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अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास
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जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं रत्नसागर के सभी शिष्यों में से मेघसागर की ही शिष्य-परम्परा लम्बे समय तक चली। इस परम्परा के अन्तिम यति गौतमसागर जी
संवेगी दीक्षा ग्रहण कर अंचलगच्छ को एक नया जीवन प्रदान किया । २० वीं शताब्दी में इस गच्छ में जितने भी विद्वान् मुनिजन हुए हैं और इस गच्छ का जो भी प्रभाव आज है, उसका श्रेय निश्चितरूपेण आचार्य गौतमसागर जी और उनकी सुयोग्य शिष्य - परम्परा को है ।
सन्दर्भ :
१. सोमचन्द्र धारसी, सम्पा० अंचलगच्छम्होटीपट्टावली (गुजराती भाषान्तर), भावनगर वि० सं० १९८५, पृ० ३९०-९१.
श्रीपार्श्व, अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६१.
सतरसो वीस साले गुरुजी | कपडवंजनी मांहे ।। हो० ।। पोस दसम दिवसे सुभध्याने । पाये सरग उछांहें ।। हो० ॥
अंचलगच्छम्होटीपट्टावली, पृ० ३९१.
३.
अंचलगच्छदिग्दर्शन, पृ० ३६२.
४-५. मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ४, द्वितीय संशोधित
संस्करण, पृ० ६६.
६. H.D. Velankar, Ed. Jinaratnakosha, Poona 1944 A.D., p. 434.
श्रीपार्श्व, पूर्वोक्त, पृ० ४०५.
Jinaratnakosha, p. 299.
७.
८. Ibid, p. 310.
यहां श्री वेलणकर ने विनयसागर के स्थान पर विनीतसागर लिखा है, जो भ्रामक है।
A. P. Shah, Ed. Catalogue of Samskrit & Prakrit Mss. Muniraj Shree PunyavijayaJis Collection, Part II, L.D. Series No. 5, Ahmedabad 1965 A.D., No. 5137, p. 659.
१०. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग १, द्वितीय संशोधित संस्करण, पृ० ३६१. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ० ४०२.
११. सं० १६९७ मार्गशीर्ष शुक्ल ३ गुरुवासरे उपाध्याय श्रीविनयसागरगणेः शिष्य सौभाग्यसागरैः रलेखीयं प्रशस्तिः । ।
श्रीपार्श्व, सम्पा० अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक ३१२.
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