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अचलगच्छ का इतिहास
अंचलगच्छ का नायकत्व ग्रहण किया। वि०सं० १८८१ में इनके उपदेश से संभवनाथ जिनालय, सूरत में अजितनाथ की धातप्रतिमा की प्रतिष्ठा की गयी जो आज भी वहाँ विद्यमान है। १०६ वि०सं० १८८६ में शत्रुजयगिरि पर इनके उपदेश से एक जिनप्रासाद का निर्माण हुआ।१०७ मुम्बई का प्रसिद्ध अनन्तनाथजिनालय वि० सं० १८८९ में निर्मित हुआ। यहाँ प्रतिष्ठा के समय राजेन्द्रसागरसूरि जी विद्यमान थे। १०८
इनके समय में अंचलगच्छीय मुनिजनों में श्रमणाचार लुप्तप्राय हो गया था और यति-गोरजी (गुरुजी) लोग अपने-अपने स्थानों पर पोषाल बनवाकर स्थायी रूप से रहने लगे और ज्योतिष, वैद्यक, भूस्तर, गणित, व्याकरण आदि विषयों में निपुण होकर समाज से स्थायी रूप से जुड़ गये।१०९
__राजेन्द्रसागरसूरि के निधन के पश्चात् वि० सं० १८९२ में मुक्तिसागरसूरि अंचलगच्छ के २५वें पट्टधर बने। इनके उपदेश से वि०सं० १८९३ में श्रेष्ठी खीमचन्द्र मोतीचन्द्र ने शत्रुजयतीर्थ पर ढूंक का निर्माण कराया। इस अवसर पर ७०० जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका सम्पन्न हुई। ११० कच्छ प्रान्त के नलीया नामक स्थान पर श्रेष्ठी नरसीनाथा ने चन्द्रप्रभ जिनालय का निर्माण कराया और वि०सं० १८९७ में मुक्तिसागरसूरि की निश्रा में उसमें प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी।१११ मुम्बई स्थित अजितनाथ जिनालय के निर्माण और विकास में उक्त श्रेष्ठी का विशिष्ट योगदान रहा। पट्टावलियों के अनुसार ५७ वर्ष की आयु में वि०सं० १९१४ में मुक्तिसागरसूरि का देहान्त हुआ तत्पश्चात् रत्नसागरसूरि अंचलगच्छ के नायक बने। रत्नसागरसूरि
इनका जन्म वि०सं० १८९२ में कच्छ के भोथारा ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शाह लाडण और माता का झूमाबाई था। वि०सं० १९०५ में इन्होंने यति दीक्षा ली और वि०सं० १९१४ में मुक्तिसागरसूरि के निधनोपरान्त आचार्य और गच्छनायक बने। इनकी प्रेरणा से कच्छी ओसवाल जाति के श्रेष्ठी केशव जी नायक ने अनेक धार्मिक कृत्यों का आयोजन किया। वि०सं० १९१४ में उक्त श्रेष्ठ ने कच्छ प्रान्त के कोठारा नामक स्थान पर वेलजी मालू और शिवजी नेणसी के साथ मिलकर एक उत्तुंग जिनालय का निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया और निर्माण कार्य पूर्ण होने पर शांतिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करायी। इस प्रतिष्ठा के अवसर पर उक्त तीनों श्रेष्ठियों ने मुम्बई से शत्रुञ्जय का संघ निकाला और वहाँ गिरिराज पर दो ट्रंक और ग्राम में कोट के बाहर धर्मशाला बनवाने के लिये भूमि क्रय कर वहाँ शिलान्यास/मुहुर्त सम्पन्न कराया। इस अवसर पर रत्नसागरसूरि ने नवनिर्मित ७ हजार जिनबिम्बों की अंजनशलाका सं. १९३१ माघ सुदि ७ गुरुवार को सम्पन्न की। यद्यपि सात हजार जिनप्रतिमाओं की अंजनशलाका एक साथ होने की बात आश्चर्यजनक लगती है, पर ऐसा होना असम्भव
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