SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर अस्तित्त्व में आये अनेक गच्छ जहां विलुप्त हो गये, वहीं अंचलगच्छ आज भी न केवल विद्यमान है, बल्कि उत्तरोत्तर उसके प्रभाव में वृद्धि ही होती जा रही है, जिसका श्रेय इस गच्छ के क्रियासम्पन्न मुनिजनों को है। इसी गौरवशाली अचलगच्छ का सम्यक्, प्रामाणिक और सुव्यवस्थित विवरण प्रस्तुत पुस्तक में सनिहित है। इस अवसर पर संक्षेप में इस ग्रन्थ के प्रारूप और इसमें विवेचित सामग्री पर प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। किसी भी गच्छ के इतिहास के अध्ययन के मूल स्रोत के रूप में उससे सम्बद्ध रचनाकारों के कृतियों में दी गयी प्रशस्तियाँ, उनकी प्रेरणा से या स्वयं उनके द्वारा प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, विवेच्य गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों और सम्बद्ध गच्छ की पट्टावलियों का उपयोग अपरिहार्य है। अचलगच्छ के इतिहास के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात कही जा सकती है। चूंकि यह जीवन्त गच्छों में एक है अत: स्वाभाविक रूप से हमें इस गच्छ के उक्त तीनों प्रकार के साक्ष्य अत्यधिक संख्या में उपलब्ध हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में उन सभी का सम्यक् उपयोग किया गया है। अन्यान्य गच्छों की भाँति अंचलगच्छ (अचलगच्छ) से भी समय-समय पर विभिन्न कारणों से विभिन्न शाखायें अस्तित्त्व में आयीं। इनमें कीर्तिशाखा, गोरक्षशाखा, चन्द्रशाखा, पालितानाशाखा, लाभशाखा और सागरशाखा प्रमुख हैं। सम्भवतः ये सभी शाखायें मूल परम्परा की अनुगामी थीं। अंचलगच्छीय मुनिजनों में शनैः शनैः शिथिलाचार बढ़ता गया और १९वीं शताब्दी में मूलपरम्परा के गच्छनायक श्रीपूज्य कहे जाने लगे और मुनिजन यतियों के रूप में विचरण करने लगे। साध्वाचार का द्रुतगति से ह्रास होने लगा। फिर भी क्रियाशील मुनिजनों की परम्परा पूर्णतया समाप्त न हो सकी। सागरशाखा के यति देवसागर के प्रशिष्य और स्वरूपसागर के शिष्य गौतमसागर जी ने वि०सं० १९४६ में संवेगी दीक्षा लेकर साध्वाचार को पुनर्जीवित किया। गौतमसागर जी के कठोर प्रयासों से इस गच्छ में संविग्नपक्षीय मनिजनों की संख्या बढ़ने लगी और यति परम्परा का प्रभाव कम होने लगा। वि०सं० २००४ में जब अन्तिम श्रीपूज्य जिनेन्द्रसागर जी का निधन हुआ तो उन्हीं के साथ-साथ इस गच्छ के यति-गोरजी की परम्परा भी समाप्त हो गयी। वि० सं० २००८ में संघ ने गौतमसागर जी को आचार्य गच्छनायक (गच्छाधिपति) के रूप में प्रतिष्ठापित किया। उनके निधन के पश्चात् आचार्य गुणसागरजी के कुशल नायकत्व में इस गच्छ का द्रुत गति से विकास प्रारम्भ हुआ और बड़ी संख्या में बालक-पुरुष, बालिकायें एवं महिलाओं ने साधु-साध्वी की दीक्षा ग्रहण की। गच्छाधिपति आचार्य गणसागर जी ने साधु-साध्वियों के चातुर्दिक विकास के लिये उनकी शिक्षा की भी विशेष व्यवस्था की, परिणामस्वरूप आज इस गच्छ के प्राय: सभी साध-साध्वी उच्च शिक्षित हैं और उनमें से कुछ तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् हैं। ऐसे मुनिजनों में आचार्य कलाप्रभसागर जी का नाम अग्रगण्य है। आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003612
Book TitleAchalgaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy