SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो शब्द श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छों में अचलगच्छ (पूर्व प्रचलित नाम विधिपक्ष और अंचलगच्छ) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बृहद्गच्छीय आचार्य जयचन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि०सं० ११६९/ई०स० १११३ में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसके पालन करने से यह गच्छ अस्तित्त्व में आया। अचलगच्छ नाम पड़ने के सम्बन्ध में प्रचलित कथा के अनुसार गूजरेश्वर जयसिंह सिद्धराज ने एक बार पुत्रकामेष्टि यज्ञ प्रारम्भ किया था। वहां सर्पदंश के कारण यज्ञमण्डप में ही गाय की मृत्यु हो गयी। यज्ञ की सफलता के लिये गाय का यज्ञस्थल से जीवित ही बाहर आना अनिवार्य था। इस समस्या के समाधान के लिये राजा ने आर्यरक्षितसूरि से निवेदन किया और आचार्य द्वारा परकायप्रवेशिनीविद्या के प्रयोग से गाय के सजीवन हो कर यज्ञस्थल से बाहर आने पर यज्ञ सफल हो गया। इस प्रकार आचार्य आर्यरक्षितसूरि के स्ववचन पर अचल रहने के कारण सिद्धराज ने उन्हें 'अचल' विरुद प्रदान किया। यह दन्तकथात्मक घटना वि०सं० ११८५-९५ के मध्य घटित हुई बतलायी जाती है। इस प्रकार विधिपक्ष का एक नाम अचलगच्छ प्रचलित हो गया। अंचलगच्छ नाम पड़ने के सम्बन्ध में जो कथा मिलती है उसके अनुसार चौलुक्यनरेश कुमारपाल ने आर्यरक्षितसूरि का यश सुनकर उन्हें अपनी सभा में आमन्त्रित किया। वहां उपस्थित कुडी व्यवहारी नामक श्रावक ने अपने उत्तरीय के एक छोर से भूमि का प्रमार्जन कर आर्यरक्षितसूरि को वन्दन किया और कुमारपाल की जिज्ञासा पर हेमचन्द्राचार्य ने वन्दन की उक्त विधि को शास्त्रोक्त बतलाया जिससे कुमारपाल ने विधिपक्ष को अंचलगच्छ नाम प्रदान किया। यह घटना वि०सं० १२१३/ई०स० ११५७ में हुई, ऐसा उल्लेख मिलता है। दोनों घटनाओं में द्वितीय घटना, जो कुमारपाल से सम्बन्धित है, वह सत्य के निकट प्रतीत होती है, क्योंकि प्राचीन प्रशस्तियों, शिलालेखों-प्रतिमालेखों आदि से भी अंचलगच्छ नाम की ही पुष्टि होती है, अचलगच्छ की नहीं। इस प्रकार अचलगच्छ नाम बाद में पड़ा प्रतीत होता है। वर्तमान में इस गच्छ अनुयायी श्रमण और श्रावक अलबत्ता अचलगच्छ शब्द का प्रयोग करने लगे हैं, अंचलगच्छ शब्द का नहीं। इस गच्छ में जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसिंहसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, धर्ममूर्तिसूरि, कल्याणसागरसूरि आदि प्रभावक और विद्वान् जैनाचार्य और मुनिजन हो चुके हैं। जैन-परम्परा में समय-समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003612
Book TitleAchalgaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy