________________
तृतीय अध्याय अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और
उनका इतिहास
अचलगच्छ-कीर्ति शाखा
अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखाओं में कीर्ति शाखा भी एक है। प्राप्त विवरणानुसार जयकीर्तिसूरि के शिष्य लावण्यकीर्ति से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी।१ यह बात धर्ममूर्तिसूरिकृत पट्टावली (रचनाकाल वि० सं० १६१७) से ज्ञात होती है। जयकीर्तिसूरि अंचलगच्छ के १२वें पट्टधर थे और उनका समय विक्रम संवत् की १५वीं शती का उत्तरार्ध सुनिश्चित है, ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि १५वीं शती के अन्तिम चरण या १६वीं शती के प्रथम चरण में अंचलगच्छ की यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इससे सम्बद्ध न तो कोई पट्टावली मिलती है और न ही कोई प्रतिमालेखादि ही। इसी प्रकार इस शाखा से सम्बद्ध मुनिजनों द्वारा रचित कोई कृति भी नहीं मिली है, तथापि उनके द्वारा प्रतिलिपि की गयी कृतियों की प्रशस्तियां मिली हैं, जिनसे इस शाखा के कुछ मुनिजनों के नाम और उनके पूर्वापर सम्बन्ध भी निर्धारित हो जाते हैं। इन्हीं सीमित साक्ष्यों के आधार पर अंचलगच्छ की इस शाखा के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत है।
___ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आचार्य जयकीर्तिसूरि के शिष्य लावण्यकीर्ति से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। ऐसा प्रतीत होता है कि लावण्यकीर्ति के कीर्ति नामान्त होने से उनकी शिष्य-सन्तति कीर्तिशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई होगी। लावण्यकीर्ति द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही उनके द्वारा प्रतिष्ठापित कोई जिन प्रतिमा ही प्राप्त हुई है। इसी प्रकार इनके पट्टधर कौन थे; इस बारे में भी कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।
वि०सं० १६२५ में लिखी गयी कल्पसूत्रवृत्ति की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि उक्त ग्रन्थ पं० क्षेगकीर्तिगणि को एक श्रावक परिवार द्वारा प्रदान की गयी। उक्त पुष्पिका में क्षेमकीर्तिगणि के गुरु पं० भावकीर्तिगणि और प्रगुरु हर्षवर्धनगणि का भी नाम मिलता है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org