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________________ πίν अचलगच्छ का इतिहास है । जहाँ तक अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का प्रश्न है वह उत्तरपश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, मुम्बई और कच्छ में आज अधिक प्रभावी है। कच्छी समुदाय जो आज जैन समाज का सम्पन्नवर्ग है, अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का ही अनुयायी है। कच्छी-व्यापारियों के सम्पूर्ण दक्षिणी-पश्चिमी भारत और विदेशों में बस जाने के कारण आज इस गच्छ में साधु-साध्वियों के अपेक्षाकृत अल्पसंख्या में होने पर भी यह अधिक प्रभावी है; क्योंकि जैन समाज का एक समृद्ध एवं सम्पन्न वर्ग उनका अनुयायी है। अंचलगच्छ (अचलगच्छ) के इतिहास के सम्बन्ध में इस गच्छ की दो पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं१. अंचलगच्छनी मोटी पट्टावली एवं २. विधिपक्षगच्छीय पट्टावली - (संस्कृत) । इनके अतिरिक्त श्रीपार्श्व द्वारा लिखित अंचलगच्छ दिग्दर्शन (गुजराती) और अंचलगच्छप्रतिष्ठालेखसंग्रह तथा आर्यकल्याणगौतमस्मृतिग्रन्थ भी इस गच्छ के इतिहास के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं । किन्तु ये सभी ग्रन्थ मुख्यतः गुजराती भाषा एवं लिपि में प्रकाशित हैं। हिन्दी भाषा में अभी तक कोई ऐसी कृति नहीं थी, जो इस गच्छ का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करती हो। डॉ० शिवप्रसाद ने अपनी शोधोपाधि (पी-एच्०डी० ) को प्राप्त करने के पश्चात् जैनधर्म के इतिहास से सम्बन्धित किसी विधा पर शोधकार्य करने की भावना व्यक्त की । एतदर्थ पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से मैंने उन्हें श्वेताम्बर गच्छों के इतिहास पर कार्य करने का निर्देश दिया गया। उन्होंने जैन इतिहास के वरिष्ठतम विद्वान् प्रो० एम० ए० ढ़ांकी एवं मुझसे मार्गदर्शन लेते हुए यह कार्य प्रारम्भ किया था । प्रस्तुत कृति उसी बृहद्काय योजना का एक अंश है। प्रस्तुत कृति का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें परम्परागत श्रद्धाजनित अहोभाव से बचते हुए विशुद्ध रूप से अभिलेखों एवं ग्रन्थ प्रशस्तियों के आधार पर इन गच्छों के इतिहास को संकलित किया गया है अतः इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद है। इसमें पट्टावलियों का उपयोग मात्र उपलब्ध साक्ष्यों की पुष्टि के निमित्त ही किया गया है। हो सकता है कि भावनाप्रधान श्रद्धालुजनों को इसमें आचार्यों के सम्बन्ध में चाहे विस्तृत विवरण उपलब्ध न हो, किन्तु जो भी सूचनाएं इसमें उपलब्ध हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्णतः प्रामाणिक हैं । प्रस्तुत कृति के प्रथम अध्याय में लेखक ने उन ऐतिहासिक स्रोतों की चर्चा की है, जिनके आधार पर प्रस्तुत कृति तैयार की गई है। दूसरे अध्याय में अंचलगच्छ की मुख्य धारा के आचार्यों एवं मुनिजनों के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। अग्रिम अध्यायों में अंचलगच्छ की विभिन्न शाखाओं की क्रमशः चर्चा की गई है। प्रस्तुत कृति का अन्तिम अध्याय अंचलगच्छीय मुनिजनों द्वारा रचित कृतियों का निर्देश करता है। प्रस्तुत कृति में दी गई जानकारियाँ यद्यपि सूत्रशैली में दी गई हैं, फिर भी ये अंचलगच्छ (अचलगच्छ) के इतिहास को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ हैं। वस्तुतः डॉ० शिवप्रसाद ने गच्छों के इतिहास के मूल स्रोतों के महासागर में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003612
Book TitleAchalgaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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