतपदीसमुद्धार नाम से संस्कृत भाषा में वृत्ति की रचना की, जिसकी प्रशस्ति में उन्होंने अंचलगच्छ की उत्पत्ति तथा अपने पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : ___ "बृहद्गच्छ में सर्वदेवसूरि नामक एक आचार्य हुए जिनकी परम्परा में आगे चलकर यशोदेवसूरि हुए जिनके शिष्य जयचन्दसूरि ने चन्द्रावती नगरी में अपने नौ शिष्यों - शान्तिसूरि, देवसूरि, चन्द्रप्रभसूरि, शीलगुणसूरि, पद्मदेवसूरि, भद्रेश्वरसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, बुद्धिसागरसूरि और मलयचन्द्रसूरि को एक साथ आचार्य पद प्रदान किया। जयचन्द्रसूरि के एक शिष्य उपाध्याय विजयचन्द्र हुए, जो पहले अपने मामा शीलगुणसूरि के साथ पूर्णिमागच्छ में सम्मिलित हुए पर बाद में उनसे अलग होकर वि०सं० ११६९ में इन्होंने विधिपक्ष की स्थापना की। इनके शिष्य यशश्चन्द्रगणि हुए, जिन्हें वि०सं० १२०२/ई०स० ११४६ में आचार्य पद प्रदान किया गया और वे जयसिंहसरि के नाम से विख्यात हुए। इनके शिष्य एवं पट्टधर धर्मघोषसूरि हुए जिन्होंने वि०सं० १२६३/ई०स० १२०७ में शतपदी अपरनाम प्रश्नोत्तरपद्धति नामक कृति की रचना की। उक्त कृति पर वि०सं० १२९४/ई०स० १२३८ में संस्कृत भाषा में शतपदीसमुद्धार नामक कृति के रचनाकार महेन्द्रसिंहसूरि इन्हीं धर्मघोषसूरि के शिष्य थे।" सर्वदेवसूरि यशोदेवसूरि जयचन्द्रसूरि शान्तिसूरि देवसूरि चन्द्रप्रभसूरि शीलगुणसूरि पद्मदेवसूरि भद्रेश्वरसूरि उपाध्याय विजयचन्द्र __ आदि ९ अपरनाम शिष्य आर्यरक्षितसूरि (वि.सं. १२०२ में आचार्यपद प्राप्त) यशश्चन्द्रगणि अपरनाम जयसिंहसूरि (वि०सं० १२६३/ई० सन् १२१७ में शतपदी अपरनाम प्रश्नोत्तरपद्धति धर्मघोषसूरि के रचनाकार) (वि०सं० १२९४/ई०स० १२३८ महेन्द्रसिंहसूरि में शतपदीसमुद्धार के रचनाकार) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ११ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है आर्यरक्षितसूरि और जयसिंहसूरि द्वारा रचित कोई कृति प्राप्त नहीं होती। जयसिंहसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि द्वारा प्राकृत भाषा में रचित शतपदी (वर्तमान में अनुपलब्ध) का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। ऋषिमण्डलप्रकरण भी इन्हीं की कृति है, जो उपलब्ध है। इनके पट्टधर महेन्द्रसिंहसूरि द्वारा रचित शतपदीसमुद्धार के अतिरिक्त अष्टोत्तरीतीर्थमाला, विचारसप्ततिका, मन:स्थिरीकरणप्रकरण, सारसंग्रह आदि कई कृतियां प्राप्त होती हैं।८ महेन्द्रसिंहसूरि के शिष्य भुवनतुंगसूरि द्वारा रचित ऋषिमण्डलस्तोत्रवृत्ति, चतुःशरणवृत्ति, आतुरप्रत्याख्यानवृत्ति, सीताचरित्र, मल्लिनाथचरित्र, आत्मबोधकुलक, ऋषभदेवचरित, संस्तारकप्रकीर्णक-अवचूरि आदि कई रचनायें मिलती हैं।९ महेन्द्रसिंहसूरि के दूसरे शिष्य और भुवनतुंगसूरि के गुरुभ्राता कविधर्म भी अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उनके द्वारा रचित जम्बूस्वामीचरित (रचनाकाल वि० सं० १३६६/ई०स० १३१०), स्थूलिभद्ररास, सुभद्रासतीचतुष्पदिका आदि कई कृतियां प्राप्त होती हैं।१° पट्टावलियों के अनुसार महेन्द्रसिंहसूरि के पट्टधर सिंहप्रभसूरि हुए जिनके द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। सिंहप्रभसूरि के पट्टधर अजितसिंहसूरि और अजितसिंहसूरि के पट्टधर देवेन्द्रसूरि के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। अजितसिंहसरि के एक अन्य शिष्य माणिक्यसिंहसरि हए जिनके द्वारा वि० सं० १३३८ में संस्कृत भाषा में ५०७ श्लोकों में रचित शकुनसारोद्धार नामक कृति प्राप्त होती हैं।११ देवेन्द्रसरि के पट्टधर धर्मप्रभसरि हए जिनके द्वारा वि०सं० १३८७/ई०स० १३३१ में रचित कालकाचार्यकथा नामक कृति प्राप्त होती है। १२ धर्मप्रभसूरि के एक शिष्य रत्नप्रभ हुए जिन्होंने वि०सं० १३९२/ई०स० १३३६ में अन्तरंगसन्धि की अपभ्रंश भाषा में रचना की।१३ वि०सं० १३९३ में धर्मप्रभसूरि का निधन हआ। इनके पट्टधर सिंहतिलकसूरि हुए जिनके द्वारा रचित कोई भी कृति नहीं मिलती; किन्तु इनके पट्टधर महेन्द्रप्रभसूरि द्वारा रचित जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तोत्र नामक एकमात्र कृति आज प्राप्त होती है,१४ जो लिंबडी के जैन भण्डार में संरक्षित है। १५ इस कृति पर उपाध्याय धर्मनन्दनगणि१६ एवं मंत्री वाडवकृत अवचूरि प्राप्त होती है। १७ वि०सं० १४४४/ई०स० १३८८ में पाटण में इनका देहान्त हुआ। ____ महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य परिवार में अनेक विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं जिनमें धर्मतिलक, सोमतिलक, मुनिशेखर, मुनिचन्द्र, अभयतिलक, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, अभयदेव, रत्नरंग आदि उल्लेखनीय हैं। इन शिष्यों में मुनिशेखर, जयशेखर और मेरुतुंग विशेष प्रसिद्ध हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास राधनपुर स्थित शान्तिनाथ जिनालय में रखी सम्भवनाथ की एक प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि मुनिशेखर के उपदेश से वि०सं० १४६८ में इसकी प्रतिष्ठा हुई थी। श्री पार्श्व ने इस लेख की वाचना १८ दी है, जो इस प्रकार है : १२ सं० १४६८ वर्षे का० २ सोमे श्रीश्रीमालज्ञातीय श्रे० कडूया भार्या ऊताया: सुता: श्री थाणारसी श्री ... .... भ्यां श्रीसंभवनाथबिंबं श्रीमुनिशेखरसूरीणामुपदेशेन पित्रुः भातृ वीरपाल श्रेयोर्थं कारापितं । वजाणाग्राम वास्तव्यः ।। इसी प्रकार वि० सं० १५१७ के एक प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठा हेतु प्रेरक के रूप में जयशेखरसूरि का नाम मिलता है। आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण उक्त लेख का मूलपाठ दिया है, जो निम्नानुसार है : सं० १५१७ वर्षे फा० श्रीवीरवंशे श्रे० चांपा भार्या जासु पुत्रमालाकेन भ्रा० पद्मिजीभाई सहितेन अंचलगच्छे जयशेखरसूरीणामुपदेशेन स्वश्रेयसे श्रीसुमतिनाथबिंबं कारापितं । । जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, लेखांक ६८८. जयशेखरसूरि द्वारा रचित कृतियों में जैनकुमारसम्भव १९ और त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध २० विशेष उल्लेखनीय हैं। जैनकुमारसम्भव पर इनके शिष्य धर्मशेखरगणि ने वि०सं० १४८३ / ई०स० १४२७ में टीका की रचना की । २१ आचार्य कलाप्रभसागरसूरि ने जयशेखरसूरि द्वारा रचित ५२ कृतियों का सविस्तार उल्लेख किया है । २२ जयशेखरसूरि द्वारा रचित विभिन्न स्तुतियां भी मिलती हैं । २३ जयशेखरसूरि के एक शिष्य मेरुचन्द्रगणि हुए जिनके उपदेश से विराटनगर के मन्त्री वाडव ने रघुवंश, कुमारसम्भव आदि महाकाव्यों तथा योगप्रकाश, वीतरागस्तोत्र, विदग्धमुखमण्डन आदि पर अवचूरि की रचना की । २४ जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तोत्र भी इन्हीं की कृति है । २५ इसी मन्त्री ने वि०सं० १५०९ वैशाख सुदि १३ को एक जिनबिम्ब की भी प्रतिष्ठा की । २६ महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य एवं पट्टधर मेरुतुंगसूरि अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों में से एक थे। इनके द्वारा रचित अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियां प्राप्त होती हैं जिनमें षट्दर्शनसमुच्चय, लघुशतपदी, जैनमेघदूतम, नेमिदूतमहाकाव्य, कातंत्रव्याकरणबालावबोधवृत्ति आदि उल्लेखनीय हैं । २७ इनके उपदेश से कई नूतन जिनालयों का निर्माण हुआ और बड़ी संख्या में जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई। ये प्रतिमायें वि०सं० १४४५ से वि० सं० १४७० तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है लेखांक ४० वि.सं. १४४५ कार्तिक वदि ११ रविवार .. प्र.ले.सं. भाग २ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. १४४६ वि.सं. १४४७ वि.सं. १४४७ वि.सं. १४४९ वि.सं. १४४९ वि.सं. १४५२ वि.सं. १४५३ वि.सं. १४.५४ वि.सं. १४.५४ वि.सं. १४५४ वि.सं. १४५४ अचलगच्छ का इतिहास एवं अं.ले.सं. ज्येष्ठ वदि ३ सोमवार फाल्गुन सुदि ९ सोमवार फाल्गुन सुदि ९ सोमवार आषाढ सुदि २ गुरुवार " प्र.ले.सं. एवं अं.ले.सं. वैशाख ६ शुक्रवार वैशाख सुदि ५ वैशाख सुदि ३ अं.ले.सं. ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार अं.ले.सं. माघ वदि ९ शनिवार अं.ले.सं. और बी. जै.ले.सं. अं.ले.सं. एवं जै. ले० सं०, भाग १ लेखांक ६२८ अं.ले.सं. लेखांक ५१२ अं.ले.सं. लेखांक ११ एवं जै. ले.सं. भाग १, लेखांक ९३ और जै० धा० प्र०ले. अ.ले.सं. एवं श्री प्र.ले.सं. जै. ले०सं० भाग ३, अं.ले.सं. अं.ले.सं. और बी. जै. ले.सं. रा. प्र.ले.सं. लेखांक ७ लेखांक १७१ लेखांक ८, ४०१, ५११ लेखांक १३ लेखांक ५२ लेखांक १० लेखांक ३४७ लेखांक २४१८ लेखांक १२ लेखांक ५१४ लेखांक ५१७ लेखांक ५१६ लेखांक ५६८ लेखांक ५१५ लेखांक ५६७ लेखांक ८६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास लेखांक ५८१ लेखांक १५ लेखांक ५७६ वि.सं. १४५६ ज्येष्ठ वदि १३ जै.धा.प्र.ले.सं. शनिवार भाग १ और अं.ले.सं. वि.सं. १४५७ वैशाख सुदि ३ बी.जै.ले.सं. शनिवार और अं.ले.सं. वि.सं. ११६६ वैशाख सुदि ३ अं.ले.सं. सोमवार और रा.प्र.ले.सं. वि.सं. १५६६ माघ सुदि १३ रविवार जै.धा.प्र.ले.सं. भाग १ एवं अं.ले.सं. वि.सं. १४६७ माघ सुदि ५ शुक्रवार अंले.सं. लेखांक ५१९ लेखांक ४६१, ४६२ लेखांक ९२ लेखांक ८२३ लेखांक १६ लेखांक ४०३ एवं वि.सं. १४६८ वि.सं. १४६८ वि.सं. १४६९ अ.प्र.जै.ले.सं. लेखांक ६१० कार्तिक वदि २ अंले.सं. लेखांक १८ सोमवार माघ सुदि १० बुधवार बी.जै.ले.सं. लेखांक १५९६ एवं अं.ले.सं. लेखांक ५२० माघ वदि ५ रा.ले.सं. लेखांक ९४ एवं अं.ले.सं. लेखांक ४६४ माघ सुदि ६ रविवार जै.ले.सं. भाग १, लेखांक २ एवं अं.ले.सं. लेखांक २१ और बी.जै. ले.सं. लेखांक ६४६ फाल्गुन वदि २ जै. ले. सं. भाग २ लेखांक १३५९ शनिवार एवं अंले.सं. लेखांक २० वि.सं. १४६९ वि.सं. १४६९ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास १५ १५ वि.सं. १४७० चैत्र सुदि ८ गुरुवार जै.धा.प्र.ले.सं. लेखांक ८५२ भाग १ एवं अंले.सं लेखांक २२ मेरुतुंगसूरि के १८ शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनमें जयकीर्तिसूरि, माणिक्यशेखरसूरि, माणिक्यसुन्दरसूरि, रत्नशेखर, महीतिलक, गुणसमुद्र, भुवनतुंगसूरि 'द्वितीय' (अंचलगच्छ की तुंगशाखा के प्रवर्तक), जयतिलक, उपाध्याय धर्मशेखर, उपाध्याय धर्मनन्दन, ईश्वरगणि आदि उल्लेखनीय हैं। २८ । मेरुतुंगसूरि के वि०सं० १४७१ में निधन होने के पश्चात् उनके शिष्य जयकीर्तिसूरि पट्टधर बने। इनके द्वारा रचित उत्तराध्ययनदीपिकावृत्ति, वैराग्यगीत, क्षेत्रसमासटीका, संग्रहणीटीका, पार्श्वदेवस्तोत्र आदि कृतियों का उल्लेख मिलता है जिसमें से क्षेत्रसमासटीका और संग्रहणीटीका को छोड़कर अन्य सभी कृतियां आज उपलब्ध हैं। २९ आचार्य जयकीर्तिसूरि की प्रेरणा से वि०सं० १४७१ से १५०१ के मध्य प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जिनकी संख्या ५० से ऊपर है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है - वि.सं. १४७१ माघ सुदि १० जै.धा.प्र.ले.सं. लेखांक ५५६ शनिवार भाग २ एवं अं.ले.सं. लेखांक २६ वि.सं. १४७३ वैशाख वदि ७ जै.धा.प्र.ले.सं. लेखांक ५७६ शनिवार भाग २ एवं अं.ले.सं. लेखांक २८ वि.सं. १४७६ वैशाख वदि १२ बी. जै.ले.सं. लेखांक ६७९ शनिवार वि.सं. १४७६ मार्गशीर्ष सुदि १० । जै.ले.सं. भाग ३ लेखांक २२१६ रविवार अंले.सं. लेखांक २९ वि.सं. १४८० फाल्गुन सुदि १० श.गि.द. लेखांक ३३५ बुधवार वि.सं. १४८१ वैशाख सुदि ८ जै.ले.सं. भाग १ लेखांक ४११ एवं शुक्रवार एवं अं.ले.सं. लेखांक ३२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वि.सं. १४८१ वि० सं० १४८१ वि.सं. १४८२ वि.सं. १४८२ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि०सं० १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ माघ सुदि ५ सोमवार फाल्गुन वदि ६ गुरुवार फाल्गुन... रविवार वैशाख वदि ५ गुरुवार " वैशाख वदि १३ गुरुवार "" अचलगच्छ का इतिहास " "" " " तिथिविहीन वैशाख वदि १३ गुरुवार " जै. धा. प्र.ले.सं. भाग १ एवं अं.ले.सं. जै०धा. प्र.ले.सं. भाग १ एवं अं.ले.सं. अ.प्र.जै.ले.सं. एवं अं.ले.सं. लेखांक ३३ जै. ले.सं. भाग २ लेखांक १०७१ एवं अं.ले.सं. अ.प्र. जै.ले.सं. एवं अं.ले.सं. अ.प्र. जै० ले.सं. लेखांक ३५ जै०. ले० सं० भाग ३ लेखांक २२९६ एवं अं.ले.सं. श्री. प्र.ले.सं. >> 73 >> "" "" श्री. प्र.ले.सं. लेखांक १५०९ लेखांक ३० लेखांक १३६ >> लेखांक ३१ लेखांक १२९ लेखांक ३४ लेखांक ३०० लेखांक १५३ लेखांक ४४ लेखांक १४७ लेखांक १४८ लेखांक १४९ लेखांक १४५ लेखांक १४६ लेखांक १५० लेखांक २९४ लेखांक २९५अ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास १७ वि.सं. १४८३ वि.. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८३ तिथिविहीन वि.सं. १४८३ वैशाख वदि १३ लेखांक २९५ब लेखांक २९६ लेखांक २९७ लेखांक २९८ लेखांक २९९ लेखांक ३०१ गुरुवार लेखांक १५२ लेखांक १४४ वि.सं. १४८३ वि.सं. १४८४ अ.प्र.जै.ले.सं. अ.प्र.जै.ले.सं. जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २ प्रा.ले.सं. रा.प्र.ले.सं. वैशाख सुदि २ शनिवार वैशाख सुदि ३ वैशाख सुदि २ सोमवार वि.सं. १४८४ वि.सं. १४८६ लेखांक ५०२ लेखांक १२९ लेखांक ११६ एवं वि.सं. १४८६ ॥ वि.सं. १४८७ पौष सुदि २ रविवार अं.ले.सं. श.गि.द. श्री.प्र.ले.सं. लेखांक ४६६ लेखांक ४२३ लेखांक २७७ एवं लेखांक ४७ लेखांक १८० वि.सं. १४८७ माघ सुदि ५ गुरुवार लेखांक ४९ लेखांक ७३ वि.सं. १४८७ अं.ले.सं. जै.धा.प्र.ले.सं. भाग १ एवं अं.ले.सं. जै.धा.प्र.ले.सं. भाग २ एवं अं.ले.सं. श्री.प्र.ले.सं. एवं अं.ले.सं. , लेखांक ४८ लेखांक २३७ वि.सं. १४८८ कार्तिक सुदि ३ बुधवार लेखांक ५० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अचलगच्छ का इतिहास वि.सं. १४८८ तिथिविहीन जै.धा.प्र.ले.सं. भाग १ बी.जै.ले.सं. लेखांक ४७२ लेखांक ७४२ वि.सं. १४८९ पौष सुदि १२ शनिवार वि.सं. १४८९ माघ सुदि ५ सोमवार वि०सं. १४९० वैशाख सुदि ३ सोमवार रा.प्र.ले.सं. लेखांक ११७ एवं अं०ले.सं. लेखांक ४६७ जै.धा.प्र.ले.सं. लेखांक ८८६ भाग २ एवं अं.ले.सं. लेखांक ५२ जै.ले.सं. भाग २ लेखांक १२४२ वि.सं. १४९० तिथिविहीन एवं अंले.सं. अं.ले.सं. लेखांक ५१ लेखांक ४०८ वि.सं. १४९१ ज्येष्ठ वदि ५ शुक्रवार वि.सं. १४९१ वि.सं. १४९१ माघ सुदि ५ बुधवार प्र.ले.सं. जै.धा.प्र.ले.सं. भाग २ एवं अंले.सं. लेखांक २८७ लेखांक ९४३ श.वै. वि.सं. १४९१ माघ सुदि ६ वि.सं. १४९३ माघ सुदि ५ शुक्रवार लेखांक ५३ लेखांक ७२ लेखांक २९६ प्र.ले.सं. अंले.सं. अंले.सं. लेखांक ४०९ लेखांक ५४ वि.सं. १४९३ फाल्गुन वदि ११ गुरुवार वि.सं. १४९३ तिथि नष्ट वि.सं. १४९४ माघ सुदि ११ श.वै. लेखांक ७५ जै.ले.सं. भाग २ लेखांक २०५१ एवं अं.ले.सं. लेखांक ५५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. १४९५ वि.सं. १४९८ वि.सं. १४९८ वि॰सं॰ १४९९ वि.सं. १४९९ वि.सं. १५०१ वि.सं. १५०१ वि.सं. १५०१ अचलगच्छ का इतिहास ज्येष्ठ सुदि १४ पौष सुदि १२ शनिवार फाल्गुन सुदि ७ शनिवार वैशाख वदि ५ गुरुवार कार्तिक सुदि १२ सोमवार वि०सं० १५०१ फाल्गुन सुदि १२ शुक्रवार... ? वैशाख वदि ९ शनिवार फाल्गुन सुदि १२ गुरुवार फाल्गुन सुदि १२ गुरुवार बी.जे.ले.सं. "" - अं.ले.सं. जै. धा. प्र.ले.सं. भाग १ एवं अं.ले.सं. जै. धा. प्र.ले.सं. भाग २ एवं अं.ले.सं. श्री. प्र.ले.सं. एवं अं.ले.सं. अं.ले.सं. बी. जै. ले.सं. प्रा.ले.सं. लेखांक १९५९ लेखांक ८०२ लेखांक ५६ लेखांक ६९ लेखांक ५८ लेखांक ७१ लेखांक ५७ लेखांक १६ १९ लेखांक ५९ लेखांक ६० लेखांक ८५५ जैसा कि पीछे हम देख चुके हैं, पट्टावलियों के अनुसार वि०सं० १५०० में आचार्य जयकीर्तिसूरि का देहान्त हुआ, जबकि अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार वि०सं० १५०१ फाल्गुन सुदि १२ को उनके उपदेश से जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई है । इस आधार पर पट्टावलियों के उक्त विवरण को स्वीकार करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। लेखांक १८२ आचार्य जयकीर्तिसूरि के विभिन्न शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनके बारे में संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : १. महीतिलकसूरि वि०सं० १४७१ के तीन प्रतिमालेखों में इनका नाम मिलता है । इन लेखों की वाचना निम्नानुसार है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अचलगच्छ का इतिहास सम्वत् १४७१ वर्षे आषाढ़ सुदि २ शनौ श्रीमाली श्रे० सूरा चांपाभ्यां भगिनी काउं भगिनीपुत्री वइराकयोः श्रेयोर्थं तयोरेव द्रव्येन।। श्री अंचलगच्छे ।। श्रीमहीतिलकसूरीणामुपदेशेन श्रीधर्मनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं च। धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, मुनिसुव्रत जिनालय, सैलाना - अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ४०५।। सं० १४७१ वर्षे माघ सुदि १० शनौ प्राग्वाटवंशे विसा २० व्य० दोणशाखा उ० सोला पु०ठ० षीमा पु०ठ० उदयसिंह पु०ठ० लडा भा० हकू पु०सा० झांबटेन श्रीअंचलगच्छे श्रीमहीतिलकसूरीणामुपदेशेन पित्रोः श्रेयसे श्रीमुनिसुव्रतस्वामिमुख्यश्चतुविंशतिपट्टः कारित: प्रतिष्ठितश्च। मुनिसुव्रत की धातु की चौबीसी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, मनमोहन पार्श्वनाथ जिनालय, बड़ोदरा -अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक २५. सं० १४७१ वर्षे माघ सुदि १० शनौ श्रीमाली सा० आसघर (आसधर) भा० तिलू पुत्रेण सा० हांसाकेन पितुः श्रेयसे श्रीअंचलगच्छे श्रीमहीतिलकसूरीणामुपदेशेन श्रीअजितनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं च।। अजितनाथ की धातुप्रतिमा का लेख, चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, खम्भात - अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक २६. २. मेरुनन्दनसूरि : इन्होंने बीसविहरमानस्तवन की रचना की।३० ३. पं० महीनन्दनगणि : वि०सं० १४६३/ई०स० १४०७ में इनके पठनार्थ कालकाचार्यकथा३१ की प्रतिलिपि की गयी। लावण्यकीर्ति : इनसे अंचलगच्छ की कीर्तिशाखा अस्तित्त्व में आयी।३२ पं० क्षमारत्न रत्नसिंहसूरि : पायधुनी- मुम्बई स्थित गौडीजी जिनालय में रखी शीतलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण वि०सं० १४९६ के लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है।३३ यह प्रतिमा आचार्य जयकीर्तिसूरि के उपदेश से प्रतिष्ठापित की गयी थी। श्रीपार्श्व ने इस लेख की वाचना दी है, जो इस प्रकार है : सम्वत् १४९६ वर्षे फागुण सुदि २ शुक्रे श्रीश्रीमाल ज्ञातीय मं० कडूया भार्या गउरी पुत्र श्रे० पर्वतेन भा० अमरी युतेन श्रीअंचलगच्छेश श्रीश्री जयकीर्तिसूरीणामुपदेशेन स्वमातु श्रेयसे श्री शीतलनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीरत्नसिंहसूरिभिः।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास २१ ७. शीलरत्न : इन्होंने वि०सं० १४९१/ई०स० १४३५ में अणहिलपुरपत्तन में जैनमेघदूतकाव्य पर संस्कृत भाषा में टीका की रचना की।३४ इनके द्वारा रचित कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं।३५ स्तुतिचौरासी भी इन्हीं की कृति मानी जाती है।३६ जयकेशरीसूरि : पट्टधर ९. महीमेरुगणिः इनके द्वारा रचित क्रियागुप्ताअपरनाम जिनस्तुति-पंचाशिका,३७ कल्पसूत्रअवचूरि, ३८ मेघदूतटीका३८अ आदि कृतियाँ प्राप्त होती हैं। जयकीर्तिसूरि के समकालीन अंचलगच्छीय अन्य मुनिजन आचार्य कलाप्रभसागरसूरि ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर जयकीर्तिसूरि के समकालीन जिन मुनिजनों का उल्लेख है३९ उनके नाम इस प्रकार हैं - १. धर्मशेखरसूरि, २. महीतिलकसूरि, ३. माणिक्यशेखरसूरि, ४. माणिक्यसुन्दरसूरि, ५. माणिक्यकुंजरसूरि, ६. महीनन्दनगणि, ७. मानतुंगसूरि, ८. मेरुनन्दनसूरि, ९. भुवनतुंगसूरि, १०. उपाध्याय धर्मनन्दनगणि। आचार्य जयकीर्तिसूरि के पट्टधर जयकेशरीसूरि हुए। अंचलगच्छीय पट्टावलियों के अनुसार वि०सं० १४६१ (१४७१....?) में इनका जन्म हुआ, वि०सं० १४७५ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० १५०१ में गच्छनायक बने। जयकेशरीसूरि अपने समय के प्रभावक जैनाचार्यों में से एक थे। इनके द्वारा रचित आदिनाथस्तोत्र नामक कृति प्राप्त होती है।४० इनके उपदेश से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं जो वि०सं० १४९६ से लेकर वि०सं० १५३९ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयकेशरीसूरि के उपदेश से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १४९६ | फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार | शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, जैल्धा०प्र०ले., लेखांक ८६. पर उत्कीर्ण लेख पायधुनी, मुम्बई १५०१ | ज्येष्ठ सुदि १० रविवार | धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण चन्द्रप्रभ जिनालय, जै ले.सं., लेखांक २३१७. लेख जैसलमेर एवं अंले.सं., लेखांक ६२. १५०२ कार्तिक वदि २ शनिवार सुमतिनाथ की धातु की पंच- शीतलनाथ जिनालय, जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक तीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | जैसलमेर २१५८ एवं अंले.सं., लेखांक ६३. १५०२ कार्तिक वदि २ शनिवार सुमतिनाथ की धातु की पंच- | आदिनाथ जिनालय, | बी.जैले.सं., लेखांक २८२६. तीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | जैसलमेर १५०३ | ज्येष्ठ सुदि १० गुरुवार | सम्भवनाथ की प्रतिमा पर । | कुशलाजी का मन्दिर, जै०ले.सं., भाग १, लेखांक उत्कीर्ण लेख रामघाट, वाराणसी |४१६ एवं अंले.सं., लेखांक ६४. ६. । १५०४ वैशाख सुदि ३ शनिवार सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा शान्तिनाथ जिनालय | अं.ले.सं., लेखांक ६७ एवं पर उत्कीर्ण लेख माणेक चौक, खंभात जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ९९०. ७. १५०४ वैशाख सुदि ३ शनिवार | चन्द्रप्रभ की धातु की पंचतीर्थी आदिनाथ जिनालय, आदि- रा.प्र.ले.सं., लेखांक १४२ प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख नाथ खड़की, राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक ४६८ अचलगच्छ का इतिहास Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन ८. १५०४ माघ वदि ३ फाल्गुन वदि ४ रविवार १०. ११. १२. १३. १४. १५०४ १५०५ १५०५ १५०५ १५०५ १५०५ माघ सुदि १० रविवार माघ सुदि १० रविवार माघ सुदि १० रविवार माघ सुदि १० रविवार माघ सुदि १० रविवार लेख का स्वरूप सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सुविधिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख श्रेयांसनाथ की धातु की प्रतिमा वीर जिनालय, बड़ोदरा जै०धा०प्र० ले० सं०, भाग २, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ५० एवं अं.ले.सं., लेखांक ६६. विमलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर सुविधिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वीर जिनालय, थराद जैन मन्दिर, जसकौर की धर्मशाला, पालीताणा सन्दर्भग्रन्थ बी० जै० ले.सं., लेखांक ८८४. महावीर जिनालय, सुंधी- जै.ले.सं., भाग २, लेखांक टोला, लखनऊ संभवनाथ की धातु की प्रतिमा गृह चैत्यालय, परवडी पर उत्कीर्ण लेख पद्मप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण छोटा देरासर, माणसा लेख श्री. प्र.ले.सं., लेखांक २०९ एवं अं.ले.सं., लेखांक ६९. १५६६ एवं अं.ले.सं., लेखांक ६८. श.वै., लेखांक १०६ एवं अं.ले.सं., लेखांक ७१. अं.ले.सं., लेखांक ४११. जै०धा. प्र.ले.सं., भाग १, लेखांक ४१४ एवं अं.ले.सं., लेखांक ७०. अचलगच्छ का इतिहास ん RW Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्य १५०५ माघ सुदि १० रविवार । कुन्थुनाथ की धातु की पंचतीर्थी| बालावसही, शत्रुअय |श गि.द.,लेखांक ३३३ एवं | प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख श.वै०, लेखांक १०२. १५०५ | फाल्गुन सुदि २ शनिवार | अभिनन्दन स्वामी की धातु की | शान्तिनाथ जिनालय, | रा.प्र.ले.सं., लेखांक १४७. प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख । राधनपुर माघ सुदि ५ शुक्रवार | वासुपूज्य की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, करेड़ा प्रा.ले.सं., लेखांक २४४. (उत्कीर्ण लेख १५०७ वैशाख वदि ५ गुरुवार पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा जैन मन्दिर, छारा ग्राम जैधा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ६१४ एवं अंले.सं. लेखांक ७६. १५०७ ज्येष्ठ वदि ५ शुक्रवार कुन्थनाथ की धातु की प्रतिमा | वीर जिनालय, अहमदाबाद जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ९३३. १५०७ | ज्येष्ठ वदि ५ शुक्रवार | शान्तिनाथ की धातु की प्रतिमा नवलखा पार्श्वनाथ जिनालय अंले.सं., लेखांक ७७ एवं पर उत्कीर्ण लेख घोघा प्रा.ले.सं., लेखांक २३४. १५०७ माघ सुदि १३ शुक्रवार शान्तिनाथ की धातु की प्रतिमा | यति कर्मचन्द्र जी का जै.ले.सं., भाग १, लेखांक पर उत्कीर्ण लेख मन्दिर, पालीताणा ६७३; प्रा.ले.सं., लेखांक २२८;श.वै.,लेखांक ११३ अंले.सं., लेखांक ७४. अचलगच्छ का इतिहास Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ । १५०७ माघ सुदि १३ शुक्रवार धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक ६४ लेख एवं अंले.सं., लेखांक ७५. | १५०८ ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार वासुपूज्य की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक २५४, उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक ८१. २४. । १५०८ वैशाखवदि १० रविवार शान्तिनाथ की धातु की प्रतिमा | चिन्तामणि पार्श्वनाथ अंले.सं., लेखांक ७८. पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, खंभात | १५०८ ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा जैन मन्दिर, दरापरा .धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक २६ एवं अंले.सं., लेखांक ८०. | १५०८ ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार सुविधिनाथ की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, लींचप्रा .ले.सं., लेखांक २४१ उत्कीर्ण लेख एवं अंले सं., लेखांक ८२. २७. | १५०८ आश्विन वदि.......सोमवार | धर्मनाथ की भण्डारस्थ धातु मनमोहन पार्श्वनाथ देरासर, जै.धा.प्र.ले.सं., लेखांक प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख पाटण २४७ एवं अंले.सं., लेखांक अचलगच्छ का इतिहास ८४. १५०८ | ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार पद्मप्रभ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शान्तिनाथ देरासर, वीसनगर जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, लेखांक ५०७. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन २९. १५०८ ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. १५०८ १५०८ १५०९ १५०९ १५०९ १५०९ ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार ज्येष्ठ सुदि १३ बुधवार कार्तिक वदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ५ शुक्रवार लेख का स्वरूप कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख नमिनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चन्द्रप्रभ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सम्भवनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ चिन्तामणि जी का मन्दिर, बी. जै. ले.सं., लेखांक ९२६. बीकानेर पद्मप्रभ जिनालय, पन्नीबाई वही, लेखांक १८७३. का उपाश्रय, बीकानेर घरदेरासर, बड़ोदरा वैशाख सुदि १३ शुक्रवार धर्मनाथ की धातुकी पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख कनासानो पाड़ो, पाटण पार्श्वनाथ जिनालय, करेड़ा वैशाख सुदि १३ शुक्रवार विमलनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ देरासर, पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद जै० धा०प्र० ले० सं०, भाग २, लेखांक २२९. जै०धा०प्र० ले० सं० भाग १, लेखांक ३०६. जै० ले०सं०, भाग २, लेखांक १९११ एवं अं.ले.सं., लेखांक ८८. जै०धा. प्र.ले.सं., भाग १, लेखांक १२५४ एवं अं.ले. सं., लेखांक ९०. श. गि० द०, लेखांक २९३. २६ अचलगच्छ का इतिहास Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. . ९. क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १५०९ । वैशाख सुदि १३ शुक्रवार | वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, वलाद जैन्धा .प्र.ले.सं., भाग १, | पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ७६७ एवं अंले सं.. लेखांक ८९. ३७. | १५०९ ज्येष्ठ सुदि ७ बुधवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा जैन देरासर, सौदागर जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख | पोल, अहमदाबाद. लेखांक ८१९ एवं अंले सं., लेखांक ९१. १५०९ वैशाख.. सुविधनाथ की प्रतिमा पर चिन्तामणि जी का मन्दिर | बी.जै.ले.सं., लेखांक ९२९. उत्कीर्ण लेख बीकानेर | १५०९ मार्गशीर्ष सुदि ५ शुक्रवार | आदिनाथ की धातु की चौबीसी बावन जिनालय, पेथापुर प्रा.ले.सं., लेखांक ८७. प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | १५०९ | माघ सुदि ५ शुक्रवार वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा चिन्तामणि जी का मन्दिर, बी.जै ले सं., लेखांक ९३४. पर उत्कीर्ण लेख बीकानेर | १५०९ | फाल्गुन सुदि २ सोमवार | आदिनाथ की प्रतिमा पर | यति किशनचन्द जी के जै.ले.सं., भाग १, लेखांक उत्कीर्ण लेख पास रखी प्रतिमा ५७८. । १५०९ तिथिविहीन आदिनाथ की प्रतिमा पर पार्श्वचन्द्रगच्छ का उपाश्रय, अंले.सं., लेखांक ४१२. उत्कीर्ण लेख जयपुर | १५०९ तिथिविहीन आदिनाथ की प्रतिमा पर | पार्श्वचन्द्रगच्छ का उपाश्रय, अंले.सं., लेखांक ९२ एवं उत्कीर्ण लेख जयपुर प्र.ले.सं., लेखांक ४५०. अचलगच्छ का इतिहास ४१. ० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन ४४. १५०९ तिथिविहीन ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. १५१० १५१० १५१० १५१० १५१० १५१० वैशाख सुदि ३ सोमवार ज्येष्ठ सुदि ३ गुरुवार ज्येष्ठ सुदि ३ गुरुवार माघ सुदि ५ शुक्रवार माघ सुदि ५ शुक्रवार फाल्गुन वदि ३ शुक्रवार लेख का स्वरूप विमलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख विमलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख अजितनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान नेमिनाथ जिनालय, हींगमंडी, आगरा. सहस्रफणापार्श्वनाथ जिनालय, राधनपुर चिन्तामणि जी का मन्दिर, बीकानेर वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा जैन देरासर, कोलबड़ा पर उत्कीर्ण लेख चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख पार्श्वनाथ की धातु की चौबीसी अनुपूर्ति लेख, आबू प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सन्दर्भग्रन्थ अं.ले.सं., लेखांक ९३ एवं जै. ले० सं०, भाग २, लेखांक १४९३. | रा.प्र.ले.सं., लेखांक १६५ एवं अं.ले.सं., लेखांक ४७१ बी० जे०ले.सं., लेखांक ९३६. कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा सीमंधर स्वामी का मन्दिर, अं.ले.सं., लेखांक ९४. पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद जै. धा. प्र. ले० सं०, भाग १, लेखांक ६६० एवं अं.ले.सं. लेखांक ९६. अ० प्रा० जै० ले० सं०, लेखांक ५०२ एवं अं.ले.सं., लेखांक ४१३. पार्श्वनाथ जिनालय, घोघा प्रा.ले.सं., लेखांक २६१ एवं अं.ले.सं., लेखांक ९५. अचलगच्छ का इतिहास Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन ५१. १५११ ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. १५११ १५११ १५११ १५१२ १५१२ १५१२ वैशाख सुदि २ बुधवार माघ वदि ५ शुक्रवार माघ वदि ५ शुक्रवार फाल्गुन सुदि १२ माघ सुदि ५ सोमवार लेख का स्वरूप नमिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा अजितनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख शेखनो पाड़ो, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान मोतीशाह की शत्रुञ्जय तालावाला पोल का देरासर, सूरत विमलनाथ की धातु की प्रतिमा नेमिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख राधनपुर फाल्गुन सुदि ७ सोमवार अजितनाथ की धातु की पंच तीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख फाल्गुन सुदि ८ श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ जिनालय, भैंसरोडगढ़ सन्दर्भग्रन्थ श.वै., लेखांक १३३. विमलनाथ की धातु की प्रतिमा वीरजिनालय, जैसलमेर जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक पर उत्कीर्ण लेख २४२० एवं अं.ले.सं., लेखांक ९९. मुनिसुव्रत जिनालय, मांडवी पोल, खंभात अं.ले.सं., लेखांक ९७. जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग १, लेखांक १०१० एवं अं.ले. सं., लेखांक ९८. रा.प्र.ले.सं., लेखांक १७५ एवं अं.ले.सं., लेखांक ४७२ प्र.ले.सं., लेखांक ४९० एवं अं.ले.सं., लेखांक ४१४. जै० धा० प्र०ले० सं०, भाग २, लेखांक ६३७ एवं अं.ले.सं., लेखांक १००. अचलगच्छ का इतिहास Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१२ लेख क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण चिन्तामणि जी का मन्दिर, बी.जै ले.सं., लेखांक ९५७. बीकानेर ९. । १५१३ वैशाख वदि ५ शनिवार संभवनाथ की प्रतिमा पर । आदिनाथ जिनालय, | जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख माणेक चौक, खंभात लेखांक १००६ एवं अंले. सं., लेखांक १०७. ६०. १५१३ वैशाख वदि ५ शनिवार शीतलनाथ की प्रतिमा पर सीमंधर स्वामी का देरासर जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक १२०२ एवं अंले. सं०, लेखांक १०५. १५१३ वैशाख सुदि ४ सुविधिनाथ की प्रतिमा पर पुराना जैन मन्दिर, जै.धा.प्र.ले., लेखांक १४४. उत्कीर्ण लेख अमरावती २. | १५१३ वैशाख............? कुन्थुनाथ की चौबीसी प्रतिमा | सूर्यप्रभस्वामी का मन्दिर, जै.ले.सं., भाग २, लेखांक पर उत्कीर्ण लेख | मोतीकटरा, आगरा १४७३ एवं अंले.सं., लेखांक १०६. | १५१३ । वैशाख...........? मुनिसुव्रत की प्रतिमा पर पार्श्वनाथ जिनालय, मांडल प्रा.ले.सं., लेखांक २९१. उत्कीर्ण लेख १५१३ ज्येष्ठ सुदि ११ शुक्रवार विमलनाथ की धातु की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, प्र.ले.सं.,लेखांक ५१० एवं पर उत्कीर्ण लेख चाडसू अंले.सं., लेखांक ४१५. अचलगच्छ का इतिहास Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन |लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १५१३ | आषाढ़ सुदि १० बुधवार | कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर प्राचीन दिगम्बर जैन जै.धा.प्र.ले., लेखांक १४७. उत्कीर्ण लेख मन्दिर, बालापुर ६६. | १५१३ | भाद्रपद वदि १२ बुधवार | नेमिनाथ की प्रतिमा पर चिन्तामणि जी का मन्दिर, बी.जै.ले.सं., लेखांक ९७९. उत्कीर्ण लेख | बीकानेर ६७. । १५१३ माघ वदि २ शुक्रवार अभिनन्दन स्वामी की धातु की | वीर जिनालय, भोयराशेरी, रा.प्र.ले.सं., लेखांक १८४ प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | राधनपुर एवं अंले.सं.,लेखांक ४७३. | १५१३ माघ वदि २ शुक्रवार अभिनन्दन स्वामी की धातु की आदिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं., लेखांक २८५ प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख जामनगर एवं अंले.सं.,लेखांक १०२. | १५१३ | मा.............शुक्रवार विमलनाथ की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, वणा प्रा.ले.सं., लेखांक २८६ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं.,लेखांक १०३. १५१५ वैशाख वदि १ बुधवार | विमलनाथ की धातु की प्रतिमा शामला पार्श्वनाथ जिनालय रा.प्र.ले.सं., लेखांक १९५ पर उत्कीर्ण लेख राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक ४७६ ७१. । १५१५ | ज्येष्ठ वदि ९ शनिवार | विमलनाथ की धातु की चौबीसी शामला पार्श्वनाथ जिनालय रा.प्र.ले.सं., लेखांक १९७ प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक ४७८ | १५१५ ज्येष्ठ वदि ९ शनिवार | सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिना- रा.प्र.ले.सं., लेखांक १९६ पर उत्कीर्ण लेख लय, राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक ४७७ अचलगच्छ का इतिहास ७०. । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ ७३. | १५१५ माघ वदि ५ बुधवार कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर आदिनाथ जिनालय, रा.प्र.ले.सं., लेखांक १९१ उत्कीर्ण लेख | राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक ४७५ ७४. । १५१५ माघ वदि ५ बुधवार | विमलनाथ की धातु की पंचतीर्थी | सहस्रफणापार्श्वनाथ रा.प्र.ले.सं., लेखांक १९० प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | जिनालय, राधनपुर | एवं अंले.सं., लेखांक ४७४ | १५१५ | माघ वदि ५ बुधवार सुमतिनाथ की धातु की पंचतीर्थी| माणिकसागर जी का प्र.ले.सं., लेखांक५४७ एवं प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख मन्दिर, कोटा अं ले.सं., लेखांक ४१६. । १५१५ फाल्गुन सुदि १२ बुधवार | कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा | पार्श्वनाथ जिनालय, मांडल| प्र.ले.सं.,लेखांक ३०४ एवं पर उत्कीर्ण लेख अंले.सं., लेखांक १०९ ७. | १५१६ | वैशाख सुदि ३ बुधवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख खेरालु लेखांक ७५८ एवं अंले. सं., लेखांक ११०. ७८. । १५१६ कार्तिक वदि २ रविवार(?) श्रेयांसनाथ की धातु की पंचतीर्थी शान्तिनाथ जिनालय, प्र.ले.सं., लेखांक ५६१एवं प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | सेमलिया, मध्य प्रदेश अं.ले.सं., लेखांक ४१७. ७९. । १५१६ कार्तिक वदि (शनिवार) | आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, धमतरी, जै.धा.प्र.ले., लेखांक १५७. पर उत्कीर्ण लेख मध्यप्रदेश . । १५१७ वैशाख सुदि ३ संभवनाथ की धातु की पंचतीर्थी | शान्तिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं.,लेखांक ३११ एवं प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख मांडल अंले.सं., लेखांक ११४. अचलगच्छ का इतिहास Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १५१७ | वैशाख सुदि ३ बुधवार कुन्थुनाथ की धातु की पंचतीर्थी| वीर जिनालय, सांगानेर प्र.ले.सं.,लेखांक ५६६ एवं प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख । अंले.सं., लेखांक ४१८. १५१७ | वैशाख सुदि ९ बुधवार आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | श्रेयांसनाथ देरासर, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद | लेखांक १३५७ एवं अंले. सं०, लेखांक ११५. १५१७ ज्येष्ठ सुदि ९ सोमवार श्रेयांसनाथ की चौबीसी प्रतिमा चन्द्रप्रभ जिनालय, प्र.ले.सं.,लेखांक ५६७ एवं पर उत्कीर्ण लेख सांगानेर अंले०सं०, लेखांक ४१९. १५१७ | मार्गशीर्ष सुदि१० सोमवार चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर आदिनाथ चैत्य, थराद | श्री.प्र.ले.सं., लेखांक १९५ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक १११ १५१७ माघ सुदि १ शुक्रवार संभवनाथ की धातु की प्रतिमा | विमलनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख संघवीपाड़ा, खंभात लेखांक ७८४ एवं अंले.सं. लेखांक ११२. १५१७ माघ सुदि...........गुरुवार नमिनाथ की धातु की प्रतिमा | जैनमन्दिर, चांदवड़ | जै.धा.प्र.ले०, लेखांक १६२. पर उत्कीर्ण लेख १५१७ माघ सुदि १० सोमवार सुमतिनाथ की प्रतिमा पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिना- जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख लय, चौकसीपोल, खंभात लेखांक ७९६ एवं अंले.सं., लेखांक ११३. अचलगच्छ का इतिहास Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ ८८. | १५१७ माघ सुदि १० सोमवार | विमलनाथ की धातु की प्रतिमा गृहचैत्य परवडी अंले सं०, लेखांक ४२०. पर उत्कीर्ण लेख १५१७ | फाल्गुन................ सुमतिनाथ की प्रतिमा पर बावन जिनालय, पेथापुर जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख लेखांक ६८८ १५१८ वैशाख सुदि ५ गुरुवार अनन्तनाथ की प्रतिमा पर अजितनाथ जिनालय, शेख वही, भाग१, लेखांक १०५० उत्कीर्ण लेख नोपाड़ो, अहमदाबाद १५१८ माघ सुदि ५ बुधवार | शीतलनाथ की प्रतिमा पर | चिन्तामणि जी का मन्दिर | बी जै ले.सं., लेखांक १०११ उत्कीर्ण लेख बीकानेर १५१९ | माघ सुदि ५ शुक्रवार चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर | वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक २६३. उत्कीर्ण लेख . । १५१९ | माघ सुदि ६ शनिवार संभवनाथ की प्रतिमा पर | वीर जिनालय, थराद वही, लेखांक २७२ एवं | उत्कीर्ण लेख अंले.सं., लेखांक ११७. १५१९ मार्गशीर्ष सुदि ५ शुक्रवार | चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर | विमलनाथ चैत्य, मोदीशेरी अंले.सं., लेखांक ११६. उत्कीर्ण थराद १५१९ | माघ वदि ९ शनिवार | विमलनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं., लेखांक ३३३ पर उत्कीर्ण लेख जामनगर एवं अंले.सं., लेखांक ११९ अचलगच्छ का इतिहास Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ ९६. । १५१९ | माघ वदि ९ शनिवार आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | वीर जिनालय, बीकानेर बी.जै.ले.सं., लेखांक १२१५ पर उत्कीर्ण लेख ९७. १५१९ | माघ वदि ९ शनिवार | सुविधिनाथ की धातु की प्रतिमा गोलछों मन्दिर, सरदार- वही, लेखांक २३९१. पर उत्कीर्ण लेख शहर, बीकानेर ९८. । १५१९ | माघ सुदि ५ शुक्रवार विमलनाथ की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, ऊंझा जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक १९४ एवं अंले.सं. लेखांक ११८. १५१९ माघ सुदि ५ शुक्रवार | सुमतिनाथ की प्रतिमा पर महावीर देरासर, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक ९२४. १००. | १५१९ फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार | कुन्थुनाथ की धातु की पंचतीर्थी शान्तिनाथ जिनालय, रा.प्र.ले.सं., लेखांक २२० प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक ४७९ १०१. १५२० चैत्र सुदि ८ शुक्रवार कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा | आदिनाथ जिनालय, अंले.सं., लेखांक १२४. | पर उत्कीर्ण लेख जामनगर १०२. १५२० वैशाख सुदि.....शुक्रवार | नमिनाथ की धातु की पंचतीर्थी | अस्पष्ट श.गि.द., लेखांक ४५०. प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख १०३. १५२० वैशाख सुदि ३ सोमवार | शीतलनाथ की प्रतिमा पर जैनमन्दिर, कोणीयाक प्रा.ले.सं., लेखांक ३४९ उत्कीर्ण लेख एवं प्र.ले.सं., लेखांक १२५ अचलगच्छ का इतिहास ३५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ ०४. १५२० वैशाख सुदि ५ बुधवार | शान्तिनाथ की प्रतिमा पर आदिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं., लेखांक ३५० | उत्कीर्ण लेख चित्तौड़ | एवं अंले.सं., लेखांक १२६ १०५. १५२० वैशाख सुदि ५ बुधवार वासुपूज्य की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक २३९ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक १२७ १०६. १५२० कार्तिक वदि २ शनिवार | आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, रा.प्र.ले.सं., लेखांक २२४ पर उत्कीर्ण लेख राधनपुर एवं अंले सं., लेखांक ४८० १०७. १५२० मार्गशीर्ष सुदि ९ शनिवार सुमतिनाथ की प्रतिमा पर दादा पार्श्वनाथ देरासर, जै.धा.प्र.ले., भाग२, लेखांक उत्कीर्ण लेख नरसिंह जी की पोल, १३७ एवं अंले.सं., लेखांक बड़ोदरा १५२० मार्गशीर्ष सुदि ९ शनिवार | श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर । सीमंधरस्वामी का जिनालय जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख खारवाड़ो, खंभात लेखांक १०७२. १५२० | माघ सुदि ५ आदिनाथ की धातु की चौबीसी शान्तिनाथ जिनालय, वही, भाग२, लेखांक ४३४ प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शेखवाड़ो, खेड़ा ११०. १५२० | माघ सुदि १३ नमिनाथ की प्रतिमा पर धर्मनाथ देरासर, | वही, भाग१,लेखांक ११२१ उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद | एवं अंले०सं०. लेखांक १२३ १११. १५२१ वैशाख सुदि ६ बुधवार सम्भवनाथ की धातु की प्रतिमा शान्तिनाथ जिनालय, वही, भाग२, लेखांक ६८१ पर उत्कीर्ण लेख खंभात एवं अंले.सं., लेखांक १२८ १२०. अचलगच्छ का इतिहास . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ ११२. १५२१ आषाढ़ सुदि ३ गुरुवार अजितनाथ की धातु की प्रतिमा सोम पार्श्वनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख संघवीपाड़ा, खंभात लेखांक ७७५ एवं अंले.सं., लेखांक १२९. ११३. १५२१ आषाढ़ सुदि ३ गुरुवार | कुन्थुनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा | आदिनाथ जिनालय, प्र.ले.सं., लेखांक६१७ एवं पर उत्कीर्ण लेख | नयापुरा, मन्दसौर अंले.सं., लेखांक ४२१ ११४. १५२१ आषाढ़ सुदि १० गुरुवार अजितनाथ की प्रतिमा पर संभवनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, | उत्कीर्ण लेख | बोलपीपलो, खंभात लेखांक ११४० एवं अंले. सं., लेखांक १३०. ११५. १५२२ कार्तिक वदि ५ गुरुवार | चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण वीरजिनालय, माणिकतल्ला जै.ले.सं., भाग १, लेखांक लेख कलकत्ता १२३ एवं अंले.सं., लेखांक अचलगच्छ का इतिहास १३१. ११६. १५२२ माघ वदि १ गुरुवार | शीतलनाथ की प्रतिमा पर आदिनाथ जिनालय, मणिक जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख चौक, खम्भात लेखांक १००४ एवं अंले. सं., लेखांक १३३. फाल्गुन सुदि ३ सोमवार | कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख शान्तिनाथ पोल, लेखांक १२९० एवं अंले. अहमदाबाद सं., लेखांक १३५. ११७. १५२२ ३७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ लेख क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ ११८. १५२२ | फाल्गुन सुदि ३ सोमवार | कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा | प्राचीन जिनालय, लींबडी प्रा.ले.सं., लेखांक ३६५ पर उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक १३६ १५२३ । वैशाख वदि ४ गुरुवार वासुपूज्य की प्रतिमा पर | जैन मन्दिर, लींच प्रा.ले.सं.,लेखांक ३७७ एवं उत्कीर्ण लेख | अं.ले.सं., लेखांक १३८. १२०.| १५२३ वैशाख वदि ४ गुरुवार धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण आदिनाथ जिनालय, जै.ले.सं., भाग २, लेखांक सैतीया, वीरभूमी, बंगाल |१०१६ एवं अंले.सं., लेखांक १४०. १२१. | १५२३ वैशाख वदि ४ गुरुवार | कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर शान्तिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं.,लेखांक ३७८ एवं उत्कीर्ण लेख मांडल अंले.सं., लेखांक १४१. | वैशाख सुदि ११ बुधवार विमलनाथ की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, जोधपुर अंले.सं., लेखांक १३७. उत्कीर्ण लेख मार्गशीर्ष सुदि २ सोमवार | अजितनाथ की धातु की पंचतीर्थी श-गि.द., लेखांक १८४. प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | मार्गशीर्ष सुदि २ सोमवार आदिनाथ की प्रतिमा पर | बालावसही, श@जय श.वै., लेखांक १७४. उत्कीर्ण लेख १२५. | १५२३ माघ सुदि १ बुधवार आदिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले., लेखांक १८९. पायधुनी, मुम्बई अचलगच्छ का इतिहास Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १२६. १५२३ १२७. १२८. १२९. १३०. १३१. १५२४ १५२४ १५२४ १५२४ १५२४ फाल्गुन सुदि ५ रविवार चैत्र सुदि १२ वैशाख सुदि २ सोमवार वैशाख सुदि ३ सोमवार ज्येष्ठ सुदि ९ सोमवार लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्य वासुपूज्य की पंचतीर्थी प्रतिमा पंचायती मन्दिर, जयपुर अं.ले.सं., लेखांक ४२२ एवं पर उत्कीर्ण लेख प्र.ले.सं., लेखांक ६३६. प्र.ले.सं., लेखांक ६३८ एवं अं.ले.सं., लेखांक ४२३. कुन्थुनाथ की चौबीसी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शीतलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सुविधिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आषाढ़ सुदि १० शुक्रवार नमिनाथ की चौबीसी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख माणिकसागर जी का मन्दिर, कोटा चौमुख जी का देरासर, अहमदाबाद आदिनाथ जिनालय, नागौर गौड़ी जी का मन्दिर, उदयपुर सुविधिनाथ जिनालय, घोघा अ.ले.सं., लेखांक १४२ एवं जै. धा. प्र.ले.सं., भाग १, लेखांक ८९९. जै. ले.सं., भाग २, लेखांक १२७३ एवं अं.ले.सं., लेखांक १४३, ४२४ एवं प्र.ले.सं., लेखांक ६४१ प्रा.ले.सं., लेखांक ३८५ एवं अं.ले.सं., लेखांक १४४ तथा जै० ले.सं., भाग- २, लेखांक ११२९. जै. ले.सं., भाग २, लेखांक १७७६; प्रा०ले०सं०, लेखांक ३८६ एवं अं.ले.सं., लेखांक अचलगच्छ का इतिहास لله vo Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १३२. १३३. १३४. १३५. १३६. १३७. १३८. १५२५ १५२५ १५२५ १५२५ १५२५ १५२६ १५२६ आषाढ़ सुदि ३ सोमवार माघ सुदि ३ सोमवार लेख का स्वरूप पौष वदि ५ सोमवार आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख माघ वदि ७ बुधवार शान्तिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख फाल्गुन सुदि ७ शनिवार श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान माघ सुदि १३ बुधवार फाल्गुन सुदि ७ शनिवार संभवनाथ की धातु की प्रतिमा जैन मन्दिर, ऊंझा पर उत्कीर्ण लेख बड़ा देरासर, कातरग्राम सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा अजितनाथ देरासर, पर उत्कीर्ण लेख श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख जै०धा०प्र०ले० सं०, भाग १, अजितनाथ देरासर, शेखनो पाडो, अहमदाबाद | लेखांक १००८ एवं अं.ले. सं., लेखांक १४६. अं.ले.सं., लेखांक १४७. सन्दर्भग्रन्थ १४५. प्रा.ले.सं., लेखांक ४०१ एवं अं. ले० सं०, लेखांक १४९. शेखनो पाडो, अहमदाबाद जै०धा०प्र०ले० सं०, भाग १, लेखांक १६७ एवं अं.ले०सं०, लेखांक १४८. चिन्तामणि जी का मन्दिर, बी० जे०ले०सं०, लेखांक १०४५ बीकानेर भण्डारस्थ प्रतिमा, चौमुख अं.ले.सं., लेखांक १५०. जी, देरासर, अहमदाबाद अजितनाथ जिनालय, शेखेनो पाड़ो, अहमदाबाद जै०धा०प्र०ले० सं०, भाग १, लेखांक ९९७ एवं अं० ० सं० एवं लेखांक १५२. अचलगच्छ का इतिहास Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १३९. | १५२६ माघ वदि ७ सोमवार शीतलनाथ की प्रतिमा पर । आदिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख बडनगर लेखांक ५४३ एवं अंले.सं., लेखांक १५१. नोट : आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने वि.सं. १५२६ माघ वदि ७ के उक्त प्रतिमालेखों में श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर प्रतिष्ठा दिवस बुधवार और शीतलनाथ की प्रतिमा पर प्रतिष्ठास्थान दिवस सोमवार बतलाया है। यह निश्चित रूप से संग्राहक की भूल है क्योंकि एक ही माह के एक ही पक्ष की एक ही तिथि दो अलग-अलग दिवस होना असम्भव है। अंचलगच्छीय लेख संग्रह के सम्पादक श्रीपार्श्व ने भी इस भूल का परिमार्जन करने की जगह उक्त भूल दुहराई ही है। द्रष्टव्य- अंचलगच्छीय लेख संग्रह, लेखांक १५१ और १५२, उक्त तिथि को वस्तुतः कौन सा दिन था, इसका निर्णय तो प्रतिमालेख के मूलपाठ को देखने के पश्चात् ही सम्भव है। क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्य १४०. १५२७ | आषाढ सुदि गुरुवार मुनि सुव्रत की प्रतिमा पर आदिनाथ जिनालय, | जै.ले.सं., भाग २, लेखांक उत्कीर्ण लेख दफ्तरियों का मुहल्ला, १३१६ एवं अंले.सं., नागौर, लेखांक १५५, ४२५ तथा प्र.ले.सं., लेखांक ६८८ १४१. | १५२७ आषाढ़ सुदि १० बुधवार श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, लखनऊ जै.ले.सं., भाग २, लेखांक उत्कीर्ण लेख १६०९ तथा अंले.सं., लेखांक १५६. अचलगच्छ का इतिहास Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन । | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान १४२. १५२७ आषाढ़ सुदि १० बुधवार | शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा सुमतिनाथ मुख्य बावन पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, मातर सन्दर्भग्रन्थ जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ५०४ एवं अंले.सं. लेखांक १५८. जै.ले.सं., भाग २, लेखांक २०११ एवं अंले.सं., लेखांक १५७. अंले.सं., लेखांक १५९. १४३. १५२७ आषाढ़ सुदि १० बुधवार जनालय, चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख कलकत्ता १४४. १५२७ अचलगच्छ का इतिहास १४५. ११ आषाढ़ सुदि १० बुधवार | सुविधिनाथ की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, मांडवगढ़ उत्कीर्ण लेख | कार्तिक सुदि ४ रविवार चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर शान्तिनाथ जिनालय, उत्कीर्ण लेख जैसलमेर पौष वदि ५ शुक्रवार धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण| शांतिनाथ जिनालय लेख लिंबडीपाड़ा, पाटण १५२७ १४६. १५२७ जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक २१६२. जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, लेखांक २९२ एवं अंले.सं., लेखांक १५४. रा.प्र.ले.सं., लेखांक २५२ एवं अं.ले.सं., लेखांक ४८२ प्र.ले.सं., लेखांक ६९२, एवं अं.ले.सं., लेखांक ४२६ १४७. १५२७ | पौष वदि ५ शुक्रवार संभवनाथ की प्रतिमा पर सहस्रफणापार्श्वनाथ उत्कीर्ण लेख | जिनालय, राधनपुर | सुविधिनाथ की धातु की प्रतिमा चन्द्रप्रभ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख राधनपुर १४८. १५२७ पौष वदि ५ शुक्रवार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १४९. १५२७ १५०. १५१. १५२. १५४. १५२८ १५५. १५२८ १५३. १५२८ १५२८ १५२८ १५२८ फाल्गुन सुदि ४ रविवार चैत्र वदि १० गुरुवार चैत्र वदि १० गुरुवार चैत्र वदि १० गुरुवार चैत्र वदि १० गुरुवार चैत्र वदि १० गुरुवार चैत्र वदि १० गुरुवार लेख का स्वरूप चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सुविधिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सुविधिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख संभवनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख नेमिनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सन्दर्भग्रन्थ बी. जै.ले.सं., लेखांक २८२२ एवं अं.ले.सं., लेखांक १५३ जै०ले. सं०, भाग ३, लेखांक १६१९ एवं अं.ले.सं., लेखांक १६२. लौकागच्छीय जैन मन्दिर, जै०धा.प्र.ले., लेखांक २०५ बालावपुर वीर जिनालय, थराद प्राप्तिस्थान शान्तिनाथ जिनालय, जैसलमेर वीर जिनालय, लखनऊ अजितनाथ जिनालय, नदियाड श्री. प्र.ले.सं., लेखांक २६, | एवं अं.ले.सं., लेखांक १६५ जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग २, लेखांक ३९९ एवं अं.ले.सं., लेखांक १६३. गौड़ी पार्श्वनाथ, देरासर, प्रा.ले.सं., लेखांक ४१९ एवं अं.ले.सं., लेखांक १६६. सूरत शान्तिनाथ जिनालय, खंभात जै०धा. प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ६७२ एवं अं.ले.सं., लेखांक १६४. अचलगच्छ का इतिहास Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् | माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १५६. १५२८ चैत्र वदि १० गुरुवार श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर चन्द्रप्रभ जिनालय, आमेर प्र.ले.सं.,लेखांक ७०० एवं उत्कीर्ण लेख अंले.सं., लेखांक ४२७. १५७. १५२८ | आषाढ़ सुदि ५ रविवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले., लेखांक २०८. पर उत्कीर्ण लेख पायधुनी, मुम्बई १५८. | १५२८ पौष वदि ५ बुधवार नमिनाथ की प्रतिमा पर सुमतिनाथ मुख्य बावन जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख | जिनालय, मातर लेखांक ५१७ एवं अं.ले.सं., लेखांक १६० १५९. १५२८ माघ वदि ५ गुरुवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा सीमंधर स्वामी का जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, | पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, अहमदाबाद लेखांक ११६५ एवं अंले... सं., लेखांक १६१. ०. १५२९ | वैशाख वदि ११ शुक्रवार | वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा | चिन्तामणि पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, खंभात लेखांक १११७ एवं अ.लं. सं., लेखांक १७२ १६१. १५२९ वैशाख वदि ६ | मुनिसुव्रत की प्रतिमा पर | वीर जिनालय, बीकानेर बी जै ले.सं., लेखांक १३०३ उत्कीर्ण लेख १६२. | १५२९ | ज्येष्ठ वदि ७ गुरुवार शान्तिनाथ की प्रतिमा पर | शामला पार्श्वनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख डभोई लेखांक २९ एवं अंले.सं., लेखांक १७३. अचलगच्छ का इतिहास Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १६३. १५२९ ज्येष्ठ वदि ७ गुरुवार आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ देरास, शान्ति-|जै धा.प्र.ले.सं., भाग १, | पर उत्कीर्ण लेख नाथ पोल, अहमदाबाद लेखांक १३२७ एवं अंले० |सं., लेखांक १७४. १६४. | १५२९ फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार | शीतलनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा सेठ थीरू का देहरासर जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक पर उत्कीर्ण लेख जैसलमेर २४५४ एवं अं.ले.सं., लेखांक १६७. १६५. | १५२९ फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार शान्तिनाथ की प्रतिमा पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख जिनालय, खंभात लेखांक ५८० एवं अ.ले.सं., लेखांक १६८. १६६. | १५२९ फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार | शान्तिनाथ की प्रतिमा पर | पार्श्वनाथ जिनालय, करेड़ा जै.ले.सं., भाग २, लेखांक उत्कीर्ण लेख १९१३ एवं अंले.सं., लेखांक १६९. १६७. १५२९ | फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार | विमलनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक १४६ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक १४६ १६८. १५२९ | फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं., लेखांक ४२१ पर उत्कीर्ण लेख | राधनपुर एवं अंले.सं., लेखांक १७१ १६९. १५३० चैत्र वदि ६ गुरुवार सुविधिनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, जैसलेमर जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक उत्कीर्ण लेख २४२४. अचलगच्छ का इतिहास Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १७०. १७१. १५३० १७२. १७३. १७४. १५३० १७५. १५३० १५३० १५३० १५३१ माघ सुदि १३ रविवार माघ सुदि १३ रविवार फाल्गुन सुदि ७ बुधवार फाल्गुन सुदि ७ बुधवार फाल्गुन सुदि ७ बुधवार वैशाख वदि ९ लेख का स्वरूप धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण महावीर जिनालय, लेख अहमदाबाद शान्तिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान पार्श्वनाथ जिनालय, भद्रावती गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, जै०ले०सं०, भाग १, लेखांक पालीताणा ६६४, श० कै०, लेखांक २०४ तथा अं.ले.सं. लेखांक १७५ आदिनाथ जिनालय, नागौर सन्दर्भग्रन्थ जै०धा० प्र०ले., लेखांक २१२. आदिनाथ जिनालय, जामनगर जै. ले० सं०, भाग २, लेखांक १२८४, प्र.ले.सं., लेखांक ७३१ एवं अं.ले.सं., लेखांक १७६, ४२८ जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग १, लेखांक ९२१ एवं अं.ले.सं., | लेखांक १७७. प्रा. ले० सं०, लेखांक ४३२ एवं अं.ले.सं., लेखांक १७८ गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, श.वै., लेखांक २०७ पालीताणा ४६ अचलगच्छ का इतिहास Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १७६. | १५३१ वैशाख सुदि ५ सोमवार | सुमतिनाथ की प्रतिमा पर चन्द्रप्रभ जिनालय, जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक | उत्कीर्ण लेख जैसलमेर २३५१ एवं अंले.सं., लेखांक १८४. १७७. १५३१ ज्येष्ठ सुदि ५ शनिवार(?)| श्रेयांसनाथ की प्रतिमा पर आदिनाथ जिनालय, बी.जै.ले.सं., लेखांक २३४३ उत्कीर्ण लेख राजलदेसर, बीकानेर १७८. १५३१ ज्येष्ठ सुदि २ रविवार(?) शान्तिनाथ की धातु की प्रतिमा सुमतिनाथ मुख्य बावन जैधा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, मातर | लेखांक ५२५ एवं अंले.सं., लेखांक १८५. १७९. | १५३१ माघ वदि ८ सोमवार अजितनाथ की धातु की प्रतिमा | अस्पष्ट श गि.द., लेखांक ३०९. पर उत्कीर्ण लेख | १५३१ माघ सुदि ३ सोमवार | अजितनाथ की धातु की प्रतिमा गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, जै.ले.सं., भाग १,लेखांक | पर उत्कीर्ण लेख | पालीताणा ६६५,श वै., लेखांक २१२ एवं अंले.सं., लेखांक १८० १८१.| १५३१ माघ वदि ८ सोमवार संभवनाथ की प्रतिमा पर शान्तिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख चौकसीपोल, खंभात लेखांक ८३२ एवं अंले.सं., लेखांक १८२. १८२. १५३१ माघ वदि ८ सोमवार मुनिसुव्रत की प्रतिमा पर | बड़ा जैन मन्दिर, प्रा.ले.सं.,लेखांक ४३४ एवं उत्कीर्ण लेख कातरग्राम अंले.सं., लेखांक १८३. अचलगच्छ का इतिहास Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १९८. १५३५ आषाढ़ सुदि ९ सोमवार आदिनाथ की प्रतिमा पर धर्मनाथ देरासर, प्रा.ले.सं.,लेखांक ४६४ एवं उत्कीर्ण लेख जामनगर अंले.सं., लेखांक १९६. १९९. | १५३५ आषाढ़ सुदि ९ सोमवार पद्मप्रभ की प्रतिमा पर श्रीधर देरासर, जामनगर प्रा.ले.सं.,लेखांक ४६२ एवं उत्कीर्ण लेख अंले.सं., लेखांक १९४. २००. १५३५ | कार्तिक वदि २ बुधवार सुमतिनाथ की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, वासा अ.प्र.जै.ले.सं., लेखांक उत्कीर्ण लेख ५४९ २०१. १५३५ मार्गशीर्ष सुदि ६ शुक्रवार श्रेयांसनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा शीतलनाथ जिनालय, जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक पर उत्कीर्ण लेख जैसलमेर २३९४, बी.जै.ले.सं., लेखांक २७४४ एवं अंले. सं०, लेखांक १९२. २०२. | १५३५ पौष वदि १२ रविवार |संभवनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद | श्री.प्र.ले.सं., लेखांक ६२ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं.,लेखांक १९३ २०३. १५३६ मार्गशीर्ष सुदि ५ गुरुवार | धर्मनाथक की प्रतिमा पर | अजितनाथ जिनालय, वी.जै.ले.सं., लेखांक १५५५ उत्र्कीण लेख कोचरों का चौक, बीकानेर २०४. १५३६ पौष वदि ५ रविवार | अभिनन्दन स्वामी की प्रतिमा वीर जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख | अहमदाबाद लेखांक २२५ एवं अंले.सं., लेखांक १९९. अचलगच्छ का इतिहास Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + .. क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ २०५. १५३६ माघ वदि ७ सोमवार संभवनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक १२० उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक १९८ २०६. १५३७ | ज्येष्ठ सुदि २ सोमवार अजितनाथ की प्रतिमा पर मुनि सुव्रत देरासर, सूरत | प्रा.ले.सं.,लेखांक ४७६ एवं उत्कीर्ण लेख |अंले.सं., लेखांक २०२ २०७. १५३७ वैशाख सुदि १० सोमवार अनन्तनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद श्री.प्र.ले.सं., लेखांक १३७ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक २०० २०८. | १५३७ | ज्येष्ठ सुदि २ सोमवार | सुमतिनाथ की प्रतिमा पर वीर जिनालय, थराद | श्री.प्र.ले.सं., लेखांक १७५ उत्कीर्ण लेख एवं अंले.सं., लेखांक २०१ २०९. १५३७ | माघ सुदि २ सोमवार | वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा | पंचायती मन्दिर, जयपुर | प्र.ले.सं.,लेखांक ८१४ एवं | पर उत्कीर्ण लेख अंले.सं., लेखांक ४३१ २११. १५३९ वैशाख सुदि १० शुक्रवार | शान्तिनाथ की प्रतिमा पर | गौड़ीपार्श्वनाथ जिनालय, श.वै., लेखांक २२४. उत्कीर्ण लेख पालीताणा अचलगच्छ का इतिहास Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अचलगच्छ का इतिहास विभिन्न साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से जयकेशरीसूरि के कई शिष्यों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, जो इस प्रकार है : १. कीर्तिवल्लभगणि : इनके द्वारा रचित उत्तराध्ययनवृत्ति नामक एकमात्र कृति प्राप्त होती है, जो वि०सं० १५५२ में रची गयी है।४१ २. महीसागर उपाध्याय : इन्होंने गूर्जर भाषा में वि०सं० १४९८ में षडावश्यकविधि अपरनाम साधुप्रतिक्रमण की रचना की।४२ ३. धर्मशेखरगणि : वि०सं० १५०९ में लिखी गयी प्रतिक्रमणसूत्र की पुष्पिका में इनका नाम मिलता है जिसके आधार पर श्रीपार्श्व ने इन्हें जयकेशरीसूरि का शिष्य बतलाया है।४३ धर्मशेखरगणि के शिष्य उदयसागरगणि ने उत्तराध्ययनसूत्र पर वि०सं० १५४६ में ८५०० श्लोक परिमाण दीपिका की रचना की।४४ इनकी अन्य कृतियां शांतिनाथचरित,४५ कल्पसूत्रअवचूरि४६ आदि हैं। ४. भावसागरसरि : वि०सं० १५१२ के एक प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठपक मुनि के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। श्री पार्श्व ने इस लेख की वाचना दी है,४७ जो इस प्रकार है : __ॐ संवत् १५१२ वर्षे फागुण सुदि ७ सो० (शु०) गांधीगोत्रे ऊसवंशे। सा० सारिंग सुत फेरु भा० सूहवदे पुत्री बाई सोनाई पुण्यार्थं श्रीअजितनाथबिंब कारापितं श्रीअंचलगच्छे। प्रतिष्ठितं। श्री भावसागरसूरिभिः।। श्री पार्श्व ने इन्हें जयकेशरीसरि का शिष्य बतलाया है।४८ चूंकि उक्त प्रतिमालेख में कहीं भी ऐसी बात नहीं कही गयी है, जिससे कि श्रीपार्श्व के उक्त कथन का समर्थन हो सके; अत: ऐसी स्थिति में उक्त अभिलेख के आधार पर उनके मत को स्वीकार कर पाना कठिन है। अंचलगच्छ के १५वें पट्टधर के रूप में भी भावसागरसरि का नाम मिलता है, जो जयकेशरीसूरि के प्रशिष्य और सिद्धान्तसागरसूरि के शिष्य थे। वि०सं० १५१० में इनका जन्म हुआ, वि०सं० १५२० में इन्होंने मुनिदीक्षा प्राप्त की। वि० सं० १५६० में इन्हें आचार्य और गच्छेश पद प्राप्त हुआ एवं वि०सं० १५८३ में इनका देहान्त हो गया।४९ __ भावसागरसूरि नामधारी उक्त दोनों मुनिजनों को समय के अन्तराल आदि बातों को देखते हुए अलग-अलग व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। वि०सं० १५१९ के एक प्रतिमालेख में भी भावसागरसूरि का नाम मिलता है, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ५३ जो निश्चय ही वि०सं० १५१२ के उक्त प्रतिमालेख में उल्लिखित भावसागरसूरि से अभिन्न हैं। लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है : सं० १५१९ वैशाख वदि १ गुरौ श्रीश्रीवंशे श्रे० तेजा भा० सोमाई पु० जावड श्रेयसे श्रीअंचलगच्छे श्रीभावसागरसूरीणामु० श्रीमुनिसुव्रतस्वामिबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन । । मुनिसुव्रत की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, वासुपूज्य जिनालय, सुरेन्द्रनगर अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ६२०. कवि पेथो ये जयकेशरीसूरि के श्रावक शिष्य थे। इनके द्वारा गुजराती भाषा में रचित "पार्श्वनाथ दसभव विवाहलो" नामक कृति प्राप्त होती है । ५० रचना के अन्त में प्रशस्ति के अन्तर्गत इन्होंने अपने गुरु का सादर स्मरण किया है। मुनिसुव्रत जिनालय खम्भात में रखी श्रेयांसनाथ की धातु- प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में भी पेथो का अंचलगच्छीय श्रावक के रूप में नाम मिलता है । ५१ यह प्रतिमा आचार्य जयकेशरीसूरि के उपदेश से श्रीसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थी । लेख का मूलपाठ इस प्रकार है संवत् १५१२ फाल्गुन सुदि ८ शनौ श्रीमालज्ञातीय पं० नरूआ भार्या वाछी पुत्र कूरणा मं... जणसी प्रमुखस्वकुटुंबसहितेन पं० पेथासुश्रावकेन भार्या बीरू संजितेन च निजश्रेयसे श्रीअंचलगच्छे श्रीजयकेशरीसूरीणामुपदेशेन श्रीश्रेयांसनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन ।। पार्श्वनाथदसभवविवाहलो के रचनाकार पेथो और उक्त प्रतिमालेख में उल्लिखित पं० पेथा को समसामयिकता, नामसाम्य आदि को दृष्टिगत रखते हुए एक व्यक्ति माना जा सकता है। श्री पार्श्व का भी यही मत है । ५२ वि०सं० १५४१ में जयकेशरीसूरि के निधन के पश्चात् सिद्धान्तसागरसूरि अंचलगच्छ के नायक बने । पट्टावलियों के अनुसार वि०सं० १५०६ में इनका जन्म हुआ, वि० सं० १५१२ में इन्होंने दीक्षा ली, वि०सं० १५४१ में ये गुरु के पट्टधर बने और वि० सं० १५६० में इनका निधन हो गया । सिद्धान्तसागरसूरि द्वारा रचित चतुर्विंशतिस्तव नामक कृति प्राप्त होती है । ५३ वि०सं० १५४२ से वि०सं० १५५७ तक प्रतिष्ठापित अंचलगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों में इनका नाम मिलता है । ५४ इनका विवरण इस प्रकार है Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १. १५४२ ३. 8. १५४२ १५४४ १५४५ १५४५ सिद्धान्तसागरसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा पद्मप्रभ जिनालय, भरुच पर उत्कीर्ण लेख १५४७ वैशाख सुदि १० गुरुवार वैशाख सुदि १३ रविवार कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वैशाख सुदि ३ सोमवार ज्येष्ठ सुदि १० माघ सुदि १३ बुधवार वैशाख सुदि ३ सोमवार अभिनन्दनस्वामी की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शान्तिनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शान्तिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख मुनिसुव्रत जिनालय, जामनगर बड़ा देरासर, जामनगर जैन मन्दिर, सौदागरपोल, अहमदाबाद सुपार्श्वनाथ का पंचायती बड़ा मन्दिर, जयपुर वीर जिनालय, थराद सन्दर्भग्रन्थ जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग २, लेखांक ३६५ एवं अं.ले.सं., लेखांक २०७. प्रा.ले.सं., लेखांक ४८४ एवं अं.ले.सं., लेखांक २०८. | प्रा.ले.सं., लेखांक ४९० एवं अं.ले०सं०, लेखांक २०९. जै०धा.प्र.ले.सं., भाग लेखांक ७८० एवं अं.ले.सं., लेखांक २११. जै० ले० सं०, भाग २, लेखांक ११६६ एवं अं.ले.सं., लेखांक २१०. श्री.प्र.ले.सं., लेखांक १९४ एवं अं.ले.सं., लेखांक २१६ ५४ अचलगच्छ का इतिहास Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १५४७ माघ सुदि १३ ८. १५४७ माघ सुदि १३ रविवार १५४७ माघ सुदि १३ रविवार . १५४७ | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ सुविधिनाथ की धातु की प्रतिमा वीर जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक ९६२ एवं अंले.सं., लेखांक २१२. पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, सुरत जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ५९९ एवं अंले सं., लेखांक २१५. शान्तिनाथ की प्रतिमा पर शान्तिनाथ जिनालय, प्रा.ले.सं.,लेखांक ४९८ एवं उत्कीर्ण लेख तलाजा अंले.सं., लेखांक २१४. शीलतनाथ की धातु की प्रतिमा शान्तिनाथ देरासर, अंले.सं., लेखांक २१३ पर उत्कीर्ण लेख | शान्तिनाथपोल,अहमदाबाद संभवनाथ की प्रतिमा पर मोतीशाह की ट्रंक. श.वै., लेखांक २४४. उत्कीर्ण लेख | शत्रुजय चन्द्रप्रभ की चौबीसी प्रतिमा | जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ७१७ एवं अंले.सं., लेखांक २१७. कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर । वीर जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक ९७८ एवं अंले०सं०, लेखांक २१८. अचलगच्छ का इतिहास | १५४८ | वैशाख सुदि १० १५४८ माघ सुदि ४ १३. | १५४८ | माघ सुदि ५ सोमवार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ १६. । १५४.... क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १४. १५४८ माघ सुदि ४-५ सोमवार आदिनाथ की चौबीसी प्रतिमा शान्तिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख खंभात लेखांक ६८४ एवं अंले.सं., लेखांक २१९. १५. १५४९ आषाढ़ सुदि १ सोमवार वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा जैन देरासर, गेरीता जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ६६४ एवं अंले.सं., लेखांक २२०. अजितनाथ की धातु की पंच- विजयगच्छीय मन्दिर, प्र.ले.सं.,लेखांक ८५८ एवं तीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | जयपुर अंले.सं., लेखांक ४३२. | १५५१ वैशाख सुदि १३ गुरुवार | संभवनाथ की धातु की प्रतिमा शान्तिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख खंभात लेखांक ६७८ एवं अंले.सं.. लेखांक २२३. १८. १५५१ वैशाख सुदि १३ गुरुवार सुविधिनाथ की धातु की प्रतिमा पार्श्वनाथ जिनालय, माणेक जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख चौक, खंभात लेखांक ९६७ एवं अंले.सं., लेखांक २२४. १९. १५५१ पौष सुदि १३ शुक्रवार सुविधिनाथ की प्रतिमा पर शान्तिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख कनासानो पाड़ो, पाटन लेखांक ३१० एवं अं.ले.सं., लेखांक २२१. अचलगच्छ का इतिहास Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन २०. २१. २२. २३. २४. २५. १५५१ १५५२ १५५२ १५५३ १५५३ १५५३ पौष सुदि १३ शुक्रवार वैशाख वदि ३ शनिवार माघ सुदि १ बुधवार ज्येष्ठ वदि १० गुरुवार लेख का स्वरूप शान्तिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख माघ वदि १ बुधवार कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वैशाख वदि ११ शुक्रवार सुविधिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान वीर जिनालय, माणिक तल्ला, कलकत्ता वीर जिनालय, थराद जैन देरासर, सौदागरपोल, अहमदाबाद मल्लिनाथ जिनालय, भोयरापाड़ो, खंभात अजितनाथ जिनालय, शेखनो पाड़ो, अहमदाबाद शान्तिनाथ जिनालय, कोठीपोल, बड़ोदरा सन्दर्भग्रन्थ जै. ले० सं०, भाग १, लेखांक ११९ एवं अं.ले.सं., लेखांक २२२. श्री. प्र.ले.सं., लेखांक १८९ एवं अं.ले.सं., लेखांक २२६ जै०धा.प्र.ले.सं., भाग १, लेखांक ७९९ एवं अं०ले०सं०, लेखांक २२५. जै०धा० प्र०ले० सं०, भाग २, | लेखांक ९०८ एवं अं. ले०सं०, लेखांक २३०. जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग १, लेखांक १०७७ एवं अं.ले. सं., लेखांक २२९. जै०धा० प्र०ले०सं०, भाग २, लेखांक ६१ एवं अं.ले.सं., लेखांक २२७. अचलगच्छ का इतिहास ढ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन २६. १५५३ माघ सुदि ५ रविवार २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. १५५४ १५५४ १५५५ १५५५ १५ (?) १५५६ पौष सुदि १५ सोमवार ? लेख का स्वरूप संभवनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वैशाख सुदि ६ सोमवार सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख ज्येष्ठ सुदि ३ सोमवार मार्गशीर्ष सुदि १३ शुक्रवार पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शान्तिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख श्रेयांसनाथ की पाषाण की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चन्द्रप्रभ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान जैन देरासर, कोलवड़ा वीर जिनालय, लखनऊ सन्दर्भग्रन्थ जै०धा०प्र० ले० सं०, भाग १, | लेखांक ६५८ एवं अं.ले.सं., लेखांक २२८. वणियवाड़ा का प्राचीन जिनालय, माण्डवगढ़ बड़ा जैन मन्दिर, कनासानो पाड़ो, पाटण जैन मन्दिर, माण्डवगढ़ जै० ले०सं०, भाग २, लेखांक १५७३ एवं अं.ले.सं., लेखांक १५७३. पंचायती मन्दिर, लश्कर, जै०ले०सं०, भाग २, लेखांक ग्वालियर १४१२ एवं अ.ले.सं., लेखांक २३१. अं.ले.सं., लेखांक २३६. वही, लेखांक २३३. वही, लेखांक २३५. धर्मनाथ जिनालय, मेड़ता प्र.ले.सं., लेखांक ८८६ एवं सिटी अं.ले.सं., लेखांक ४३४. 가 अचलगच्छ का इतिहास Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन ३३. १५५६ | ज्येष्ठ सुदि ८ शुक्रवार लेख का स्वरूप सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान चन्द्रप्रभ जिनालय, |जैसलेमर ३४. | १५५६ ज्येष्ठ सुदि ८ शुक्रवार सन्दर्भग्रन्थ जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक २३६० एवं अं.ले.सं., लेखांक २३७. बी.जै.ले.सं., लेखांक |१८१६. जै.धा प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ६३८ एवं अंले.सं., लेखांक २३८. | शान्तिनाथ की चौबीसी प्रतिमा । शान्तिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख नाहटों में, बीकानेर सुविधिनाथ की प्रतिमा पर मुनिसुव्रत जिनालय, उत्कीर्ण लेख | मांडवीपोल, खंभात ३५. १५५७ | ज्येष्ठ सुदि ३ रविवार (श्रीपार्श्व ने रविवार की जगर गुरुवार दिया है जो सही नहीं है) अचलगच्छ का इतिहास Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास सिद्धान्तसागरसूरि के समय तक अंचलगच्छ में विभिन्न शाखायें अस्तित्त्व में आ चुकी थीं। जैसे कमलरूप से रूप शाखा, धर्मलाभ से लाभ शाखा, भाववर्धन से वर्धनशाखा आदि। वर्धन शाखा के प्रवर्तक भाववर्धन का वि०सं० १५५६ में प्रतिष्ठापित चन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठा हेतु उपदेशक के रूप में उल्लेख मिलता है _ ६० स्त्र० १५५६ वर्षे चैत्र सुदि ७ सोम प्राग्वाटज्ञातीय सा० चान्दा भार्या सलखणदे पु० लोलाबाई मापाता सा० खीमा भार्या खेतलदे सकुटुम्बयुतेन आत्मपु० श्रीचन्द्रप्रभस्वामिबिंबं का० श्रीअंचलगच्छे श्रीसिद्धान्तसागरसूरि विद्यमाने वा० भाववर्धनगणिनामुपदेशेन प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन मुन्नडावास्तव्य ।। अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक २४० इसी लेखसंग्रह में लेखांक ४३४ पर भी यही पाठ दिया गया है, अन्तर केवल यही है कि चैत्र के स्थान पर वैशाख लिखा हुआ है। दोनों पाठों में कौन-सा पाठ सही है इसे ज्ञात करने के लिये हमारे पास इस सम्बन्ध में कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सिद्धान्तसागरसूरि के गुरुभ्राता धर्मशेखर के शिष्य उदयसागर ५५ भी एक विद्वान् मुनि थे। इनके द्वारा रची गयी तीन कृतियां आज मिलती हैं, जो निम्नानुसार हैं : १. उत्तराध्ययनसूत्रदीपिका : रचना काल वि०सं० १५४६ / ई० सन् १४९०; भाषा संस्कृत - ८५०० श्लोक परिमाण शांतिनाथचरित : २७०० श्लोक परिमाण २. ३. कल्पसूत्रअवचूरि : २०८५ श्लोक परिमाण सिद्धान्तसागरसूरि के निधन के पश्चात् वि० सं० १५६० में अंचलगच्छ के १५ वें पट्टधर के रूप में भावसागरसूरि का नाम मिलता है । इनके द्वारा प्राकृत भाषा में रचित २३१ गाथापरिमाण वीरवंशावली नामक कृति प्राप्त होती है। इसमें रचनाकार ने प्रारम्भ से लेकर अपने गुरु सिद्धान्तसागरसूरि तक का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है जो इस गच्छ के प्रारम्भिक इतिहास के अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयोगी है। मुनिजिनविजय ने इसे स्वसम्पादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह ५६ में प्रकाशित किया है। भावसागरसूरि के उपदेश से प्रतिष्ठापित ४५ से अधिक जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो वि० सं० १५६० से लेकर वि० सं० १५८१ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १. १५६० २. ३. ४. ६. ७ १५६० १५६० १५६० १५६० १५६० भावसागरसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका १५६१ प्राप्तिस्थान लेख का स्वरूप शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा जगवल्लभ पार्श्वनाथ देरासर, पर उत्कीर्ण लेख नीशापोल, अहमदाबाद वैशाख सुदि १५ शनिवार कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख खेरालु वैशाख सुदि ३ बुधवार ज्येष्ठ वदि ७ बुधवार माघ सुदि ५ शुक्रवार माघ सुदि १३ सोमवार माघ सुदि १३ सोमवार वैशाख वदि ५ बुधवार संभवनाथ की धातु की प्रतिमा चिन्तामणि पार्श्वनाथ पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, खंभात कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा सीमंधर स्वामी का पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, अहमदाबाद संभवनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख संभवनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, पायधुनी, मुम्बई सन्दर्भग्रन्थ अं.ले.सं., लेखांक २४१. सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा सोमपार्श्वनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख संघवीपाड़ा, खंभात जै०धा०प्र०ले०सं०, भाग १, | लेखांक ७५२ एवं अं.ले.सं., लेखांक २४२. जै०धा. प्र. ले० सं०, भाग २, लेखांक १११३ एवं अं.ले. सं., लेखांक २४३. संभवनाथ जिनालय, बोल- वही, भाग २, लेखांक पीपलो, खंभात ११४३ एवं अं.ले.सं., लेखांक २४९. जै. धा.प्र.ले., लेखांक २७४. जै०धा०प्र०ले० सं०, भाग १, लेखांक ११६१. जै० धा० प्र०ले० सं०, भाग २, लेखांक ७७८ एवं अं.ले.सं., अचलगच्छ का इतिहास Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप । प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ लेखांक २४६. ८. | १५६१ । वैशाख सुदि ३ | सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा बृहद्खरतरगच्छ उपाश्रय, जै.ले.सं., भाग ३, लेखांक पर उत्कीर्ण लेख जैसलमेर २४८७ एवं अंले.सं., लेखांक २४५. ९. | १५६१ पौष सुदि ५ सोमवार आदिनाथ की प्रतिमा पर जैन मन्दिर, अलवर अंले.सं., लेखांक २४४. उत्कीर्ण लेख प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण हथुडी (हस्तिकुण्डी), नाणा | जै.ले.सं., भाग १, लेखांक विशाल लेख |९९८. १५६३ वैशाख सुदि ११ शुक्रवार | नमिनाथ की धातु की प्रतिमा जैन मन्दिर, घाटकोपर, जै.धा.प्र.ले.सं., लेखांक पर उत्कीर्ण लेख मुम्बई २७७ एवं अंले.सं., लेखांक ७०४. पौष वदि ५ रविवार शीतलनाथ की धातु की पंचतीर्थी जैन मन्दिर, हद्राणा अ.प्र.जै.ले.सं., लेखांक प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख २०५. १३. | १५६४ वैशाख वदि १२ बुधवार चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा पर | सीमंधर स्वामी का मन्दिर, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक १२०६ अंले.सं. एवं लेखांक २५०. अचलगच्छ का इतिहास Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ वैशाख वदि १२ बुधवार | अजितनाथ की धातु की प्रतिमा सीमंधर स्वामी का मन्दिर, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक ११८४ एवं अंले.सं., लेखांक २४९. १५६४ वैशाख वदि १२ बुधवार | विमलनाथ की धातु की प्रतिमा | वीर जिनालय, अहमदाबाद जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ९८६ एवं अंले.सं., लेखांक २४८. १५६४ वैशाख वदि १२ बुधवार | शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख जानीशेरी, बड़ोदरा लेखांक १५७. १५६५ | वैशाख वदि १२ बुधवार नमिनाथ की धातु की प्रतिमा पार्श्वनाथ जिनालय, अ.प्र.जै.ले.सं., लेखांक पर उत्कीर्ण लेख . रोहिड़ा |५९४ एवं अंले.सं., लेखांक ७०६. १८. १५६५ वैशाख वदि १३ अजितनाथ की चौबीसी प्रतिमा | महावीर जिनालय, पुरानी जै.ले.सं., भाग १, लेखांक | पर उत्कीर्ण लेख | मंडी, जोधपुर. ५९८ एवं अंले.सं., लेखांक २५२. १५६६ वैशाख वदि ११ शनिवार | चन्द्रप्रभ की धातु की प्रतिमा शान्तिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख शांतिनाथपोल, अहमदाबाद लेखांक १२७० एवं अंले. सं०, लेखांक २५४. अचलगच्छ का इतिहास Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ २०. । १५६६ माघ वदि २ रविवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा शान्तिनाथ जिनालय, जैधा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख | शांतिनाथपोल, अहमदाबाद लेखांक १२७६ एवं अंले. सं०, लेखांक २५६. २१. । १५६७ वैशाख वदि १० गुरुवार | पद्मप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण | संभवनाथ देरासर, कड़ी जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, लेख लेखांक ७२६ एवं अंले.सं.. लेखांक २५७.(नोट- यही प्रतिमा लेख कुछ पाठान्तर के साथ श्रीपार्श्व ने अंले.सं. लेखांक ७१० में भी दिया है।) १५६७ | वैशाख सुदि १० बुधवार संभवनाथ की प्रतिमा पर शांतिनाथ जिनालय, बी.जै ले.सं., लेखांक ११३२ उत्कीर्ण लेख बीकानेर एवं अंले.सं.,लेखांक ७०८. १५६७ ज्येष्ठ वदि १३ सोमवार विमलनाथ की प्रतिमा पर शांतिनाथ जिनालय, अं.ले.सं., लेखांक ७११. उत्कीर्ण लेख | झिंझूवाड़ा २४. १५६७ पौष वदि ६ गुरुवार पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा चन्द्रप्रभ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख सुल्तानपुरा, बड़ोदरा लेखांक १९१ एवं अंले.सं., लेखांक २५५. २५. १५६७ माघ सुदि ५ गुरुवार शीतलनाथ की प्रतिमा पर कुन्थुनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख खम्भात लेखांक ६६७ एवं अंले.सं., अचलगच्छ का इतिहास Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ लेखांक २५६. १५६८ | माघ सुदि २ सुपार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा | शान्तिनाथ जिनालय, जैधा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख शांतिनाथपोल, अहमदाबाद| लेखांक १३५०. | १५६८ | माघ सुदि ५ गुरुवार पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा अजितनाथ देरासर, अंले.सं., लेखांक २५९. पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद | १५६८ माघ सुदि ५ गुरुवार सुविधिनाथ की प्रतिमा पर जैनमन्दिर, सौदागरपोल, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद लेखांक ७९५ एवं अंले सं.. लेखांक २५८. | १५६९ | वैशाख सुदि १३ बालावसही, शत्रुजय श.वै., लेखांक २६७ एवं अंले.सं., लेखांक ७१६. १५६९ | मार्गशीर्ष सुदि ५ गुरुवार | आदिनाथ की धातु की चौबीसी | बावन जिनालय, पेथापुर जैल्धा.प्र.ले.सं., भाग १, प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख लेखांक ६९८. १५६९ | माघ सुदि १३ बुधवार | आदिनाथ की धातु की पंचतीर्थी अस्पष्ट श.गि.द., लेखांक ३७१. प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख ३२. । १५७० पौष वदि २ गुरुवार | नीलमणिपार्श्वनाथ की प्रतिमा । भीड़भंजन पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, | पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, खेड़ा लेखांक ४४६ एवं अंले सं०, लेखांक २६०. अचलगच्छ का इतिहास अस्पष्ट Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १५७० पौष वदि ५ रविवार लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान | पद्मप्रभु की धातु की पंचतीर्थी । आदिनाथ जिनालय, प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | राधनपुर आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | आदिनाथ जिनालय, । पर उत्कीर्ण लेख मुम्बई सन्दर्भग्रन्थ रा.प्र.ले.सं., लेखांक ३२७ एवं अंले.सं., लेखांक ४८३ जै.धा.प्र.ले.सं., लेखांक २८५ एवं अंले.सं., लेखांक ३४. । १५७० माघ वदि ९ शनिवार ७१९. १५७१ १५७१ अचलगच्छ का इतिहास १५७२ वैशाख वदि १३ गुरुवार शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, मोरवीले.सं., लेखांक ७२१. पर उत्कीर्ण लेख वैशाख वदि १३ गुरुवार शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा | पद्मप्रभ जिनालय, बेलाग्राम वही, लेखांक ७२२. | पर उत्कीर्ण लेख वैशाख सुदि ३ सोमवार | शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा शीतलनाथ जिनालय, वही, लेखांक ७२४. पर उत्कीर्ण लेख बजरंगगढ़, ग्वालियर | वैशाख सुदि ३ सोमवार | शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा घर देरासर, खंभात वही, लेखांक ७२५. पर उत्कीर्ण लेख वैशाख सुदि ८ सोमवार | वासुपूज्य स्वामी की धातु की शांतिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ७२६. प्रतिमा का उत्कीर्ण लेख । वैशाख सुदि ८ सोमवार सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर गोधावी ग्राम वही, लेखांक ७२७. पर उत्कीर्ण लेख १५७२ | १५७२ १५७२ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपार्श्व ने अंले.सं. में लेखांक ७२४-२५ में प्रतिष्ठा का दिन वि.सं. १५७२ वैशाख सुदि ३ सोमवार दिया है जबकि वि.सं. १५७२ के ही लेखांक ७२६ एवं ७२७ में वैशाख सुदि ८ को भी सोमवार होना सूचित किया गया है। सही पाठ का निर्णय तो प्रतिमालेख के मूलपाठ को देखकर ही कर पाना सम्भव है। सन्दर्भग्रन्थ | अंले.सं., लेखांक ७२३. क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान फाल्गुन सुदि २ रविवार | कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, शत्रुजय । पर उत्कीर्ण लेख १५७३ वैशाख सुदि ३ शुक्रवार | विमलनाथ की धातु की पंचतीर्थी | भीड़भंजन पार्श्वनाथ | प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख | जिनालय, खेड़ा | १५७३ अचलगच्छ का इतिहास | फाल्गुन सुदि २ रविवार | चन्द्रप्रभ की धातु की प्रतिमा | जैनमन्दिर, चाणस्मा पर उत्कीर्ण लेख जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, | लेखांक ४४८ एवं अंले.सं., लेखांक २६७. जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, | लेखांक १२१ एवं अंले.सं, लेखांक २६१ और ७२८ एवं ७३०. शगि द०, लेखांक ३१९, श वै०, लेखांक २७० एवं अंले.सं., लेखांक ७२९. जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ९०३ एवं अंले.सं., १५७३ फाल्गुन सुदि २ रविवार | कुन्थुनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा | बालावसही, शत्रुजय पर उत्कीर्ण लेख १५७३ फाल्गुन सुदि २ रविवार आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | मल्लिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख भोयरा पाड़ो, खंभात Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन ४६. ४७. ४८. ४९. १५७४ १५७६ १५७६ १५८१ माघ सुदि १३ शनिवार चैत्र वदि ५ शनिवार वैशाख सुदि ३ शुक्रवार माघ सुदि १३ रविवार लेख का स्वरूप धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख जैन मन्दिर, चेलपुरी, दिल्ली सुविधिनाथ की धातु की प्रतिमा जैन मन्दिर, ऊंझा पर उत्कीर्ण लेख जैन मन्दिर, पटना शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा सुमतिनाथ मुख्य बावन पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, मातर सन्दर्भग्रन्थ लेखांक २६६. जै० ले० सं०, भाग १, लेखांक ५०० एवं अं.ले.सं., लेखांक २६२. अं.ले.सं., लेखांक २६३. जै. ले० सं०, भाग १, लेखांक २९२ एवं अं.ले.सं., लेखांक २६४. जै०धा०प्र० ले०सं०, भाग २, लेखांक ४६७ एवं अं.ले.सं., लेखांक २६५. ६८ अचलगच्छ का इतिहास Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ६९ सिद्धान्तसागरसूरि के दूसरे शिष्य सुमतिसागर से अंचलगच्छ की गोरक्ष शाखा अस्तित्व में आयी। इस शाखा में भी कई विद्वान् मुनि हो चुके हैं जिनके बारे में यथास्थान प्रकाश डाला गया है। भावसागरसूरि के पट्टधर गुणनिधानसूरि हुए। इनके द्वारा रचित न तो कोई साहित्य प्राप्त होता है और न ही किन्हीं अन्य साक्ष्यों में इनके किसी कृति का उल्लेख ही मिलता है। इनके उपदेश से श्रावकों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें भी अंचलगच्छीय पूर्वाचार्यों की तुलना में कम हैं। ये प्रतिमायें वि०सं० १५७९ से वि०सं० १६०० तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० मथुरा गुणनिधानसूरि के उपदेश से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन । | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्य १. | १५७९ माघ सुदि ६ शुक्रवार | पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर पार्श्वनाथ जिलनालय, जै.ले.सं., भाग २, लेखांक उत्कीर्ण लेख | १४३९ एवं अंले.सं., लेखांक २६८. २. १५८४ चैत्र वदि ५ गुरुवार आदिनाथ की प्रतिमा पर शांतिनाथ जिनालय, | जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, उत्कीर्ण लेख खंभात लेखांक ६६२ एवं अंले.सं., लेखांक २६९. १५८७ वैशार ७ सोमवार चन्द्रप्रभ की धातु की प्रतिमा । शांतिनाथ जिनालय, अं.ले.सं., लेखांक २७१. पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद १५८७ | वैशाख वदि ७ सोमवार | वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा | जैन मन्दिर, ईडर जै.धा.प्र.ले.सं., भाग १, पर उत्कीर्ण लेख लेखांक १४७९ एवं अंले. सं०, लेखांक २७२. ५. | १५८७ वैशाख वदि ७ सोमवार आदिनाथ की धातु की प्रतिमा | शांतिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख | खंभात लेखांक ६८३ एवं अंले.सं., लेखांक २७३. १५८७ माघ सुदि ५ रविवार सुपार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा संभवनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, पर उत्कीर्ण लेख मीयाग्राम लेखांक २८७ एवं अंले.सं., लेखांक २७०. अचलगच्छ का इतिहास Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाति क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप | प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १५९१ | वैशाख वदि ६ शुक्रवार | अनन्तनाथ की प्रतिमा पर शांतिनाथ जिनालय, जैधा०प्र०ले०सं०, भाग २, उत्कीर्ण लेख आरीपाड़ो, सूरत लेखांक ५६५ एवं अंले.सं., लेखांक २७६. ८. १५९१ पौष वदि ११ गुरुवार कुन्थुनाथ की धातु की पंचतीर्थी जैन मन्दिर, हरिपुरा, अंले.सं.,लेखांक २७४ एवं प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख सूरत २७५ तथा जै.धा.प्र.ले.सं.. भाग १, लेखांक ६०४. १५९१ पौष वदि ११ गुरुवार अस्पष्ट बालावसही, शत्रुजंय श गि.द., लेखांक २६९ | एवं श.वै., लेखांक २८४. १०. १६०० ज्येष्ठ सुदि ३ शनिवार सुमतिनाथ की प्रतिमा पर | सीमंधर स्वामी का मन्दिर, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख खारखाड़ो, खंभात लेखांक १०७० एवं अंले. सं., लेखांक २७७. ११. १६०० | ज्येष्ठ सुदि ३ शनिवार । नेमिनाथ की प्रतिमा पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ अंले.सं., लेखांक ७३८. उत्कीर्ण लेख | जिनालय, पायधुनी, मुम्बई . १६०० | ज्येष्ठ सुदि ३ शनिवार धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिना- जै.धा.प्र.ले.सं., लेखांक पर उत्कीर्ण लेख | लय, गुलालवाड़ी, मुम्बई |३०४. | १६०० पौष वदि ५ सोमवार शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा । जैन मन्दिर, राजगढ़, अंले.सं., लेखांक ७३७. पर उत्कीर्ण लेख मध्य प्रदेश अचलगच्छ का इतिहास Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अचलगच्छ का इतिहास गुणनिधान के एक शिष्य हर्षनिधान हुए, जिनके द्वारा रचित रत्नसंचय नामक कृति प्राप्त होती है।५६ वि०सं० १६०० में गुणनिधानसूरि के निधन के पश्चात् उनके पट्टधर धर्ममूर्तिसूरि हुए। अमरसागरसूरिकृत पट्टावली के अनुसार इन्होंने षडावश्यकवृत्ति तथा गुणस्थानक्रमावरोहबृहवृत्ति की रचना की।५७ श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र अपरनाम वृद्धचैत्यवन्दन और प्रद्युम्नचरित भी इन्हीं की ति मानी जाती है।५८ इनके उपदेश से विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों का पुनरुद्धार हुआ। अनेक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करायी गयीं। इनके उपदेश से प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्ममूर्तिसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका क्रमांक | प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान १. १६०३ | वैशाख सुदि ३ शुक्रवार शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा | आदिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख गागरडू १६२९ | माघ सुदि १३ बुधवार पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा । श्रेयांसनाथ देरासर, | पर उत्कीर्ण लेख फताशाह की पोल, अहमदाबाद १६४४ | फाल्गुन सुदि २ रविवार सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा सुमतिनाथ मुख्य बावन पर उत्कीर्ण लेख (जिनालय, मातर सन्दर्भग्रन्थ प्र.ले.सं., लेखांक १००४ एवं अंले.सं., लेखांक ४२६ |अंले.सं., लेखांक २७९. ३ अचलगच्छ का इतिहास १६५४ माघ वदि ९ रविवार | सुविधिनाथ की धातु की प्रतिमा विमलनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख सवाईमाधोपुर | श्रेयांसनाथ की धातु की प्रतिमा | शांतिनाथ जिनालय, पर उत्कीर्ण लेख कोठीपोल, बड़ोदरा १६५४ माघ वदि ९ रविवार जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ५०३ एवं अंले०सं०, लेखांक २८०. अंले.सं.,लेखांक ४४१ एवं प्र.ले.सं., लेखांक १०६५. जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ६४ एवं अंले.सं., लेखांक २८१. जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, लेखांक ५८८ एवं अंले सं०, लेखांक २८२. ६. १६५४ | माघ वदि ९ रविवार | सुपार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा | चिन्तामणि पार्श्वनाथ | पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, खंभात है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अचलगच्छ का इतिहास धर्ममूर्तिसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों में कई प्रसिद्ध रचनाकार हो चुके हैं। इनके द्वारा रचित विभिन्न उपलब्ध कृतियों से इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। वि०सं० १६०५ में रची गयी वैराग्यवीनती की प्रशस्ति में रचनाकार सहजरत्न ने स्वयं को धर्ममूर्तिसूरि का शिष्य बतलाया है। ५९ इसी प्रकार वि०सं० १६२४ में रची गयी गजसुकुमारसन्धि के रचनाकार मूलावाचक ने स्वयं को धर्ममूर्तिसूरि का प्रशिष्य और वा०रत्नप्रभ का शिष्य कहा है।६० __धर्ममूर्तिसूरि के एक शिष्य हेमशील हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति तो नहीं मिलती; किन्तु उनके शिष्य विजयशील ने वि० सं० १६४१ में उत्तमचरित-ऋषिराजचौपाई की रचना की।६१ विजयशील के एक शिष्य दयाशील हुए जिन्होंने वि०सं० १६६४/ ई०स० १६०८ के आसपास अन्तरंगकुटुम्बगीत की रचना की। ६२ इनके द्वारा रचित एक अन्य कृति कायाकुटुम्बसज्झायस्तवन भी प्राप्त होती है। ६३ विजयशील के एक अन्य शिष्य जसकीर्ति हुए जिन्होंने अंचलगच्छीय श्रावक कुंवरपाल सोनपाल द्वारा वि०सं० १६७०/ई०स० १६१४ में तीर्थयात्रा हेतु निकाले गये संघ का विस्तृत एवं ऐतिहासिक विवरण अपनी महत्त्वपूर्ण कृति सम्मेतशिखररास में प्रस्तुत किया है।६४ धर्ममूर्तिसूरि के एक अन्य शिष्य विमलमूर्ति के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। इनके द्वारा रचित कोई कृति तो नहीं मिलती, यही बात इनके शिष्य गुणमूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है; किन्तु इनके प्रशिष्य ज्ञानमूर्ति ने वि०सं० १६९४/ ई०सन् १६३८ में रूपसेनराजर्षिचौपाई की रचना की जिसकी प्रशस्ति से उक्त बात ज्ञात होती है।६५ इसी प्रकार धर्ममूर्तिसूरि के एक अन्य शिष्य भानुलब्धि द्वारा कोई कृति नहीं मिलती; किन्तु उनके शिष्य मेघराज द्वारा रचित वि०सं० १६७० में रचित सत्तरभेदीपूजा नामक कृति प्राप्त होती है जिसकी प्रशस्ति में रचनाकार ने अपने गुरु-प्रगुरु आदि का सादर उल्लेख किया है।६६ कल्याणसागरसूरि भी धर्ममूर्तिसूरि के ही शिष्य थे जो उनके निधनोपरान्त अंचलगच्छ के नायक बने। इस प्रकार उक्त साक्ष्यों के आधार पर धर्ममूर्तिसरि के शिष्यों-प्रशिष्यों की एक तालिका निर्मित की जा सकती है, जो इस प्रकार है - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशील विजयशील (वि.सं. १६४१ में उत्तमचरितऋषिराजचौपाई के कर्त्ता धर्ममूर्तिसूरि गुणनिधानसूरि भानुलब्धि मेघराज (सत्तरभेदीपूजा के कर्ता) दयाशील जसकीर्ति वि.सं. १६७० के पश्चात् वि० सं० १६६४ के आस-पास सम्मेतशिखररास के कर्त्ता अन्तरंगकुटुम्बगीत एवं कायाकुटुम्बसज्झायस्तवन के कर्ता हर्षनिधान (रत्नसंचय के रचनाकार) उपाध्यायमूर्ति | वा० गुणमूर्ति पं० ज्ञानमूर्ति (वि.सं. १६९४ में रूपसेनराजर्षिचौपाई के रचनाकार वा० रत्नप्रभ 1 मूलावाचक (वि.सं. १६२४ गजसुकुमालसंधि के कर्ता) सहजरत्न (वि.सं. १६०५ में वैराग्यवीनती के रचनाकार) कल्याणसागरसूरि (पट्टधर) अचलगच्छ का इतिहास ७५ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अचलगच्छ का इतिहास आचार्य धर्ममूर्तिसूरि के निधन के पश्चात् कल्याणसागरसूरि उनके पट्टधर बने। विभिन्न पट्टावलियों में धर्ममूर्तिसूरि का देहावसान काल वि०सं० १६७० दिया गया है, परन्तु कल्याणसागरसूरि की विद्यमानता में रायमल्लगणि के शिष्य मुनि लाखा द्वारा रचित गुरुपट्टावली के अनुसार वि०सं० १६७१ में पाटण में आचार्य धर्ममूर्तिसूरि का देहान्त हुआ और इसी वर्ष पौष वदि ११ को कल्याणसागरसूरि गच्छाधिपति बनाये गये।६७ पट्टावलियों में इनके सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण विवरण प्राप्त होते हैं। इनके समय में जैन समाज में पारस्परिक तनाव चरम सीमा पर था; किन्तु ये भेदमूलक प्रवृत्तियों से सदैव दूर रहकर स्वगच्छ सम्पोषण में ही अनुरक्त रहे। गुजरात, कच्छ और राजस्थान तक इनका विहार क्षेत्र रहा। नव्यनगर (नवानगर) के निवासी राजमान्य श्रेष्ठी राजसी शाह (राजसिंह शाह) कल्याणसागरसरि के परम भक्त थे। इन्होंने नवानगर में एक भव्य जिनालय बनवाया६८ और उसमें वि० सं० १६७२ में कल्याणसागरसूरि की निश्रा में बड़ी संख्या में जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका सम्पन्न हुई।६९ इन्होंने शत्रुजय तथा अन्य तीर्थस्थानों पर भी जिनालयों का निर्माण कराया। इनके द्वारा कई उपाश्रयों का भी निर्माण हुआ और संघपति के रूप में इन्होंने शत्रुजय तथा गौड़ीपार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा की।७० आगरा के प्रसिद्ध श्रेष्ठी तथा सम्राट जहांगीर के विश्वासपात्र कुंवरपाल एवं सोनपाल भी कल्याणसागरसूरि के परम भक्त थे। आचार्य धर्ममूर्तिसूरि की प्रेरणा से उक्त श्रेष्ठी बन्धुओं ने आगरा में दो भव्य जिनालयों का निर्माण कराया।७१ आचार्य कल्याणसागरसूरि की निश्रा में वि०सं० १६७१ वैशाख सुदि ३ को इन जिनालय में ४५० जिनप्रतिमाओं की अंजनशलाका सम्पन्न हुई।७२ इनमें से अनेक प्रतिमायें आज भी मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न स्थानों पर आज भी पूजा में हैं।७३ मूलत: कच्छ निवासी और जामनगर में जाकर बसे हुए श्रेष्ठी वर्धमान शाह और उनके भ्राता पद्मसिंह शाह भी कल्याणसागरसूरि के निकटस्थ श्रावकों में से थे।७४ वि०सं० १६७६ में इन्होंने शत्रुजय पर एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया।७५ शत्रुजय स्थित हाथीपोल दरवाजे के दाहिने ओर ३१ पंक्तियों का एक शिलालेख उत्कीर्ण है। इसमें वर्धमान शाह की वंशावली तथा आचार्यों का पट्टानुक्रम आदि दिया गया है, जो इस गच्छ के इतिहास लेखन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।७६ इसी प्रकार इन्होंने जामनगर, भद्रावती (कच्छ), पावागिरि आदि स्थानों पर भी निर्माण कार्य कराया।७७ कल्याणसागरसूरि द्वारा रचित छोटी-बड़ी कुल ३२ कृतियों का उल्लेख मिलता है,७८ जो निम्नानुसार हैं - १. शांतिनाथचरित्र, २. सुरप्रियचरित्र, ३. श्रीजिनस्तोत्र, ४. बीसविहरमानजिनस्तवन, ५. अगडदत्तरास, ६. पार्श्वनाथ सहस्रनाम, ७. मिश्रलिंगकोश, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ७७ ८. मिश्रलिंगकोशविवरण, ९. पार्श्वनाथअष्टोत्तरशतनाम,१०. माणिक्यस्वामीस्तवन, ११. संभवजिनस्तवन १२. सुविधिनाथजिनस्तवन, १३. शांतिजिनस्तवन, १४. अन्तरिक्षपार्श्वनाथस्तवन, १५. गौडीपार्श्वनाथअष्टक, १६. दादापार्श्वनाथस्तवन, १७. कलिकुण्डपार्श्वनाथअष्टक, १८. रावणपार्श्वनाथअष्टक, १९.श्रीगौडीपुरस्तवन, २०. श्रीपार्श्वजिनस्तवन, २१. श्रीमहुरपार्श्वनाथअष्टक, २२. श्रीसत्यपुरीयमहावीरस्तवन, २३. श्रीगौडीपार्श्वस्तवन, २४. श्रीवीराष्टक, २५.श्रीलोणनपार्श्वस्तवन, २६. श्रीसेरीसपार्श्वनाथअष्टक, २७. श्रीसंभवनाथअष्टक, २८. श्रीचिन्तामणिपार्श्वजिनस्तोत्र, २९. श्रीसौरीपुरनेमिनाथस्तवन, ३०. श्रीशांतिनाथस्तवन, ३१. श्रीपार्श्वनाथस्तवन, ३२. श्रीशांतिजिनस्तवन। __ आचार्य कल्याणसागरसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमायें भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं जो वि०सं० १६६७ से लेकर वि०सं०१७१८ तक की हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आपण लेख कल्याणसागरसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन | लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १६६७ श्रावण सुदि २ बुधवार चौबीसी प्रतिमा पर उत्कीर्ण वासुपूज्य जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, | नागरवाड़ो, खंभात लेखांक १०८४ एवं अंले. सं., लेखांक २८५. १६७० वैशाख सुदि ५........x | पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा | शांतिनाथ जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, | पर उत्कीर्ण लेख नदियाड लेखांक ३८५ एवं अंले०सं०, लेखांक २८६. १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार | सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा पर | सुपार्श्वनाथ जिनालय, प्र.ले.सं., लेखांक ११०० उत्कीर्ण लेख | जयपुर एवं अंले.सं.,लेखांक ४४४. १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार | धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा पर गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, प्र.ले.सं., लेखांक ११०१ उत्कीर्ण लेख अजमेर एवं अंले.सं., लेखांक ४४५ १६७१ | वैशाख सुदि ३ शनिवार | आदिनाथ की पाषाण की प्रतिमा नया मन्दिर, जयपुर अंले.सं., लेखांक ४४३. पर उत्कीर्ण लेख १६७१ | वैशाख सुदि ३ शनिवार | महावीर की पाषाण की प्रतिमा | अनन्तनाथ जिनालय, अंले.सं., लेखांक २९६. पर उत्कीर्ण लेख अयोध्या | १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार | वासुपूज्य की प्रतिमा पर | दिगम्बर जैन मन्दिर, वही, लेखांक २९८. उत्कीर्ण लेख आगरा अचलगच्छ का इतिहास Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १६७१ ८. १०. ११. १२. १३. १६७१ १६७१ १६७१ १६७१ १६७१ १४. १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार लेख का स्वरूप सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख विमलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख जैन मन्दिर, पटना पद्मप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण जैन मन्दिर, पटना लेख जिनप्रतिमा के मस्तक पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान दिगम्बर जैन मन्दिर, आगरा विजयगच्छीय मन्दिर, जयपुर जैन मन्दिर, पटना अजितनाथ की प्रतिमा के मस्तक पर उत्कीर्ण लेख चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, लखनऊ चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, लखनऊ सन्दर्भग्रन्थ वही, लेखांक २९९. प्र.ले.सं., लेखांक ११०२ एवं अं.ले.सं., लेखांक ४४६ जै.ले.सं., भाग १, लेखांक ३११. वही, लेखांक ३१०. वही, लेखांक ३०९. जै. ले० सं०, भाग २, लेखांक १५८२ एवं १५८३ तथा अं.ले०सं०, लेखांक ३०७. जै. ले.सं., भाग २, लेखांक १५७९ एवं अं०ले.सं., लेखांक २९३. अचलगच्छ का इतिहास ७९ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन १५. १६७१ १६. १७. १८. १९. २०. २१. १६७१ १६७१ १६७१ १६७१ १६७१ १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार तिथिविहीन लेख का स्वरूप संभवनाथ की प्रतिमा के मस्तक पर उत्कीर्ण लेख अभिनन्दनस्वामी के मस्तक पर उत्कीर्ण लेख जिनप्रतिमा के मस्तक पर उत्कीर्ण लेख जिनप्रतिमा के मस्तक पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, लखनऊ धर्मनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चिन्तमाणि पार्श्वनाथ जिनालय, लखनऊ महावीर जिनालय, लखनऊ पार्श्वनाथ की प्रतिमा के मस्तक चिन्तमाणि पार्श्वनाथ पर उत्कीर्ण लेख जिनालय, लखनऊ चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, लखनऊ पंचायती जैन मन्दिर, मिर्जापुर शांतिनाथ जिनालय, बोहारनटोला, लखनऊ सन्दर्भग्रन्थ जै० ले० सं०, भाग २, लेखांक १५८० एवं अं.ले.सं., लेखांक २९२ जै० ले० सं०, भाग २, लेखांक १५८१. जै० ले० सं०, भाग २, लेखांक १५८४ एवं अं.ले.सं., लेखांक २९१. अं.ले.सं., लेखांक २९४. जै० ले० सं०, भाग १, लेखांक १५७८ एवं अं.ले.सं., लेखांक २९५. जै. ले.सं., भाग १, लेखांक ४३३ एवं अं.ले.सं., लेखांक २९७. अं.ले.सं., लेखांक २८९. ८० अचलगच्छ का इतिहास Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् | माह, तिथि, दिन २२. १६७१ तिथिविहीन २३. २४. १६७१ २५. २६. २७. २८. १६७१ २९. १६७१ १६७१ १६७२ १६७२ १६७५ तिथिविहीन तिथिविहीन तिथिविहीन तिथिविहीन तिथिविहीन लेख का स्वरूप शिलालेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख अनन्तनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख नेमिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वैशाख सुद कुँए की दीवाल पर उत्कीर्ण शिलालेख वैशाख सुदि १३ शुक्रवार देहरी पर उत्कीर्ण लेख प्राप्तिस्थान चिन्तमणि पार्श्वनाथ जिनालय, आगरा जैन मन्दिर, पटना जैन मन्दिर, पटना जैन मन्दिर, पटना शान्तिनाथ जिनालय, लखनऊ दिगम्बर जैन मन्दिर, आगरा दूधेश्वर की टोंक, अहमदाबाद आदिनाथ जिनालय, शत्रुंजय सन्दर्भग्रन्थ जै. ले. सं०, भाग २, लेखांक १४५६ एवं अं.ले.सं., लेखांक २८८. जै. ले.सं., भाग १, लेखांक ३१२. वही, लेखांक ३०८. वही, भाग १, लेखांक ३०७ वही, भाग २, लेखांक १५२०. अं.ले.सं., लेखांक ३००. वही, लेखांक ४८८. वही, लेखांक ३०९ एवं श.गि.द., लेखांक २०. अचलगच्छ का इतिहास Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ १६७६ फाल्गुन सुदि २ गुरुवार हाथी पोल दरवाजा के ऊपर हाथीपोल दरवाजा, | वही, लेखांक ३१० एवं उत्कीर्ण ३१पंक्तियों का शिला- शत्रुअय श.गि द., लेखांक १९. लेख जिसमें कल्याणसागरसूरि तक की अंचलगच्छ की गुर्वावली दी गयी है। ३१. १६७६ ३७ पंक्तियों का अन्यन्त शांतिनाथ जिनालय, | जै.ले.सं., भाग २, लेखांक महत्त्वपूर्ण शिलालेख जामनगर १७८१ एवं अंले.सं., लेखांक ३१२. . १६८१ आषाढ़ सुदि ७ रविवार धातु की जिनप्रतिमा पर मुनिसुव्रत जिनालय, जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख बोलपीपलो, खंभात लेखांक ११०८ एवं अंले.सं., लेखांक १३१. ३३. | १६८३ ज्येष्ठ सुदि ६ गुरुवार सुमतिनाथ की प्रतिमा पर | भीड़भंजन पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं., भाग २, उत्कीर्ण लेख (श्रीपार्श्व ने इस | जिनालय, खेड़ा लेखांक ४४२ एवं अंले.सं., प्रतिमा को चन्द्रप्रभ का लेखांक ३१४. बतलाया है) १६८३ तिथिविहीन शिलालेख विमलवसही ढूंक, शत्रुजय अले.सं., लेखांक ३१५. ३५. १७०२ | मार्गशीर्ष सुदि ६ शुक्रवार | आदिनाथ की प्रतिमा पर सुमतिनाथ जिनालय, जै.ले.सं., भाग २, लेखांक उत्कीर्ण लेख माधवलाल बाबू की धर्म- १७४३, अंले.सं., लेखांक अचलगच्छ का इतिहास Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक प्रतिष्ठा सम्वत् माह, तिथि, दिन लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान सन्दर्भग्रन्थ शाला, पालीताना |३१६ एवं श.वै., लेखांक ३०५. १७१० मार्गशीर्ष सुदि ११ सोमवार संभवनाथ की प्रतिमा पर सुपार्श्वनाथ जिनालय, बी.जै ले.सं., लेखांक १७७२ | उत्कीर्ण लेख नाहटों में, बीकानेर १७१८ श्रावण वदि ५ गुरुवार चरणपादुका पर उत्कीर्ण लेख | अंचलगच्छ का उपाश्रय, अंले.सं., लेखांक ३१७. | हरिपुरा १७१८ माघ सुदि ६ बुधवार शिलालेख जिसमें आर्यरक्षितसूरि कल्याणसागरसूरि का वही, लेखांक ३१८. से लेकर कल्याणसागरसूरि तक स्तूप, भुज की गुर्वावली दी गयी है साथ ही वि.सं. १७२१ वैशाख वदि ५ को कल्याणसागरसूरि की चरणपादुका स्तूप बनवाने का उल्लेख अचलगच्छ का इतिहास Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अचलगच्छ का इतिहास कल्याणसागरसूरि के विभिन्न शिष्यों-प्रशिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनके प्रशिष्य एवं पुण्यमन्दिर के शिष्य उदयमन्दिर हए जिनके द्वारा वि०सं० १६७५/ई०स० १६१९ में मरु-गुर्जर भाषा में रचित ध्वजभुजंगआख्यान नामक कृति मिलती है।७९ इसी प्रकार इनके एक अन्य प्रशिष्य एवं देवसागर के शिष्य उत्तमचन्द्र ने वि०सं० १६९५/ई०स० १६२९ में सुनन्दारास की रचना की।८° कल्याणसागरसूरि के तीसरे प्रशिष्य एवं गुणचन्द्र के शिष्य विवेकचन्द्र ने वि०सं० १६९७/ई०स० १६३१ में मरु-गूर्जर भाषा में सुरपालरास की रचना की।८१ कल्याणसागरसूरि के शिष्य मतिनिधानगणि द्वारा वि०सं० १६७१/ई०स० १६१५ में पुण्यपालकथानक एवम् इसी के आस-पास नेमिनाथछन्द की प्रतिलिपि की गयी। ८२ वि०सं० १६६६/ई०स० १६१० में मरु-गूर्जर भाषा में दयाशील नामक एक अंचलगच्छीय मुनि द्वारा रचित ईलाचीकेवलीरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि रचनाकार के गुरु विजयशील आचार्य कल्याणसागरसूरि के शिष्य थे।८३ कल्याणसागरसूरि के एक अन्य शिष्य भीमरत्न हुए। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती। यही बात इनके शिष्य उदयसागर के बारे में भी कही जा सकती है। उदयसागर के शिष्य मुनि दयासागर हुए, जिन्होंने वि०सं० १६६९ में मदनराजर्षिरास की रचना की।८४ इनके शिष्य मुनि धनजी द्वारा रचित सिंहदत्तरास (रचनाकाल वि०सं० की १७वीं शती का अन्तिम भाग) नामक कृति प्राप्त होती है।८५ वि०सं० १५७७ में लिखी गयी नेमिनाथचरित (त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित का एक भाग) की दाताप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को भुज में चातुर्मास के अवसर पर पुण्यसिंह नामक एक श्रेष्ठी ने मुनि दयासागर और मुनि देवनिधान को समर्पित की थी।८६ इस दाताप्रशस्ति में लेखनकाल वि०सं० १५७७ दिया गया है, जो असम्भव है। वस्तुत: यह वि०सं० १६७७ होना चाहिए, क्योंकि अन्य सभी साक्ष्यों से उक्त मुनिजनों का काल विक्रम संवत् की १७वीं शती का अन्तिम चरण सिद्ध होता है। कल्याणसागरसूरि के एक शिष्य रत्नसागर हुए, जिनसे अंचलगच्छ की सागरशाखा अस्तित्त्व में आयी। __इस प्रकार उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर कल्याणसागरसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों की एक तालिका निर्मित की जा सकती है - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणसागरसूरि रत्नसागर देवसागर गुणचन्द्र अमरसागरसूरि पुण्यमंदिर (पट्टधर) उदयमंदिर (वि.सं. १६७५ में ध्वजभुजंगआख्यान के कर्ता) सागरशाखा प्रारम्भ . उत्तमचन्द्र विवेकचन्द्र (वि.सं. १६९५ में (वि.सं. १६९७ में सुनन्दारास के सुरपालरास के रचनाकार) कर्ता) मतिनिधान विजयशील भीमरत्न (वि.सं. १६७१में दयाशील । पुण्यपालकथानक (वि.सं.१६६६में उदयसागर एवं इसी के आस ईलाचीकेवलीरास । पास नेमिनाथछंद के कर्ता) के प्रतिलिपिकार दयासागर देवनिधान (वि.सं. १६६५ में सुरपतिकुमारचौपाई (इनके आग्रह पर मदनराजर्षिचौपाई के कर्ता) की रचना की गयी) (वि.सं. १६६९ में मदनराजर्षिचौपाई) (वि.सं. १६७७ में भुज में चातुर्मास के समय पुण्यसिंह नामक श्रावक ने इन्हें पद्मसागरगणि पुण्यसागरगणि धनजी और दयासागर को नेमिनाथचरित की (सिद्धदत्तरास के कर्ता) प्रति भेंट की) अचलगच्छ का इतिहास Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास वि०सं० १७१८ में कल्याणसागरसूरि के निधन के पश्चात् उनके शिष्य अमरसागरसूरि अंचलगच्छ के १९ वें पट्टधर बने। इनके उपदेश से अंचलगच्छीय विभिन्न श्रावकों द्वारा प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया गया और अनेक नूतन जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की गयी । ८८ अमरसागरसूरि के उपदेश से वर्धमान शाह के पुत्र भारमल ने शत्रुंजय की यात्रा की और वहाँ कल्याणसागरसूरि की चरणपादुका निर्मित करायी । ८९ ८६ अमरसागरसूरि के समय अंचलगच्छ में वाचक पुण्यसागर नामक विद्वान् हुए जिन्होंने जयइनवनलिकाकुवलय तथा मेरुतुंगसूरिकृत जीरावल्लापार्श्वनाथस्तोत्र पर टीकाओं की रचना की । ९० पुण्यसागर की गुरुपरम्परा निम्नलिखित रूप में प्राप्त होती है धर्ममूर्तिसूरि ↓ भाग्यमूर्ति ↓ उदयसागर ↓ वाचक पुण्यसागर ↓ वाचक दयासागर (जयइनवनलिकाकुवलय और जीरावल्लापार्श्वनाथस्तोत्र पर टीकाओं के कर्ता) श्रीपार्श्व ने एक स्थान पर दयासागर की गुरु परम्परा निम्नलिखित रूप में दी है९१ धर्ममूर्तिसूरि ↓ कल्याणसागरसूरि ↓ भीमरल ↓ उदयसागर ↓ पुण्यसागर ↓ दयासागर Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ८७ चूंकि उक्त कृतियों की प्रशस्तियाँ मुझे उपलब्ध नहीं हो सकी हैं अत: इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना शक्य नहीं है। वि०सं० १७६२ में अमरसागरसूरि के देहान्त के पश्चात् उनके शिष्य विद्यासागर ने वि०सं० १७६३ में गच्छभार संभाला। इनके उपदेश से भी अंचलगच्छीय श्रावकों ने विभिन्न तीर्थों की यात्रायें की और वहाँ प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया एवं नूतन जिनालयों का निर्माण करा उनमें जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।९२ इन्होंने कच्छ के शासक को प्रभावित कर वहाँ पर्दूषण के दिनों में १५ दिनों के लिये अमारि की घोषणा करवायी।९३ वाचक नित्यलाभगणि ने स्वरचित विद्यासागरसूरिरास में इनके समय की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया है।९४ इनके उपदेश से कच्छ, पाटण, सूरत आदि नगरों में उपाश्रयों का भी निर्माण कराया गया।९५ विद्यासागरसूरि द्वारा रचित कृतियाँ इस प्रकार है९६१. देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित सिद्धपंचाशिका पर वि०सं० १७८१ में ८०० श्लोक परिमाण गुजराती भाषा में विवरण २. संस्कृतमिश्रित हिन्दी भाषा में गौड़ीपार्श्वनाथस्तवन वि०सं० १७७८ से १७८५ तक के कुछ प्रतिमाओं में विद्यासागरसूरि का नाम मिलता है। इनका विवरण निम्नानुसार हैक्रमांक वि० सं० माह-तिथि-वार संदर्भ ग्रन्थ १. १७७८ श्रावण वदि ११ गुरुवार अं.ले.सं., लेखांक ७९५. १७८१ ه ه ه م ا वैशाख सुदि ७ वही, लेखांक ७९७. १७८१ आषाढ़ सुदि १० शुक्रवार वही, लेखांक ७९९. १७८१ माघ सुदि १० शुक्रवार वही, लेखांक ७९६. १७८५ माघ वदि ५ शुक्रवार वही, लेखांक ८०१. वि०सं० १७९७ कार्तिक सुदि ५ मंगलवार को कच्छ में इनका देहान्त हुआ। इनके पश्चात् आचार्य उदयसागर जी अंचलगच्छ के नायक बने। वि०सं०१८०२ से वि०सं० १८२६ के मध्य प्रतिष्ठापित प्रतिमा लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठा हेतु प्रेरक के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है उदयसागरसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित एवं अद्यावधि उपलब्ध सलेखजिनप्रतिमाओं की विवरण Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास क्रमांक वि०सं० माह-तिथि-वार १. १८०१ - संदर्भ ग्रन्थ अं.ले.सं., लेखांक ८०३. १८१२ माघ सदि २ शक्रवार वही, लेखांक ८११. १८१४ माघ वदि ५ सोमवार वही, लेखांक ८१२. १८१५ फाल्गुन सुदि ७ सोमवार वही, लेखांक ८१४. १८२१ माघ वदि ५ सोमवार वही, लेखांक ८२६. १८२७ माघ वदि २ शुक्रवार वही, लेखांक ८२९. इनमें से अधिकांश संभवनाथ जिनालय, गोपीपुरा-सूरत में रखी जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं। विस्तार के लिये द्रष्टव्य- अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ३२०-२१, ८०३-२९। उदयसागरसूरि द्वारा रचित कृतितों में वीरजिनस्तवन, भावप्रकाश अपरनाम भावसज्झाय, गुणवर्मरास, कल्याणसागरसूरिरास, स्नात्रपंचाशिका आदि प्रमुख हैं।९७ वि०सं० १८२६ में सूरत में ही इनका निधन हुआ। यदि श्रीपार्श्व की विक्रम सम्वत् १८२७ माघ वदि २ शुक्रवार वाले लेख की वाचना को सही मानें तो पट्टावलियों से प्राप्त इनके निधन की तिथि अप्रमाणिक सिद्ध हो जाती है। इनके पट्टधर कीर्तिसागरसूरि हुए। वि०सं० १८३१ से १८४३ के मध्य प्रतिष्ठापित अंचलगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठा हेतु प्रेरक के रूप में इनका नाम मिलता हैं। इनका विवरण इस प्रकार है कीर्तिसागर सूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं की तालिका क्रमांक वि० सं० माह-तिथि-वार संदर्भ ग्रन्थ १. १८३१ माघ वदि ५ सोमवार अं.ले.सं., लेखांक ८३३. (संभवनाथ जिनालय, गोपीपुरा-सूरत में इसी तिथि की प्रतिष्ठापित १० अन्य जिनप्रतिमायें भी हैं। यद्यपि इनमें कीर्तिसागरसूरि का नाम नहीं मिलता फिर भी इनके निर्माण-प्रतिष्ठापना की प्रेरणा उक्त आचार्य से ही प्राप्त हुई होगी ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है।९८ २. १८४३ वैशाखसुदि ६ सोमवार अंले.सं., लेखांक ८४५ ३. १८४३ वैशाखसुदि ६ सोमवार वही, लेखांक ८४६ A Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ अचलगच्छ का इतिहास ४. १८४३ वैशाखसुदि ६ सोमवार वही, लेखांक ८४७ ५. १८४३ श्रावण वदि १२ वही, लेखांक ८४८. इनके समय में शेखनो पाडो, अहमदाबाद में पार्श्वनाथ का एक जिनालय बनवाया गया।९९ इस जिनालय में १८वीं शताब्दी में निर्मित श्याम पाषाण की एक चौबीसी प्रतिमा है। वि०सं०१८४२ में मांडल में इनके समय में एक उपाश्रय का भी निर्माण कराया गया।१०० कीर्तिसागरसूरि के पट्टधर पुण्यसागरसूरि हुए। वि०सं० १८४३ में इन्होंने गच्छभार संभाला। इनके द्वारा रचित शंखेश्वरपार्श्वनाथस्तवन नामक एक कृति प्राप्त होती है।१०१ सम्भवनाथ जिनालय, सूरत में इनके समय के दो लेख मिलते हैं जो वि०सं० १८४४ वैशाख सुदि १३ और वि०सं० १८४६.....वदि ४ शुक्रवार के हैं।१०२ इनके उपदेश से वि०सं० १८६० में शत्रुजय के ऊपर पंचपाण्डवमंदिर के पीछे सहस्रकूट का निर्माण कराया गया। वि० सं० १८६१ में इन्हीं के उपदेश से शत्रुजय पर इच्छाकुण्ड का निर्माण हुआ। यह बात वहाँ एक शिला पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होती है। इस लेख की रचना इनके शिष्य धनसागरगणि ने की थी। यह बात उक्त लेख से स्पष्ट है।१०३ श्रीपार्श्व ने लेख का मूल पाठ दिया जो इस प्रकार है ।।ॐ।। श्री गणेशाय नमः स्वस्तिश्री रिद्धि वृद्धि विर्योभ्युदयश्रिमद्विम कांति महिमंडल नृप विक्रमार्क समयात् संवत् १८६१ वर्षे श्रीमत् शालिवाहन नृप शत: शाके १७२६ प्रवर्त्तमाने धातानाम्नि संवत्सरे याभ्यां यनाश्रिते श्री सूर्ये हेमंत त्रै महामांगल्य अदमासोत्तम पुण्यपवित्र श्री मार्गशीर्ष मासे शुक्लपक्षेः त्रुतिया (तृतीया) तिथौ श्री बुधवासरे पूर्वाषाढ नक्षत्रे वृद्धि नाम्नि योगे गिरकरणेवं पंचाग्नपवित्र दिवसे। श्री अंचलगच्छे पूज्य भट्टारक श्री १०८ श्री उदयसागरसूरीश्वरजी तत्पट्टे पूज्य पुरंदर श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी तत्पट्टे पूज्य भट्टारक श्री पुण्यसागरसूरीश्वरजी विजयराज्ये श्री सूरति बिंदिर वास्तव्य श्रीमाली ज्ञातीय साहा सिंधा तत् पुत्र साहा कपुरचंदभाई तत्पुत्र भाई साहजी तत्पुत्र साह निहालचंदभाई तत्पुत्र ईच्छाभाईकेन नाम्नि कुंड कारापितं।। श्री पालिताणा नगरे गोहिल श्री उन्नडजी विजय राज्ये।। श्री सिद्धाचल उपरे तीर्थयात्रार्थे आगतानां लोकानां सुखार्थे जिनशासन उद्योतनार्थे धर्मार्थि इच्छाभीधानं जलकुंड कारापितं।। शेठ श्री ५ निहालचंदेन आज्ञायां साह भाईचंद तथा शाह रत्नचंदे कार्यकृतं। ।रस्तु।। लिखितं मुनि धनसागर गणीनां।। पुण्यसागरसूरि के एक शिष्य मोतीसागर हए जिनके द्वारा रचित शंखेश्वरपार्श्वनाथजिनस्तवन नामक कृति प्राप्त होती है। १०४ मोतीसागर ने वि०सं० १८७४ में पाटण के फोफलियावाडो में विक्रमचौपाई की प्रतिलिपि की।१०५ वि०सं० १८७० में पुण्यसागरसूरि का पाटण में देहान्त हुआ, तत्पश्चात् राजेन्द्रसागरसूरि ने Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० अचलगच्छ का इतिहास अंचलगच्छ का नायकत्व ग्रहण किया। वि०सं० १८८१ में इनके उपदेश से संभवनाथ जिनालय, सूरत में अजितनाथ की धातप्रतिमा की प्रतिष्ठा की गयी जो आज भी वहाँ विद्यमान है। १०६ वि०सं० १८८६ में शत्रुजयगिरि पर इनके उपदेश से एक जिनप्रासाद का निर्माण हुआ।१०७ मुम्बई का प्रसिद्ध अनन्तनाथजिनालय वि० सं० १८८९ में निर्मित हुआ। यहाँ प्रतिष्ठा के समय राजेन्द्रसागरसूरि जी विद्यमान थे। १०८ इनके समय में अंचलगच्छीय मुनिजनों में श्रमणाचार लुप्तप्राय हो गया था और यति-गोरजी (गुरुजी) लोग अपने-अपने स्थानों पर पोषाल बनवाकर स्थायी रूप से रहने लगे और ज्योतिष, वैद्यक, भूस्तर, गणित, व्याकरण आदि विषयों में निपुण होकर समाज से स्थायी रूप से जुड़ गये।१०९ __राजेन्द्रसागरसूरि के निधन के पश्चात् वि० सं० १८९२ में मुक्तिसागरसूरि अंचलगच्छ के २५वें पट्टधर बने। इनके उपदेश से वि०सं० १८९३ में श्रेष्ठी खीमचन्द्र मोतीचन्द्र ने शत्रुजयतीर्थ पर ढूंक का निर्माण कराया। इस अवसर पर ७०० जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका सम्पन्न हुई। ११० कच्छ प्रान्त के नलीया नामक स्थान पर श्रेष्ठी नरसीनाथा ने चन्द्रप्रभ जिनालय का निर्माण कराया और वि०सं० १८९७ में मुक्तिसागरसूरि की निश्रा में उसमें प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी।१११ मुम्बई स्थित अजितनाथ जिनालय के निर्माण और विकास में उक्त श्रेष्ठी का विशिष्ट योगदान रहा। पट्टावलियों के अनुसार ५७ वर्ष की आयु में वि०सं० १९१४ में मुक्तिसागरसूरि का देहान्त हुआ तत्पश्चात् रत्नसागरसूरि अंचलगच्छ के नायक बने। रत्नसागरसूरि इनका जन्म वि०सं० १८९२ में कच्छ के भोथारा ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शाह लाडण और माता का झूमाबाई था। वि०सं० १९०५ में इन्होंने यति दीक्षा ली और वि०सं० १९१४ में मुक्तिसागरसूरि के निधनोपरान्त आचार्य और गच्छनायक बने। इनकी प्रेरणा से कच्छी ओसवाल जाति के श्रेष्ठी केशव जी नायक ने अनेक धार्मिक कृत्यों का आयोजन किया। वि०सं० १९१४ में उक्त श्रेष्ठ ने कच्छ प्रान्त के कोठारा नामक स्थान पर वेलजी मालू और शिवजी नेणसी के साथ मिलकर एक उत्तुंग जिनालय का निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया और निर्माण कार्य पूर्ण होने पर शांतिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करायी। इस प्रतिष्ठा के अवसर पर उक्त तीनों श्रेष्ठियों ने मुम्बई से शत्रुञ्जय का संघ निकाला और वहाँ गिरिराज पर दो ट्रंक और ग्राम में कोट के बाहर धर्मशाला बनवाने के लिये भूमि क्रय कर वहाँ शिलान्यास/मुहुर्त सम्पन्न कराया। इस अवसर पर रत्नसागरसूरि ने नवनिर्मित ७ हजार जिनबिम्बों की अंजनशलाका सं. १९३१ माघ सुदि ७ गुरुवार को सम्पन्न की। यद्यपि सात हजार जिनप्रतिमाओं की अंजनशलाका एक साथ होने की बात आश्चर्यजनक लगती है, पर ऐसा होना असम्भव Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास प्रतीत नहीं होता। श्रेष्ठी केशव जी नायक ने गिरनार और सम्मेतशिखर पर भी जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया। इसी समय अंचलगच्छ के ही एक अन्य श्रेष्ठी भीमशी माणेक ने जैन साहित्य के प्रकाशन/मुद्रण में सराहनीय योगदान दिया। उनके इस कार्य में केशवजी नायक ने भी खूब सहायता दी। केशवजी की धर्मपत्नी और पुत्र ने भी धार्मिक कार्यों में विपुलद्रव्य व्यय किया। वि०सं० १९२८ में आचार्य रत्नसागर जी का निधन हुआ।११२ वि० सं० १९१५ से १५२७ तक के विभिन्न अभिलेखों में रत्नसागरसूरि का नाम मिलता है, जिसका विवरण निम्नानुसार हैक्र. वि० सं० माह-तिथि-वार प्राप्तिस्थल संदर्भ ग्रन्थ १. १९१५ माघ सुदि ५ सोमवार जीरावलापार्श्वनाथ अंले.सं., लेखांक जिनालय, तेरा-कच्छ ८८३ २. १९१५ माघ सुदि ५ सोमवार वही वही, लेखांक ८८४ ३. १९१६ ज्येष्ठ सुदि १३ शुक्रवार सुपार्श्वनाथ जिनालय वही, लेखांक ८८५ अंजार, कच्छ ४. १९१८ माघ सुदि ५ सोमवार । अष्टापद जिनालय, वही, लेखांक ८८६ नालिया, कच्छ ५. १९१८ माघ सुदि ५ सोमवार । जैनमन्दिर, वडसर, वही, लेखांक ८८७ कच्छ ६. १९१८ माघ सुदि १३ बुधवार शांतिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ८८८ कोठार, कच्छ १३ बुधवार आदिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ८८९ वारापधर, कच्छ ८. १९२१ माघ सुदि ७ गुरुवार । नरशी केशव जी वही, लेखाक ८९१ ट्रॅक, शत्रुञ्जय ९. १९२१ माघ सुदि ७ गुरुवार नरशी केशव जी वही, लेखांक ८९२ ट्रॅक, शत्रुञ्जय १०.१९२१ माघ सुदि ७ गुरुवार नेमिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ८९३ शत्रुञ्जय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ११.१९२१ माघ सुदि ७ गुरुवार नेमिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ८९४ शत्रुञ्जय १२.१९२१ माघ सुदि ७ गुरुवार । नेमिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ८९५ शत्रुञ्जय १३.१९२१ माघ सुदि ७ गुरुवार केशव जी नायक वही, लेखांक ८९६ ट्रॅक, शत्रुञ्जय वि०सं० १९२१ के उक्त सभी लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में रत्नसागरसूरि का नाम मिलता है जब कि उक्त तिथि के अन्य लेखों में इस गच्छ की परम्परानुसार रत्नसागरसूरि का केवल उपदेशक के रूप में ही नाम मिलता है द्रष्टव्यअंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ८९७-९३२. १४.१९२२ मार्गशीर्ष सुदि १३ जैनमन्दिर, कोडाय, वही, लेखांक ९३३ गुरुवार कच्छ १५.१९२६ चैत्र सुदि १५ चिन्तामणि पार्श्वनाथ, वही, लेखांक ९३४ जिनालय, भुज-कच्छ १६.१९२६ ज्येष्ठ सुदि ४ रविवार । चन्द्रप्रभ जिनालय, वही, लेखांक ९३५ उदयपुर, राजस्थान १७.१९२७ माघ सुदि १३ शुक्रवार सुविधिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९३६ जखौ, कच्छ १८.१९२७ माघ सुदि १३ शुक्रवार सुविधिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९३७ जखौ, कच्छ १९.१९२७ माघ सुदि १३ शुक्रवार सुविधिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९३८ जखौ, कच्छ २०.१९२७ माघ सुदि १३ शुक्रवार सुविधिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९३९ जखौ, कच्छ २१.१९२७ माघ सुदि १३ शुक्रवार सुविधिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९४० जखौ, कच्छ विवेकसागरसूरि वि०सं० १९११ में कच्छ प्रान्त के छोटा आसंबिया नामक स्थान पर इनका जन्म हुआ। इनके पिता का नाम शाह टोकरशी और माता का नाम कुंताबाई था। इनका Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ९३ बचपन का नाम बेलजी भाई था। बचपन से ही ये रत्नसागरसूरि के साथ-साथ रहे और वि० सं० १९२८ में उनके निधनोपरान्त यति दीक्षा ली और मांडवी में आचार्य एवं गच्छनायक पद प्राप्त किया। इन्होंने यति समुदाय के साथ पावागढ़ तथा अन्य तीर्थों की यात्रा की तत्पश्चात् मुम्बई आये और वहाँ चातुर्मास किया। वि०सं० १९३२ में केशरिया जी तीर्थ की संघ के साथ यात्रा की। विवेकसागरसूरि और इनके आज्ञानुवर्ती यतिजन यात्रा में वाहन का उपयोग करने लगे थे। अंचलगच्छीय प्रमुख श्रेष्ठियों ने इनके उपदेश से ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना की, जिनमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह किया गया। इसके अतिरिक्त इसी समय अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ भी करवायी गयीं। इस समय के प्रमुख श्रेष्ठियों में वसन जी त्रिकम जी, खेतसी धुल्ला, खेबंशीशाह, हीरजीशाह आदि का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने विभिन्न स्थानों पर नूतन जिनालयों का निर्माण कराया तथा प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया। जैन धर्म विद्या प्रसारक वर्ग द्वारा इस गच्छ का साहित्य बड़े पैमाने पर प्रकाशित कराया गया। वि०सं० १९४८ में इनका मुम्बई में निधन हुआ।११३ वि०सं० १९२८ से १९४८ तक के कुछ अभिलेखीय साक्ष्यों में इनका नाम मिलता है। इनका विवरण निम्नानुसार है। १. १९२८ माघ सुदि १३ गुरुवार केशवजी नायक अं.ले.सं., लेखांक ट्रॅक, शत्रुञ्जय ९४१ २. १९२८ माघ सुदि १३ गुरुवार केशवजी नायक वही, लेखांक ९४२ ट्रॅक, शत्रुञ्जय ३. १९२८ माघ सुदि १३ गुरुवार केशवजी नायक वही, लेखांक ९४३ ट्रॅक, शत्रुञ्जय ४. १९२८ माघ सुदि १३ गुरुवार केशवजी नायक वही, लेखांक ९४४ ट्रॅक, शत्रुञ्जय ५. १९२९ वैशाख सुदि १४ शनिवार महाजन बाड़ी, वही, लेखांक ९४५ सुथरी-कच्छ ६. १९३४ फाल्गुन सुदि २ गुरुवार जीरावला पार्श्वनाथ वही, लेखांक ९४९ जिनालय, तेरा, कच्छ ७. १९३४ फाल्गुन सुदि २ गुरुवार जीरावाला पार्श्वनाथ वही, लेखांक ९५० जिनालय, तेरा, कच्छ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ अचलगच्छ का इतिहास ८. १९३७ माघ सुदि ५ गुरुवार अजितनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९५१ मांडवी, कच्छ ९. १९३९ मुख्य जिनालय, वही, लेखांक ९५२ भद्रेश्वर, कच्छ १०.१९३९ माघ सुदि १० शुक्रवार मुख्य जिनालय, वही, लेखांक ९५३ भद्रेश्वर, कच्छ ११.१९४७ वैशाख सुदि ६ गुरुवार केशवजी नायक वही, लेखांक ९५५ ट्रॅक, शत्रुञ्जय १२.१९४८ मार्गशीर्ष सुदि ११शुक्रवार केशवजी नायक वही, लेखांक ९५६ ट्रॅक, शत्रुञ्जय १३.१९४८ मार्गशीर्ष सुदि ११शुक्रवार केशवजी नायक वही, लेखांक ९५७ ट्रॅक, शत्रुञ्जय श्रीपूज्य जिनेन्द्रसागरसूरि श्रीपूज्य विवेकसागरसूरि के निधन के पश्चात् श्रीपूज्य जिनेन्द्रसागरसूरि अंचलगच्छ के नायक बने। वि०सं० १९५१ में ये कच्छ पधारे और वहाँ विभिन्न स्थानों पर चातुर्मास किया। वि०सं० २००४ में संक्षिप्त बीमारी के कारण इनका देहान्त हो गया और इन्हीं के साथ अंचलगच्छ में शिथिलाचार के रूप में व्याप्त श्रीपूज्य और गोरजी की परम्परा भी सदैव के लिये समाप्त हो गयी। ११४ ।। वि०सं० १९४९ से १९९० तक के कुछ लेखों में श्रीपूज्य जिनेन्द्रसागरसूरि का नाम मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है - १. १९४९ माघ सुदि ५ सोमवार केशवजी नायक अं.ले.सं., लेखांक ट्रॅक, शत्रुञ्जय ९६०. २. १९४९ माघ सुदि १० शुक्रवार पार्श्वनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९६१ भूलेश्वर, मुम्बई ३. १९४९ श्रावण सुदि ७ बुधवार पार्श्वनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९६३ जखौ, कच्छ ४. १९४९ आश्विन पूर्णिमा घृतकल्लोल पार्श्वनाथ वही, लेखांक ९६४ जिनालय, सुथरी, कच्छ ५. १९५० पौष वदि ५ भृगुवार । पार्श्वनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९६६ (शुक्रवार) रापर,गढवारी-कच्छ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ९५ वहा,ला ६. १९५० पौष वदि ५ भृगुवार पार्श्वनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९६७ (शुक्रवार) रापर,गढवारी-कच्छ ७. १९५० फाल्गुन सुदि २ गुरुवार अजितनाथ जिनालय, वही, लेखांक ९६८ वांकू, कच्छ ८. १९६० श्रावण सुदि ५ गुरुवार केशवजी ढूंक, वही, लेखांक ९९९ शत्रुञ्जय ९. १९८८ वैशाख वदि ७ गुरुवार आदिनाथ जिनालय, वही,लेखांक १०३८ वारापधर, कच्छ १०.१९९० द्वितीय वैशाख वदि ५ जैन मन्दिर, वही,लेखांक १०४० शनिवार सुजापुर, कच्छ आचार्य गौतमसागरसूरीश्वर जी महाराज ____ कच्छ-हालार देशोद्धारक, महान् क्रियोद्धारक सुविहित शिरोमणि के रूप में विख्यात् आचार्य गौतमसागर जी का जन्म वि० सं० १९२० में मारवाड़ के पाली नगर में हुआ था। ये जाति से ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धीरजमल और माता का नाम खेमलदे था। बचपन का इनका नाम गुलाबमल था। वि०सं० १९२५ में मारवाड़ में जब अकाल पड़ा तो उस समय अंचलगच्छीय ४ यति- देवसागरजी, अभयचन्दजी, वीरचन्दजी और नानचन्दजी पाली आये। यहाँ उन्हें कुल ८ शिष्यों की प्राप्ति हुई। यति देवसागर जी ने धीरजमल जी से मित्रता कर ली और उनके यहाँ आने-जाने लगे। बालक गुलाबमल के शरीर से शुभ लक्षणों को देखकर यति जी ने धीरजमल जी से उनके पुत्र की मांग की जिस पर उन्होंने अपनी पत्नी से विचार-विमर्श करके गुलाबमल को सहर्ष उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार उक्त चारों यतियों के पास कुल ९ शिष्य हो गये जिन्हें लेकर वे कच्छ लौट गये। यति देवसागर जी ने गुलाबमल और कल्याणमल ये दो बालक अपने पास रखे और उन्हें लेकर छोटा आसंबिया आये जहाँ अपने शिष्य स्वरूपसागर को उक्त दोनों बालक सौंपकर उनका गृहस्थ शिष्य बनाया। गुलाबमल का नाम ज्ञानचन्द रखा गया, यही आगे चलकर गौतमसागर जी के नाम से विख्यात हुए। वि०सं० १९२८ तक स्वरूपसागर जी भुज और छोटी आसंबीया में रहे। वि०सं० १९२८ श्रावण सुदि ३ को सुथरी में अंचलगच्छनायक श्रीपूज्य रत्नसागर जी का निधन हो गया तत्पश्चात् उनके शिष्य विवेकसागर ने गच्छनायक का पद संभाला। श्रीपूज्य विवेकसागरसूरि के पाटमहोत्सव पर स्वरूपसागरजी अपने शिष्यों के साथ मांडवी आये और वहाँ से अन्य यतियों के आग्रह से श्रीपूज्य विवेकसागर जी के साथ शत्रुञ्जय की यात्रा पर गये। वहाँ से सभी पावागढ़ और अन्त में मुम्बई गये। मुम्बई में विवेकसागर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास जी का चातुर्मास होना निश्चित हुआ तथा अन्य सभी यतिजन जलयान द्वारा वि०सं० १९२९ के वैशाख माह में कच्छ पहुँचे। स्वरूपसागर जी अपने शिष्यों के साथ वि०सं० १९४० में पुन: मुम्बई गये जहाँ श्रीपूज्य विवेकसागरसूरि ने ज्ञानचन्द जी यति दीक्षा दी। यति दीक्षा लेने के पश्चात् उन्होंने रात्रिभोजन और कन्दमूल का त्याग कर दिया और धर्मप्रचार में लग गये। इनके ओजस्वी विचारों एवं स्पष्ट वक्तव्यों से यतिसमाज में खलबली मच गयी। वि०सं० १९४६ में अपने जन्मभूमि पाली में इन्होंने संवेगीमुनि की दीक्षा ली और मुनि गौतमसागर नाम प्राप्त किया। वि०सं० १९४९ में इनकी बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई, तब से लेकर वि०सं० २००९ में अपने मृत्युपर्यन्त इन्होंने ८० बालिकाओं एवं महिलाओं को जैन साध्वी तथा १४ पुरुषों एवं बालकों को जैनमुनि के रूप में दीक्षित किया। ___ महान् तेजस्वी, गुणों की खान, ज्ञान के धनी और संगठन शक्ति के प्रणेता के रूप में दूर-दूर तक इनकी ख्याति फैल गयी। समय-समय पर अंधविश्वासी एवं विलासी धर्मप्रचारकों ने आपके संगठन को तोड़ने का प्रबल प्रयास किया किन्तु वे अपने उद्देश्यों में असफल रहे। ___ अंचलगच्छ में जहाँ पहले साधु-साध्वियों की संख्या नगण्य थी, वहाँ आपने अनेक लोगों को दीक्षित कर इस क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य किया और अंचलगच्छ को नया जीवन प्रदान किया। आपके द्वारा दीक्षित शिष्यों ने अनेक लोगों को आपकी मौजूदगी में दीक्षित किया। आपके चातुर्मासों की सूची निम्नानुसार है- जामनगर-१७; भुज ७; गोधरा ६; पालीताणा ४; नालिया ४; मुम्बई ३; मोटी खावडी ३; मांडल २; देवपुर १; सायरा १; वराडीया १; आसंबीया १; मुंदरा १- कुल ६२। जैसा कि आगे हम देखेंगे अंचलगच्छ के ६४वें पट्टधर आचार्य कल्याणसागरसूरि के एक शिष्य महोपाध्याय रत्नसागर से अंचलगच्छ की सागरशाखा अस्तित्त्व में आयी। रत्नसागर के पश्चात् क्रमश: मेघसागर-वृद्धिसागर-हीरसागर-सहजसागर-गणि मानसागर-गणि रंगसागर-गणि फतेहसागर-देवसागर-स्वरूपसागर हुए। जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं महान् क्रियोद्धारक आचार्य गौतमसागरसूरि उक्त स्वरूपसागर के शिष्य थे। गौतमसागर जी की निश्रा में अनेक धार्मिक प्रतिष्ठानों, मंदिरों का नवनिर्माण, जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न हुए। आपने वि०सं० १९५२ में नारायणपुर, वि०सं० १९५८ में नवागाम, वि० सं० १९६२ में बंढी, १९७८ में देवपुर, १९८४ में पडाणा, १९९२ में मोडपुर, १९९७ में नालीया, १९९८ में लायजा, २००७ में रायण एवं २००८ में गोधरा में मन्दिरों का निर्माण, प्रतिष्ठा, स्वर्णमहोत्सव, जीर्णोद्धार आदि सम्पन्न कराया। आपके उपदेश से अनेक स्थानों पर निर्मित देरासरों Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास ९७ में दादा कल्याणसागरसूरि की प्रतिमायें प्रतिष्ठापित की गयीं। वि०सं० २००४ में श्रीपूज्य जिनेन्द्रसागरसूरि के निधनोपरान्त यति-गोरजी की परम्परा समाप्त हो गयी और वि०सं० २००८ माघ सुदि १३ को रामाणीया में संघ के अत्यधिक आग्रह से आपने आचार्य और गच्छनायक पद स्वीकार किया। ____ आपकी प्रेरणा से भुज, मांडवी, जामनगर आदि स्थानों पर बड़े ज्ञान भण्डारों की स्थापना हुई और पंचप्रतिक्रमणसूत्र, अणगारप्रतिक्रमणसूत्र, उपदेशचिन्तामणिसटीक, प्रबोधचिन्तामणि, कल्याणसागरसूरिरास, वर्धमानपद्मसिंहश्रेष्ठिचरित्र, कल्याणसागरसूरि पूजादिसंग्रह, बड़ीपट्टावली भाषांतर, श्रीपालरास आदि गच्छोपयोगी ग्रन्थ प्रकाशित हुए। वि०सं० २००९ वैशाख सुदि १३ को भुज में आपका स्वर्गवास हुआ११५ तत्पश्चात् गुणसागर जी आपके पट्टधर बने। आचार्य गुणसागरसूरीश्वर जी म० सा० आपका जन्म वि०सं० १९६९ माघ सुदि २ शुक्रवार को देढ़ीआ-कच्छ प्रान्त में हुआ। आपके पिता का नाम श्री लालजी और माता का नाम धनबाई था। बचपन का इनका नाम गांगजी भाई था। माता की प्रेरणा और पूज्य सन्तों के संसर्ग एवं जैन ग्रन्थों के अध्ययन से इनकी वैराग्यभावना प्रबल हुई और वि० सं० १९९३ चैत्रवदि ९ को देढ़ीया में दीक्षा ग्रहण कर ली और अचलगच्छाधिपति गौतमसागरसूरि के शिष्य नीतिसागर जी महाराज के शिष्य बन कर मुनि गुणसागर नाम प्राप्त किया। दीक्षोपरान्त इन्होंने व्याकरण, छंद, अलंकार, न्याय, ज्योतिष आदि शास्त्रों तथा जैन आगमों का अल्प समय में खूब अभ्यास कर डाला और दादा गुरुदेव के कृपापात्र बने। इनके ज्ञान-चारित्रादि से प्रभावित होकर दादा गुरुदेव ने वि०सं० १९९८ में इन्हें मेराउ (कच्छ) में उपाध्याय पद प्रदान किया और वि०सं० २००३ में अपने आज्ञावर्ती साधु-साध्वियों को इनकी निश्रा में सौंप दिया। सं० २००९ में दादागुरुदेव का निधन हो गया और आपके गुरु नीतिसागर जी वि०सं० १९९९ में ही कालधर्म को प्राप्त हो गये थे अतः सम्पूर्ण संघ की जिम्मेदारी आप पर आ गयी। वि०सं० २०११ में आप मुम्बई पधारे जहाँ संघ ने सूरिपद से आपको अलंकृत किया। वि०सं० २०१७ में आपश्री के अथक प्रयास से मेराउ (कच्छ) में श्री आर्यरक्षित जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठ की स्थापना हुई। वि०सं० २०२४ में आपकी प्रेरणा से भद्रेश्वरतीर्थ-कच्छ में अखिलभारतीय अगचलगच्छ चतुर्विध जैनसंघ का प्रथम अधिवेशन हुआ जिसकी आपने ही अध्यक्षता की। वि०सं० २०३० में आपकी प्रेरणा से कल्याण-गौतम-नीति जैन तत्त्वज्ञान श्राविका विद्यापीठ की मेराउ (कच्छ) में स्थापना हुई। आपकी निश्रा में देढ़ीया से भद्रेश्वरतीर्थ के लिये छरी पालक संघ निकाला गया। भद्रेश्वर तीर्थ में ही उक्त अवसर पर समस्त उपस्थित संघों द्वारा आपको गच्छाधिपति Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ अचलगच्छ का इतिहास पद प्रदान किया गया। वि०सं० २०३२-३३ में अचलगच्छाधिराज श्रीकल्याणसागरसूरि के चतुर्थ जन्मशताब्दी के अवसर पर आपने बाड़मेर (राजस्थान) में ऐतिहासिक चातुर्मास किया और उस समय वहाँ पार्श्वनाथ जिनालय में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन किया गया जिसमें बहुत बड़ी संख्या में आस-पास के लोगों के अलावा अन्य प्रान्तों से आये श्रद्धालुजन उपस्थित रहे। वि०सं० २०३३ में आपकी प्रेरणा से आपकी ही निश्रा में कच्छ से शत्रुजय तक का एक हजार यात्रियों का छ:रीपालता संघ निकाला गया। वि०सं० २०३६ में इनकी प्रेरणा से मुम्बई में अखिल भारतीय अचलगच्छ जैन संघ का द्वितीय अधिवेशन हुआ। आपकी प्रेरणा से अनेक जिनालयों एवं उपाश्रयों का जीर्णोद्धार, निर्माण, प्रतिष्ठा, अंजनशलाकामहोत्सव आदि सम्पन्न हुआ। आपने स्वयं अपने हाथों तथा अपनी निश्रा में अनेक प्रतिष्ठायें, अंजनशलाकायें सम्पन्न करायी। आपकी निश्रा में ही मुम्बई से शिखर जी तथा शिखर जी से शत्रुञ्जय तीर्थ का छ:रीपालक संघ निकला। शिखरजी में कच्छी अचलगच्छ भवन एवं बीस जिनालय का निर्माण हुआ। दंताणी तीर्थ का जीर्णोद्धार और प्रतिष्ठा आपने ही सम्पन्न कराया।११६ वि०सं० २०४४ भाद्रपद वदि ३ सोमवार को मध्यरात्रि में मुम्बई में नवकारमन्त्र की आराधना करते हुए आप स्वर्गवासी हुए। आपने वि० सं० १९९५ से २०४४ तक लगभग १५० मुमुक्षु पुरुषों-बालकों, महिलाओं और बालिकाओं को साधु-साध्वी के रूप में दीक्षित किया। आप द्वारा रचित बड़ी संख्या में विभिन्न कृतियाँ प्राप्त होती है जिनकी सूची परिशिष्ट-१ में दी गई है। आचार्य गुणोदयसागरसूरि आपका जन्म वि०सं० १९८८ भाद्रपद सुदि १५ को कोटडा नामक स्थान पर हुआ। आपके पिता का नाम गणशी भाई और माता का नाम सुन्दर बाई था। बचपन का इनका नाम गोविन्दभाई था। वि०सं० २०१४ माघ सुदि १० को लालबाड़ी, मुम्बई में आपने २१ वर्ष की आयु में गुणसागरसूरि से दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० २०३३ वैशाख सुदि ३ को मुम्बई के मकड़ा नामक स्थान पर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये गये। वि०सं० २०४४ में आचार्य गुणसागरसूरि के निधन के उपरान्त आप सफलतापूर्वक सम्पूर्ण संघ की जिम्मेदारी वहन कर रहे हैं। आपने अपने हाथों १०० मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की। आपकी निश्रा में कई छरी पालित संघ निकल चुके हैं। विभिन्न स्थानों पर आपकी प्रेरणा से प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार व नूतन जिनालयों का निर्माण, अंजनशलाका प्रतिष्ठा आदि सम्पन्न हुए हैं। आपने स्वयं भी अपने वरदहस्त से कई स्थानों पर प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आदि धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न कराया है। आपके कुशल नायकत्व में अंचलगच्छ का चतुर्दिक विकास हो रहा है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास आचार्य कलाप्रभसागर वर्तमान समय में सम्पूर्ण श्वेताम्बर श्रमण संघ के शीर्षस्थ विद्वानों एवं प्रभावक आचार्यों में आचार्य कलाप्रभसागर जी का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। आपका जन्म वि०सं० २००९ में नवावास नामक स्थान में हुआ। आपके पिता का नाम श्री रतनजी टोकरजी सावला और आपके बचपन का नाम किशोर कुमार था। वि०सं० २०२६ कार्तिक वदि १३ को भुजपुर में आचार्य गुणसागरसूरि से दीक्षा ग्रहण की और कलाप्रभसागर नाम प्राप्त किया। बचपन से ही ये अध्ययनशील प्रवृत्ति के थे। दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् आपने व्याकरण, छंद, अलंकार, न्याय आदि के साथ-साथ जैन आगमों का विशद् अध्ययन किया। आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, अपभ्रंश आदि भाषाओं में निष्णात हैं। वि०सं० २०३९ में श्री आर्य जयकल्याण केन्द्र मुम्बई द्वारा प्रकाशित श्री आर्य कल्याण गौतमस्मृतिग्रन्थ आपकी गम्भीर विद्वत्ता का सहज ही परिचय देता है। सम्पूर्ण महाग्रन्थ का अकेले आपने सम्पादन किया है। अपने दीक्षा गुरु गुणसागरसूरि की भाँति आपने भी साहित्य सर्जन में विशेष रुचि लेते हए अनेक नूतन ग्रन्थों का प्रणयन किया है। अब तक आपकी निश्रा एवं मार्गदर्शन में आर्य जयकल्याण ट्रस्ट द्वारा १०७ से अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है और कई ग्रन्थ अभी यंत्रस्थ हैं। इनमें से अनेक ग्रन्थों की रचना और सम्पादन आपने स्वयं किया है। अंचलगच्छ से ही सम्बद्ध अन्य प्रकाशन संस्थाओं से भी आप द्वारा प्रणीत एवं सम्पादित ५० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इन सभी की तालिका परिशिष्ट-२ में दी जा रही है। अपने वि०सं० २०४५ से वि०सं० २०५४ के मध्य लगभग १०-११ मुमुक्षुओं को भागवती दीक्षा प्रदान की है। वर्तमान में इस गच्छ में कुल ३० मुनि और २१७ साध्वियाँ हैं जो कच्छ एवं मुम्बई के अलावा गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र व आन्ध्रप्रदेश के विभिन्न स्थानों पर विचरण कर रहे हैं।११७ सन्दर्भ-सूची १-२. सोमचन्द्र धारसी, सम्पा०- अंचलगच्छम्होटीपट्टावली, जामनगर वि० सं० १९८५, पृ० १४०-१४४. २अ. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, मुम्बई १९६८ई०स०, पृ० ४९. ३. मुनि जिनविजय, सम्पा०- विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ५३, मुम्बई १९६१ई०स०, पृ० १०५-१२०. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग २, मुम्बई, १९३१ ई०स०, पृ० ७६५-७७९. ३ब. Johannes Klatt, "The Samachari-Satakam of Samaya Sundara ____and Pattavalis of the Anchala-Gachchha and other gachchhas". Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ४. ५. P. Peterson, Ed. A Fifth Report on Operation in the Search of Sanskrit Mss. in the Bombay circle, April 1892-March 1895, Bombay 1896 A.D. No. 44, pp. 65-66. ६-७. रूपेन्द्रकुमार पगारिया, “शतपदीप्रश्नोत्तरपद्धति में प्रतिपादित जैनाचार", जैन विद्या के आयाम, भाग ४, सम्पा०— - प्रो० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, १९९४ ई०स०, पृ० ३१-४२. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, मुम्बई, १९६८ ई०स०, पृ० ११९-२१. वही, पृ० ११२-१४. वही, पृ० ११६, एवं मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग १, द्वितीय संशोधित संस्करण, सम्पा० डॉ० जयन्त कोठारी, मुम्बई, १९८६ई०स०, पृ० ७. C.D. Dalal, Ed. Catalogue of Manuscripts in the Jaina Grantha Bhandars at Pattan, G.O.S. No. LXXVI, Baroda, 1937. A.D. Introduction, p. 56. -- Jinaratnakosha, p. 368-69. पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, सम्पा० कालकाचार्यकथासंग्रह, श्री जैन कला साहित्य संशोधक कार्यालय सिरीज नं० ३, अहमदाबाद, १९४९ ई०, पृ० १२-१३. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. अचलगच्छ का इतिहास The Indian Antiquary, Vol. XXIII, July 1894 A.D., pp. 169-183. H.D. Velankar, Jinaratnakosha, Government Oriental Series, Class C, No. 4, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 1944 A.D., p. 59. १८. P. Peterson, Ibid, Vol. V, p. 127. C.D. Dalal, Ibid, p. 402. --Jinaratnakosha, p. 11. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० १९५. मुनि चतुरविजय जी, सम्पा० लींबडी जैन ज्ञानभण्डारनी हस्तलिखित प्रतिओनुं सूचीपत्र, श्रीआगमोदय समिति ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ५८, मुम्बई १९२८ई०स०, क्रमांक ९८३, पृ० ५९. १६-१७. मुनिश्री कलाप्रभसागर, सम्पा० - श्री आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, मुम्बई वि०सं० २०३९, भाग १, विभाग २, पृ० ७९. श्रीपार्श्व, सम्पा०, अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, मुम्बई १९६४ई० स०, लेखांक ४६३. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास १०१ १९. २०. २६. Jinaratnakosha, p. 94. Ibid, p. 162. २१. Ibid, p. 94. २२. मुनि कलाप्रभसागर, सम्पा०- आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, भाग १, विभाग २, पृ० ६९-७५. २३. वही, पृ० ७०-७२. २४-२५.महोपाध्याय विनयसागर, "विराटनगर का एक अज्ञात टीकाकार- वाडव" आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, भाग ३, हिन्दी विभाग, पृ० ७५-७८. एवं वही, भाग १, विभाग २, पृ० ७९. आचार्य कलाप्रभसागर जी, श्री अचलगच्छ के आचार्यों की जीवन ज्योति अपरनाम लघुपट्टावली, बाडमेर, वि०सं० २०३५, पृ० ९८. यह लेख कहां से प्राप्त हुआ है इस सम्बन्ध में आचार्य कलाप्रभसागर जी ने कुछ नहीं बतलाया है। २७. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २२०-२२३. वही, पृ० २३१-२३२. वही, पृ० २६३. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २४०. वही, पृ० २४० एवं अम्बालाल प्रेचमन्द शाह, कालकाचार्यकथासंग्रह, पृ० ६६. अंचलगच्छ की अन्य शाखाओं की तरह इस शाखा का भी स्वतन्त्र रूप से इतिहास लिखा गया है जो अद्यावधि अप्रकाशित है। ३३. अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ५४६. ३४. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २४४. ३५-३६. वही, पृ० २४४. ३७. गच्छाधिपश्रीजयकीर्तिसूरिशिष्यो महीमेरुरहं स्तवं ते। कृत्वा क्रियागुप्तकवित्वमित्थं त्वामेव दध्यां हृदये जिनेन्द्र।। ५३ ।। 'जिनस्तुतिपंचाशिका' मुनिश्री चतुरविजय, सम्पा० जैनस्तोत्रसन्दोह, भाग १, प्राचीन जैन साहित्योद्धार ग्रन्थावली, पुष्प १, अहमदाबाद, १९३२ई०स०, पृ०३६-४२. २८. २९. سه سه سه २ . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अचलगच्छ का इतिहास ३८. Jinaratnakosha, p. 78. ३८अ. Ibid, p. 314. ३९. आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, भाग १, विभाग २, पृ० ९१. ४०. वही, भाग १, विभाग २, पृ० ९३ एवं आचार्य कलाप्रभसागर, लघुपट्टावली, पृ० ११८. Jinaratnakosha, p. 44. Ibid, p. 402. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २७८. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग १, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ३६६. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० २७९. Jinaratnakosha, p. 44. Ibid, p. 380. Ibid, p. 78. अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ४१७. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २७९. द्रष्टव्य, इसी आलेख के प्रारम्भिक पृष्ठों में दी गयी अंचलगच्छीयपट्टधर आचार्यों की तालिका. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २७९. अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक १००. ५२. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० २७९. ५३. वही, पृ० ३०२. द्रष्टव्य, अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ६६८-७०१. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३१३. ५६. द्रष्टव्य, सन्दर्भ क्रमांक ३. ५६अ. Jinaratnakosha, p. 328. ५७-५८.अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३८५-८६. ५९. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, द्वितीय संशोधित संस्करण, मुम्बई १९८७ई०स०, पृ० १६६-६७. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास १०३ ६०. ६५. सहजरत्न द्वारा रचित बीसविहरमानजिनस्तवन (रचनाकाल वि०सं० १६१४/ई०स० १५५८) और चौदहगुणस्थानकगर्भितवीरस्तवक नामक कृतियां भी प्राप्त होती हैं। Vidhatri Vora, Ed. Catalogue of Gujarati Manuscripts Muniraja Shree PunyavijayaJis Collection, L.D. Series, No-71, Ahmedabad 1978 A.D. P. 239. जैनगूर्जरकविओ, भाग २, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ३६२-६३. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६३. ६१. जैनगूर्जरकविओ, भाग २, पृ० १८९-९०. ६२-६३. वही ६४. अगरचन्द भँवरलाल नाहटा, “जसकीर्तिकृत सम्मेतशिखरास का सार" जैनसत्यप्रकाश, वर्ष ७, अंक १०-११, पृष्ठ ५१७, ५४८. आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, भाग ३, हिन्दी विभाग, पृ० ५७-६५. जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, नवीन संस्करण, पृ० ३०१-३०६. ज्ञानमूर्ति द्वारा रचित बाइसपरीषहचौपाई, संग्रहणीबालावबोध, प्रियंकरचौपाई आदि कृतियां भी मिलती हैं। अंचलगच्छे दिन दिन दीपे, श्रीधर्ममूरति सूरिराया। तास तणे पखे महीयल विचरें, भानुलब्धि उवझाया रे। ताससीस मेघराज पयपे चिरनंदो जा चंदा रे। ओ पूजा जे भणसे बाणसे, तस घर होइ अणंदा रे। जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, द्वितीय संशोधित संस्करण, संपा० डॉ० जयन्त कोठारी, मुम्बई १९८७ ई०, पृ० १६४-६५. हिन्दीजैनसाहित्यकाइतिहास (मरु-गूर्जर), भाग २, पृ० ३६५-६६. ६७. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३९१. ६८-६९-७०. भंवरलाल नाहटा, “राजसीरास का सार", आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, भाग ३, हिन्दी विभाग, पृ० ४-१०. ७१. लघुपट्टावली, पृ० १२६. ७२. वही, पृ० १३९. ७३. अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक २८७-३०८; ७६६-७७८. ६६. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अचलगच्छ का इतिहास ७७. ७४. लघुपट्टावली, पृ० १४३. ७५-७६.वि०सं० १६७६ का वर्धमान शाह का लेख अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ३१०. लघुपट्टावली, पृ० १४३ और आगे मुनि महोदयसागर, कल्याणसागरसूरि का जीवनचरित, पृ० १७०-७३. ७९. संवत् सोल पंच्योतरे रे, कारतिक मास मझारि रे, सुद तेरस अति उजली रे, सोम सुतन भलोवार रे। विधिपक्ष गछ गुरु राजीओ रे, सोहे निर्मल नाण रे, दिन दिन महिमा दीपतो रे, जिम उदयाचले भांण रे। ७८. तास पक्ष पंडितबरु रे, पुण्यमंदिर मुनिराय रे, विनइ तेहना वीनवे रे, उदयमंदिर धरी साय रे। रास रच्यो खंते करीरे, सेरवाटपुर मांहि रे, नरनारी जे सांभले रे, तस होई अधिक उछाहि रे। शीतिकण्ठ मिश्र, पूर्वोक्त, भाग २, पृ० ४८. संवत सोल पंचाणुआ वरसि, आषाढ़ सुदि हरसि जी, श्री अंचलगछि विराजि, श्रीकल्याणसागर सूरिराजिजी। ८०. वाचकवंस विभूषण वारु श्री देवसागर भवतारु जी तास सीस मनि भावि उत्तमचंद गुण गावि जी। शीतिकण्ठ मिश्र, पूर्वोक्त, भाग २, पृ० ४७. संवत सोल संताणुइ पोस पुनिय दिनसार रे, चरित्र अह रचिउ मनरंगे रायधनपुर मझारि रे। ८१. पण्डित गुणचंद्र वंदता पामीजे उछाह रे, सुगुरु अह तणे सुपसाये, भाख्यो जे अधिकार रे। विवेकचंद्र कहे भावे सुणता लहइ लाभ अपार रे। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. अचलगच्छ का इतिहास १०५ १०५ सुणी चरित्र दीजे दान जे कीजे अतिथिसंविभाग रे। शीतिकण्ठ मिश्र, वही, भाग २, पृ० ४८७. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४०८. अंचलगच्छि श्रीधर्ममूर्तिसूरि सूरिसिरोमणि दीपइ, तस पाटि श्रीकल्याणसागर सूरि मयण महाभद्र जीपइ रे। संवत षट रस वाण (काय) निशाकर, कातिक वदि सोमवारि, पांचमि जोडि करी ओ रूडी, श्री भुज नगर मझारि रे। वाचक वंश सुहाकर मुणिवर, श्री विजयशील मुणिंद, तास सीस दयाशील पयंपइ वंदु इला मुनि चंद रे। इलाची मुनि ना गुण गांता, पातिक दूरि पलाइ, श्री चिंतामणि पास प्रसादिइं ऋद्धि वृद्धि थिर थाइ रे। इलाचीकेवलीरास की प्रशस्ति, शीतिकण्ठ मिश्र, वही, भाग २, पृ० २१६-१७. मुनि दयाशील द्वारा रची गयी शीलबत्तीसी (रचनाकाल वि०सं० १६६४/ ई०स० १६०८), चन्द्रसेन-प्रद्योत नाटकीयप्रबन्ध (रचनाकाल वि०सं० १६६७/ई०स० १६११) आदि कृतियां भी मिलती हैं। सोलह सय उगणोत्तरइ पुर जालोर मझारि, आसु सुदि दशमई कियउ, कथाबंध गुरुवारि। ८४. श्री अंचलगच्छ उदधि समान, संघरयण केरउ अहिठाण। उदयउतास श्रीगुरु कल्याणसागर सम गुणनांण, तासपक्षि महिमाभंडार, पंडित भीमरतन अणगार। तास विनेय विनयगुणगेह, उदयसमुद्र सुगुरु ससनेह, ताससीस आणंदिइ घणई, दयासागर वाचक.... इम भणइ। मदनराजर्षिरास की प्रशस्ति, शीतिकण्ठ मिश्र, पूर्वोक्त, भाग २, पृ०२१७-१९. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, द्वितीय परिवर्धित संस्करण, सम्पा०- डॉ० जयन्तकोठारी, भाग ३, पृ० ९७-९९. वाचक दयासागरगणि ने मदनराजर्षिचरित की रचना अपने गुरुभाई Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अचलगच्छ का इतिहास देवविधान के आग्रह पर की थी। अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४०९-१० अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४०८, ४१०. शीतिकण्ठ मिश्र, पूर्वोक्त, भाग २, पृ० २३६-३७. मुनिपुण्यविजय, “एक ग्रन्थनी प्रशस्ति" जैनसत्यप्रकाश, वर्ष १२, अंक २, टाइटिल पृ० २. ८७. द्रष्टव्य, इसी निबन्ध के प्रारम्भ में दी गयी अंचलगच्छीय आचार्यों की पट्टपरम्परा ८८-८९. लघुपट्टावली, पृ० १५६-५७. ९०. वही, पृ० १५८-५९. ९१. द्रष्टव्य, कल्याणसागरसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों की तालिका के अन्तर्गत ९२-९४. लघुपट्टावली, पृ० १६१-६२. ९५-९६.वही, पृ० १६५-६६. ९७. वही, पृ० १७०. ९८. संभवनाथ जिनालय, गोपीपुरा-सूरत में इसी तिथि की प्रतिष्ठापित १० अन्य जिनप्रतिमायें भी है। यद्यपि इनमें कीर्तिसागरसूरि का नाम नहीं मिलता फिर भी ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जा सकता उक्त जिन प्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरणा भी उक्त आचार्य से ही प्राप्त हुई होगी। - द्रष्टव्य अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ८३३-८४८. ९९-१००. लघुपट्टावली, पृ० १७१. १०१-१०२. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ५१६-१७. १०३. अचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ३२६. १०४-१०५. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ५१५-१६. १०६. वही, पृ० ५१८-१९; अंचलगच्छीय लेखसंग्रह, लेखांक ८५३. १०७. वही, पृ० ५१९; अंचलगच्छीय लेखसंग्रह, लेखांक ३२८. १०८. वही, पृ० ५२०. १०९. वही, पृ० ५२१. ११०. लघुपट्टावली, पृ० १७३; अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृष्ठ ५३८. १११. अचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ५३० और आगे; अंचलगच्छीय लेखसंग्रह, लेखांक ८७०, ८७२. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास १०७ १०७ ११२. लघुपट्टावली, पृ० १७७-१८०. ११३. वही, पृ० १८१ और आगे. ११४. वही, पृ० १८३-१८४. ११५-११६. विस्तार के लिए द्रष्टव्य- लघु पट्टावली, पृ० १८४ और आगे आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, भाग १, विभाग ४, पृष्ठ १४२-१६१. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ५९४-९९. ११७. बाबूलाल जैन ‘उज्जवल', समग्र जैन चातुर्मास सूची, २००० ई०; पृष्ठ २८७-२९७. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास अचलगच्छ-कीर्ति शाखा अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखाओं में कीर्ति शाखा भी एक है। प्राप्त विवरणानुसार जयकीर्तिसूरि के शिष्य लावण्यकीर्ति से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी।१ यह बात धर्ममूर्तिसूरिकृत पट्टावली (रचनाकाल वि० सं० १६१७) से ज्ञात होती है। जयकीर्तिसूरि अंचलगच्छ के १२वें पट्टधर थे और उनका समय विक्रम संवत् की १५वीं शती का उत्तरार्ध सुनिश्चित है, ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि १५वीं शती के अन्तिम चरण या १६वीं शती के प्रथम चरण में अंचलगच्छ की यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इससे सम्बद्ध न तो कोई पट्टावली मिलती है और न ही कोई प्रतिमालेखादि ही। इसी प्रकार इस शाखा से सम्बद्ध मुनिजनों द्वारा रचित कोई कृति भी नहीं मिली है, तथापि उनके द्वारा प्रतिलिपि की गयी कृतियों की प्रशस्तियां मिली हैं, जिनसे इस शाखा के कुछ मुनिजनों के नाम और उनके पूर्वापर सम्बन्ध भी निर्धारित हो जाते हैं। इन्हीं सीमित साक्ष्यों के आधार पर अंचलगच्छ की इस शाखा के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत है। ___ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आचार्य जयकीर्तिसूरि के शिष्य लावण्यकीर्ति से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। ऐसा प्रतीत होता है कि लावण्यकीर्ति के कीर्ति नामान्त होने से उनकी शिष्य-सन्तति कीर्तिशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई होगी। लावण्यकीर्ति द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही उनके द्वारा प्रतिष्ठापित कोई जिन प्रतिमा ही प्राप्त हुई है। इसी प्रकार इनके पट्टधर कौन थे; इस बारे में भी कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। वि०सं० १६२५ में लिखी गयी कल्पसूत्रवृत्ति की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि उक्त ग्रन्थ पं० क्षेगकीर्तिगणि को एक श्रावक परिवार द्वारा प्रदान की गयी। उक्त पुष्पिका में क्षेमकीर्तिगणि के गुरु पं० भावकीर्तिगणि और प्रगुरु हर्षवर्धनगणि का भी नाम मिलता है Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १०९ पं० हर्षवर्धनगणि पं० भावकीर्तिगणि पं० क्षेमकीर्तिगणि (वि.सं. १६२५ में लिखी गयी कल्प सूत्रवृत्ति की दाता प्रशस्ति में उल्लिखित) चूंकि अचलगच्छ की विभिन्न शाखाओं का नामकरण शाखा प्रवर्तक मुनिजनों के नामान्त पद (नन्दि) पर ही हुआ है, अत: उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित क्षेमकीर्तिगणि को अचलगच्छ की कीर्तिशाखा से सम्बद्ध मानने में कोई बाधा दिखाई नहीं देती। इस आधार पर उक्त प्रशस्ति को कीर्तिशाखा का प्रथम साक्ष्य माना जा सकता है। शाखाप्रवर्तक लावण्यकीर्ति और पं० क्षेमकीर्ति की गुरु-परम्परा के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता है। जयकीर्तिसूरि (अचलगच्छ के १२वें पट्टधर) जन्म वि.सं. १४३३; दीक्षा वि.सं. १४४४; आचार्यपद वि० सं० १४६७; मृत्यु वि०सं० १५००) लावण्यकीर्ति (अचलगच्छ कीर्तिशाखा के आदिपुरुष); वि०सं० की १५वीं शती के अन्त या १६वीं शती के प्रथम चरण के आस-पास कीर्तिशाखा के प्रवर्तक) हर्षवर्धनगणि पं० भावकीर्ति पं० क्षेमकीर्ति (वि०सं० १६२५ में इन्हें कल्पसूत्रवृत्ति की प्रति भेंट में दी गयी) वि०सं० १६६७ में अपने प्रशिष्य विजयकीर्ति के पठनार्थ कल्याणमन्दिरस्तव के प्रतिलिपिकार राजकीर्तिगणि भी कीर्तिशाखा से सम्बद्ध माने जा सकते हैं। उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति३ में प्रतिलिपिकार ने अपने गुरु, शिष्य, प्रशिष्य आदि का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि उनके गुरु का नाम क्षमाकीर्ति, शिष्य का नाम श्रुतकीर्ति और प्रशिष्य का नाम विजयकीर्ति था। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अचलगच्छ का इतिहास क्षमाकीर्ति I राजकीर्तिगणि 1 श्रुतकीर्ति विजयकीर्ति वि०सं० १६२५ में लिखी गयी कल्पसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति में उल्लिखित क्षेमकीर्ति, जिनका ऊपर उल्लेख आ चुका है, और उक्त कल्याणमन्दिरस्तव की वि०सं० १६६७ की प्रशस्ति में उल्लिखित राजकीर्तिगणि एवं उनके क्षमाकीर्ति के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था, यह पता नहीं चल पाता है। गुरु जयकीर्तिसूरि | (वि० सं० १६६७ में कल्याणमन्दिरस्तव के प्रतिलिपिकार) पं० भावकीर्ति I पं० क्षेमकीर्ति (इनके पठनार्थ वि०सं० १६६७ में उक्त कृति की प्रतिलिपि की गयी) लावण्यकीर्ति (अंचलगच्छ - कीर्तिशाखा के आदिपुरुष) 1 हर्षवर्धन गणि श्रुतकीर्ति I विजयकीर्ति (वि.सं. १६२५ में लिखित कल्पसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति में उल्लिखित) पं० क्षमाकीर्ति 1 राजकीर्तिगणि (वि.सं. १६६७ में कल्याणमन्दिरस्तव के प्रतिलिपिकार) I Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १११ वि०सं० १६६९ में लिखी गयी रत्नसंचयप्रकरण की प्रतिलेखन प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार श्रुतकीर्ति ने अपने प्रगुरु, गुरु और दो अन्य मुनिजनों का नामोल्लेख किया है, जो निम्नानुसार है : पं० क्षमाकीर्तिगणि वाचक राजकीर्तिगणि गुणवर्धनगणि श्रुतकीर्ति (वि०सं० १६६९ में पारकरनगर में ऋषि दयाकीर्ति और ऋषि हर्षकीर्ति के साथ रत्नसंचयप्रकरण के प्रतिलिपिकार) ऊपर हम देख चुके है कि वि०सं० १६६७ में लिखी गयी कल्याणमन्दिरस्तव की प्रतिलेखन प्रशस्ति में पं० क्षमाकीर्तिगणि, वाचक राजकीर्तिगणि और श्रुतकीर्तिगणि का नाम आ चुका है। वि०सं० १६६९ में लिखित रत्नसंचयप्रकरण की उक्त प्रशस्ति में श्रुतकीर्ति को लेखन कार्य में सहायता करने वाले दयाकीर्ति और हर्षकीर्ति के साथ उनका क्या सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता। वि० सं० १६७६ चैत्र वदि १२ को पालिग्राम में लिखी गयी सिंहासनबत्तीसी की एक प्रति मिलती है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में वाचक राजकीर्तिगणि, उनके गरुभ्राता गुणवर्धनगणि तथा उनके शिष्यों - श्रुतसागरगणि, दयाकीर्तिगणि और विजयकीर्ति का प्रतिलिपिकार के रूप में नाम मिलता है : वाचक राजकीर्तिगणि पं० गुणवर्धनगणि श्रुतसागरगणि दयाकीर्तिगणि विजयकीर्ति (वि.सं. १६७६ चैत्र वदि १२ को सिंहासनबत्तीसी के प्रतिलिपिकार) उक्त तीनों तालिकाओं के परस्पर समायोजन से एक विस्तृत तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है : Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंचलगच्छ- कीर्तिशाखा के मुनिजनों के गुरु परम्परा की तालिका (आर्यरक्षितसूरि) (जयसिंहसूरि) (धर्मघोषसूरि) (महेन्द्रसिंहसूरि) 1 (सिंहप्रभसूरि) (अजितसिंहसूरि ) (देवेन्द्रसिंहसूरि) (धर्मप्रभसूरि) (सिंहतिलकसूरि) (महेन्द्रप्रभसूरि) (मेरुतुंगसूरि) ११२ अचलगच्छ का इतिहास Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयकीर्तिसूरि । लावण्यकीर्ति (अंचलगच्छ-कीर्तिशाखा के आदिपुरुष) हर्षवर्धनगणि पं० भावकीर्ति पं० क्षेमकीर्ति (वि०सं० १६२५ में लिखी गयी कल्पसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति में उल्लिखित) पं० क्षमाकीर्ति अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास गुणर्धनगणि पं० राजकीर्तिगणि (वि०सं० १६६७ में कल्याणमन्दिरस्तव के प्रतिलिपिकार) श्रुतकीर्तिगणि (वि०सं० १६६९ में रत्लसंचयप्रकरण के प्रतिलिपिकार) विजयकीर्ति श्रुतसागरगणि दयाकीर्तिगणि विजयकीर्ति (वि०सं० १६७६ में सिंहासनबत्तीसी के प्रतिलिपिकार) ११३ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अचलगच्छ का इतिहास वि०सं० १६९२ में लिखी गयी दण्डकस्तवन के प्रतिलिपिकार चन्द्रकीर्तिगणि भी कीर्तिशाखा से ही सम्बद्ध मालूम होते हैं। इनके गुरु कौन थे? इस बारे में उक्त प्रशस्ति से कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। चन्द्रकीर्तिगणि (वि०सं० १६९२ में दण्डकस्तव के प्रतिलिपिकार) वि०सं० १७२९ में लिखी गयी गोराबादलकथा अपरनाम पद्मिनीचौपाई के प्रतिलिपिकार विमलकीर्ति, ललितकीर्ति और जयकीर्ति भी इसी शाखा से सम्बद्ध जान पड़ते हैं। उक्त कृति की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि प्रतिलिपिकार के गुरु का नाम पं० मतिकीर्ति था। इन सबका पूर्व प्रदर्शित तालिका के मुनिजनों से किस प्रकार का सम्बन्ध था, ज्ञात नहीं होता। पं० मतिकीर्ति विमलकीर्ति ललितकीर्ति जयकीर्ति (वि०सं० १७२९ श्रावण वदि २ बुधवार को गोराबादलकथा के प्रतिलिपिकार) अचलगच्छ की कीर्तिशाखा का उद्भव कब, कहां और किस कारण हुआ। साक्ष्यों के अभाव में ये सभी प्रश्न प्राय: अनुत्तरित ही रह जाते है। सन्दर्भ १. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, मुम्बई, १९६८ई०स०, पृ० २४५. २. वही, पृ० ३७१. 3. A.P. Shah, Ed. Catalogue of Sanskrit & Prakrit Mss : Muniraj Shree PunyavijayaJis Collection, L.D. Series, No.2. Ahmedabad, 1963 ____A.D.No. 168,p.98-99. ४. संवत् १६६९ वर्षे श्रीअंचलगच्छे पं० श्री क्षि (क्ष)माकीर्तिगणि-शिष्य वा० श्रीराजकीर्तिगणि-पं० श्रीगुणवर्धनगणि-शिष्य श्रुतकीर्तिलिखितं श्रीपारकरनगरमध्ये ऋषिदयाकीर्ति- ऋषिहर्षकीर्तिसहितैः। -- Ibid, No. 2812, Page 141. ५. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग २, द्वितीय संशोधित संस्करण, सम्पा०- जयन्त कोठारी, पृ० ४१. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४०१. ६. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४००. ७. वही, पृ० ४६७. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ-गोरक्षशाखा अचलगच्छ की विभिन्न शाखाओं में गोरक्षशाखा भी एक है। अचलगच्छ के १५ वें पट्टधर आचार्य भावसागरसूरि (वि०सं० १५६७ - १५८३) के शिष्य सुमतिसागर इस शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस गच्छ में हेमकान्ति, गुणसागर, पुण्यरत्न, गुणरत्न, क्षमारत्न, ज्ञानसागर, मतिसागर, जयसागर आदि कई विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। जैसा कि इस शाखा के नाम से प्रतीत होता है शाखा के आदिपुरुष सुमतिसागर द्वारा किसी गाय की रक्षा करने के कारण उनका शिष्य समुदाय गोरक्षशाखा के नाम से जाना गया होगा। यह शाखा कब और कहां अस्तित्त्व में आयी, इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती। इस शाखा के आदिपुरुष सुमतिसागर द्वारा रचित न तो कृति ही मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। ठीक यही बात इनके शिष्य गजसागर (वि० सं० १६०३ - १६५९ ) के बारे में भी कही जा सकती है तथापि इनकी परम्परा में हुए विभिन्न रचनाकारों ने इनका सादर उल्लेख किया है। गजसागर के शिष्य गुणसागर हुए जिन्होंने अपने गुरु की स्मृति में गजसागरसूरिनिर्वाणरास १ ( रचनाकाल - वि० सं० १७वीं शती का अंतिम चरण ) की रचना की। गुणसागर द्वारा लिखित हंसाउलीरास की भी एक प्रति प्राप्त हुई है । २ गजसार के दूसरे शिष्य पुण्यरत्न हुए। इनके द्वारा रचित सनत्कुमाररास और सुधर्मास्वामीरास नामक कृतियां प्राप्त होती हैं। सनत्कुमाररास की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपनी गुरु-परम्परा, रचनाकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : विधिपक्ष गच्छनउ राजा, श्री आर्यरक्षत सूरिंद रे, गुण अराणि तपगुणतिलउ सोल कला जस्यो वद रे । तस पाटिं जयसिंहसूरि धर्मघोषसूरि तास, महिंदसींह वली गुणभर्यउ, जेणइ जनना पहउचाड़ा आस । तिणइ अनुक्रमिं अवतर्या श्री सुमतिसागरसूरि सार रे, श्रीगजसागरसूरि तस तणइ, पाटिं जाणउ उदार रे । तास सीस अ जाणज्यो, पुण्यरत्नसूरि कहि रास रे, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अचलगच्छ का इतिहास भणइ गणइ जे स भलई, तेहनी पुहतुवई आस रे। संवत सोल ते जाणज्यो साडत्रीसउ ते सार रे, वैशाख वदि भला पंचमी, रास रच्चउ रविवार रे। सुधर्मास्वामीरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह कृति वि०सं० १६४०/ ई०सन् १५८४ में रची गयी थी। पुण्यरत्न के शिष्य मुनि गुणरत्न हुए। यद्यपि इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती है तथापि मुनि कान्तिसागर ने इनके द्वारा रचित तीर्थङ्करोना दोहा नामक कृति का उल्लेख किया है। ५ गुणरत्न के किसी शिष्य ने गुणरत्नसूरिसवैया नामक कृति की रचना की है। इस कृति से इनके बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम शिवा शाह और माता का नाम कुंवरी था। गुणरत्नसूरि के शिष्य क्षमारत्न हुए, जिन्होंने वि०सं० १७२१/ई०सन् १६६५ में चित्रभूतसंभूतचौपाई की रचना की। गजसागरसूरि के शिष्यों में हेमकान्ति भी एक थे। इन्होंने वि०सं० १५८९ अथवा १५९८ में श्रावकविधिचौपाई की रचना की।८ गजसागरसरि के एक शिष्य ललितसागर हए, जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, ठीक यही बात इनके गुरुभ्राता और पट्टधर माणिक्यसागर के बारे में भी कही जा सकती है। माणिक्यसागर के शिष्य ज्ञानसागर हुए जिनके द्वारा वि०सं० १६९७-१७२७ के मध्य रची गयी १८ रचनायें उपलब्ध होती हैं। ज्ञानसागर ने वि०सं० १६९७/ई०स० १६४१ में ईलाचीकेवलीरास और वि०सं० १७००/ ई०स० १६४४ में चारप्रत्येकबुद्धचौपाई की प्रतिलिपि की।९ ज्ञानसागर द्वारा रचित कृतियों की सूची इस प्रकार है१० - शुकराजरास वि०सं० १७०१/ई०स० १६४५ धम्मिलरास वि०सं० १७१५/ई०स० १६५९ ईलाचीकुमारचौपाई वि०सं० १७१९/ई०स० १६६३ शांतिनाथरास वि०सं० १७२०/ई०स० १६६४ नलायन वि०सं० १७२०/ई०स० १६६४ के आसपास चित्रसंभूतचौपाई वि०सं० १७२१/ई०स० १६६५ धनाअणगारस्वाध्याय mix ४. 3 ७ ; Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास ११७ ८. स्थूलिभद्रनवरास ९. रामचन्द्रलेख वि०सं० १७२३/ई०स० १६६७ १०. परदेशीराजारास वि०सं० १७२४/ई०स० १६६८ ११. आषाढभूतिरास वि० सं० १७२४/ई०स० १६६८ १२. नंदिसेणरास वि०सं० १७२५/ई०स० १६६९ १३. श्रीपालरास वि०सं० १७२६/ई०स० १६७० १४. आद्रककुमारचौपाई वि०सं० १७२७/ई०स० १६७१ १५. धन्नाचरित वि०सं० १७२७/ई०स० १६७१ १६. सनत्चक्रीरास वि०सं० १७३०/ई०स० १६७४ १७. अर्बुदस्तवन १८. शाम्बप्रद्युम्नरास माणिक्यसागर के दो अन्य शिष्य मतिसागर और जयसागर हुए, जिन्होंने वि०सं० १६९९/ई०सन् १६४३ में तेजपालरास की प्रतिलिपि की। ११ ज्ञानसागरसूरि के पट्टधर प्रीतिसागर हुए, जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके गुरुभ्राता नयसागर ने वि०सं० १७१६/ई०सन् १६६० में स्वपठनार्थ कल्पसूत्र की प्रतिलिपि की। १२ प्रीतिसागर के पट्टधर उनके शिष्य ललितसागर 'द्वितीय' हुए। इनके पश्चात् धनसागर, हर्षसागर, न्यायसागर और गुलाबसागर ने इस शाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। चूंकि ज्ञानसागर के पश्चात् इस शाखा में कोई प्रभावशाली आचार्य नहीं हुआ अतः धीरे-धीरे इसका प्रभाव कम होने लगा और गुलाबसागर के पश्चात् नामशेष हो गया। आज इस शाखा का अस्तित्त्व केवल इतिहास के पृष्ठों तक ही सीमित है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अचलगच्छ-गोरक्ष शाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की तालिका (आर्यरक्षितसूरि) (जयसिंहसूरि) (धर्मघोषसूरि) (महेन्द्रसिंहसूरि) (सिंहप्रभसूरि) (अजितसिंहसूरि) (देवेन्द्रसिंहसूरि) (धर्मप्रभसूरि) (सिंहतिलकसरि) (महेन्द्रप्रभसूरि) (मेरुतुंगसूरि) (जयकीर्तिसूरि) (जयकेशरीसूरि) अचलगच्छ का इतिहास Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिद्धान्तसागरसूरि) भावसागरसूरि सुमतिसागर (गोरक्षशाखा के आदिपुरुष) गजसागर गुणनिधानसूरि (पट्टधर) अंचलगच्छ मुख्य परम्परा पुण्यरत्न ललितसागर माणिक्यसागर गुणसागर (हंसाउलीरास के प्रतिलिपिकारः गजसागरसूरिनिर्वाणरास के कर्ता) हेमकान्ति (वि.सं.१५८९ या १५९८ में श्रावकविधिचौपाई के कर्ता) अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास जयसागर गुणरत्न (वि.सं.१६३७ में सनत्कुमाररास एवं वि.सं.१६४० में सुधर्मास्वामीरास के रचनाकार) ज्ञानसागर (वि.सं.१६९७-१७२७ के मध्य रचित १८ रचनायें उपलब्ध) मतिसागर (वि.सं.१६९९ में तेजसाररास के प्रतिलिपिकार) ११९ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 क्षमारत्न (वि.सं. १७२१ में चित्रसम्भूतचौपाई के कर्ता) | प्रीतिसागर ललितसागर T धनसागर | हर्षसागर न्यायसागर I गुलाबसागर | नयसागर (वि.सं. १७१६ में स्वपठनार्थ कल्पसूत्र के प्रतिलिपिकार) १२० अचलगच्छ का इतिहास Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 अंचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १२१ सन्दर्भ १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, द्वितीय संशोधित संस्करण, भाग ३, पृ० ३७१. २. वही, भाग ३, पृ० ३५८. ३. वही, भाग २, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० १६६. ४. वही, पृ० १६७. मुनि कान्तिसागर, “कैटलांक औतिहासिक पद्यो', जैनसत्यप्रकाश, वर्ष ७, अंक ११, पृ० ५३०; अंक १२, पृ० ५६८. ६. वही, पृ० ५६८. ७. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३७४. ८. वही, पृ० ३२४. ९-१० वही, पृ० ४६२-६५. ११. वही, पृ० ४०९. १२. A.P.Shah, Ed. Catalogue of Sanskrit & Prakrit Mss., Muniraja Shree PunyavijayaJis Collection, Pan I, L.D. Series, No. 2, Ahmedabad 1963, A.D., No.627, p.51. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ- चन्द्रशाखा अंचलगच्छ की विभिन्न उपशाखाओं में चन्द्रशाखा भी एक है। प्रचलित मान्यतानुसार अंचलगच्छ के १६वें पट्टधर आचार्य गुणनिधानसूरि के शासनकाल में वि०सं० १५८५ के आसपास वाचक पुण्यचन्द्र ने अमावस्या की रात्रि को पूर्णिमा में बदल दिया था, इसी कारण इनकी शिष्य सन्तति चन्द्रशाखा के नाम से जानी गयी। इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये भी न तो कोई पट्टावली मिलती है और न ही प्रतिमालेखों आदि में इस शाखा के मुनिजनों का नाम मिलता है। इस शाखा से सम्बद्ध मात्र कुछ ग्रन्थ प्रशस्तियां ही मिलती हैं। इसके अलावा इस शाखा के कुछ मुनिजनों की नामावली श्रीपार्श्व ने दी हैं। साम्प्रत आलेख में उन्हीं सीमित साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत है। चन्द्रशाखा की दो परम्परायें मिलती हैं। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है : चन्द्रशाखा - प्रथम परम्परा चन्द्रशाखा के आदिपुरुष वाचक पुण्यचन्द्र द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध से कोई उल्लेख ही मिलता है। यही बात इनके शिष्य माणिक्यचन्द्र, माणिक्यचन्द्र के पट्टधर विनयचन्द्र और विनयचन्द्र के पट्टधर रविचन्द्र के बारे में भी कही जा सकती है। रविचन्द्र के शिष्य एवं पट्टधर देवसागर हुए, जिनके द्वारा रचित कुछ कृतियां प्राप्त होती हैं। १- कपिलकेवलीरासरे रचनाकाल वि०सं० १६७४ २- व्युत्पत्तिरत्नाकर३ रचनाकाल वि०सं० १६८६ व्युत्पत्तिरत्नाकर की प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है : वाचक पुण्यचन्द्र माणिक्यचन्द्र विनयचन्द्र रविचन्द्र वाचक देवसागर (कपिलकेवलीरास एवं व्युत्पत्तिरत्नाकर के रचनाकार) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १२३ वि०सं० १६७५ का एक शिलालेख शत्रुञ्जय स्थित हाथीपोल पर उत्कीर्ण है। यह लेख ३१ पंक्तियों का है। इसके लेखक के रूप में देवसागर गणि का नाम मिलता है। यावद्विभाकरनिशाकरभूधरार्यरत्नाकरध्रुवधराः किल जाग्रतीह। श्रेयांसनाथजिनमंदिरमत्र तावन् नंदत्वनेकभविकौधनिषेव्यमानम्।। १ ।। वाचकश्री विनयचन्द्रगणिनां शिष्यमु० देवसागरेण विहिता प्रशस्तिः।। अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, सम्पा०- श्रीपार्श्व, लेखांक ३१०. शत्रुञ्जय स्थित हाथीपोल और वाघणपोल के मध्य स्थित विमलवसही ढूंक पर बायें हाथ स्थित एक मन्दिर पर वि०सं० १६८३ का एक शिलालेख उत्कीर्ण है। इस लेख में भी लेखकर्ता के रूप में देवसागर गणि का उल्लेख मिलता है। ...... भट्टारक कल्याणसागरसूरिभिः प्रतिष्ठितं।। वाचक देवसागरगणीनां कृतिरिय।। ..................। अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक ३१५. वि०सं० १७०० वैशाख सुदि २ रविवार को लिखी गयी सर्वज्ञशतकस्तवक की एक प्रति श्री हु०म० ज्ञानभण्डार, सुरत में संरक्षित है। इस कृति की प्रतिलेखन प्रशस्ति में लिपिकार पं० कनकसागर ने अपने गुरु के रूप में पण्डित देवसागर गणि का उल्लेख किया है। यद्यपि इस प्रशस्ति में लिपिकार ने अपने गच्छ-शाखा आदि का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर कनकसागर के गुरु पं० देवसागर गणि और अंचलगच्छीय- चन्द्रशाखा के देवसागर गणि को एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। उक्त प्रशस्ति का मूलपाठ निम्नानुसार है : संवत् १७०० वर्षे वैशाख सुदि २ रवौ पंडितचक्रचक्रवर्ती पंडित श्रीदेवसागरगणिशिष्य पं० कनकसागरलिखितं स्ववाचनकृते श्रीराजनगरे।। देवसागर गणि के एक अन्य शिष्य उत्तमचन्द्र हुए, जिन्होंने वि०सं० १६९५ में सनन्दारास की रचना की।५ देवसागर गणि के पट्टधर जयसागर हुए। जयसागर के पट्टधर के रूप में लक्ष्मीचन्द्र का नाम मिलता है। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु लक्ष्मीचन्द्र के पट्टधर लावण्यचन्द्र और कुशलचन्द्र हुए जिनके द्वारा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अचलगच्छ का इतिहास रचित कुछ कृतियां मिलती हैं । ६ जो इस प्रकार हैं : रचनाकाल वि० सं० १७३४ १. साधुवन्दना २. साधुगुणाभास ३. वीरवंशानुक्रम अपरनाम अंचलगच्छपट्टावली रचनाकाल वि०सं० १७६३ ४. गौडीपार्श्वनाथचौढालिया रचनाकाल, वि०सं० १७६३. पुण्यचन्द्र के दूसरे शिष्य माणिक्यचन्द्र और माणिक्यचन्द्र के शिष्य सौभाग्यचन्द्र हुए। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके पट्टधर रयणचन्द्र द्वारा वि०सं० १६९३ में प्रतिलिपि की गयी ऋषिमण्डलस्तोत्र की प्रति प्राप्त होती है । ७ इसकी प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा निम्नानुसार दी है : वाचक पुण्यचन्द्र माणिक्यचन्द्र I सौभाग्यचन्द्र I रयणचन्द्र पुण्यचन्द्र की परम्परा में ही हुए स्थानसागर ने वि०सं० १६८५ में अगडदत्तरास' की रचना की । इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है : (वि० सं० १६९३ में ऋषिमण्डलस्तोत्र के प्रतिलिपिकार) वाचक पुण्यचन्द्र | कनकचन्द्र I वीरचन्द्र I स्थानसागर (वि.सं. १६८५ में अगडदत्तरास के कर्ता) स्थानसागर के गुरुभ्राता ज्ञानसागर ने वि० सं० १६७८ में सिंहासनद्वात्रिंशिका की प्रतिलिपि की । ९ इसकी प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु- परम्परा दी है, जो प्रकार है : इस Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ अंचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास वाचक पुण्यचन्द्र वाचक कनकचन्द्र वाचक वीरचन्द्र स्थानसागर ज्ञानसागर धनसागर (वि.सं. १६७८ आश्विन सुदि ९ को सिंहासनद्वात्रिंशिका के प्रतिलिपिकार) वि० सं० १८१५ वैशाख सुदि ३ रविवार को लिखी गयी रमलशास्त्र की एक प्रति प्राप्त हुई है। इसकी प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार मलूकचन्द्र ने अपनी लम्बी गुरु-परम्परा१° दी है, जो इस प्रकार है : गुणनिधानसूरि वाचक पुण्यचन्द्र माणिक्यचन्द्र विनयचन्द्र रविचन्द्र कल्याणचन्द्र वीरचन्द्र मलूकचन्द्र (वि.सं. १८१५ में अपने शिष्य के पठनार्थ रमलशास्त्र के प्रतिलिपिकर्ता) हेमचन्द्र (इनके पठनार्थ उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि की गयी) उक्त छोटी-छोटी प्रशस्तियों के आधार पर इस शाखा के मुनिजनों के गुरु-शिष्य परम्परा की एक तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है : Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अचलगच्छ-चन्द्रशाखा (प्रथम परम्परा) के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की तालिका (आर्यरक्षितसूरि) (जयसिंहसूरि) (धर्मघोषसूरि) (महेन्द्रसिंहसूरि) (सिंहप्रभसूरि) (अजितसिंहसूरि) (देवेन्द्रसिंहसूरि) (धर्मप्रभसूरि) (सिंहतिलकसूरि) (महेन्द्रप्रभसूरि) (मेरुतुंगसूरि) (जयकीर्तिसूरि) (जयकेशरीसूरि) अचलगच्छ का इतिहास Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिद्धान्तसागरसूरि) (भावसागरसूरि) गुणनिधानसूरि धर्ममूर्तिसूरि वाचक पुण्यचन्द्र (अंचलगच्छ चन्द्रशाखा के आदिपुरुष) परम्परा... माणिक्यचन्द्र कनकचन्द्र विमलचन्द्र अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास विनयचन्द्र सौभाग्यचन्द्र वीरचन्द्र -(Itah रविचन्द्र ......अंचलगच्छमुख्य रयणचन्द्र (वि.सं.१६९३ में ऋषिमण्डलस्तोत्र के प्रतिलिपिकार) धनसागर ज्ञानसागर (वि.सं.१६७८ में सिंहासनद्वात्रिंशिका के प्रतिलिपिकार) स्थानसागर (वि.सं.१६८५ में अगडदत्तदास के कर्ता) चन्द्रशाखा- (द्वितीय कल्याणचन्द्र देवसागर (वि.सं.१६८६ में व्युत्पत्तिरत्नाकर के कर्ताः शिलालेख वि.सं.१६७५, १६८३. शत्रुञ्जय) १२७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जयसागर उत्तमचन्द्र (वि.सं.१६९५ में सुनन्दारास के कर्ता) कनकसागर (वि.सं.१७०० में सर्वज्ञशतकस्तवक के कर्ता) लक्ष्मीचन्द्र मलूकचन्द्र (वि.सं.१८१५ में अपने शिष्य हेमचन्द्र के पठनार्थ रमलशास्त्र के प्रतिलिपिकार) अचलगच्छ का इतिहास हेमचन्द्र लावण्यचन्द्र (वि.सं.१७३४-६३ के मध्य रचित कई रचनायें उपलब्ध) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास अचलगच्छ- चन्द्रशाखा (द्वितीय परम्परा) चन्द्रशाखा की द्वितीय परम्परा वाचक पुण्यचन्द्र के दूसरे शिष्य एवं पट्टधर विमलचन्द्र से प्रारम्भ होती है। विमलचन्द्र के शिष्य कुशलचन्द्र और कुशलचन्द्र के शिष्य भक्तिचन्द्र हुए। इन सभी द्वारा रचित न तो कोई कृति ही मिलती है और न ही कोई इस सम्बन्ध में उल्लेख ही प्राप्त होता है। भक्तिचन्द्र के शिष्य एवं पट्टधर मानचन्द्र हुए, जिनके द्वारा रचित कुछ कृतियां प्राप्त होती हैं,१० जो इस प्रकार हैं : १. चन्द्रचिन्तामणि २. अनुपममंजरी ३. खगोलगणित ४ विद्यासागररास ५. ज्योतिषफल मानचन्द्र के पट्टधर कल्याणचन्द्र और कल्याणचन्द्र के पट्टधर सौभाग्यचन्द्र हुए। इनकी ख्याति मंत्रवादी के रूप में थी। वि०सं० १८४८ में इन्होंने विंआण में एक पोशाल का निर्माण कराया। १२ इनके पट्टधर के रूप में श्रीपार्श्व ने खुशालचन्द्र का उल्लेख किया है। १३ वि०सं० १८६० में खुशालचन्द्र की मृत्यु के पश्चात् उनके दो शिष्यों --- मूलचन्द्र और खीमचन्द्र से अलग-अलग शिष्य परम्परायें चलीं। खीमचन्द्र की परम्परा में क्रमश: करमचन्द्र, ज्ञानचन्द्र, भाग्यचन्द्र, हुकुमचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, मोहनलाल और दुलीचन्द्र हुए। यह परम्परा डुमरानीपोशाल के यतियों की परम्परा के नाम से जानी जाती है। १४ खुशालचन्द्र के दूसरे पट्टधर मूलचन्द्रजी के दो शिष्योंसुमतिचन्द्र और तिलकचन्द्र- से अलग-अलग शिष्य परम्परायें चलीं। सुमतिचन्द्र की परम्परा में क्रमश: ताराचन्द्र, गुलाबचन्द्र और गुणचन्द्र पट्टधर हुए। यह परम्परा विंजालपोशाल के नाम से जानी जाती है।१५ तिलकचन्द्र की परम्परा में उनके बाद क्रमश: मानचन्द्र, जवेरचन्द्र और केशवजी हुए।१६ मानचन्द्र के द्वितीय पट्टधर के रूप में वीरचन्द्र का नाम मिलता है। इनकी परम्परा में क्रमश: विद्याचन्द्र, त्रिकमचन्द्र, रामचन्द्र, प्रतापचन्द्र, करमचन्द्र और हीराचन्द्र हुए। यह परम्परा रायणपोशालशाखा के नाम से जानी जाती है। १६ श्रीपार्श्व ने भुजपुर, नालिया और सुथरी में इस शाखा के यतियों के पोशल होने की बात कही है। १८ उन्होंने इस शाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की जो सूची दी है, उसके आधार पर एक तालिका निर्मित की जा सकती है, जो इस प्रकार है : Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ - चन्द्रशाखा (द्वितीय परम्परा) रायणपोशाल के यतियों की परम्परा वीरचन्द्र विद्याचन्द्र त्रिकमंचन्द्र 1 रामचन्द्र प्रतापचन्द्र | करमचन्द्र वाचक पुण्यचन्द्र विमलचन्द्र 1 कुशलचन्द्र भक्तिचन्द्र मानचन्द्र खीमचन्द्र I करमचन्द्र कल्याणचन्द्र सौभाग्यचन्द्र 1 खुशालचन्द्र रामचन्द्र मूलचन्द्र सुमतिचन्द्र 1 (चन्द्रचिन्तामणि, अनुपममंजरी, खगोलगणित, विद्यासागररास, ज्योतिषफल आदि के कर्ता) (वि० सं० १६४८ में विंगाल में पोशाल के निर्माता) (वि०सं० १८६० में स्वर्गस्थ ) तिलकचन्द्र I १३० अचलगच्छ का इतिहास Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १३१ मानचन्द्र जवेरचन्द्र केशवजी विंञालपोशाल की परम्परा ज्ञानचन्द्र भाग्यचन्द्र हुकुमचन्द्र 16 लक्ष्मीचन्द्र मोहनलाल ॐ दुलीचन्द्र डुमरानीपोशाल के यतियो की परम्परा हीराचन्द्र Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अचलगच्छ का इतिहास सन्दर्भ 3 श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४०१. २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० १८७. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, कण्डिका ८८६. ४. श्रीअमृतलाल मगनलाल शाह, सम्पा०- श्रीप्रशस्तिसंग्रह, भाग २, पृ० २३१, प्रशस्ति क्रमांक ७६७. इणि परि साधु तणा गुण गावि, सुमति सफल कहावि जी। साधु सुनंद सुं सुहावि, नामि नवनिधि पाविइ जी।।३५५।। अजर अमर हुआ अविणासी, मुगतिपुरि जिणि वासीजी। गुण गाइ जे उलासी, वयणरस प्रकासीजी।।३५६।। संवत सोल पंचागुंआ वरसि, आषाढ़ सुदि हरसिजी। श्री अंचलगछि विराजि, श्री कल्या(ण) सागरसूरि राजि जी।।३५७।। वाचकवंसविभूषण वाइ, श्री देवसागर भवताइजी। तास सीस मनि भावि, उत्तमचंद गुण गाविजी।।३५८।। ओ चरित जे भणसइ गुणसई, मनवंछित सुख लहिस्यइजी। रिधि वृधि स्युं आणंद करस्यइ, जे गुण हीयडि धरस्यइजी।।३५९।। मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ३१०-११. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४६८. इति श्री ऋषिमंडलप्रकरणं ऋषिवंदनं संपूर्णमिति संवत् १६ आसाढादि ९३ वर्षे आसौ वदि ५ रबौ लिखितं श्री 'अंचलगच्छे' वा० पुन्यचंद्र : तत्पट्टालंकार वा० माणिक्यचंद्रगणि; तच्छिष्यपं० श्री सौभाग्यचन्द्रगणिः तद्विनेयमुनिरयऽणचंद्रगणिना लिपिकृतं(त) मिदं स्तोत्रं मरुस्थल्यां 'राडद्रह' नगरे श्रेयो(5) स्तु। H.R. Kapadia, Descriptive Catalogue of the govt. Collections of Manuscripts deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Volume XIX, Part I, Poona 1957; p. 82. ८. देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, पृ० २६४-६६ ९-१०.श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४००-४०१ ११-१८. वही, पृ० ४९८. ७. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ-पालिताना शाखा अंचलगच्छ से समय-समय पर उद्भूत विभिन्न अवान्तर शाखाओं में पालिताना शाखा भी एक है। इस शाखा में मुनि वेलराज, लाभशेखर, कमलशेखर, विवेकशेखर, विनयशेखर, विजयशेखर, मेघराज, भावशेखर, रत्नशेखर, नयनशेखर आदि विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। विक्रम संवत् की १६वीं शती के मध्य अथवा उत्तरार्ध में अंचलगच्छ में वाचक वेलराज नामक एक मुनि हुए हैं। इनके द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में किन्हीं साक्ष्यों से कोई जानकारी ही प्राप्त हो पाती है। वासुपूज्य जिनालय, बीकानेर में संरक्षित चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर वि०सं० १६०१ ज्येष्ठ वदि ८ का एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में वाचक वेलराज के प्रशिष्य और उपाध्याय पुण्यलब्धि के शिष्य भानुलब्धि द्वारा स्वपूजनार्थ उक्त प्रतिमा की (प्रतिष्ठापना) का उल्लेख है। श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने इस लेख की वाचना दी है, २ जो इस प्रकार है : सं० १६०१ व० ज्येष्ठ सुदि ८ श्री अंचलगच्छे वा० वेलराज ग०शि० उपा० श्रीपुण्यलब्धि शि० श्रीभानुलब्धि उपाध्यायै स्वपूजन श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ: ___ श्रीपार्श्व ने भी उक्त लेख की इसी प्रकार वाचना दी है।३ वाचक भानुलब्धि के उपदेश से वि०सं० १६०५/ई०स० १५४९ में नागपुर (नागौर) में कालकाचार्यकथा की एक प्रति लिखी गयी। वि०सं० १६१९/ई०स० १५६३ में जलालुद्दीन अकबर के राज्यकाल में लिखी गयी ज्ञानपंचमीचौपाई की प्रति में उपाध्याय भानुलब्धि की शिष्या साध्वी चन्द्रलक्ष्मी और उनकी शिष्या करमाई, प्रतापश्री आदि का नामोल्लेख प्राप्त होता है। ५ वि०सं० १६३०/ई०स० १५७४ में उपाध्याय भानुलब्धि के पठनार्थ औपपातिकसूत्र की प्रतिलिपि की गयी। इसी प्रकार वि०सं० १६३३ भाद्रपद सुदि १५ शुक्रवार/ई०स० १५७७ को उपाध्याय भानलब्धि की शिष्या करमाई के पठनार्थ खेमराज ने ऋषभदेवविवाहलो की प्रतिलिपि की। उपा० भानुलब्धि के शिष्य मेघराज हुए जिनके द्वारा रचित सत्तरभेदीपूजा और ऋषभजन्म नामक कृतियां मिलती हैं।८ इसे तालिका के रूप में निम्नप्रकार से दर्शाया जा सकता है : Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालिका-१ १३४ वाचक वेलराज उपा० पुण्यलब्धि उपा० भानुलब्धि (वि.सं. १६०१के लेख में उल्लिखितः वि.सं. १६०१ में इनके उपदेश से कालकाचार्यकथा की और वि.सं. १६३० में इनके पठनार्थ औपपातिकसूत्र की प्रतिलिपि की गयी) प्रतापश्री मेघराज चन्द्रलक्ष्मी (सत्तरभेदीपूजा के रचनाकार) (वि.सं. १६१९ में लिखी गयी ज्ञानपंचमीचौपाई की प्रति में इनका और इनके शिष्याओं के रूप में करमाई एवं प्रतापश्री का नामोउल्लेख) करमाई (वि.सं. १६३३ में इनके पठनार्थ ऋषभदेवविवाहलो की प्रतिलिपि किये जाने का उल्लेख) अचलगच्छ का इतिहास Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १३५ वाचक वेलराज के दूसरे शिष्य वा० लाभशेखर हुए जिनके द्वारा भी रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके शिष्य कमलशेखर ने वि०सं० १६०० / ई०स० १५४४ में लघुसंग्रहणी की प्रतिलिपि की, जिनकी प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं को लाभशेखर का शिष्य और वा० वेलराज का प्रशिष्य बतलाया है ९. - वाचक : वेलराज I वाचक लाभशेखर 1 वाचक कमलशेखर (वि०सं० १६०० / ई०स० १५४४ में लघुसंग्रहणी के प्रतिलिपिकार) वाचक कमलशेखर द्वारा रचित नवतत्त्वचौपाई (वि० सं० १५५३); धर्ममूर्तिसूरिफागु; प्रद्युम्नकुमारचौपाई (वि०सं० १५७०) आदि कृतियां भी मिलती हैं । १० वाचक कमलशेखर के शिष्य वाचक सत्यशेखर हुए, जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती; किन्तु इनके शिष्यों - - वाचक विनयशेखर और वाचक विवेकशेखर ने अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में अपने गुरु- प्रगुरु आदि का सादर उल्लेख किया है । कमलशेखर के दूसरे शिष्य राजू ऋषि हुए, जिन्होंने वि० सं० १६३५ / ई०स० १५७९ में शिशुपालरास की रचना की । ११ वाचक सत्यशेखर के शिष्य वाचक विनयशेखर ने वि०सं० १६४३ / ई०स० १५८७ यशोभद्रचौपाई तथा रत्नकुमाररास की रचना की । १२ शांतिमृगसुन्दरीचौपाई भी इन्हीं की कृति मानी जाती है। १३ वाचक विनयशेखर के शिष्य रविशेखर हुए । शत्रुञ्जय से प्राप्त वि० सं० १६८३ / ई०स० १६२७ के एक शिलालेख के लेखक के रूप में इनका नाम मिलता है । १४ वा० कमलशेखर वा० सत्यशेखर I वा० विनयशेखर १६०९ / ई०स० १६२६ / ई०स० रविशेखर (वि० सं० १६४३ / ई० स० १५८७ में यशोभद्रचौपाई तथा रत्नकुमाररास के रचनाकार) (शत्रुञ्जय से प्राप्त वि० सं० १६८३ / ई० स० १६२७ के अंचलगच्छ से सम्बद्ध एक शिलालेख के लेखक ) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अचलगच्छ का इतिहास वाचक सत्यशेखर के दूसरे शिष्य वाचक विवेकशेखर द्वारा वि०सं० १६४८/ ई०स० १५९२ पौष सुदि ३ बुधवार को साध्वी विमला की शिष्या कुशललक्ष्मी के पठनार्थ शांतिमृगसुन्दरीचौपाई की प्रतिलिपि की गयी।१५ वाचक विवेकशेखर के एक शिष्य वाचक विजयशेखर हुए। इनके द्वारा रचित नलदमयन्तीप्रबन्ध (वि०सं० १६७२/ई०स० १६१६) लाहद्रापुर? में रचित; कयवन्नारास (वि०सं० १६८१/ई०स० १६२५); सुदर्शनरास (वि०सं० १६८१/ ई०स० १६२५); चन्द्रलेखाचौपाई (वि० सं० १६८९/ई० स० १६३३); त्रणमित्रकथा (वि०सं० १६९२/ई०स० १६३६); चंदराजाचौपाई (वि०सं० १६९४/ई०स० १६३८); ऋषिदत्तारास (वि०सं० १७०७ ?) आदि कई कृतियां मिलती हैं। सभी कृतियों में इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार दी है : अंचलगछ गिरुउ गुणसागर रतनकरंड समानजी, भट्टारक श्री कल्याणसागरसूरि, जंगमजुगपरधानजी। तस पखि दीपक वाचक पद घर विवेकशेखर मुणिंदजी, तस सीस पंडित विजयशेखर कहि धरम महिम आणंद जी।। वाचक विवेकशखर के दूसरे शिष्य वाचक भावशेखर हुए। इनके द्वारा वि०सं० १६७२ से वि०सं० १७३० के मध्य विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपि की गयी जिनका विवरण इस प्रकार है१७ : १. वि०सं० १६७२/ई०स० १६१६ में भुज में चम्पकमालारास। २. वि०सं० १६७४/ई०स० १६१८ में भुज में गुणवर्मचरित। ३. वि०सं० १७०४/ई०स० १६४८ में अपने शिष्य भुवनशेखर के पठनार्थ कायस्थितस्तवनअवचूरि। वि०सं० १७१७/ई०स० १६६१ में अंजार में उपदेशचिन्तामणि। ५ वि०सं० १७२०/ई०स० १६६४ में भुज में साध्वी हेमा की शिष्या साध्वी पद्मलक्ष्मी के पठनार्थ साधुवन्दना। वि०सं० १७३०/ई०स० १६७४ में ईलमपुर में रत्नपरीक्षासमुच्चय। इनके द्वारा रचित एकमात्र कृति है रूपसेनऋषिरास, जो वि०सं० १६८३/ ई०स० १६२७ की रचना है। १८ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है वाचक भावशेखर के एक शिष्य भुवनशेखर हुए जिनके पठनार्थ इन्होंने वि०सं० १७०४/ई०स० १६४८ में कायस्थितस्तवनअवचूरि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १३७ की प्रतिलिपि की। वि०सं० १७३०/ई०स० १६७४ में वाचक भावशेखर द्वारा लिखी गयी रत्नपरीक्षासमुच्चय, जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, की प्रतिलेखन प्रशस्ति में इनके दूसरे शिष्य बुद्धिशेखर और प्रशिष्य वाचक रत्नशेखर का भी नाम मिलता है। वाचक रत्नशेखर द्वारा वि०सं० १७६१/ई०स० १७०५ में रचित रलपरीक्षा नामक एक कृति प्राप्त होती है। १९ बुद्धिशेखर के दूसरे शिष्य राजशेखर हुए। इनके द्वारा रचित या प्रतिलिपि की गयी कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके पट्टधर लक्ष्मीशेखर द्वारा वि०सं० १७५० में लिखी गयी चित्रसंभ्रतिचौपाई की प्रति मिलती है। १९अलक्ष्मीशेखर के शिष्य लावण्यशेखर द्वारा वि०सं० १७६५/ई०स० १७०९ में लिखी गयी शांतिनाथधरित की एक प्रति प्राप्त होती है।२० लावण्यशेखर के शिष्य अमृतशेखर हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती; किन्तु इनके पट्टधर मुनि ज्ञानशेखर ने वि०सं० १८१३/ ई०स० १७५७ में शिवमहिम्नस्तोत्र की प्रतिलिपि की।२१ श्रीपार्श्व के अनुसार ज्ञानशेखर के पट्टधर मुनि जीवा हुए जिन्होंने शांतिनाथचरित की प्रतिलिपि की। २२ उनके इस कथन का आधार क्या है, यह ज्ञात नहीं होता है। उक्त सभी प्रशस्तियों के परस्पर समायोजन से अचलगच्छ की पालिताना शाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की एक तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है : द्रष्टव्य - तालिका-२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालिका - २ अचलगच्छ-पालितानाशाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की तालिका उपा० पुण्यलब्धि उपा० भानुलब्धि (वि.सं. १६०१ प्रतिमालेख: वि.सं. १६०५ और १६३९ में क्रमशः लिखी गयी कालकाचार्यकथा और औपपातिकसूत्र की प्रतिलिपियों में उल्लिखित) 1 मेघराज (सतरभेदीपूजा के रचनाकार) वाचक वेलराज वाo लाभशेखर 1 वा० कमलशेखर (वि.स. १६०० से १६२६ के मध्य विभिन्न कृतियों के प्रतिलिपिकार एवं रचनाकार) राजू ऋषि (वि.सं. १६३५/ ई.स. १५७९ में शिशुपालरास के कर्ता) विनयशेखर (वि.सं. १६४३ में यशोभद्रचौपाई एवं रत्नकुमाररास के कर्ता) रविशेखर (वि.सं. १६८३ / ई.स. १६२७ के शत्रुञ्जय के शिलालेख के लेखक ) वा० सत्यशेखर विवेकशेखर (वि.सं. १६१८/ई.स. १५९२ में शांतिसुन्दरी चौपाई के प्रतिलिपिकार) भावशेखर (वि.सं. १६८३/ ई.स. १६२७ में रूपसेनऋषिदास के रचनाकार; वि.सं. १६७२ से वि.सं. १७३० के 1 विजयशेखर ( कयवन्नाचौपाई वि.सं. १६८१ आदि कई कृतियों के रचनाकार) १३८ अचलगच्छ का इतिहास Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य विभिन्न कृतियों के प्रतिलिपिकार) भुवनशेखर (वि.सं.१७०४/ई.स.१६४८ में | कायस्थितस्तवनअवचूरि के प्रतिलिपिकार) बुद्धिशेखर (वि.सं.१७३० में लिखी गयी रत्नपरीक्षासमुच्चय की प्रतिलिपि में उल्लिखित) राजशेखर रत्नशेखर (वि.सं.१७६१/ई.स.१७०५ में रत्नपरीक्षा के रचनाकार) लक्ष्मीशेखर (वि.सं.१७५० में चित्रसंभूतचौपाई के प्रतिलिपिकार) अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास लावण्यशेखर (वि.सं.१७६५/ई.स. १७०९ में शांतिनाथचरित के प्रतिलिपिकार) अमृतशेखर ज्ञानशेखर (वि.सं.१८१३/ई.स. १७५७ में शिवमहिम्नस्तोत्र के प्रतिलिपिकार) १३९ मुनि जीवा (शांतिनाथचरित के प्रतिलिपिकार) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अचलगच्छ का इतिहास अचलगच्छ-पालिताना शाखा में ही हुए क्षमाशेखर नामक मुनि और उनके सतीर्थ्य माणिक्यशेखर और सकलशेखर ने वि० सं० १६८३/ई०स० १६२७ में उपदेशमालाबालावबोध की रचना की। २३ इस कृति की प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं को सुमतिशेखर का प्रशिष्य और सौभाग्यशेखर का शिष्य बतलाया है सुमतिशेखर सौभाग्यशेखर क्षमाशेखर माणिक्यशेखर सकलशेखर (वि०सं० १६८३/ई०स० १६२७ में उपदेशमालाबालावबोध के रचनाकार) वि०सं० १७१९/ई०स० १६६३ में हंसराजवत्सराजचौपाई के प्रतिलिपिकार नयनशेखर भी इसी शाखा के थे। २४ उनके द्वारा वि०सं० १७३६/ई०स० १६८० में रचित योगरत्नाकरचौपाई नामक कृति प्राप्त होती है। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है,२५ जो इस प्रकार है : वा० पुण्यतिलक वा० सुमतिशेखर सा० सौभाग्यशेखर वा० ज्ञानशेखर वा० नयनशेखर (वि० सं० १७३६/ई०स० १६८० में योगरत्नाकरचौपाई के कर्ता) जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं उपदेशमालाबालावबोध (रचनाकाल वि०सं० १६८३/ई०स० १६२७) के रचनाकार क्षमाशेखर, माणिक्यशेखर और सकलशेखर स्वयं को सुमतिशेखर का प्रशिष्य और सौभाग्यशेखर का शिष्य बतलाते हैं। योगरत्नाकरचौपाई की प्रशस्ति में भी रचनाकार नयनशेखर ने सुमतिशेखर, सौभाग्यशेखर आदि को अपना पूर्वज बतलाया है। उक्त दोनों प्रशस्तियों में उल्लिखित गुरु-परम्परा की तालिकाओं के परस्पर समायोजन से एक बड़ी तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है : Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १४१ वाचक पुण्यतिलक वाचक सुमतिशेखर वाचक सौभाग्यशेखर माणिक्यशेखर सकलशेखर क्षमाशेखर (वि.सं. १६८३/ई.स. १६२७ में उपदेशमालावालावबोध के रचनाकार) वाचक ज्ञानशेखर वाचक नयनशेखर (वि०सं० १७१९/ई०स० १६५३ में हंसराजवत्सराजचौपाई के प्रतिलिपिकार; वि०सं० १७३६/ई०स० १६८० में योगरत्नाकरचौपाई के कर्ता) वाचक वेलराज और वाचक पुण्यतिलक की परम्परा के मुनिजनों के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता। अचलगच्छ की इस शाखा के प्रवर्तक कौन थे? यह शाखा कब और किस कारण से अस्तित्त्व में आयी, इसका नामकरण किस आधार पर हुआ, साक्ष्यों के अभाव में ये सभी प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही रह जाते हैं। सन्दर्भ १. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६७. २. श्री अगरचन्द भँवरलाल नाहटा, सम्पा०- बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक १३९३. ३. श्रीपार्श्व, सम्पा०- अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक ७३९. ४. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६७-६८. ५-७. वही, पृ० ३६८. ८. Vidhatri Vora, Ed. Catalogue of Gujarati Mss. Muni Shree Punya Vijaya Jis Collection. L.D. Series No. 71. Ahmedabad, 1972. p. 55. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६७-६८. ९. वही, पृ० ३६९. १०. मोहनलालदलीचन्द देसाई, सम्पा०- जैनगूर्जरकविओ, भाग २, द्वितीय संशोधित संस्करण (सम्पा०- डॉ० जयन्त कोठारी), पृ० ४३-४४. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अचलगच्छ का इतिहास ११. Catalogye of Gujarati Mss, p. 655. १२. जैनगूर्जरकविओ, भाग २, (द्वितीय संशोधित संस्करण), पृ० २१०. १३. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३७१. १४. G. Buhler, "The Jaina Inscriptions From Satrumjaya", Epigraphia Indica, Vol. II, Reprint, New Delhi 1984, No. 28, p. 68-71. १५. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३७०. १६. जैनगूर्जरकविओ, भाग ३ (द्वितीय संशोधित संस्करण), पृ० २३५. १७. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३९९. जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, (द्वितीय संशोधित-संस्करण) पृ० २५३. १८. Catalogue of Gujarati Mss. p. 644; धनामहामुनिसंधि भी इन्हीं की कृति है। वही, पृ० ७१९.। १९. यह कृति श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा द्वारा श्री अभय जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक-२२ के अन्तर्गत रत्नपरीक्षा के पृष्ठ ८९-१५५ पर प्रकाशित है। विस्तार के लिये द्रष्टव्य- अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृष्ठ ४७०. १९अ.अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४७१. २०. वही, पृ० ४७१. २१. इति श्रीगन्धर्वराजपुष्दन्तविरचितं महिम्नस्तोत्रं समाप्तम्।। संवत् १८१३ वर्षे आसो वदि २ दिने श्रीकच्छदेशे ग्रामश्रीसाभराईमध्ये श्रीअंचलगच्छे वा० श्री १०८ श्रीलक्ष्मीशेखरजीगणि- तत्शिष्यपं० श्री ५ लावण्यशेखरजीगणितत्शिष्य मुनिश्री ५ अमृतशेखरगणि- तत्शिष्यपङ्कजभ्रमरमुनिज्ञानशेखरगणिलिपिकृतार्थे।। A.P. Shah, Ed. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss : Muni Shree PunyaVijayaJis Collection, Part II, L.D. Series, No. 5, Ahmedabad, 1965 A.D., page 266. २२. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४७१. २३. वही, पृ० ४०२. जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, (द्वितीय संशोधित संस्करण), पृ० ३५४. २४. Catalogue o Gujarati Mss, p. 570. २५. ते शाखा मांहि अति भली, पालीताणी शाखा गुणनिली, पालिताचार्य कहीइ जेह, हुआ गछपति जे गुणगेह।। ९६ ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १४३ अनुक्रमे तेहने पाटे जाणि, श्रीपुण्यतिलक सुरीस बखांण, तेहने वंशि सोलमे पाट, सूमतिशेखर वाचक गुण-पाट।। ९७ ।। सात शिष्य छे वाचकपदे, सौभाग्यशेखर पुन्यवंत हृदे, तास चरणांबुज सेवे जेह, ज्ञानशेखर वाचक गुण जेह।। ९८ ।। सत्तर भेद संजमना सार, पाले नित जे पंचाचार, सतावीस गुण अभीरांम, ज्ञानशेखर ते वाचक गुणधाम।। ९९ ।। ते सहीगुरुनो लही पशाय, हीओ समरी सरसतीमाय, योगरत्नाकर नांमे चोपइ, नयणशेखर मुंनि इण परि कही।। १०० ।। जैनगूर्जरकविओ, भाग ५, (द्वितीय संशोधित संस्करण), पृ० १९-२१. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ-लाभशाखा अचलगच्छ की उपशाखाओं में लाभशाखा भी एक है। इस शाखा में चारित्रलाभ, गजलाभ, जयलाभ, हर्षलाभ, समयलाभ, विनयलाभ, मेरुलाभ, पद्मलाभ, माणिक्यलाभ, सत्यलाभ, नित्यलाभ आदि मुनिजन हो चुके हैं। इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये भी न तो इससे सम्बद्ध कोई पट्टावली मिलती है और न ही किन्हीं प्रतिमालेखों आदि में इसका उल्लेख मिलता है। सम्बद्ध शाखा के मुनिजनों द्वारा रचित अथवा प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियों से इसके इतिहास की एक झलक प्रस्तुत है। ___ लाभशाखा से सम्बद्ध सर्वप्रथम साक्ष्य है मुनि गजलाभ द्वारा वि०सं० १५९७ में रचित बारव्रतटीपचौपाई की प्रशस्ति; जिससे ज्ञात होता है कि यह कृति रचनाकार ने अपने शिष्य वरन के लिये रची थी। ____ इनके द्वारा रचित दूसरी कृति है जिनाज्ञाहुण्डी अपरनाम अंचलगच्छनी हुण्डी,२ जो वि०सं० १६१०/ई०स० १५५४ में रची गयी है। आचार्य धर्ममूर्तिसूरि के सान्निध्य में ५२ मुनिजनों और ४० साध्वियों के साथ इन्होंने क्रियोद्धार किया और उक्त ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में रचनाकार ने अंचलगच्छ की सात शाखाओं का उल्लेख किया है : जयकीर्ति वरधन लाभ सूंदर चंद नंद सूवलभा। सात शाखा लाभ केरी सांभलजो तुमे मुनीवरा।। गजलाभ के शिष्य समयलाभ ने वि०सं० १६११/ई०स० १५५५ में अपने गुरुभ्राता शंकर के पठनार्थ मुनिपतिचरित्र की प्रतिलिपि की।३ गजलाभ के दूसरे शिष्य हर्षलाभ ने वि०सं० १६१३ के आसपास अंचलमतचर्चा की रचना की। वि०सं० १६४२/ई०स० १५८६ में लिखी गयी शाम्बप्रद्युम्नरास की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार जयलाभ ने स्वयं को गजलाभ का शिष्य बतलाया है।५ जयलाभ के शिष्य माणिक्यलाभ हुए जिन्होंने शांतिनाथचरित की प्रतिलिपि की।६ श्रीपार्श्व ने इसका लेखनकाल वि०सं० १७१८/ई०स० १६६२ बतलाया है जो इनके गुरु के काल को देखते हुए असम्भव तो नहीं, परन्तु मुश्किल अवश्य लगता है। श्रीपार्श्व ने पं० गजलाभ के गुरु का नाम चारित्रलाभ बतलाया है, परन्तु उसके इस कथन का क्या आधार है, यह उन्होंने नहीं बतलाया है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १४५ उक्त साक्ष्यों के आधार पर गजलाभ के शिष्यों की एक तालिका बनायी जा सकती है : जयलाभ (वि.सं. १६४२ में शाम्ब-प्रद्युम्नरास के प्रतिलिपिकार) माणिक्यलाभ (वि.सं. १७१८..? में शांतिनाथचरित के प्रतिलिपिकार) चारित्रलाभ गजलाभ ऋषि वरन (इनके पठनार्थ वारव्रतटीपचौपाई की रचना की गयी) (वि.सं.१५९७/ई.स. १५४१ में वारव्रतटीपचौपाई एवं वि.सं. १६१०/ ई.स. १५५४ में जिना हुण्डी के रचनाकार) ऋषि शंकर समयलाभ गणि (वि.सं. १६११ में मुनिपतिचरित्र के प्रतिलिपिकार) उपा. हर्षलाभ (वि.सं. १६१३ के लाभशाखा में वि०सं० की १८वीं शती के प्रारम्भिक दशक में मेरुलाभ नामक विद्वान् हुए जिन्होंने वि०सं० १७०४ / ई०स० १६४९ में चन्द्रलेखासतीरास की रचना की। इसकी प्रशस्ति' में उन्होंने अपने प्रगुरु, गुरु, गुरुबन्धु आदि का उल्लेख किया है आसपास अंचलमतचर्चा के रचनाकार) विधिपक्ष गच्छ विद्या वयरागर, मानई जन महाराओ; वादी गजघट-सिंह वदीतो, कल्यानसूरीश कहाओ । वाचक जास आज्ञाईं विराजईं, विनयलाभ वरराओ; वदति तास सीस दो बांधव, मेरु पदम मन भाओ । चन्द्रकला नामहं अह चउपर, सगवटि कीओ समुदाओ; पढ गुणई सुई नर-प्रमदा लीला तासु लहाओ । संवत सतर सय ऊपरि सारइं, वेद संख्याब्द विधाओ; मरशिर मास वदि अठसि मांहि, सुरगुरु दिनईं सुहाओ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ मेरुलाभ (वि.सं. १७०४ / ई.स. १६४८ में चन्द्रलेखासतीरास के रचनाकार) अचलगच्छ का इतिहास कल्याणसागर सूरि 1 विनयलाभ मेरुलाभ के एक शिष्य माणिक्यलाभ हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके शिष्य सत्यलाभ द्वारा वि०सं० १७६४ / ई०स० १७०८ में प्रतिलिपि की गयी स्थूलभद्रएकबीसा और वि०सं० १७९१ / ई०स० १७३५ में माण्डवी-कच्छ में लिखी गयी चन्द्रलेखाचौपाई की प्रति प्राप्त हुई है । ९ ६. विद्यासागरसूरिरास ७. नेमिनाथबारमास ११ मेरुलाभ के दूसरे शिष्य सहजसुन्दर हुए जिनके द्वारा भी रचित कोई कृति नहीं मिलती; किन्तु इनके शिष्य नित्यलाभ द्वारा वि०सं० १७७२ से वि०सं० १७९८ के मध्य रची गयी कई कृतियां मिलती हैं, १० जो इस प्रकार हैं १. वासुपूज्यस्तवन वि.सं. १७७६/ ई.स. १७२० २. चन्दनबालासज्झाय वि.सं. १७७२/ ई.स. १७१६ ३. चौबीसी वि.सं. १७८१ / ई.स. १७२५ ४. महावीरपंचकल्याणकनुंचौढालिया वि.सं. १७८१ / ई.स. १७२५ ५. सदेवंतसावलिंगारास वि.सं. १७८२/ ई.स. १७२६ वि.सं. १७९८ / ई.स. १७४२ वि.सं. की १८ वीं शती का अन्तिम चरण । पद्मलाभ उक्त साक्ष्यों के आधार पर विनयलाभ की शिष्य परम्परा की एक तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है। --- Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास कल्याणसागरसूरि विनयलाभ पद्मलाभ मेरुलाभ (वि.सं.१७०४/ई.स. १६४८ में चन्द्रलेखासतीरास के कर्ता) माणिक्यलाभ सत्यलाभ (वि.सं.१७६४ में स्थूलिभद्रएकबीसा एवं वि.सं.१७९१ में चन्द्रलेखाचौपाई के प्रतिलिपिकार) सहजसुन्दर नित्यलाभ (वि.सं.१७७२ से १७९८ के मध्य चन्दनबालासज्झायः वासुपूज्यस्तवन, चौबीसी, विद्यासागरसूरिरास आदि के कर्ता) गजलाभ की शिष्यपरम्परा का विनयलाभ तथा उनकी शिष्य परम्परा से क्या सम्बन्ध था, साक्ष्यों के अभाव में यह ज्ञात नहीं हो पाता। अचलगच्छ की लाभशाखा के प्रवर्तक कौन थे? यह शाखा कब और किस कारण अस्तित्त्व में आयी? साक्ष्यों के अभाव में इन सभी प्रश्नों का उत्तर दे पाना कठिन है और ये सभी प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही रह जाते हैं। सन्दर्भ १-२. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, सम्पा०- जैनगूर्जरकविओ, भाग १, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ३६१-६३. ३. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३७६. ४. वही, पृ० ३७६. एवं मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग २, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ६६. ५. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ३७६. ६. वही, पृ० ४०८. ७. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ४, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ८०-८२. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अचलगच्छ का इतिहास ८. वही, पृ० ८२. ९. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४८५. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ५, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० २९४-२९८. ११. Vidhatri Vora, Ed. Catalogue of Gujarati Mss : Muni Shree Punya VijayaJis Collection, L.D. Series No. 71, Ahmedabad 1978 A.D., p.730. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ- सागरशाखा का इतिहास अंचलगच्छ से समय-समय पर उद्भूत विभिन्न शाखाओं में सागरशाखा भी एक है। आचार्य धर्ममूर्तिसूरि के शिष्य महोपाध्याय रत्नसागर इस शाखा के आदिपुरुष माने जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सागरान्त नाम के कारण उनके आज्ञानुवर्ती मुनिजन एवं उनकी शिष्य सन्तति सागरशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के विद्याविलासी मुनिजनों में मेघसागर, विनयसागर, नयसागर, सौभाग्यसागर, ऋषि कीका, पद्मसागर, ऋद्धिसागर, सहजसागर, मानसागर आदि उल्लेखनीय हैं। _अंचलगच्छ की इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इससे सम्बद्ध मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्तियां तथा उनके द्वारा प्रतिलिपि कराये गये या स्वयं लिखे गये ग्रन्थों की प्रतिलिपि प्रशस्तियाँ मिलती हैं। यहाँ उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के इतिहास की रूपरेखा प्रस्तुत है : ___ सागरशाखा के आदिपुरुष महोपाध्याय रत्नसागर द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई विवरण ही प्राप्त होता है, किन्तु इनकी आज्ञानुवर्ती साध्वी गुणश्री द्वारा रचित गुरुगुणचौबीसी से इनके बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। यह कृति वि०सं० १७२१/ई० सन् १६६५ में रची गयी है। इसके अनुसार महोपाध्याय रत्नसागर का जन्म वि० सं० १६२६ में हुआ, वि०सं० १६४१ में इन्होंने आचार्य धर्ममूर्तिसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की और रत्नसागर के नाम से जाने गये। वि०सं० १६४४ में इन्होंने कल्याणसागरसूरि के पास बड़ी दीक्षा ग्रहण की और उनके शिष्य के रूप में मान्य हुए। वि०सं० १६४८ में इन्होंने महोपाध्याय तथा मुनिमण्डलनायक के पद को सुशोभित किया। वि०सं० १६५५/ई०सन् १५९९ में इनके उपदेश से भरुच और खम्भात में श्रावकों ने जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। पालनपुर के नवाब की पत्नी का ६ माह पुराना ज्वर इन्होंने दूर कर सर्वत्र ख्याति अर्जित की। वि० सं० १७२०/ई०सन् १६६४ में कपडवज में इनका निधन हुआ।२ वि०सं० १७१९/ई० सन् १६६३ में मुनि सौभाग्यसागर द्वारा रचित वर्धमानपद्मसिंहश्रेष्ठिचरित से ज्ञात होता है कि वर्धमान पद्मसिंह शाह द्वारा भद्रावती से शजय की यात्रा हेतु निकाले गये संघ में गच्छनायक कल्याणसागरसूरि के साथ महोपाध्याय रत्नसागर भी थे।३ ___ रत्नसागर के आज्ञानुवर्ती और गुरुभ्राता विनयसागर द्वारा रचित कई कृतियां मिलती हैं : Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अचलगच्छ का इतिहास १. अनेकार्थनाममाला ४ वि०सं० १७०२ / ई० स० १६४६ २. स्नात्रपंचाशिका ५ वि०सं० १७०४ / ई०स० १६४८ ३. वृद्धचिन्तामणि अपरनाम विद्वद्विन्तामणि ६ (यह कृति सारस्वतव्याकरण के आधार पर रची गयी है) भोजव्याकरण 19 विनयसागर के अध्ययनार्थ आचार्य कल्याणसागरसूरि ने मिश्रलिंगकोश' की रचना की थी । ४. महोपाध्याय विनयसागर के एक शिष्य ऋषि कीका ने वि० सं० १६९५ / ई० सन् १६४९ में धवलक्कनगरी में भर्तृहरिकृत शतकत्रय की प्रतिलिपि की । ९ वि०सं० १६९७ / ई० सन्. १६५१ में लिखी गयी नेमिनाथयादवरास की प्रतिलिपि में भी प्रतिलिपिकार के रूप में ऋषि कीका का नाम मिलता है । १० महोपाध्याय विनयसागर के दूसरे शिष्य सौभाग्यसागर थे, जिन्होंने जामनगर के श्रेष्ठी वर्धमानशाह द्वारा निर्मित शान्तिनाथ जिनालय की वि०सं० १६९७ / ई० सन् १६४१ की शिलाप्रशस्ति ११ तथा वि०सं० १७१९ / ई० सन् १६६३ में वर्धमानपद्मसिंह श्रेष्ठीचरित १२ जिसका ऊपर उल्लेख आ चुका है, की रचना की । वि०सं० १६६२ में लिखी गयी सिद्धान्तचौपाई की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके प्रतिलिपिकार महोपाध्याय संयमसागर भीकीका रत्नसागर के शिष्य थे । १३ वि०सं० १६७६/ई०सन् १६२० में इनके एक शिष्य नयसागर ने चैत्यवन्दन की रचना की । १४ महोपाध्याय रत्नसागर के एक शिष्य पद्मसागर हुए जिन्होंने वि० सं० १७०४/ ई० सन् १६४८ में नारचन्द्रज्योतिष की प्रतिलिपि की । १५ पद्मसागर के शिष्य धीरसागर हुए, जिनके द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही प्रतिलिपि की गयी कोई रचना; किन्तु इनके शिष्य ऋद्धिसागर ने वि०सं० १७३९ / ई० सन् १६८३ में स्तम्भनपुर (थामणा) में परिभाषानोवृत्ति की प्रतिलिपि की । १६ श्रेष्ठी वर्धमान शाह द्वारा जामनगर में निर्मित जिनालय, जिसका ऊपर उल्लेख आ चुका है, की वि० सं० १६९७ / ई० सन् १६४१ की शिलाप्रशस्ति में मनमोहनसागर IT भी नाम मिलता है । १७ सौभाग्यसागर और मनमोहनसागर के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था? क्या वे परस्पर गुरुभ्राता थे अथवा गुरु-शिष्य; प्रमाणों के अभाव में यह निश्चित कर पाना कठिन है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १५१ १ रत्नसागर के एक शिष्य मेघसागर हुए, जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, यही बात इनके शिष्य ऋद्धिसागर, कनकसागर और मनरूपसागर के बारे में भी कही जा सकती है । १८ ऋषिसागर के शिष्य हीरसागर, पद्मसागर 'द्वितीय' और अमीसागर | १९ हीरसागर अपने गुरु के पट्टधर बने। 1२° ये मन्त्रवादी के रूप में प्रसिद्ध हुए । ' वि०सं० १७८२/ई०सन् १७२६ में इनका निधन हुआ । २२ हीरसागर के शिष्य सहजसागर हुए जिन्होंने वि० सं० १७८१ / ई० सन् १७२५ में शीतलनाथस्तवन २३ और वि० सं० १८०४ / ई० सन् १७४८ में हीरसागरनीजीवनी की रचना की । २४ सहजसागर के शिष्य मानसागर हुए, जिनके द्वारा वि० सं० १८४६ / ई० सन् १७९० में रचित रहस्यशास्त्र नामक कृति प्राप्त होती है । २५ मानसागर के पश्चात् क्रमशः रंगसागर, फतेहसागर, देवसागर और स्वरूपसागर ने इस शाखा का नायकत्व सम्भाला। २६ स्वरूपसागर जी के पास वि० सं० १९४० / ई० सन् १८८४ में गुलाबमल अपरनाम ज्ञानचन्द्र ने यति दीक्षा ग्रहण की और गौतमसागर नाम प्राप्त किया । २७ वि०सं० १९४६ / ई० सन् १८९० में इन्होंने संवेगी दीक्षा ग्रहण की २८ और अंचलगच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को दूर कर उसे पुनः शास्त्रोक्त मार्ग पर चलाया। प्रसिद्ध विद्वान् श्रीपार्श्व ने विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर महोपाध्याय रत्नसागर के कुछ अन्य शिष्यों का भी नामोल्लेख किया है, २९ जो इस प्रकार है : १. उदयसागर ३. सौभाग्यसागर ५. देवसागर ७. २. ४. ६. सहजसागर ९. समयसागर १०. चन्द्रसागर उक्त साक्ष्यों के आधार पर महोपाध्याय रत्नसागर की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा की एक तालिका संकलित होती है, जो इस प्रकार है : लब्धिसागर विबुधसागर सूरसागर कमलसागर ८. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंचलगच्छ- सागरशाखा के मुनिजनों का वंशवृक्ष | (आर्यरक्षितसूरि) अंचलगच्छ के प्रवर्तक (जयसिंहसूरि) (धर्मघोषसूरि) (महेन्द्रसिंहसूरि) (सिंहप्रभसूरि) (अजितसिंहसूरि) (देवेन्द्रसिंहसूरि) (धर्मप्रभसूरि) (सिंहतिलकसूरि) (महेन्द्रप्रभसूरि) (मेरुतुंगसूरि) (जयकीर्तिसूरि) (जयकेशरीसूरि) अचलगच्छ का इतिहास Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोयाध्याय रत्नसागर (वि.सं. १६२६ में जन्म एवं वि.सं. १७२० में स्वर्गस्थ ) पद्मसागर नयसागर मनमोहनसागर (वि.सं. १७०४ में (वि.सं. १६७६ में (वि.सं. १६९७ में लिखी गयी शिलाप्रशस्ति में उल्लिखित) नारचन्द्रज्योतिष चैत्यवन्दन के प्रतिलिपिकार) के रचनाकार) धीरसागर (सिद्धान्तसागरसूरि ) (भावसागरसूरि) संयमसागर (वि.सं. १६६२ में सिद्धान्तचौपाई के प्रतिलिपिकार) (गुणनिधानसूरि) धर्ममूर्तिसूरि अंचलगच्छ के १७वें पट्टधर) (अंचलगच्छ-सागरशाखा के आदिपुरुष) मेघसागर उदयसागर आदि १० अन्य शिष्य ऋद्धिसागर विनयसागर (प्रसिद्ध रचनाकार: विभिन्न रचनायें उपलब्ध) सौभाग्यसागर (वि.सं. १६९७ में शांतिनाथजिनालय जामनगर की शिलाप्रशस्ति एवं वि.सं. १७१९ में वर्धमानपद्मसिंह श्रेष्ठीचरित के रचनाकार) कल्याणसागरसूरि ऋषि कीका (वि.सं. १६९५ में शतकत्रय एवं वि.सं. १६९७ में नेमिनाथयादवरास के प्रतिलिपिकार) ..... अचलगच्छ मुख्य परम्परा..... अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १५३ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पद्मसागर 'द्वितीय अमीसागर ऋद्धिसागर (वि.सं.१७३९ में परिभाषानोवृत्ति के प्रतिलिपिकार) हीरसागर (मंत्रवादी के रूप में विख्यातः वि.सं.१७८२ में स्वर्गस्थ) सहजसागर (वि.सं.१७८१ में शीतलनाथस्तवन के कर्ता) मानसागर (वि.सं.१८४६ में रहस्यशास्त्र के रचनाकार) अचलगच्छ का इतिहास रंगसागर फतेहसागर देवसागर स्वरूपसागर गौतमसागर (वि.सं.१९४६/ई.स. १८९० में संवेगीदीक्षा प्राप्त) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १५५ जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं रत्नसागर के सभी शिष्यों में से मेघसागर की ही शिष्य-परम्परा लम्बे समय तक चली। इस परम्परा के अन्तिम यति गौतमसागर जी संवेगी दीक्षा ग्रहण कर अंचलगच्छ को एक नया जीवन प्रदान किया । २० वीं शताब्दी में इस गच्छ में जितने भी विद्वान् मुनिजन हुए हैं और इस गच्छ का जो भी प्रभाव आज है, उसका श्रेय निश्चितरूपेण आचार्य गौतमसागर जी और उनकी सुयोग्य शिष्य - परम्परा को है । सन्दर्भ : १. सोमचन्द्र धारसी, सम्पा० अंचलगच्छम्होटीपट्टावली (गुजराती भाषान्तर), भावनगर वि० सं० १९८५, पृ० ३९०-९१. श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६१. सतरसो वीस साले गुरुजी | कपडवंजनी मांहे ।। हो० ।। पोस दसम दिवसे सुभध्याने । पाये सरग उछांहें ।। हो० ॥ अंचलगच्छम्होटीपट्टावली, पृ० ३९१. ३. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६२. ४-५. मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ४, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ६६. ६. H.D. Velankar, Ed. Jinaratnakosha, Poona 1944 A.D., p. 434. श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४०५. Jinaratnakosha, p. 299. ७. ८. Ibid, p. 310. यहां श्री वेलणकर ने विनयसागर के स्थान पर विनीतसागर लिखा है, जो भ्रामक है। A. P. Shah, Ed. Catalogue of Samskrit & Prakrit Mss. Muniraj Shree PunyavijayaJis Collection, Part II, L.D. Series No. 5, Ahmedabad 1965 A.D., No. 5137, p. 659. १०. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग १, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ३६१. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ० ४०२. ११. सं० १६९७ मार्गशीर्ष शुक्ल ३ गुरुवासरे उपाध्याय श्रीविनयसागरगणेः शिष्य सौभाग्यसागरैः रलेखीयं प्रशस्तिः । । श्रीपार्श्व, सम्पा० अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक ३१२. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ १२. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६२. १३. वही, पृ० ३७८. १४. जैनगूर्जरकविओ, भाग ३, पृ० १६७. १५. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४०८. अचलगच्छ का इतिहास १६. A. P. Shah, Catalogue of Sanskrit & Prakrit... No. 5827. १७. अंचलगच्छीय प्रतिष्ठालेखो, लेखांक ३१२. १८-१९. सोमचन्द्र धारसी, सम्पा०- अंचलगच्छीयम्होटीपट्टावली, पृ० ३९५. २०-२२ . वही, पृ० ३९६-३९८. २३. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ४२७. २४. सोमचन्द्र धारसी, पूर्वोक्त, पृ० ३९८. २५. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ५१९. २६-२७. सोमचन्द्र धारसी, पूर्वोक्त, पृ० ३९८-४०४. २८. वही, पृ० ४१० और आगे. २९. अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६२,३९८. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय अचलगच्छीय मुनिजनों का साहित्यावदान साहित्य निर्माण में अचलगच्छ के विभिन्न विद्यानुरागी आचार्यों और मुनिजनों का उल्लेखनीय योगदान है। इस गच्छ के तृतीय पट्टधर धर्मघोषसूरि से साहित्यनिर्माण की जो परम्परा चली उसकी अखण्ड धारा आज भी निरन्तर प्रवाहित हो रही है। फलस्वरूप हजारों की संख्या में उल्लेखनीय छोटी-बड़ी रचनायें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, मरु-गुर्जर आदि विभिन्न भाषाओं में विभिन्न विषयों पर प्राप्त होती हैं। अन्य गच्छों की भाँति अंचलगच्छ के साधु-साध्वी भी गाँव-गाँव में विहार करते थे अत: उनके द्वारा रचित साहित्य का बिखराव इतना अधिक हो गया कि उन सबका पता लगा पाना असम्भव है। असुरक्षा, अज्ञानता और उपेक्षा के कारण भी बहुत सारा साहित्य नष्ट हो गया फिर भी जो कुछ बचा है, उसे संरक्षित करने में विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों का प्रयत्न सराहनीय है। अन्यान्य गच्छों की भाँति अञ्चलगच्छ के इतिहास के अध्ययन के क्रम में इस गच्छ के मनिजनों द्वारा रचित कृतियों का विवरण एकत्र करना प्रारम्भ किया और देखा कि ऐसी सामग्री विपुल परिमाण में है। अत: रचनाकारों को वर्णक्रमानुसार रखते हुए उनकी कृतियों का यथाज्ञात संक्षिप्त विवरण देने का निश्चय किया जिसका परिणाम प्रस्तुत सूची है। इसे संकलित करने में जैनगूर्जरकवियो, जैन साहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, जिनरत्नकोश, पूना, जैसलमेर, पाटण, अहमदाबाद, खम्भात आदि स्थानों पर संरक्षित जैन ग्रन्थ भण्डारों के सूचीपत्र, सुप्रसिद्ध विद्वान् भाई श्रीपार्श्व द्वारा प्रणीत अंचलगच्छदिग्दर्शन, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास-मरु-गूर्जर (भाग १-३) आदि से सहायता प्राप्त हुई है और इन सभी का यथास्थान उल्लेख है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाकार का नाम अमरचन्द्र अमृतसागर गुरु-परम्परा अमरसागर गुणसागर रयणचन्द्र मुनिचन्द्र अमरचन्द्र अमरसागरसूरि (रचनाकार) नेमसागर शीलसागर अमृतसागर (रचनाकार) कृतियों का नाम विद्याविलासरास या चरित १. मृगसुन्दरीकथारास २. अजितशांतिस्तवन (वि.सं. १७३० में रचनाकार द्वारा लिखी गयी प्रति उपलब्ध ) ३- रात्रिभोजन परिहाररास अपरनाम जयसेनकुमाररास सन्दर्भग्रन्थ वि.सं. १७४५ | जै. गू.क., भाग ५, पृ. ४९-५०. जै. सा. सं. इ., कण्डिका ९७६, ९७९. रचनाकाल वि.सं. १७२८ कै.गु.मै., पृ. ६०३. जै. गू.क., भाग ४, पृ. ४३५. वि.सं. १७३० से पूर्व जै०सा०सं०३०, कण्डिका ९७६. कै० गु००, पृ० १३१. वि.सं. १७३० अं०दि०, पृ० ४६६. १५८ अचलगच्छ का इतिहास Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमचन्द्र पुण्यचन्द्र सुनन्दरास | वि.सं.१६९५ जै.गू.क., भाग ३, पृ. ३१०-११. देवसागर उत्तमचन्द्र (रचनाकार) देवसागर उदयचन्द्र माणिककुमारचौपाई १७१४ फाल्गुन अं.दि., पृ. ४७१. जै.गू.क., भाग | सुदि..शनिवार ४, पृ० २६५. विजयचन्द्र उदयचन्द्र (रचनाकार) पुण्यमन्दिर उदयमन्दिर (रचनाकार) अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान उदयमन्दिर उदयसागर 'प्रथम' सिद्धान्तसागर धर्मशेखर ध्वजभुजंगआख्यान | वि.सं. १६७५ जै०गू०क०, भाग ३, पृ० १८८. १- शांतिनाथचरित जै.सा.बृ.इ., भाग ६, पृ. ११०. २- उत्तराध्ययनदीपिका वि.सं. १५४६ जै.सा.सं.इ., कण्डिका ७५६. ३. कल्पसूत्रअवचूरि पीटर्सन, भाग२, क्रमांक २८७ (प्रतिलेखन की तिथि वि०सं० १६३३) उदयसागर (रचनाकार) १५९ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसागर 'द्वितीय' m १- कल्याणसागरसूरिरास २- स्नात्रपंचाशिका वि.सं. १८०२/ जै.सा.सं.इ., कण्डिका ९९३, वि.सं. १८०४ / ९९८. ऋषिवर्धनसूरि | १५१२ जयकीर्तिसूरि ऋषिवर्धनसूरि (रचनाकार) कैoगु०मै०, पृ० ६०९. अंदि०, पृ० २४५. १- नलदमयन्तीरास २- अतिशयपंचाशिका अपरनाम जिनातिशयपंचाशिका ३- समस्यामहिम्नस्तोत्र जै.सं.सा.सं.इ., भाग२, पृ.४५८. कै०गु०मै०, पृ० ७२५. कपूरविजय अमरसागर नेमिराजीमतीबारमास अचलगच्छ का इतिहास रत्नशेखर कपूरविजय (रचनाकार) कमलमेरु कलावतीचौपाई वि.सं. १५९४ | हि.जै.सा.इ. मरु-गुर्जर, भाग, पृ. ३४१. | वि.सं. १६०९ / जै.गू.क., भाग २, पृ. ४३-४४. | वि.सं. १६२६ कमलशेखर वेलराज १. नवतत्त्वचौपाई पुण्यलब्धि लाभशेखर २- प्रद्युम्नकुमारचौपाई कमलशेखर(रचनाकार)| ३. धर्ममूर्तिसूरिफागु Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जि०र०को०, पृ० ३१०. जै०गू०क०,भाग ३, पृ० २६८. कै०गु०मै०, पृ० १४८. कल्याणसागरसूरि । धर्ममूर्तिसूरि (अंचलगच्छ के १८वें पट्टधरः वि०सं० कल्याणसागरसूरि (रचनाकार) १६७०-१७१८) कल्याणसागरसूरि- कल्याणसागरसूरि शिष्य कल्याणसागरसूरिशिष्य (रचनाकार) (नाम अज्ञात) १- मिश्रलिंगकोश २- पार्श्वनाथसहस्रनाम ३- गौडीपार्श्वनाथस्तोत्र ४- वीशी १- गुरु स्तुति २. गुरुप्रदक्षिणास्तुति जै०गू०क०, भाग ५, पृ० ३३७. कै०गु०मै०, पृ० ३१७. कीर्तिवल्लभगणि उत्तराध्ययनदीपिकावृत्ति सिद्धान्तसागरसूरि कीर्तिविल्लभगणि (रचनाकार) | वि.सं. १५५२| जि०र०को०, पृ० ४४. पीटर्सन, भाग ४, क्रमांक, ११८७, पृ० ७६. वि.सं. १७२१/ अंदि०, पृ० ३२४. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान क्षमारत्न (अंचलगच्छ- गोरक्षशाखा) गजसागरसूरि चित्रसम्भूतचौपाई पुण्यरत्न गुणरत्न क्षमारत्न (रचनाकार) १६१ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमाशेखर (अचलगच्छपालिताना शाखा) गजलाभ गुणरत्न (अचलगच्छ गोरक्ष शाखा) गुणसागर (अचलगच्छ - गोरक्षशाखा) चन्द्रलाभ जयकीर्तिसूरि (अंचलगच्छ के १२वें पट्टधर वाचक सुमतिशेखर | वाचकसौभाग्यशेखर माणिक्यशेखर सकलशेखर क्षमाशेखर (प्रतिलिपिकार) अज्ञात गजसागर 1 पुण्यरत्न 1 गुणरत्न ( रचनाकार) गजसागर गुणसागर (रचनाकार) मेरुतुंगसूरि जयकीर्तिसूरि (रचनाकार) उपदेशमालाबालालबोध के वि.सं. १६८३ में प्रतिलिपिकार १. वारव्रतरास २- जिनाशाहुंडी गुणाकरसूरिकवित्त गजसागरसूरिनिर्वाणरास चतुःपर्वीरास १- वैराग्यगीत २- पार्श्वदेवस्तवन जै०गू०क०, भाग ३, पृ० ३५४ . अं०दि०, पृ० ४०२. वि.सं. १५९७ जै.गू.क., भाग १, पृ. ३६१-६३. वि.सं. १६१० अं०दि०, पृ० ३७४. जै०स०प्र०, वर्ष ७, पृ० ५३०. जै० गु०क०, भाग ३, पृ० ३७१. वि.सं. १५७२ जै०गू०क०, भाग १, पृ० २६९. वि.सं. १५१२ जै.सा.सं.इ., कण्डिका ७५०. से पूर्व वि.सं. १४७० । जै.सं.सा.इ., भाग २, पृ० ३७८. के आसपास १६२ अचलगच्छ का इतिहास Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कै०गु०मै०, पृ० ३४८. जयकेशरीसूरि जयकीर्तिसूरि ३- उत्तराध्ययनदीपिकावृत्ति ४- क्षेत्रसमासटीका ५- संग्रहणीटीका १- चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र २. आदिनाथस्तोत्र ३- साधारणजिनस्तोत्र १- स्थूलिभद्रवासठीओ आ0क0गौ०स्मृ०ग्रं०, पृ० ९३. जयकेशरीसूरि (रचनाकार) | माणिक्यसुन्दरसूरि जयवल्लभमुनि जै.सा.सं.इ., कण्डिका ९, पृ. ४८८. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान जयशेखरसूरि जयवल्लभमुनि (रचनाकार) | २-धनाअणगारनोरास महेन्द्रप्रभसूरि (अंचलगच्छ के| जयशेखरसूरि की रचनायें - १०वें पट्टधर) १. उपदेशचिन्तामणि जयशेखरसूरि (रचनाकार) | २. त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध अपरनाम परमहंसप्रबन्ध ३. प्रबोधचिन्तामणि ४. धम्मिलकुमारचरित्र ५. जैनकुमारसम्भव ६. नेमिनाथफागकाव्य ७. विनतीसंग्रह |जै.सा.बृ.इ., भाग ६, पृ.९ १५७ वि.सं. १४३६ | जै.सा.सं.इ., कण्डिका ६५०-१. पीटर्सन, भाग ५, क्र. ७०१. वि.सं. १४६२ १६३ १६३ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी मोक्षगुणाश्री- महाकवि m जयशेखरसूरि, भाग-२, पृ. २२४-२६. १. नेमिनाथविनती २. श्री थांभणाविनती ३. श्रीआदिनाथविनती ४. श्रीपार्श्वनाथविनती ५. श्रीजीरावल्लीयपार्श्वनाथ विनती ६. श्रीउदावसहीमंडनपार्श्वनाथ विनती ७. श्रीतारणगिरिराजमंडन श्री अजितनाथविनती ८. श्रीजीरावलापार्श्वनाथविनती| ९. श्रीचेरुआडमंडन श्रीपार्श्व नाथविनती १०. श्रीनवपल्लवपार्श्वनाथविनती ११. श्रीस्तम्भतीर्थविनती १२. श्रीशांतिनाथविनती १३. श्रीवीसविहरमानविनती १४. श्रीआदिनाथविनती १५. श्रीपंचतीर्थंकरस्तुति | १६. श्रीमल्लिनाथविनती अचलगच्छ का इतिहास Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. श्रीमुनिसुव्रतस्वामिविनती १८. श्रीवर्धमानविनती १९. श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथविनती २०. श्रीआदिनाथविनती २१. वायडश्रीमुनिसुव्रतविनती २२. श्रीपंचासरापार्श्वनाथविनती २३. श्रीशांतिनाथविनती २४. श्रीऋषभदेवविनती २५. श्रीशान्तिनाथदेवस्तुति २६. श्रीमथुरानगरश्रीपार्श्वनाथ विनती २७. श्रीशांतिनाथविनती २८. श्रीअरिटुनेमिनाथविनती २९. श्रीआदिनाथविनती ३०. श्रीआदिनाथविनती ३१. श्रीसंभवनाथविनती ३२. श्रीजीराउलाविनती ३३. श्रीनेमिनाथविनती ३४. श्रीआदिनाथविनती | ३५. श्रीचुवीसजिणवरचउपइ अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १६५ - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ३६. श्रीनेमिनाथकीडाचउपड़ ३७. श्रीऋषभदेवचउपइ ३८. त्रोटकबंधेनश्रीनेमिस्तुति ३९. श्रीजीरावलाविनती ४०. श्रीश→जयमंडनआदिनाथ विनती ४१. श्रीआदिदेवविनती ४२. श्रीपार्श्वनाथविनती ४३. श्रीश@जयमंडनआदिदेव विनती ४४. श्रीसहिलामंडन आदिनाथ विनती ४५. श्रीनेमिनाथधउल अन्य रचनायें १. द्वात्रिंशिकायें १. तीर्थाधिराजश्रीश@जय तीर्थस्तुति २. श्रीगिरनारतीर्थस्तुति गर्भिताद्वात्रिंशिका ३. श्रीमहावीरजिनस्तुति गर्भिताद्वात्रिंशिका अचलगच्छ का इतिहास Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमूर्ति उपा० ज्ञानसागर 'प्रथम' धर्ममूर्तिसूरि 1 विमलमूर्ति गुणमूर्ति ज्ञानमूर्ति उपा० गजसागर 1 ललितसागर | माणिक्यसागर ज्ञानसागर (रचनाकार) (रचनाकार) २. सम्यकत्वकौमुदी ३. आत्मबोधकुलक ४. जम्बूस्वामिचरित्र रचनाकाल १- शास्वतजिनभवनचैत्य परिपाटी २- रूपसेनराजर्षिरास ३. प्रियंकरचौपाई ४- बाइसपरीषहचौपाई ५- संग्रहणीबालावबोध १- शुकराजआख्यान २- धम्मिलरास ३- इलाकुमार रास ४- धणअणगारस्वाध्याय ५- रामलेख ६- परदेसीराजारास वि.सं. १४३६ वि.सं. १६९४ जै. गू.क., भाग३, पृ.३०१-३०६. वि.सं. १६९४ कै० गु००, पृ० १८२, ६२३. वि.सं. १७२५ वि.सं. १७२ के आसपास वि.सं. १७०१ जै०गू०क०, भाग ४, पृ० ३७, भाग ५, पृ० ३२९. वि.सं. १७१५ अं०दि०, पृ० ४६२-६५. वि.सं. १७१९ कै० गु०मै०, पृ० ४९१, ५९७. ६०१, ६२६, ८३०. वि.सं. १७२१ वि.सं. १७२३ वि.सं. १७२४ अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १६७ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागर 'द्वितीय' कल्याणसागरसूरि ७- चित्रसम्भूतचौपाई ८ आषाढ़भूतिचौपाई ९- नंदिसेणमुनिरास १०- श्रीपालरास ११- आद्रकुमारचौपाई १२- शांतिनाथचौपाई १३. सनत्चक्रीरास १४- शाम्बप्रद्युम्नरास १५ - चतुर्विंशतिजिनस्तवन १६. स्थूलिभद्रनवरसो १७- अर्बुदचैत्यपरिपाटी १८- महावीरस्तवन १९- पार्श्वनाथस्तवन २०- स्थूलभद्रसज्झाय २१- राजीमतीगीत २२- वैराग्यगीत १. समकितनी सज्झाय ३ भावप्रकाशसज्झाय ४- गुणवर्मरास वि.सं. १७२१ वि.सं. १७२४ वि.सं. १७२५ वि.सं. १७२६ वि.सं. १७२७ वि.सं. १७३० वि.सं. १७८६ कै० गु० मै०, पृ० ३८०. वि.सं. १७८७ हि०जै० सा०ई०, मरु-गुर्जर, वि.सं. १७९७ भाग-३, पृष्ठ १९९-२००. १६८ अचलगच्छ का इतिहास Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयाशील दयासागर अपरनाम दामोदर विद्यासागर ज्ञानसागर धर्ममूर्तिसूरि कल्याणसागरसूर विजयशील दयाशील धर्ममूर्तिसूरि (रचनाकार) (रचनाकार) ४- कल्याणसागरसूरिरास वि.सं. १८०२ ५- स्नात्रपंचाशिका वि.सं. १८०४ ६. स्थूलिभद्रसज्झाय ७- चौबीसअतिशयनो छंद ८- शीयलसज्झाय ९- षडावश्यकसज्झाय १०- लघुक्षेत्रसमासबालावबोध १- अंतरंगकुटुम्बगीत वि.सं. १६६४ २- कायाकुटुम्बसज्झायस्तवन १७वीं शती ३- शीलबत्तीसी वि.सं. १६६४ वि.सं. १६६६ | ४- ईलाचीकेवीरास ५. चन्द्रसेन- चन्द्रप्रद्योत नाटकीयाप्रबन्ध १. सुरपतिकुमारचौपाई जै. गू.क., भाग ३, पृ० ८४-८६ अं०दि०, पृ० ३६९, ४१०. वि.सं. १६६७ वि.सं. १६६५ जै. गू.क., भाग ३, पृ. ९७-१००. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १६९ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणसागरसूरि वि.सं. १६६९/ कै.गु.मै., पृ.५३६,५६७.८५२. ० २- मदनशतक (जालौर में रचित) भीमरत्न उदयसमुद्र दयासागर (रचनाकार) देवसागरगणि वाचक पुण्यचन्द्र माणिक्यचन्द्र विनयचन्द्र रविचन्द्र देवसागरगणि १- अभिधानचिन्तामणि पर |वि.सं. १६८६ | अंदि०, पृ० ३४१, ४११. व्युत्पत्तिरत्नाकर नामक टीका जि०र०को०, पृ० १३. २- कपिलकेवलीरास वि.सं. १६७४ | जै०गू०क०, भाग ३, पृ० १८७. कै०गु०म०, पृ० ६३०. (रचनाकार) | ३- शQजय की शिलाप्रशस्ति | वि.सं. १६७५] | एवं १६८३ सिद्धदत्तरास जै०गू०क०, भाग ३, पृ० ३४३. अं०दि०, पृ० ४०८. अचलगच्छ का इतिहास धनजी कल्याणसागरसूरि भीमरत्न उदयसमुद्र दयासागर Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (रचनाकार) धनजी कल्याणसागरसूरि धनराज वि.सं. १६९२ जि०र०को०, पृ० ३०४. महादेवसारणी पर महादेवी- टीका भोजदेव अपरनाम भुवनराजगणि न्यूकै०सं०प्रा०मै०- जे०क०, क्रमांक १८३३, पृ० ३२८. धनराज (रचनाकार) धर्मकवि महेन्द्रसूरि (रचनाकार) १- जम्बूस्वामिचरित वि.सं. १२६६ जै०गू०क०, भाग १, पृ० ७... २- स्थूलिभद्ररास आ०क०गौ० स्मृ०ग्र०, पृ० ५९. ३- सुभद्रासतीचतुष्पदिका शतपदी अपरनाम प्रश्नोत्तरपद्धति वि.सं. १२६३ | जै०सा०सं०इ०, कण्डिका ४९५. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान धर्मघोषसूरि (रचनाकार) जयसिंहसूरि धर्मघोषसूरि शालिभद्र धर्मघोष धर्मघोष अविमुक्तचरित वि.सं. १४२८ | जै.सा.बृ.इ., भाग ६, पृ० १९७. (रचनाकार) धर्मनन्दनगणि छन्दस्तत्त्व जै.सा.बृ.इ., भाग ५, पृ० १५०. १७१ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्ममूर्तिसूरिशिष्य नयनशेखर नयसागर नित्यलाभ धर्ममूर्तिसूरि पुण्यतिलक सुमतिशेखर सौभाग्यशेखर ज्ञानशेखर नयनशेखर कल्याणसागर रत्नसागर नयसागर सहजसुन्दरगणि नित्यलाभ (रचनाकार) (रचनाकार) विधिरास योगरत्नाकरचौपाई १- अध्यात्मगीत २- चैत्यवन्दन ३- चौबीसी १- जिनस्तवनचौबीसी २- नेमिनाथबारमास ३- वासुपूज्यस्तव वि.सं. १६०६ हि. जै. सा. इ., भाग-२, पृ. २४६. वि.सं. १७३६ अं०दि०, पृ० ४६९. कै०००, पृ० ५७०. १८वीं शती कै.गु.मै., पृ. ७४९. वि.सं. १७१०- हि. जै. सा. इ., भाग २, पृ० २६० १७१८ के मध्य वि.सं. १७६९ | जै०गू०क०, भाग ५, पृ० २९४. वि.सं. १८वीं कै० गु०मै०, पृ० २११, ७३०. शती वि.सं. १७७६ १७२ अचलगच्छ का इतिहास Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यतिलक पद्मसागर पुण्यरत्न उदयसागर सुमतिसागर गजसागर पुण्यरत्न (रचनाकार) ४- चन्दनबालासज्झाय ५- सदेवंतसावलिंगारास ६. महावीर पंचकल्याणक स्तवन ७- चौबीसी ८- विद्यासागरसूरिरास बारभावनाढाल जीवाभिगमसूत्रटीका १. नेमिनाथयादवरास २- नेमिराजुलरास ३- नेमिनाथविवाहलो ४- सनत्कुमाररास ५- सुधर्मास्वामीरास वि.सं. १७८२ वि.सं. १७८२ वि.सं. १७९८ वि.सं. १७वीं अं०दि०, पृ० ३७७. शती कै०००, पृ० ५९७. वि.सं. १७०० जै० सा०सं०इ०, कण्डिका ८९०. वि.सं. १५९६ अं०दि०, पृ० ३७३-७४. से पूर्व वि.सं. १७वीं कै० गु० मै०, पृ० ७३७. शती वि.सं. १६०० से पूर्व वि.सं. १६३७ वि.सं. १६४० अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १७३ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेथो (श्रावक कवि) जीरावलापार्श्वनाथविवाहलो |वि.सं. १६वीं | कै०गु०मै०, पृष्ठ ६९४. १७४ शती भक्तिलाभ शीलोपरिगीत - वि.सं. १६वीं | वही, पृष्ठ ३५४. शती प्रथम चरण के आस-पास भावशेखरगणि वेलराज १- रूपसेनराजर्षिरास २. धनामहामुनिसन्धि लाभशेखर वि.सं. १६८३ | जै.गू.क., भाग ३, पृ. २५३-५५. वि.सं. १७०९ के पूर्व अचलगच्छ का इतिहास कमलशेखर सत्यशेखर विवेकशेखर भावशेखरगणि विजयशेखर (रचनाकार) सिद्धान्तसागरसूरि भावसागरसूरि १.अनन्तकायस्वाध्याय | वि.सं. १५७५/ कै०गु०म०, पृष्ठ ३८८. से पूर्व भावसागरसूरि (रचनाकार) २- मायासज्झाय ३- शास्वतजिनचैत्यवन्दन Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसागरसूरिशिष्य (नाम अज्ञात) भुवनतुंगसूरि वाचक भोजसागर मतिचन्द्र भावसागरसूरि जयसिंहसूरि धर्मघोषसूरि महेन्द्रसिंहसूर भुवनतुंगसूरि भावसागर विनीतसागर भोजसागर गुणचन्द्रगणि मतिचन्द्र (रचनाकार) (रचनाकार) (रचनाकार) १ - चैत्यपरिपाटी २- नवतत्त्वरास ३- इच्छापरिणामचौपाई १ - चतुःशरणअवचूरि २- आतुरप्रत्याख्यानअवचूरि ३. ऋषिमण्डलवृत्ति ४- मल्लिनाथचरित ५- सीताचरित्र ६- आत्मसंबोधकुलक ७- आदिनाथचरित ८- संस्तारकप्रकीर्णक सिद्धचक्रस्तवन नवतत्त्वबालावबोध वि.सं. १५६२ जै. गू.क.,भाग १, पृ.२७१, ४९७. वि.सं. १५७५ वि.सं. १५९० जि०र०को०, पृ० ३०२, ४४२; जै० सा०सं०इ०, कण्डिका ५६९. कै० मै०जै० ग्र०पा०, पृ० १३६. वि.सं. १३८० पीटर्सन, भाग ३, ए, पृ० २९३. अं०रि०, पृ० ११२ - १४. से पूर्व वि.सं. १९वीं कै०गु०मै०, पृ० २३३. शती जै०सा०सं०इ०, कण्डिका ९७०. कै० गु००, पृ० ३१. अंचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १७५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रथम' सोमरत्न क्षेत्रसमासरास वि.सं. १५९४ | जै०गू०कo, भाग १, पृ० ३३७ कै०गु०मै०, पृ० ६४५. गुणमेरु मतिसागर ललितसागर (रचनाकार) मतिसागर "द्वितीय (१७वीं शती अन्तिम चरण) मतिसागर (रचनाकार) १. आदिजिनस्तवन कै०गु०मै०, पृ० २३४. २- अजितजिनस्तवन ३- शांतिजिनस्तवन ४- इदलपुरमंडनपार्श्वनाथ स्तवन ५- चिन्तामणिपार्श्वनाथस्तवन ६- शंखेश्वरपार्श्वनाथस्तवन ७- महावीरस्तवन षडावश्यकविवरणसंक्षेपार्थ | वि.सं. १६वीं | जै०गू०कo, भाग १, पृ० ३६६. शती वही, भाग ४, पृ० ३१४. जैनमेघदूतटीका वि.सं. १५४६ | जै.सं.सा.इ., भाग २, पृ० २५०. अचलगच्छ का इतिहास महिमासागर उपा० | जयकेशरसूरि महीमेरुगणि महिमासागर उपा० (रचनाकार) जयकीर्तिसूरि महीमेरुगणि (रचनाकार) धर्मघोषसूरि महेन्द्रसूरि १- शतपदीसमुद्धार | वि.सं. १२९४ | जि०र०को०, पृ० २५. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यशेखरसूरि महेन्द्रसूरि (रचनाकार) मेरुतुंगसूरि माणिक्यशेखरसूरि ( रचनाकार) २ - तीर्थमालास्तोत्रप्रतिभास्तुति वि. सं. १२९४ जै. सा. सं. इ., कण्डि. ४९५,५६९. ३- जीरावलापार्श्वनाथस्तोत्र ४- आतुरप्रत्याख्यान अवचूरि ५. अष्टोत्तरीतीर्थमाला ६. विचारसप्ततिका ७- मनःस्थिरीकरणप्रकरण ८- मनःस्थिरीकरणप्रकरण विवरण १. कल्पनिर्युक्तिअवचूरि वि.सं. १५वीं जै० सा०सं०३०, कण्डिका ६८२ शती अन्तिम चरण २- आवश्यकनिर्युक्तिदीपिका १४७२ ३- दशवैकालिकसूत्रदीपिका ४- उत्तराध्ययनदीपिका ५. पिण्डनिर्युक्तिदीपिका ६- आचारांग सूत्रदीपिका ७- नवतत्त्वविस्तृत विवरण ८- भक्तामरस्तोत्रटीका अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १७७ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसागर गजराजसूरि इलाचीकुमारचतुष्पदी वि.सं. १८वीं | कै०गु०मै०, पृ० ५७०. शती १७८ ललितसागर माणिक्यसागर (रचनाकार) माणिक्यसिंहसूरि अजितसिंहसूरि माणिक्यसिंहसूरि (रचनाकार) माणिक्यसुन्दरसूरि | मेरुतुंगसूरि माणिक्यसुन्दरसूरि शकुनसारोद्धार वि.सं. १३३८ जि०र०को०, पृ० ५६८. कै.मै.जै.ग्र.पा., भूमिका, पृ.५६. १. श्रीधरचरित्रमहाकाव्य वि.सं. १४६३ कै०गु०म०, पृ० ७२२. २. गुणवर्मकथा अपरनाम वि.सं. १४८४| जै.सा.बृ.इ., भाग ६, पृ० ३६३. सत्तरभेदीपूजा ३. श्रीधरचरित्रमहाकाव्य- वि.सं. १४८८ स्वोपज्ञदुर्गपदव्याख्या ४. चतुःपूर्वीचम्पू ५- शुकराजकथा ६. महानलमलयसुन्दरीकथा ७- चन्द्रधवलभूप-धर्मदत्तकथा ८- पृथ्वीचन्द्रचरित्र वि.सं. १४७८ ९. नेमीश्वरचरितफागबंध १०- सिंहसेनकथा अचलगच्छ का इतिहास Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसागर मुनिशील सहजसागर मानसागर विद्याशील 1. विवेकमेरु मुनिशील (रचनाकार) (रचनाकार) ११- अजापुत्रकथानकचरित्र १२- सिंहावलोक अजितजिन स्तोत्र १३- विचारसारस्तवन १४- पार्श्वजिनस्तव इनके अतिरिक्त इन्होंने धर्मशेखरसूरिकृत जैनकुमारसम्भवमहाकाव्यटीका और शीलरत्नसूरिकृत जैनमेघदूतमहाकाव्यटीका का संशोधन भी किया। रहस्यशास्त्र जिनपालजिनरक्षितरास वि.सं. १८४६ अं०दि०, पृ० ५१६. वि.सं. १६५८ जै० गु०क०, भाग २, पृ० ३०५. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १७९ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलावाचक धर्ममूर्तिसूरि १. गजसुकुमालसन्धि २. चैत्यवन्दन रत्नप्रभ | वि.सं. १६२४ | जै.गू.क., भाग २, पृ. १३७-३८. वि.सं. १६७० | कै०गु०मै०, पृ० २३९. के पूर्व (रचनाकार) मेघराज सत्तरभेदीपूजा अं०दि०, पृ० ३६७-६८. कैoगु०मै०, पृ० ५५. मूलावाचक वेलराज पुण्यलब्धि भानुलब्धि मेघराज वा० नाथगणि (रचनाकार) अचलगच्छ का इतिहास मेरुचन्द्रगणि द्रौपदीरास वि.सं. १७०० के०गु०मै०. पृ० ६७३. धर्मचन्द्र मुनि मेरुचन्द्रगणि (रचनाकार) महेन्द्रप्रभसूरि (अचलगच्छ के १०वें पट्टधर) मेरुतुंगसूरि १- कामदेवचरित्र २. नाभाकनृपकथा | वि.सं. १६६४ | जि०र०को०, पृ० ८४. जै०सा०बृ०३०, भाग ६, पृ० १९७, ३१२. जैसा०सं०३०. कण्डिका ६५१, ६८१, ६८२, ७१५. ३. मेघदूतसटीक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४- कातंत्रव्याकरणवृत्ति ५- षड्दर्शननिर्णय ६- सप्ततिभाष्यटीका ७- उपदेशमालाटीका ८- शतकभाष्य ९. भावकर्मप्रक्रिया १०- सुश्राद्धकथा ११- नमुत्थुणंटीका १२. स्थविरावली अपरनाम विचार श्रेणी १३- संभवनामचरित्र १४- धातुपारायण १५- आख्यातवृत्तिटिप्पनक १६- बालावबोधव्याकरण अप नाम मेरुतुंगव्याकरण १७- रसाध्यायटीका १८- लघुशतपदी १९- शतपदीसारोद्धार २० - जेसाजीप्रबन्ध २१- सूरिमन्त्रकल्प वि.सं. १६४४ वि.सं. १६४४ वि.सं. १६४९ अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १८१ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ २२. सूरिमन्त्रसारोद्धार २३- जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तवन २४. स्तम्भनकपार्श्वनाथप्रबन्ध | २५. नाभिवंशकाव्य २६. चतुष्कवृत्ति २७- ऋषिमण्डलस्तव २८. पट्टावली २९- लक्षणशास्त्र ३०- राजीमतीनेमिसम्बन्ध ३१- वारिविचार ३२- पद्मावतीकल्प ३३- अगविद्याउद्धार ३४- कल्पसूत्रवृत्ति अचलगच्छ का इतिहास मेरुलाभ विनयलाभ जै०गू०क०, भाग ४, पृ० ८०. मेरुलाभ पद्मलाभ (रचनाकार) (रचनाकार) रत्नप्रभ धर्मप्रभ अन्तरंगसन्धि वि.सं. १३९२/ हिजै०सा०इ० मुरु-गुर्जर, भाग १, पृ० १३३. रत्नप्रभ (रचनाकार) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजूऋषि राजेन्द्र ( विमल) सोम ललितसागर लाभमण्डन लालरल धर्ममूर्तिसूरि वाचक वेलराज कमलशेखर राजूऋषि दयासागर I प्रतापरत्न विमलसोम राजेन्द्र (विमल) सोम (रचनाकार) गजसागर ललितसागर भावसागरसूरि लाभमण्डन ( रचनाकार) भुवनरत्न T लालरत्न ( रचनाकार) (रचनाकार) (रचनाकार) शिशुपालरास शत्रुंजयस्तव नेमिराजर्षिचौपाई धनसारपंचशालिरास रत्नरासकुमार चौपाई वि.सं. १६३५ | कै० गु० मै०, पृ० ६५५. वि.सं. १९६१ | कै० गु००, पृ० २६०. वि.सं. १६९९ अं०दि०, पृ० ४०८. कै०००, पृ० २७२. वि.सं. १५८३ | जै०गू०क०, भाग १, पृ० २७९. वि.सं. १७७३ जै०गू०क० भाग ५, पृ० २९०. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १८३ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावण्यचन्द्र पुण्यचन्द्र १८४ १- साधुवन्दना | वि.सं. १७३४ अं०दि०, पृ० ४६८. २- साधुगुणाभास ३- अंचलगच्छपट्टावली ४- गौडीपार्श्वनाथचौढालिया | वि.सं. १७६३ - लक्ष्मीचन्द्र लावण्यचन्द्र (रचनाकार) जयशेखरसूरि वाचनाचार्य मेरुचन्द वाडव (श्रावक) वाडव (श्रावक) १- कल्याणमन्दिरस्तोत्र अवचूरि वि.सं. १५वीं | आर्यकल्याणगौतमस्मृति ग्रन्थ, २. किरातार्जुनीयकाव्य अवचूरि शती का | भाग ३, हिन्दी विभाग, पृष्ठ ७५३. कुमारसम्भव अवचूरि उत्तरार्ध ७८. ४.जचइनवनलिनतृतीयस्मरण अवचूरि ५. प्रभुजीरकास्तोत्र अवचूरि ६. भक्तामरस्तोत्र अवचूरि ७. माघकाव्य अवचूरि ८. मेघदूतकाव्य अवचूरि ९. योगशास्त्र अवचूरि १०.रघुवंशकाव्य अवचूरि ११.वाग्भट्टालंकार अवचूरि अचलगच्छ का इतिहास Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वामेयपार्श्वस्तोत्र अवचूरि १३. विदग्धमुखमंडन अवचूरि १४. वीतरागस्तोत्र अवचूरि १५. वृत्तरत्नाकर अवचूरि १६. सकलसुखस्तोत्र अवचूरि १७. त्रिपुरास्तोत्र अवचूरि (उक्त कृतियों में से वृत्तरत्नाकर को छोड़कर शेष सभी कृतियाँ अनुपलब्ध है। वृत्तरत्नाकर भी अपूर्ण रूप में ही प्राप्त हुई है।) शत्रुजयगिरिपर शिलाप्रशस्ति | वि.सं. १६८३ | अं०ले०सं०, लेखांक ३१५... के लेखक | अं०दि०, पृ० ४०२. उत्तमचरितऋषिराजचरित- वि.सं. १६४१/ जै०गू०क०, भाग २, पृ० १८९. चौपाई अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान विजयमूर्ति हेममूर्ति (रचनाकार) विजयमूर्ति गुणनिधान विजयशील धर्ममूर्ति हेमशील विजयशील (रचनाकार) १८५ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यशेखर १- कयवनारास वि.सं. १६८१ जे.गू.क., भाग ३, पृ. २३५-४१. विजयशेखर (अंचलगच्छ-पालितानाशाखा विनयशेखर विवेकशेखर भावशेखर विजयशेखर (रचनाकार) २- सुदर्शनरास ३. चन्द्रलेखाचौपाई ४. पणमित्रकथाचौपाई ५. चन्दराजाचौपाई ६. ऋषिदत्तानोरास ७- ज्ञाताधर्मकथासूत्रबालाव बोध ८. गौतमस्वामिलघुरास ९. नलदमयन्तीरास १०- आरणिकऋषिरास वि.सं. १६८१ अंदि०, पृ० ४०० वि.सं. १६८९ कै०गु०म०, पृ० ६५५. वि.सं. १६९२ वि.सं. १६९४ वि.सं. १७०७ अचलगच्छ का इतिहास वि.सं. १६९२ के पूर्व वि.सं. १६१२ कैoगु०मै०, पृ० ६६५. के पूर्व विजयशेखर सत्यशेखर सुरसुन्दरीचौपाई विनयशेखर Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (रचनाकार) विवेकशेखर विजयशेखर राजमूर्ति विजयसागर विजयसागर पार्श्वनाथछन्द अं०दि०, पृ० ३७७. (रचनाकार) अंदि०. पृ० ४८८. विद्यासागरसूरि (वि.सं १७९३ में स्वर्गस्थ) | विनयराजगणि १- गौडीपार्श्वस्तवन २- सिद्धपंचाशिकावालाववेध रत्नसंचय अंदि०, पृ० ४०५. जै०गू०क०, भाग १, पृ० १०१. वि.सं. १७४२ जै०प०इ०, भाग २, पृ० ५५६. अंदि०, पृ० ४६९. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान विनयशील (अंचलगच्छ-पालि. अर्बुदाचलचैत्यपरिपाटी अपरनाम अर्बुदकल्प तानाशाखा) वाचक विद्यासागर विद्याशील विवेकमेरु मुनिशील गुणशील विनयशील वेलराज (रचनाकार) विनयशेखर | १- धर्ममूर्तिसूरिगीत वि.सं. १६४४ | जै०गू०क०, भाग २, पृ० २१०. । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयसागर विनयहंस विवेकचन्द्र शांतिसागर लाभशेखर कमलशेखर सत्यशेखर 1. विनयशेखर कल्याणसागरसूरि (वि.सं. १६७०- १७१८) विनयसागर (रचनाकार) (रचनाकार) महिमारत्न विनयहंस (रचनाकार) कल्याणसागरसूरि T गुणचन्द्र विवेकचन्द्र अमरसागर मतिसागर शांतिसागर (रचनाकार) (रचनाकार) २- यशोभद्रचौपाई ३- रत्नकुमाररास ४- शांतिमृगसुन्दरीचौपाई स्नात्रपंचाशिका १ - उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति २- दशवैकालिकसूत्रवृत्ति सुरपालरास १- शांतिजिनस्तवन २- पार्श्वस्तवन ३- सीमंधर जिनस्तवन वि.सं. १६४३ | कै० गु० मै०, पृ० ७५९. वि.सं. १६४३ वि.सं. १६४४ वि.सं. १७०४ जै०गू०क०, भाग ४, पृ० ६६. वि.सं. १५७२ जि०र०को०, पृ० ४४. जै० सा०सं०इ०, कण्डिका ७५८. वि.सं. १७९७ जै०गू०क०, भाग ३, पृ० ३२०. वि.सं. १७६१ कै०गु०मै०, पृ० २९४, ७१५. वि.सं. १७६१ वि.सं. १७६१ १८८ अचलगच्छ का इतिहास Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलरत्न संयममूर्ति 'प्रथम' संयममूर्ति 'द्वितीय' सहजरत्न सहजगणि उपाध्याय जयकीर्ति T शीलरत्न कमलमूर्ति (मेरु) संयममूर्ति विनयमूर्ति I संयममूर्ति धर्ममूर्तिसूरि सहजरल कल्याणसागरसूरि रत्नसागर (टीकाकार) (रचनाकार) ( रचनाकार) (रचनाकार) ४. चतुर्विंशतिजिनस्तवन ५- वीसविहरमानजिनस्तवन ६- अमरसागरगुरुभास जैनमेघदूतटीका कलावतीचौपाई चतुर्विंशतिजिनस्तव १- वैराग्यवीनती २- वीसविहरमानस्तवन ३. चौदहगुणस्थानकगर्भितवीरस्तव शीतलनाथस्तवन वि.सं. १७६१ वि.सं. १४९१ जै.सं.सा. इ., भाग २, पृ० २५०. वि.सं. १५९४ | जै०गू०क०, भाग १, पृ० ३३६. कै० गु०म० पृ० २०५ वि.सं. १६०५ जै. गू.क., भाग २, पृ० २२-२३. वि.सं. १६१४ वि.सं. १७८१ अं०दि०, पृ० ४९७. अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान १८९ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० मेघसागर वृद्धिसागर हीरसागर सहजसागर (रचनाकार) सुभाग्यराज १- षट्पंचाशिका २- जम्बूचरित वि.सं. १७२४] अं०दि०, पृ० ४०५. वि.सं. १७२४ भुवनराजगणि धनराज हर्षराज सौभाग्यराज उदयराजगणि हर्षरत्न सुमतिरत्न अचलगच्छ का इतिहास (रचनाकार) सुमतिहर्ष (रचनाकार) १- जातकर्मपद्धति वि.सं. १६७३ जै०सा०सं०३०, कण्डिका ८८३. २. बृहद्पर्वमाला अंदि०, पृ० ४०४-४०५. ३- ताजिकसारटीका वि.सं. १६७७ ४- गणककुमारकौमुदी नामक | वि.सं. १६७८ टीका ५- होरामकरन्दटीका Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक सौभाग्यसागर (अंचलगच्छ-सागरशाखा) गुणनिधानसूरि १- खंधककुमारसज्झाय | वि.सं. १६वीं | कै०गु०मै0, पृ० ५२९, ६९५, |शती |७९५. सेवक (रचनाकार) २. ऋषभदेवविवाहलो |वि.सं. १५९० ३. ऋषभदेवधवल | वि.सं. १५९० ४- नेमिनाथचन्द्राउला विनयसागर १- जामनगर स्थित शांतिनाथ-| वि.सं. १६९७ | अं०दि०, पृ० ४०७. जिनालय की शिलाप्रशस्ति सौभाग्यसागर (रचनाकार) | २- वर्धमानपद्मसिंहश्रेष्ठीरास पुण्यचन्द्र | वि.सं. १६८५/ जै.गू.क., भाग ३, पृ. २१४-१५, २६४ कनकचन्द्र वीरचन्द्र स्थानसागर (रचनाकार) गुणनिधान रत्नसमुच्चय अपरनाम वि.सं. १७८३ जि०र०को०, पृ० ३२८. हर्षनिधान (रचनाकार) रत्नसंचय से पूर्व जैगू०कo, भाग ५, पृष्ठ ३२०. अगडदत्तरास स्थानसागर (अंचलगच्छ-चन्द्रशाखा) अचलगच्छीय मुनियों का साहित्यावदान हर्षनिधान १९१ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षलाभ हेमकान्ति (अंचलगंच्छ-गोरक्षशाखा) हेमसागर गजलाभ हर्षलाभ सुमतिसागर हेमकान्ति कल्याणसागरसूरि हेमसागर (रचनाकार) ( रचनाकार) ( रचनाकार) अंचलमतचर्चा श्रावकविधिचौपाई श्रावकविधिचौपाई १- मदनयुद्ध २- छन्दमालिका वि.सं. १६१३ | जै०गू०क०, भाग २, पृ० ६६. वि.सं. १५८९ | जै.गू.क., भाग१, पृ. ३०८-३०९. वि.सं. १५८९ अं०दि०, पृ० ३२४. वि.सं. १७०६ अं०दि०, पृ० ४०३-४०४. वि.सं. १७०६ कै० गु०मै०, पृ० ५८२. १९२ अचलगच्छ का इतिहास Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *om » 3 परिशिष्ट-१ युगप्रभावक, गच्छदिवाकर, आशुकवि, अचलगच्छाधिपति आचार्यभगवंत श्रीगुणसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब द्वारा रचित और सम्पादित छोटी-बड़ी कृतियों की विस्तृत सूची संकलन : आचार्य श्रीकलाप्रभसागर सूरि संस्कृत कृतियाँ श्रीपालचरित्रम् (गद्य) स्तुति चतुर्विंशतिका (पद्य) पर्वस्तुतियाँ (पद्य) श्री आरक्षितसूरिचरित्रम् (गद्य) श्री कल्याणसागरसूरिचरित्रम् (गद्य) श्री गौतमसागरसूरिचरित्रम् (गद्य) ७. श्री महावीराष्टकम् श्री आर्यरक्षितसूरि (अष्टकम्) श्री गौतमसागरसूरि (अष्टकम्) श्री अंतरिक्षपार्श्वनाथस्तुति (अष्टकम्) श्री सौभाग्यपंचमीकथा (गद्य) श्री कार्तिकपूर्णिमाकथा (गद्य) १३. श्री मौनएकादशीकथा (गद्य) श्री पौषदशमीकथा (गद्य) १५. श्री मेरुत्रयोदशीकथा (गद्य) श्री होलिकाकथा (गद्य) १७. श्री चैत्रीपौर्णमासीकथा (गद्य) श्री अक्षयतृतीयाकथा (गद्य) श्री रोहिणीतपकथा (गद्य) २०. श्री पर्युषणसत्पष्टिाह्निका व्याख्यान (गद्य) २१. श्री दीपालिकाव्याख्यान् (गद्य) 2 M Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३९. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. अचलगच्छ का इतिहास श्री चातुर्मासिकव्याख्या (गद्य) श्री गौतमस्वामी अष्टक (पद्य) श्री लघुत्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम् (गद्य) श्री समरादित्यकेवलिचरित्रम् (गद्य) श्री चक्रेश्वरीदेवी अष्टकम् (पद्य) श्री महाकालीदेवी अष्टकम् (पद्य) श्री मांगलिकस्तुति अष्टकम् (पद्य) (जो आमंत्रण पत्रिका के प्रारम्भ में प्रकाशित किये जाते हैं) श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ अष्टकम् गुजराती कृतियाँ श्री सौभाग्यपंचमीकथा; अनुवाद (गुजराती) श्री कार्तिक पूर्णिमाकथा (गुजराती) श्री मौनएकादशीकथा (गुजराती) श्री पौषदशमीकथा (गुजराती) श्री मेरुतेरसकथा (गुजराती) श्री चैत्रीपूनमकथा (गुजराती) श्री होलीकथा (गुजराती) श्री अक्षयतृतीयाकथा (गुजराती) श्री रोहिणीतपकथा (गुजराती) श्री पर्युषणपर्वाष्टाह्निकाकथा (गुजराती) श्री दीपावलीव्याख्यानकथा (गुजराती) श्री चौमासीव्याख्यानकथा (गुजराती) (इन ११ से २२ एवं २६ से ३७ कृतियों का द्वादशपर्वकथा गद्य और भाषान्तर ऐसा संयुक्त नाम भी है) वर्तमानजिनस्तवन चौबीसी वर्ण- देह-मान- आयु- माता-पिता- पंच कल्याणक आदि ५८ प्रसंगों के साथ वर्णन युक्त स्तवन चौबीसी चैत्यवंदन चौबीसी जिन आरतीचौबीसी श्री बारसासूत्र (कल्पसूत्र) सार (गुजराती) २५५ पद्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. ४८. ४९. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५९. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६८. ६९. ७०. ७१. ७२. ७३. ७४. 194. ६. परिशिष्ट श्री कल्पसूत्र गुजराती भाषान्तर श्री पंचप्रतिक्रमणसूत्र के अर्थ - भावार्थ श्री पार्श्वनाथ भगवान् का विस्तृत चरित्र (दस भव) श्रावक कर्तव्यपद (यन्नत जिणाणं) (३ पद्य) का अनुवाद श्रावकनी करणी (१३ पद्य) वैराग्यशतक-गुर्जरपद्यानुवाद (१०५ पद्य ) कुलकचतुष्टय-पद्यानुवाद इन्द्रियपराजयशतक-पद्यानुवाद (१०० पद्य) (५० से ५४) अचलगच्छ धार्मिक पाठ्यक्रम बालवर्ग तथा वर्ग १ से ५ श्री नवपदकी पूजा श्री नव्वाणुंप्रकारी पूजा श्री पार्श्व पंचकल्याणक पूजा श्री नव्वाणुं अभिषेण पूजा श्री बारव्रतकी पूजा श्री पंचज्ञान पैंतालीस आगम पूजा श्री अष्टकर्म निवारण ६४ प्रकारी पूजा श्री बसस्थानक पूजा श्री महावीर पंचकल्याणक पूजा श्री वास्तुक पूजा श्री पंचतीर्थी पंच कल्याणक पूजा श्री आदिनाथ पंच कल्याणक पूजा श्री वेदनीय कर्म पूजा श्री अंतरायकर्म पूजा श्री अष्टापदतीर्थ पूजा श्री सम्मेतशिखरतीर्थ पूजा श्री नन्दीश्वरद्वीप पूजा श्री आर्यरक्षितसूरि पूजा गणधर गौतमस्वामी की पूजा श्री अष्टप्रकारी पूजा का दोहा श्री जिन नवांग पूजा का दोहा श्री महेन्द्रसिंहकृत अष्टोतरीतीर्थमाला ( गूर्जर - पद्यानुवाद) १९५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ७७. ७८. ७९. ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. ८९. ९०. ९१. ९२. ९३. ९४. ९५. ९६. ९७. ९८. ९९. अचलगच्छ का इतिहास श्री जीवविचार ( गूर्जर - पद्य) नवतत्त्व ( गूर्जर - पद्य) दंडक ( गूर्जर - पद्य) लघु संग्रहणी ( गूर्जर - पद्य) श्रावक की करणी का एकढालियां अष्टप्रवचनमाता नव ढालियां सोलह भावना के सोलह ढालिये समकित सड़सठी का चोढालिया बृहद् पुण्यप्रकाश याने बृहद्राधना पंचढालिया लघु आराधना याने लघु पुण्यप्रकाश ढालिया या वीरजिन स्तवन चउगति जीव क्षमापना ढालिया श्री आर्यरक्षितसूरिइक्कीसा जिनदर्शन पूजा उपयोगी विविध लघु कृतियाँ जिसमें प्रदक्षिणा का दोहा, साथीया का दोहा, चामर का दोहा, धूप का दोहा, अलंकार चढाने का तथा जिन अभिषेक का दोहा - स्तुतियाँ आदि. आरती- मंगल दिवो अर्हं की धुन मैत्री आदि चार भावनागर्भित “हे परमात्म्" यह प्रार्थना "समरो महामंत्र नवकार" नवकारगीत पर्व की स्तुतियाँ ( गूर्जर पद्य में) जिनेश्वर वंदनावली पद्य गणधर गौतमस्वामीरास पद्य जीवन का अमृत (विविध तत्त्वज्ञान आदि के लेख) श्रीपालचरित्र और नवपदगुणगर्भित नवपद का स्तवन सिद्धगिरि के नौ दो श्री महावीरदेव का स्तवन पारणे का स्तवन आदि....... नव्वाणुयात्रा विधि अन्तर्गत तलेटी, शांतिनाथ प्रभु, रायणपगला, पुंडरीकगणधर, घेटीपाग का स्तवनादि । १००. पंचतीर्थ जिन का चैत्यवंदन १०१. पर्वतिथियों का चैत्यवंदन १०२. श्री सिद्धाचल शत्रुंजय महातीर्थ की आराधना का दूहा- चैत्यवंदन - स्तवन-‍ न-स्तुति Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १९७ १०३. श्री सम्मेतशिखरजी महातीर्थ की विशिष्ट आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन स्तुति १०४. श्री गिरनार महातीर्थ की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति १०५. श्री अष्टापद महातीर्थ की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति १०६. श्री आबू महातीर्थ की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति १०७. श्री भद्रेश्वर महातीर्थ की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति १०८. श्री नवपद तप की आराधना का चौढालिया महातीर्थ की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति १०९. श्री ज्ञानपंचमी तप की आराधना का चौढालिया महातीर्थ की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन स्तुति ११०. श्री वर्धमान तप की आराधना का चौढालिया दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति १११. श्री बीसस्थानकतप की आराधना का चौढालिया दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति ११२. श्री ज्ञानपंचमी तप की आराधना का चौढालिया दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति ११३. श्री अक्षयनिधि तप की आराधना का चौढालिया दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति ११४. श्री मौन एकादशी तप की आराधना का चौढालिया दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति ११५. श्री रोहिणी तप की आराधना का दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति ११६. श्री सीमंधरस्वामी जिन की आराधना का दोहा-स्तवन-स्तुति ११७. गणधर पद आराधना दोहा-चैत्यवंदन-स्तवन-स्तुति ११८. सामान्य जिन आराधना स्तवनादि ११९. कल्याणसागरसूरि जीवनचरित्र (गुजराती) १२०. श्री पर्युषण पर्व की आराधना चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुतियाँ आदि १२१. श्री महावीरस्वामी का २७ भव का चौढालिया १२२. श्री पार्श्वनाथ दस भव का चौढालिया १२३. श्री आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीरस्वामी, श्रीपालमयणा और महासती चंदनबालाकी गूर्जर भाषा में सरल संक्षिप्त कथाएँ १२४. लगभग १५० जैन धार्मिक सरल प्रश्नोत्तर धार्मिक पाठ्यक्रम १२५. श्री चौमासी देववंदन में ३१ दोहा, ३१ स्तुतियाँ (गुजराती में) १२६. श्री कल्याणसागरसूरि पूजा, जीवनचरित्र आदि (संपादित) १२७. श्री अणगार प्रतिक्रमण सूत्र १२८. श्री गौतमसागरसूरि स्तवन (गुजराती में) १२९. श्री जयसिंहसूरि स्तवन Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ १३०. श्री नवपदादितपोनिधि (संपादित) १३१. श्री आत्मोपयोगी पद्य गुणरत्नाकर (संपादित) श्री कच्छी वीसा ओसवाल देरावासी जैन महाजन (मुम्बई) की ओर से प्रकाशित और शासनसम्राट पू. अचलगच्छाधिपति तरफ से प्रेरित - सम्पादित साहित्य की सूची १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. अचलगच्छ का इतिहास १०. पंच प्रतिक्रमणसूत्र मूल दो प्रतिक्रमणसूत्र मूल देवदर्शन - गुरुवंदन का सूत्र ( भावार्थ ) पंचप्रतिक्रमणसूत्र अर्थ सहित अचलगच्छविविध पूजासंग्रह नवपदादि तपोनिधि श्री कल्याणसागरसूरि जीवनसौरभ श्री कल्याणसागरसूरि पूजा संदोह श्री परमेष्ठी गुण सरिता श्री पद्य गुण सौरभ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १९९ & परिशिष्ट-२ साहित्य दिवाकर पू० आ० श्री कलाप्रभसागरसूरीश्वरजी म.सा एवं अन्य साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन से श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्र ___ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों की सूची भगवान् श्रीमहावीरदेवजीवनसौरभ (गुजराती)- ले०आ० कलाप्रभसागरसूरि भगवान् श्रीमहावीरदेवस्मृतिग्रन्थ (२५०० निर्वाण वर्ष) परभव- भातु (विविध वैराग्यादि वाचन) ले० सं० मुनि श्री कलाप्रभसागर जी म०सा० बीसस्थानकादि तपविधि पुंज (तपविधि) (सम्पादन) श्री शुक्रराजचरित्र-संस्कृत (प्रत) माणिक्यसुंदरसूरिकृत चन्द्रधवलभूप धर्मदत्तचरित्र-संस्कृत (प्रत) माणिक्यसुंदरसूरिकृत वीरता का सरलमार्ग (१४ नियम) पाकेट बुक हृदयवीणाना तारे तारे (प्राचीन स्तवनावली) मलयासुंदरीचरित्रं-संस्कृत (प्रत) माणिक्यसुंदरसूरिकृत गुरुगुण गीत गुंजन (प्राचीन-नवीन गहुंली) दिव्य जीवन जीववानी चावीओ (१०१ नियम) पाकेट बुक १२. ___ चतुर्विशंति जिनस्तोत्राणि --- सानुवाद (जिन भक्ति) जयकेशरीसूरिकृत १३. तपथी नाशे विकार (पाकेट बुक) । आर्यरक्षित जैन पंचाङ्ग (सं० २०३४) कामदेवचरित्र-मूल एवं अनुवाद (संस्कृत-गुजराती प्रत) मेरुतुंगसूरिकृत १६. जैन शासनमां अचलगच्छनो दिव्य प्रकाश (पट्टावली) १७. कामदेवचरित्र - गुजराती अनुवाद (प्रत) मेरुतुगंसूरिकृत अचलगच्छनी अस्मिता (आर्यरक्षितसूरि जीवन परिचय) अचलगच्छनां ज्योतिर्धर (जयसिंहसूरि जीवन परिचय) अचलगच्छनां दीपक (महेन्द्रप्रभसूरि जीवन परिचय) २१. अचलगच्छनां मन्त्र प्रभावक (मेरुतुगंसूरि जीवन परिचय) २२. अचलगच्छनां क्रियोद्धारक (धर्ममूर्तिसूरि जीवन परिचय) २३. अचलगच्छनी प्रतिभा (कल्याणसागरसूरि जीवन परिचय) ar १४. १५. १८. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अचलगच्छ का इतिहास २५. ३७. २४. अचलगच्छनां समुद्धारक (गौतमसागरसूरि जीवन परिचय) जीवन- अमृत (तत्त्वज्ञाननां लेखो) (गुणसागरसूरि लिखित) लिंगनिर्णय (मूल-व्याकरणनां अंग विषयक) (कल्याणसागरसूरि कृत) २७. लिंगनिर्णय संस्कृत शब्दकोश : परिशिष्टादि सह (व्याकरणनो अंग) (कल्याणसागरसूरि कृत) षड्दर्शननिर्णय सानुवाद (मेरुतुंगसूरि कृत) २९. समरोमहामन्त्रनवकार (नवकारमंत्र पद पर विविध चिन्तनों का संकलन) ३०. भोजव्याकरणम् - अनुवाद विवरण सहित उपाध्याय विनयसागरजी कृत ३१. विद्वचिंतामणि - पद्यबद्ध (उपाध्याय विनयसागरजी कृत) संस्कृत ३२. अनेकार्थ नाममाला (हिन्दी पद्य) (उपाध्याय विनयसागरजी कृत) ३३. सौभाग्य ज्ञानपंचमीकथा-मूल संस्कृत (आ० गुणसागरसूरि कृत) ३४. कार्तिकीपूर्णिमाकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ३५. मौनएकादशीकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ३६. पौषदशमीकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत मेरुतेरसकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ३८. होलिकाकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ३९. चैत्रीपूनमकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ४०. अक्षयतृतीयाकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत रोहिणीकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ४२. पर्युषणअष्टाह्निकाकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ४३. दीपावलीकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ४४. चातुर्मासिकव्याख्याकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ४५. द्वादशपर्वकथा-मूल (गुणसागरसूरि कृत) संस्कृत ४६. खिला फूल फैल गई सौरभ (आर्यरक्षितसूरि परिचय) हिन्दी में ४७. बारसासूत्र सचित्र-मूल प्राकृत (मुलुंड संघ के सहकार से प्रकाशित) ४८. मारे जावू पेले पार, ले०- आ०कलाप्रभसागरसूरि (श्रावकों के कर्तव्य) ४९. पर्युषण स्वाध्याय, ले०- आ०गुणसागरसूरि (पर्युषण चिन्तन) फटाकडा फोडी भरोनां पापझोली. ५१. रेडी वन टू थ्री. जैन कथा संदोह --- भाग १, ले० आ० कलाप्रभसागरसूरि ५३. अहं न करियो कोय. ४१. ५२. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. सी ५६. ६२. परिशिष्ट २०१ ५४. ओंठे गुंजे गीत – हैये प्रभुनी प्रीत श्री जयशेखरसूरि, भाग १ (पी-एच०डी० महानिबन्ध) ले०- सा०श्री मोक्षगुणाश्री जी श्री जयशेखरसूरि भाग २ (पी-एच् डी० महानिबन्ध) ५७. चालो जिनालयनी वर्षगांठ उजवीओ. ५८. अचलगच्छनी प्रतिभा (संक्षिप्त पट्टावली) ५९. पुरुषार्थनी प्रेरणमूर्ति (आ० कलाप्रभसागरसूरि जीवन परिचय) ६०. जम्बुस्वामीचरित्र-प्रताकार (जयशेखरसूरि कृत-पद्य) ६१. जम्बूस्वामीचरित्र-प्रताकार (भाषांतर) त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध-एक अध्ययन, (जयशेखरसूरि कृत) सं०-सा० मोक्षगुणाश्री जी हिन्दी साहित्य ६३. भक्ति नैया : देवदर्शन – गुरुवंदन व सामायिक की विधि. ६४. प्रार्थना : नवस्मरण-भक्तामर व चमत्कारिक सरस्वतीस्तोत्र. ६५. बोलो सुबह शाम (द्वितीय आवृति) लघुपुण्य प्रकाश स्तवन – दादा गुरुदेव इक्कीसा, गौतमस्वामी रास आदि। तपसुं बेड़ो पार : सिद्धाचलजी, सम्मेतशिखरजी तीर्थ व ज्ञानपंचमी बीसस्थानक तथा वर्धमान तप की आराधना विधि। ६७. रेडी वन टू थ्री (द्वितीय आवृति) बालयोग्य खेल के साथ मात्र १ दिन पालने के सरल नियम। वंदन से कर्म खण्डन : देवदर्शन व गुरुवंदन विधि। पढ़ो आगे बढ़ो - श्रावक की आराधना के दस अधिकार दैनिक-रात्रिक-वार्षिक आदि कर्तव्य तथा जीवविचार नवतत्त्व प्रश्नोत्तरी. यादों के साथ-साथ : अचलगच्छाधिपति आशुकवि आचार्य श्री गुणसागरसूरीश्वरजी __महाराज विरचित प्रथम चौबीसी सहित ७७ भाववाही स्तवनों का संग्रह। त्वमेवशरणं मम:, पुष्प नं० १-२-३-४ का अजोड़ संग्रह। ७२. त्वमेव शरणं ममः, प्रथम पुष्प : सूरम्य ४५० स्तुतियों का संग्रह। त्वमेव शरणं ममः, द्वितीय पुष्प : चित्ताकर्षक ७० चैत्यवंदनों का संग्रह। ७४. त्वमेव शरणं ममः, तृतीय पुष्प : शुभभावाही २०० स्तवनों का संग्रह। ७५. त्वमेव शरणं ममः, चतुर्थ पुष्प : सुमधुर १३२ स्तुतियुगलों का संग्रह। ७६. प्रतिक्रमणं पापनाशनं : पंचप्रतिक्रमण मूल-सूत्र संक्षिप्त-भावार्थ व विधियाँ। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ७७. ७८. ७९. ८०. अचलगच्छ का इतिहास शार्टकट साधना : घंटे घंटे के चौविहार की नोंध पोथी ६३ से ७७ तक सम्पादन : मुनि श्रीकमलप्रभसागर मुम्बईथी सम्मेतशिखरजी छ: री महासंघेनो स्मृतिग्रंथ (सचित्र) सं० - आ० कलाप्रभसागरसूरि । स्वस्तिक गुणकलादर्शन (सचित्र) क्षमायात्रा (पर्युषण लेखमाला) ८१-९१.बारह पर्व कथानी ११ पुस्तकें, अनुवाद : आ० गुणसागरसूरि. बारह पर्व कथा— गुजराती भाषान्तर, भाग - १ (संयुक्त पुस्तक) चेम्बूर चातुर्मास स्मरणिका (२०४६). सागर दीठु साकंर मीठं ( गुणसागरसूरिजीवन कथागत). ये करजो वास. जीवतत्त्व प्रवेशिका. ९२. ९३. ९४. ९५. ९६. ९७. ९८. ९९. तुं प्रभु मारो, हुं प्रभु तारो, भाग १. १००. तुं प्रभु मारो, हुं प्रभु तारो, भाग २. १०१. पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्या (गुजराती में ) ( पर्व कथा भाग - २), ले० आ० गुणसागरसूरिजी मन तुं नम. तुं मोरे मन में तुं मेरे दिल में. १०२. बारसासूत्र गूर्जरपद्य ढालिया, रचयिता : आ० गुणसागरसूरि. १०३. श्री मेरुतुंगव्याकरण बालावबोध, सं० – आ० कलाप्रभसागरसूरि. १०४. श्री द्वादशपर्वकथा, भाग १, हिन्दी अनुवाद, राजमलजी सिंघी. १०५. सूरिगुणसिंधुना, गुणबिंदु, सं०-आ० कलाप्रभसागरसूरि. १०६. संयमगुण गुंजन, सं० पुण्यपराग. १०७. भक्ति करतां छूटे मारु प्राण. ३. ४. साहित्य दिवाकर पू० आ० श्री कलाप्रभसागरसूरि जी की एवं अन्य मुनिजनों की प्रेरणा से अन्य संस्थाओं द्वारा प्रकाशित साहित्य की सूची १. जीवन उन्नति याने तीर्थयात्रा, ले० - आ० कलाप्रभसागरसूरि सम्यकत्व सहित पाँच अणुव्रत (हिन्दी) ले०सचित्र अचलगच्छ स्नात्र पूजा (क्षमालाभ कृत) प्रथम ज्ञानसत्र (घाटकोपर) विशेषांक. २. O आ० कलाप्रभसागरसूरि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ; irror परिशिष्ट २०३ पू० आ० गुणसागरसूरि जीवन परिचय, ले० आ० कलाप्रभसागरसूरि द्वितीय (अचलगच्छ) अधिवेशन स्मारिका. पू०आ० गुणसागरसूरि सूरिपदरजत स्मारिका ग्रन्थ, सचित्र. श्री आर्यकल्याण गौतम स्मृति ग्रन्थ, सचित्र, सं०-आ० कलाप्रभसागरसूरि. श्री अचलगच्छना इतिहासनी झलक, सचित्र, ले०, सं०-आ० कलाप्रभसागरसूरि. वर्धमान तप स्मारिका. ११. अचलगच्छ पट्टावली (हिन्दी) ले०,आ० कलाप्रभसागरसूरि जी. महाराष्ट्र विहार विशेषांक (२०३६) १३. श्रमण संस्कृति विशेषांक. १४. कल्याणसागरसूरि चतुर्थ जन्म शताब्दी विशेषांक. श्री कल्याणसागरसूरि जीवन सौरभ. श्री कल्याणसागरसूरि पूजा संग्रह. श्री गुणसागरसूरि जन्म अमृत तथा दीक्षा सुवर्ण विशेषांक. श्री आर्यरक्षितसूरि नवम जन्म शताब्दी विशेषांक. श्री गौतमसागरसूरि क्रियोद्धार शताब्दी विशेषांक. श्री गुणसागरसूरि स्मृति विशेषांक (गुणभारती) श्री गुणमलके सागर छलके (पू० गुणसागरसूरि स्मृति ग्रन्थ, सं०-आ० कलाप्रभसागरसूरि, सचित्र. २२. गुरु दर्शन सुख संपदा (सचित्र एलबम). तीर्थ गुण गुंजन (शिखरजी तीर्थ संघ) (आराधना संग्रह) २४. दक्षिण भारत अचलगच्छ सम्मेलन विशेषांक. २५. अहिंसा सम्मेलन स्मारिका (सं० २०४७ हैदराबाद) शत्रुजय तीर्थ गुणदर्शन. २७. शत्रुजय तीर्थ ९९ यात्रा स्तवन. २८. क्षत्रियकुंड तीर्थ विशेषांक (वीतराग संदेश), सं०-आ० कलाप्रभसागरसूरि. २९. क्षत्रियकुंड निर्णय सम्मेलन विशेषांक (गुणभारती) सं०-आ० कलाप्रभसागरसूरि. ३०. श्री शंखेश्वरथी छ:री संघ तथा ७२ जिनालय तीर्थ विशेषांक (गुणभारती). ३१. ७२ जिनालय तीर्थ प्रतिष्ठा विशेषाकं (गुणभारती) ३२. अम्बरनाथ से शंखेश्वरं छरी संघ स्तवन की पुस्तिका. ३३. शंखेश्वर से ७२ जिनालय संघ स्तवन की पुस्तिका. ३४. अचलगच्छ पाठ्यक्रम बाल वर्ग (डोंबीवली) २३. २६. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ३५. ३६. ३७. ३८. ३९. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. अचलगच्छ का इतिहास अचलगच्छ पाठ्यक्रम ( घोरण १-२-३-४-५ ) (डोंबीवली) अचलगच्छ पंचप्रतिक्रमण (डोंबीवली) कच्छनो विकास, अहिंसा सर्वधर्मोनी माता, व्यवहारमां अहिंसा, अहिंसा त्रिकोण, अहिंसा - जीवदया - शाकाहार, अहिंसा अने खादी, मानवतानुं काणुं कलंक (गर्भपात विरोध), आर्य संस्कृतिनुं विज्ञान, साची केलवणी साची समृद्धि, आर्य संस्कृतिनुं वैज्ञानिक त्रिकोण ( उक्त १० लघु पुस्तिकायें श्री वेणीशंकर मु० वासु द्वारा लिखित हैं) अचलगच्छ पंचप्रतिक्रमण - अंग्रेजी अनुवाद. शांतिगुण सौरभ (गुजराती) (हैदराबाद वि०सं० २०५६) शांतिगुण सरिता (हिन्दी). बीसस्थानकादि तपविधि. अजापुत्र कथानक चरित्रम् (संस्कृत) माणिक्यसुन्दरसूरिकृत. आ० कलाप्रभसागरसूरि संयम रजत वर्ष सचित्र ग्रन्थ ( शिष्यों द्वारा सम्पादित) भणावो श्री गुरुपूजा, नहीं मिले जगमां दूजा, (शिष्यों द्वारा सम्पादित ). श्री शत्रुंजय तीर्थ ११ यात्रा, अचलगच्छ महासंघ स्मृति ग्रन्थ (प्रेस में ). मनः स्थिरीकरण प्रकरणम् स्वोपज्ञवृत्ति सहितं (प्रेस में ). बृहत्शतपदी सटीक (प्रेस में ). गुणभारती मासिकनी १ से १९ वर्ष तक की फाईल (सं० २०३७ सं० २०५६) कल्पसूत्र - हिन्दी अनुवाद (प्रेस में ), ले० - आ० गुणसागरसूरि. पर्युषणष्टाह्निका— हिन्दी अनुवाद (प्रेस में) ले० आ० गुणसागरसूरि. तीर्थयात्रा का रहस्य, (हिन्दी) इन्दौर संघ अचलगच्छ प्राकृत पट्टावली, (भावसागरसूरि ) (प्रेस में ). (क० वी० ओ० कल्पसूत्र विवरण- गुजराती में (गुणसागरसूरि कृत) (मुलुंड संघ ) अचलगच्छ विविध पूजा संग्रह ( गुणसागरसूरिकृत) देरावसि महाजन) सं० २०४६, सम्पादन- आ० कलाप्रभसागरसूरि. शांतिनाथ जिनेश्वर तीर्थधाम (हैदराबाद) स्मारिका वि०सं० २०५६. पंचप्रतिक्रमण सूत्र अर्थ सहित (पंचम आवृत्ति) (सं० २०५२) - (क० वी०ओ० देरावासि महाजन) — Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची अंचलगच्छ दिग्दर्शन, लेखक-श्रीपार्श्व; प्रकाशक-श्री मुलुंड अंचलगच्छ, जैन समाज, मुलुंड, मुम्बई १९६८ ई०. अंचलगच्छम्होटी पट्टावली (गुजराती भाषांतर); प्रका०-सोमचंद धारसी कच्छ-अंजारवाले, जामनगर, वि०सं० १९८५. ३. अचलगच्छ के आचार्यों की जीवन ज्योति (लघुपट्टावली) हिन्दी-लेखक-मुनि कलाप्रभ सागर जी; प्रका०-श्री आर्यरक्षित जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठ द्वारा संचालित दादा श्री कल्याणसागरसूरि ग्रन्थ प्रकाशन केन्द्र, मुम्बई, वि०सं० २०३८. अचलगच्छनी प्रतिभा (अचलगच्छ की लघु पट्टावली)- गुजराती, लेखक-संपादक-मुनि कलाप्रभसागर जी; प्रकाशक-श्री आर्य जय कल्याण केन्द्र ट्रस्ट (मुम्बई) c/o श्री कल्याण-गौतक-नीति जैन तत्त्वज्ञान श्राविका विद्यापीठ, देरासर लेन, घाटकोपर (पूर्व) मुम्बई वि०सं० २०३९. अचलगच्छीय प्रतिष्ठालेखो, सम्पादक और संशोधक-श्रीपार्श्व, प्रकाशक-श्री अखिल भारत अचलगच्छ (विधि पक्ष) श्वेताम्बर जैन संघ, मुम्बई वि०सं० २०२७/ई०सं० १९७१. अचलगच्छीयविविधपूजासंग्रह, रचयिता-आचार्य गुणसागरसूरि; प्रकाशक-श्री कच्छी वीसा ओसवाल देरावासी जैन महाजन, नरसीनाथा स्ट्रीट, मुम्बई वि०सं० २०४६. आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ, सम्पा०-मुनि कलाप्रभसागर जी; प्रकाशक-श्री आर्यरक्षित जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठ द्वारा संचालित दादाश्री कल्याणसागरसूरि ग्रन्थ प्रकाशन केन्द्र, मुम्बई वि०सं० २०३९. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, सम्पा०-मुनि जयन्तविजय, प्रका०-श्रीदीपचंद बांठिया, मंत्री, श्री विजयधर्मसूरि ग्रन्थमाला, उज्जैन वि०सं० १९९४. अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह, सम्पा०-मुनि जयन्तविजय, प्रका०-यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर वि०सं० २००५. १०. आपणाकविओ, लेखक-केशवराम काशीराम शास्त्री, प्रका०-गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद १९७८ ई०. ११. आरासणातीर्थ अपरनाम कुम्भारियाजीतीर्थ, लेखक-मुनिश्री विशालविजयजी, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगच्छ का इतिहास प्रका० - यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर १९६१ ई०. १२. उत्तर भारत में जैनधर्म (ई०पू० ८०० से ५२६ ई० तक), अंग्रेजी में लेखकचिमनलाल जयसिंह शाह, हिन्दी अनुवादक, कस्तूरमल बांठिया, प्रका०- -सेवा मन्दिर, रावटी, जोधपुर १९९० ई०. २०६ १३. ऐतिहासिकराससंग्रह, भाग १ - ४, सम्पा०-1 ग्रन्थमाला, भावनगर वि०सं० १९७२-७८. ० - विजयधर्मसूरि, प्रका० - यशोविजयजैन १४. ऐतिहासिक लेखसंग्रह, लेखक - पं० लालचन्द भगवानदास गांधी, प्रका० - सयाजीराव साहित्यमाला, बड़ोदरा १९६२ ई०. १५. गुजरातना सारस्वतो, लेखक- पं० केशवराम काशीराम शास्त्री, गुजरात साहित्य सभा, अहमदाबाद १९७७ ई०. १६. गुजरातनो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास, भाग ४, ५, ६ सम्पा०रसिकलाल छोटालाल परीख एवं हरिप्रसाद ग० शास्त्री, प्रका०-२ - सेठ भोगीलाल जयसिंहभाई अध्ययन संशोधन विद्या भवन, अहमदाबाद १९७६- १९७९ई०. १७. गुजरातीसाहित्यकोश, भाग-१, सम्पादक - जयंत कोठारी तथा जयंत गाडीत, प्रका०- गुजराती साहित्य परिषद्, अहमदाबाद १९८९ ई०. प्रका० १८. गुणसौरभ, रचयिता - आचार्य गुणसागरसूरि; प्रकाशक - श्री कच्छीवीसा ओसवाल देरावासी जैन महाजन, नरसीनाथा स्ट्रीट, मुम्बई वि० सं० २०४० / ई०स०१९८२. १९. जिनदत्तसूरिज्ञान भंडार जैसलमेर के हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र, द्वितीय खण्ड, संकलनकर्ता - श्री जौहरीमल पारेख एवं अन्य, प्रका०- सेवा मन्दिर, रावटी, जोधपुर १९८८ ई०. २०. जिनशासननां श्रमणीरत्नो, सम्पा०- नन्दलाल देवलुक, प्रका०- अरिहन्त प्रकाशन, भावनगर १९९४ ई०. २१. जैनऐतिहासिकगूर्जरकाव्यसंचय, सम्पा०- मुनि जिनविजय, प्रका०- प्रवर्तक श्री कांतिविजय जैन ऐतिहासिक ग्रन्थमाला, भावनगर १९२६ ई०. २२. जैनगुर्जरकविओ, भाग १ - ९, लेखक - श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई, सम्पा० डॉ० जयन्त कोठारी, द्वितीय संशोधित संस्करण, प्रका० - महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई १९८६-९७ ई०. २३. जैनतीर्थसर्वसंग्रह, भाग १, खंड १ - २, भाग २, लेखक - पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, प्रका०- आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी, अहमदाबाद १९५३ ई०. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २०७ २४. जैनधातुप्रतिमालेख, सम्पा० मुनि कांतिसागर, प्रका०- श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, सूरत १९५० ई०. - २५. जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १ - २, सम्पा०अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, पादरा १९२४ ई०. बुद्धिसागरसूरि, प्रका०-: 0 - श्री २६. जैनपरम्परानो इतिहास, भाग १-४, लेखक - त्रिपुटी महाराज, प्रका०- -श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, भावनगर १९५२-८३ ई०. २७. जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, सम्पा०-मुनि जिनविजय, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई १९४३ ई०. २८. जैनप्रतिभादर्शन, संपा०- नन्दलाल देवलुक, प्रका० - श्री अरिहन्त प्रकाशन, भावनगर २००० ई०. २९. जैनलेखसंग्रह, भाग १- ३, संग्राहक- संपा० श्री पूरनचन्द नाहर, १९१८ - १९२९ ई०. ३०. जैनसंस्कृतसाहित्यनो इतिहास, भाग १ - ३, लेखक - हीरालाल रसिकलाल कापड़िया, प्रका० - श्री मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ोदरा १९७० ई०. ३१. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, लेखक - मोहनलाल मेहता, प्रका० - पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९६७ ई०. कलकत्ता ३२. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४, लेखक - मोहनलाल मेहता एवं हीरालाल रसिकलाल कापड़िया, प्रका०- - पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९६८ ई०. ३३. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, लेखक - पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९६९ ई०. ३४. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, लेखक - गुलाब चन्द्र चौधरी, प्रका०पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७३ ई०. ३५. जैनाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, लेखक - मोहनलाल दलीचन्द देसाई, प्रका०श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेन्स, मुम्बई १९३३ ई०. ३६. जैनस्तोत्रसन्दोह, भाग १, संपा०- मुनि अमरविजय के शिष्य मुनि चतुरविजय, प्रका० - श्री साराभाई मणिलाल नवाब, प्राचीन (जैन) साहित्योद्धार ग्रन्थमाला, अहमदाबाद १९३२ ई०. ३७. ज्ञानांजलि (मुनि पुण्यविजयजी अभिवादन ग्रन्थ), सम्पा०- भोगीलाल सांडेसरा तथा अन्य, प्रका०- श्री सागर गच्छ जैन उपाश्रय, बड़ोदरा, १९६२ ई०. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अचलगच्छ का इतिहास ३८. त्रण प्राचीनगुजराती कृतिओ, संपादिका - शार्लोटे क्राउझे (कु० सुभद्रा देवी), प्रका०- गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद १९५१ ई०. ३९. पट्टावलीपरागसंग्रह, सम्पा०-- मुनि कल्याणविजय गणि, प्रका० - श्रीकल्याणविजय शास्त्र संग्रह समिति, जालोर १९६६ ई०. ४०. पट्टावलीसमुच्चय, प्रथम भाग, सम्पा०- मुनि दर्शनविजय, प्रका० - श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, वीरमगाम १९३३ ई०. ४१. पट्टावलीसमुच्चय, द्वितीय भाग, सम्पा०- मुनि ज्ञानविजय ( त्रिपुटी), प्रका०श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, अहमदाबाद १९५० ई०. ४२. प्रतिष्ठालेखसंग्रह, सम्पा० - विनयसागर, प्रका०४३. प्राचीन जैनलेखसंग्रह, भाग २, सम्पा०आत्मानन्द सभा, भावनगर १९२१ ई०. ४४. प्राचीनतीर्थमालासंग्रह, संशोधक- विजयधर्मसूरि, प्रका०- - यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर वि०सं० १९७८. ४५. प्राचीन लेखसंग्रह, सम्पा०० मुनि विद्याविजय, प्रका० - यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर १९२९ ई०. ० सुमति सदन, कोटा १९५३ई०. मुनि जिनविजय, प्रका० - श्री जैन ४६. प्राचीनस्तवनरत्नसंग्रह, भाग १ - २, संशोधक- पंन्यास मुक्ति विमलगणि, प्रका०-श्रेष्ठिवर्य जमनाभाई भगुभाई, अहमदाबाद १९१७-२४ ई०. ४७. बीकानेरजैनलेखसंग्रह, संग्रा० - सम्पा०-अगरचन्द भँवरलाल नाहटा, प्रका०नाहटा ब्रदर्स, कलकत्ता १९५५ ई०. ४८. महामात्य वस्तुपाल का साहित्यमंडल और संस्कृत साहित्य में उसकी देन, लेखक- भोगीलाल ज० सांडेसरा, प्रका० जैन संस्कृति संशोधन मंडल, वाराणसी १९५९ ई०. ४९. महावीरजैनविद्यालय सुवर्णमहोत्सव अंक, भाग १- २, सम्पा०- आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये तथा अन्य, प्रका० - महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई १९६८ ई०. ५०. मालवांचल के जैन लेख, संग्रा० श्री नन्दलाल लोढ़ा, प्रका०- कावेरी शोध संस्थान, उज्जैन १९९५ ई०. ५१. मन्त्राधिराजचिन्तामणि, अनेक जैनाचार्यविरचित जैनस्तोत्रसन्दोह, भाग २, प्रका० - श्री साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद १९३६ ई०. ५२. महाकवि जयशेखरसूरि, भाग १ - २; लेखिका - साध्वी मोक्षगुणाश्री; प्रका०आर्य जय कल्याण केन्द्र, देरासर लेन, घाटकोपर (पूर्व), मुम्बई १९९१ ई०. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २०९ ५३. मेरुतुंगबालावबोधव्याकरण, सम्पा०- आचार्य कलाप्रभसागरसूरि, संशोधक प्रो० नारायण म० कंसारा, प्रकाशक- आर्य जय कल्याण केन्द्र, देरासर लेन, घाटकोपर (पूर्व), मुम्बई १९९८ ई०. ५४. यतीन्द्रसूरिअभिनन्दनग्रन्थ, सम्पा०-पं० लालचन्द भगवानदास गांधी तथा अन्य, प्रका०- श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय संघ, फालना १९५८ ई०. ५५. राधनपुरप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०- मुनि विशालविजय, प्रका०- यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर १९६० ई०. ५६. लींबडीजैनज्ञानभण्डारनी हस्तलिखितप्रतिओनुं सूचीपत्र, सम्पा०-प्रवर्तक कांतिविजय के शिष्य चतुरविजय, प्रका०-आगमोदय समिति, मुम्बई १९२८ई०. ५७. विजयवल्लभसूरिस्मारकग्रन्थ, सम्पा०- भोगीलाल सांडेसरा तथा अन्य, प्रका०- महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई १९५६ ई०. ५८. विज्ञप्तिलेखसंग्रह, सम्पा०- मुनि जिनविजय, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई १९६० ई०. ५९. विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, सम्पा०-मुनि जिनविजय, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई १९६१ ई०. ६०. श्रीप्रतिमालेखसंग्रह, सम्पा०- दौलतसिंह लोढ़ा, प्रका०- यतीन्द्र साहित्य सदन, धामणिया १९५५ ई०. ६१. श्रीप्रशस्तिसंग्रह, सम्पा०- अमृतलाल मगनलाल शाह, प्रका०- श्री देशविरति धर्माराजक समाज, अहमदाबाद वि०सं० १९९३. ६२. श्रीस्वर्णगिरिजालोर, लेखक- श्री भंवरलाल नाहटा, प्रका०- प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर एवं बी०जे० फाउण्डेशन, कलकत्ता १९९५ ई०. ६३. शत्रुञ्जयगिरिराजदर्शन, मुनि कञ्चनसागर, प्रका०- श्री आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, कपडवज १९८२ ई०. ६४. शत्रुञ्जयवैभव, सम्पा०-मुनि कान्तिसागर, प्रका०- कुशल संस्थान, जयपुर १९९० ई०. ६५. शासनप्रभावकश्रमणभगवंतो, भाग १-२, सम्पादक- श्री नन्दलाल देवलुक, प्रका०- श्री अरिहन्त प्रकाशन, भावनगर १९९२ ई०. ६६. समग्रजैनचातुर्माससूची, वर्ष १९९७-२०००, सम्पा०- श्री बाबूलाल जैन 'उज्जवल', मुम्बई १९९७-२०००. ६७. हिन्दीजैनसाहित्य का बृहद्इतिहास, लेखक-शितिकंठ मिश्र, भाग १-४, प्रका०-पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी १९८७-९८ ई०. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अचलगच्छ का इतिहास 68. 69. 70. 71. 72. Aspects of Early Jainism, by Jai Prakash Singh, Banaras Hindu University, Varanasi 1972 A.D. Aspects of Jainology, Vol. II, Pt. BecharDas Dosi Commemoration Volume, Editors, Prof. M.A. Dhaky & S.M. Jain, P.V. Research Institute, Varanasi 1989 A.D. Aspects of Jainology, Vol. III, Pt. Dalsukha Bhai Malvania Felicitation Volume, Editors : Prof. M.A. Dhaky & S.M. Jain, P.V. Research Institute, Varanasi 1991 A.D. Aspects of Jainology, Vol. V., Shri Svetambar Şthanakavasi Jaina Heraka Jayanti Seminar Volume, Editors, Prof. S.M. Jain and Dr. Ashok Kumar Singh, Varanasi 1994 A.D. Aspects of Jainology, Vol. 7, Bhupendra Natha Jain, Felicitation Volume, Ed. Prof.S.M. Jain & Others, Parshwanatha Vidyapitha, Varanasi 1998 A.D. A Descripts Catalogue of Manuscripts in the Jaina Bhandaras at Pattan, Vol. 1, Ed. C.D. Dalal, G.O.S. No. LXXVI, Baroda 1937 A.D. Ancient Jain Hymns, Ed. Charlote Krause, Scindia Oriental Series, No. 2. Ujjain 1952 A.D. Catalogue of Gujarati Mss:Muni Shree Punya VijayJi's Collection, Ed. Vidhatri Vora, L.D. Series No. 71, Ahmedabad 1978 A.D. Catalogue of Palm-Leaf Mss in the Shanti Natha Jaina Bhandar Cambay, Part I, II, Ed. Muni Shree Punya Vijaya, G.O.S. No. 139, 149, Baroda 1962-66 A.D. Catalogue of Sanskrit & Prakrit Mss: Muni Shree Punya VijayaJi's Collection, part I-III; Acarya Vijayadeva Suri and Acarya Khanti Surie's Collection, Part IV, Ed.- A.P. Shah, Ahmedabad 1963-68 A.D. 73. 74. 75. 77. 78. Descriptive Catalogue of Government Collections of Manuscripts deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २११ XVII-XIX, Ed. H.R. Kapadia, Poona 1935-1977 A.D. 79. Detailed (First) report of Operations in search of Sanskrit Mss in Bombay Circle, April 1882 to March 1883, Ed. P. Peterson, Bombay, 1883. 80. Second report of Operations in search of Sanskrit Mss in Bombay Circle, April 1883 to March 1884, Ed. P. Peterson, Bombay, 1884. 81. Third report of Operations in search of Sanskrit Mss in Bombay Circle, April 1884 to March 1886, Ed. P. Peterson, Bombay, 1886. 82. Fourth report of Operations in search of Sanskrit Mss in Bombay Circle, April 1886 to March 1892, Ed. P. Peterson, Bombay, 1894. 83. Fifth report of Operations in search of Sanskrit Mss in Bombay Circle, April 1892 to March 1895, Ed. P. Peterson, Bombay, 1896. 84. Sixth report of Operations in search of Sanskrit Mss in Bombay Circle, April 1895 to March 1898, Ed. P. Peterson, Bombay, 1899. 85. History of Jaina Monachism, By S.B.Deo, Published by Decan College Postgraduate and Research Institute, Poona 1956 A.D. 86. Political History of Northern Indian from Jaina Sources (C. 650 A.D. to 1300 A.D.) by G.C. Chaudhari, Sohan Lal Jaina Dharma Prasarak Samiti, Amritsar, 1963 A.D. 87. New Catalogue of Prakrit & Sanskrit, Mss : Jesalmer Collection, Ed. Muni Punya Vijaya, L.D. Series No. 36, Ahmedabad, 1972 A.D. 88. The Jain Inscriptions of Ahmedabad, Ed., Praveenchandra, C. Parikh and Bharti Shelat, Publisher-B.J. Institute of Learning and Research, Ahmedabad, 1997 A.D. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पत्र-पत्रिकायें १. जैनसत्यप्रकाश, अहमदाबाद. २. जैन साहित्यसंशोधक, पूना. ३. निर्ग्रन्थ, अहमदाबाद. श्रमण, वाराणसी. संस्कृतिसन्धान, वाराणसी. ४. सम्बोधि अहमदाबाद. सामीप्य, अहमदाबाद. बड़ोदरा. स्वाध्याय, ५. ६. ७. ८. अचलगच्छ का इतिहास Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक-परिचय पद डॉ. शिवप्रसाद जन्म : 6 मार्च 1957 जन्मस्थानः वाराणसी शिक्षा एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व), पी-एच्.डी. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. : पूर्व रिसर्च एसोसिएट, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी. सम्पादक : श्रमण लेखन: जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन (शोधप्रबन्ध), प्रकाशित... अचलगच्छ का इतिहास, प्रकाशित. प्रकाशित शोध-निबन्ध : 60 प्रो.सागरमल जैन,प्रो. एम.ए. ढ़ांकी, साहित्य महारथी श्री भंवरलालजी नाहटा, महोपाध्याय विनयसागर आदि के सानिध्य में विभिन्न श्वेताम्बर गच्छों के इतिहास का लेखन कार्य. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our Important Publications 1. Studies in Jaina Philosophy Dr. Nathamal Tatia 100.00 2. Jaina Temples of Western India Dr. Harihar Singh 200.00 3. Jaina Epistemology Dr. I.C. Shastri 150.00 4. Concept of Pancasila in Indian Thought Dr. Kamla Jain 50.00 5. Concept of Matter in Jaina Philosophy Dr.J.C. Sikdar 150.00 6. Jaina Theory of Reality Dr.J.C. Sikdar 150.00 7. Jaina Perspective in Philosophy & Religion Dr. Ramji Singh 100.00 8. Aspects of Jainology (Complete Set : Vols. 1 to 7) 2200.00 9. An Introduction to Jaina Sadhana Prof. Sagarmal Jain 40.00 10. Pearls of Jiana Wisdom Dulichand Jain 120.00 11. Scientific Contents in Prakrit Canons Dr. N.L. Jain 300.00 12. The Heritage of the Last Arhat : Mahavira Dr. C. Krause 20.00 13. The Path of Arhat T.U. Mehta 100.00 14. Multi-Dimensional Application of Anekantavada Ed. Prof. S.M. Jain & Dr. S.P. Pandey 500.00 15. The World of Non-living Dr. N.L. Jain 400.00 16. अष्टकप्रकरण अनु.-डॉ.अशोक कुमार सिंह 200.00 17. जैन साहित्य का बृहद इतिहास (सम्पूर्ण सेट सात खण्ड) 630.00 18. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (सम्पूर्ण सेट चार खण्ड) 760.00 -19. जैन प्रतिमा विज्ञान डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी 150.00 20. महावीर और उनके दशधर्म प्रो. भागचन्द्र जैन 80.00 21. वज्जालगं (हिन्दी अनुवाद सहित) पं. विश्वनाथ पाठक 80.00 22. प्राकृत हिन्दी कोश सम्पा .-डॉ. के.आर. चन्द्र 400.00 23. जैन धर्म और तान्त्रिक साधना प्रो. सागरमल जैन 350.00 24. गाथा सप्तशती (हिन्दी अनुवाद सहित) पं. विश्वनाथ पाठक 60.00 25. सागर जैन-विद्या भारती (तीन खण्ड) प्रो. सागरमल जैन 300.00 26. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण प्रो. सागरमल जैन 60.00 27. भारतीय जीवन मूल्य प्रो. सुरेन्द्र वर्मा 75.00 28. नलविलासनाटकम् सम्पा.- डॉ. सुरेशचन्द्र पाण्डे 60.00 29. अनेकान्तवाद और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंह 150.00 30. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन डॉ. अशोक कुमार सिंह 125.00 पञ्चाशक-प्रकरणम् (हिन्दी अनुवाद सहित) अनु.- डॉ. दीनानाथ शर्मा 250.00 32. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय 100.00 जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ हीराबाई बोरदिया 50.00 34. मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन 160.00 35. भारत की जैन गुफाएँ डॉ. हरिहर सिंह 150.00 36. महावीर की निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श भगवतीप्रसाद खेतान 65.00 37. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन डॉ. फूलचन्द जैन 80.00 38. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. शिवप्रसाद 100.00 39. बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा डॉ.धर्मचन्द्र जैन 200.00 40. अचलगच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद 300.00 Jain Parswanatha Vidyapiphate Personalisecon221005 IMD amelibrary.org