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अचलगच्छ का इतिहास ४. १८४३ वैशाखसुदि ६ सोमवार वही, लेखांक ८४७ ५. १८४३ श्रावण वदि १२
वही, लेखांक ८४८. इनके समय में शेखनो पाडो, अहमदाबाद में पार्श्वनाथ का एक जिनालय बनवाया गया।९९ इस जिनालय में १८वीं शताब्दी में निर्मित श्याम पाषाण की एक चौबीसी प्रतिमा है। वि०सं०१८४२ में मांडल में इनके समय में एक उपाश्रय का भी निर्माण कराया गया।१००
कीर्तिसागरसूरि के पट्टधर पुण्यसागरसूरि हुए। वि०सं० १८४३ में इन्होंने गच्छभार संभाला। इनके द्वारा रचित शंखेश्वरपार्श्वनाथस्तवन नामक एक कृति प्राप्त होती है।१०१ सम्भवनाथ जिनालय, सूरत में इनके समय के दो लेख मिलते हैं जो वि०सं० १८४४ वैशाख सुदि १३ और वि०सं० १८४६.....वदि ४ शुक्रवार के हैं।१०२ इनके उपदेश से वि०सं० १८६० में शत्रुजय के ऊपर पंचपाण्डवमंदिर के पीछे सहस्रकूट का निर्माण कराया गया। वि० सं० १८६१ में इन्हीं के उपदेश से शत्रुजय पर इच्छाकुण्ड का निर्माण हुआ। यह बात वहाँ एक शिला पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होती है। इस लेख की रचना इनके शिष्य धनसागरगणि ने की थी। यह बात उक्त लेख से स्पष्ट है।१०३ श्रीपार्श्व ने लेख का मूल पाठ दिया जो इस प्रकार है
।।ॐ।। श्री गणेशाय नमः स्वस्तिश्री रिद्धि वृद्धि विर्योभ्युदयश्रिमद्विम कांति महिमंडल नृप विक्रमार्क समयात् संवत् १८६१ वर्षे श्रीमत् शालिवाहन नृप शत: शाके १७२६ प्रवर्त्तमाने धातानाम्नि संवत्सरे याभ्यां यनाश्रिते श्री सूर्ये हेमंत त्रै महामांगल्य अदमासोत्तम पुण्यपवित्र श्री मार्गशीर्ष मासे शुक्लपक्षेः त्रुतिया (तृतीया) तिथौ श्री बुधवासरे पूर्वाषाढ नक्षत्रे वृद्धि नाम्नि योगे गिरकरणेवं पंचाग्नपवित्र दिवसे। श्री अंचलगच्छे पूज्य भट्टारक श्री १०८ श्री उदयसागरसूरीश्वरजी तत्पट्टे पूज्य पुरंदर श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी तत्पट्टे पूज्य भट्टारक श्री पुण्यसागरसूरीश्वरजी विजयराज्ये श्री सूरति बिंदिर वास्तव्य श्रीमाली ज्ञातीय साहा सिंधा तत् पुत्र साहा कपुरचंदभाई तत्पुत्र भाई साहजी तत्पुत्र साह निहालचंदभाई तत्पुत्र ईच्छाभाईकेन नाम्नि कुंड कारापितं।। श्री पालिताणा नगरे गोहिल श्री उन्नडजी विजय राज्ये।। श्री सिद्धाचल उपरे तीर्थयात्रार्थे आगतानां लोकानां सुखार्थे जिनशासन उद्योतनार्थे धर्मार्थि इच्छाभीधानं जलकुंड कारापितं।। शेठ श्री ५ निहालचंदेन आज्ञायां साह भाईचंद तथा शाह रत्नचंदे कार्यकृतं। ।रस्तु।। लिखितं मुनि धनसागर गणीनां।।
पुण्यसागरसूरि के एक शिष्य मोतीसागर हए जिनके द्वारा रचित शंखेश्वरपार्श्वनाथजिनस्तवन नामक कृति प्राप्त होती है। १०४ मोतीसागर ने वि०सं० १८७४ में पाटण के फोफलियावाडो में विक्रमचौपाई की प्रतिलिपि की।१०५ वि०सं० १८७० में पुण्यसागरसूरि का पाटण में देहान्त हुआ, तत्पश्चात् राजेन्द्रसागरसूरि ने
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