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________________ भूमिका एवं विकसित हुई, किन्तु दसवीं शती तक भारत में नामशेष हो गई और भारत में मात्र जैन/निर्ग्रन्थ धारा ही बची रही। निर्ग्रन्थों में हमें सर्वप्रथम पापित्य और ज्ञातृपुत्रीय ये दो वर्ग मिलते हैं, किन्तु ज्ञातृपुत्रीय श्रमणों बढ़ते हुए प्रभाव से महावीर के कुछ काल बाद पार्थापत्य श्रमण ज्ञातृपुत्रीय श्रमणों में अर्थात् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गये। महावीर के संघ ने पार्श्वनाथ को महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर के रूप में और उनके साहित्य को पूर्व साहित्य के रूप में मान्यता देकर अपने में आत्मसात् कर लिया। इस प्रकार निर्ग्रन्थों की दो प्रतिस्पर्धी परम्पराएं मिलकर एक हो गईं। यह तो स्पष्ट है कि गोशालक जो कुछ समय तक अपने को महावीर का शिष्य मानता था, वैचारिक मतभेदों के कारण उनसे अलग होकर आजीवक परम्परा में तीर्थङ्कर के समरूप प्रतिष्ठित हो गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि गोशालक और महावीर के बीच हुए मतभेद को जैन परम्परा में विशेष महत्त्व नहीं दिया गया; क्योंकि यह घटना महावीर के कैवल्य प्राप्ति और संघ-स्थापना के पूर्व ही हो चुका था। अत: जैन परम्परा में संघ भेद के रूप में इसे मान्यता नहीं मिली। जैनधर्म श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधि है और श्रमण संस्कृति ने भारत को संघीय साधना की एक ऐसी विशिष्ट पद्धति प्रदान की है जिसमें संघ सर्वोपरि था। वह तीर्थङ्कर या अनुशास्ता के लिए भी वन्दनीय है। तीर्थङ्कर भी 'नमो तित्थस्स' कहकर सर्वप्रथम संघ की वन्दना करता है। जैनधर्म में भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में जो विभिन्न गण, शाखाएं, कुल, अन्वय और गच्छ अस्तित्व में आये, उसके मुख्यत: दो कारण रहे हैं--- १. संघीय व्यवस्था एवं अनुशासन और २. विचार और आचार सम्बन्धी मतभेद। यद्यपि वैयक्तिक अहं, पदलिप्सा और पारस्परिक वैमनस्य भी इनके मूल में रहे होंगे; किन्तु इनके निमित्त से जो भी संघभेद हुए हैं वे भी स्पष्टत: इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं। सभी अपने संघभेद का कारण आचार-विचार सम्बन्धी मतभेद या संघीय अनुशासन में सुदृढ़ता ही बताते हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि व्यवस्था एवं अध्ययन की दृष्टि से महावीर ने स्वयं अपने शिष्यों को ९ गणों में विभाजित कर उन्हें ११ गणधरों के अधीन कर दिया था। ज्ञातव्य है कि जहाँ प्रथम सात गणधरों को स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने गणों का दायित्व सौंपा गया था वहीं अन्तिम गणधरों में दो-दो गणधरों को संयुक्त रूप से गण के संचालन का भार दिया गया था। वस्तुत: भगवान् महावीर प्रयोगधर्मी थे, उन्होंने अपने संघ में एकल अनुशासन और संयुक्त अनुशासन- दोनों ही व्यवस्थाओं को स्थान दिया था। भगवान् महावीर द्वारा दी गई यह व्यवस्था वस्तुत: संघीय अनुशासन और संघीय व्यवस्था की दृष्टि से एक विभाजन तो था; किन्तु यह संघभेद नहीं था। भगवान् महावीर के जीवन-काल में ही संघ भेद के प्रयत्न प्रारम्भ हो गये थे। संघ भेद, गण भेद या गच्छ भेद को निकृष्टतम कार्य माना गया था और ऐसे व्यक्ति के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त अर्थात् संघ से निष्कासन जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003612
Book TitleAchalgaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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