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________________ भूमिका हैं। उत्तर भारत में भद्रबाहु के शिष्य गोदास से गोदासगण की ये चारों शाखाएँ कालक्रम से नामशेष हो गई गयीं। बंगाल में बटगोहली से प्राप्त काशी की पंचस्तूपान्वय का एक अभिलेख प्राप्त होता है; किन्तु गोदासगण की चारों शाखाओं का कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे ऐसा लगता है कि उत्तर भारत में भद्रबाहु की परम्परा कालान्तर में विलुप्त हो गई। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में गोदासगण और उसकी शाखाओं को छोड़कर जिन गणों, शाखाओं और कुलों के उल्लेख हैं, वे सभी स्थूलिभद्र की परम्परा से हैं। कल्पसूत्र की इस 'स्थविरावली' से यह भी ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में निर्ग्रन्थ संघ में गण, शाखा और कुल के रूप में ही विभाजन था। गण शाखाओं में और शाखाएँ कुलों में विभाजित होती थीं। कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में इन सभी गणों, शाखाओं और कुलों का विस्तृत उल्लेख मिलता है जिनकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है।अत: इन गणों, शाखाओं और कुलों के अस्तित्व में अब सन्देह की कोई सम्भावना भी नहीं है। आर्य सुहस्ति के शिष्यों में आर्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध आचार्य हुए। पट्टावलियों के अनुसार इन्होंने एक करोड़ सूरिमन्त्र का जप किया अत: इनसे कोटिक गण उत्पन्न हुआ। किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि वस्तुत: कोटिकगण का नामकरण बंगाल में स्थित कोटिवर्षनगर के आधार पर होना चाहिए। सम्भावना है कि आर्य भद्रबाहु के शिष्य गोदास से जो गोदासगण निकला था, उसी एक शाखा कोटिवर्षीय थी। यही कोटिवर्षीय शाखा बाद में कोटिकगण के रूप में परिवर्तित हो गयी होगी। कोटिकगण का उल्लेख मथुरा के अभिलेखों एवं कल्पसूत्र में 'स्थविरावली' में है। इसी कोटिकगण में आर्य वज्र हुए। वज्र से कोटिकगण की वज्जी (वज्री) शाखा निकली। इनके शिष्य आर्य वज्रसेन हुए। आर्य वज्रसेन के चार प्रमुख शिष्य हुए– नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। इनसे नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर- ये चार कुल निकले। यद्यपि इस मान्यता का उल्लेख परवर्ती पट्टावलियों में प्राप्त होता है, परन्तु कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में आर्यव्रज के तीन शिष्यों- आर्य वज्रसेन, आर्यपद्म और आर्यरथ का उल्लेख है। पुन: आर्य वज्रसेन से आर्यनागिल, आर्यपद्म से आर्यपद्मा और आर्यरथ से आर्यजयन्ती शाखा निकलने का उल्लेख है। इसी स्थविरावली में ही अन्यत्र विद्याधर गोपाल से विद्याधरी और आर्य वज्रसेन से नाइली शाखा निकलने की चर्चा है। यही विद्याधरशाखा और नाइली शाखा आगे चलकर विद्याधर कुल और नागेन्द्र कुल के रूप में परिवर्तित हो गयी। हम देखते हैं कि भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग १४०० वर्षों बाद तक उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में गण, शाखा और कुल का ही व्यवहार होता रहा। हमें ईसा की नवी-दसवीं शती तक के किसी भी अभिलेख अथवा किसी भी ग्रन्थ प्रशस्ति में गच्छ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। लगभग ईसा की दसवीं शती से हमें गच्छ शब्द का प्रयोग मिलने लगता है। वस्तुत: गच्छ शब्द गमन अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003612
Book TitleAchalgaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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