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अचलगच्छ का इतिहास
का बोधक है, जो साधु साथ-साथ विहार या विचरण करते थे, उनका समूह गच्छ कहलाता था। इसके विपरीत एक आचार्य की शिष्य परम्परा कुल के नाम से अभिहित होती है। चूंकि एक ही आचार्य के शिष्य प्रायः साथ-साथ विहार करते हैं अतः वे कुल ही आगे चलकर ११वीं - १२वीं शताब्दी से गच्छ नाम से अभिहित होने लगे । चन्द्रकुल से चन्द्र गच्छ, नागेन्द्र कुल से नागेन्द्र गच्छ और विद्याधर कुल से विद्याधर गच्छ और निवृत्ति कुल से निवृत्ति गच्छ अस्तित्व में आये।
बृहद्गच्छीय आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि० सं० ११६९ / ई० स० १११३ में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण उनका समुदाय विधिपक्ष कहलाया। इसके अंचल गच्छ नामकरण का मूल कारण यह रहा कि इस परम्परा ने श्रावकों के लिए धार्मिक क्रिया-कलापों में मुख वस्त्रिका एवं रजोहरण के स्थान पर उत्तरीय वस्त्र के एक छोर अर्थात् आंचल से ही काम चलाने का निर्देश किया था।
अंचलगच्छ की उत्पत्ति के साथ जो क्रियोद्धार की घटना वर्णित है उसके सम्बन्ध में क्वचित् जानकारी आवश्यक है। वस्तुतः भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में ईस्वी सन् की पाँचवीं शती के पश्चात् वनवास के स्थान पर चैत्यवास अर्थात् मुनियों द्वारा चैत्यों में निवास की प्रथा प्रारम्भ हो गयी थी। जिसके परिणामस्वरूप आगे चलकर दिगम्बर परम्परा में भट्टारक संस्था और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यति परम्परा का विकास हुआ। ये यति गण न केवल चैत्यों में निवास करते थे अपितु चैत्यों के नाम पर सम्पत्ति का संग्रह करने के साथ-साथ अपने आचार एवं व्यवहार में सुविधावादी या शिथिलाचारी हो गये थे। इस शिथिलाचार के विरुद्ध समय-समय पर आवाजें उठीं । दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द (लगभग ६ - ७वीं शती) ने और श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र (८वीं शती) ने इसका घोर विरोध किया। इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्रसूरि का सम्बोधप्रकरण नामक ग्रन्थ पठनीय है। फिर भी जैन संघ में इस चैत्यवास की जड़ें इतनी गहरी पैठ चुकी थीं कि इन विरोधों के बावजूद भी यह परम्परा वर्तमान युग तक जीवित रही है। फिर भी समय-समय पर शुद्धाचार को पालने लिए क्रियोद्धार के प्रयत्न भी होते रहे और उसके परिणामस्वरूप सुविहितमार्ग, विधिपक्ष आदि का जन्म हुआ। चैत्यवास के विरोध में प्रथम प्रयत्न के फलस्वरूप लगभग ग्यारहवीं शती में खरतरगच्छ का जन्म हुआ और दूसरे प्रयत्न के फलस्वरूप वि० सं० १९६९ में विधिपक्ष अस्तित्व में आया। ऐसे ही प्रयास के फलस्वरूप समय-समय पर विभिन्न गच्छ और उनकी शाखायें अस्तित्त्व में आयीं। अंचलगच्छ के जन्म के समय यह यति परम्परा इतनी प्रभावशाली थी कि अंचलगच्छ के संस्थापक आर्यरक्षितसूरि स्वयं भी विजयचन्द्र मुनि के रूप में इसी यति परम्परा में दीक्षित हुए थे। कालान्तर में गुरु की आज्ञा प्राप्त होने पर क्रियोद्धार करके शुद्ध मुनि आचार का पालन करने लगे। अंचलगच्छ की यह परम्परा
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