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अंचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास
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वि०सं० १६६९ में लिखी गयी रत्नसंचयप्रकरण की प्रतिलेखन प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार श्रुतकीर्ति ने अपने प्रगुरु, गुरु और दो अन्य मुनिजनों का नामोल्लेख किया है, जो निम्नानुसार है :
पं० क्षमाकीर्तिगणि
वाचक राजकीर्तिगणि
गुणवर्धनगणि
श्रुतकीर्ति (वि०सं० १६६९ में पारकरनगर में ऋषि दयाकीर्ति
और ऋषि हर्षकीर्ति के साथ रत्नसंचयप्रकरण के
प्रतिलिपिकार) ऊपर हम देख चुके है कि वि०सं० १६६७ में लिखी गयी कल्याणमन्दिरस्तव की प्रतिलेखन प्रशस्ति में पं० क्षमाकीर्तिगणि, वाचक राजकीर्तिगणि और श्रुतकीर्तिगणि का नाम आ चुका है। वि०सं० १६६९ में लिखित रत्नसंचयप्रकरण की उक्त प्रशस्ति में श्रुतकीर्ति को लेखन कार्य में सहायता करने वाले दयाकीर्ति और हर्षकीर्ति के साथ उनका क्या सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता।
वि० सं० १६७६ चैत्र वदि १२ को पालिग्राम में लिखी गयी सिंहासनबत्तीसी की एक प्रति मिलती है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में वाचक राजकीर्तिगणि, उनके गरुभ्राता गुणवर्धनगणि तथा उनके शिष्यों - श्रुतसागरगणि, दयाकीर्तिगणि और विजयकीर्ति का प्रतिलिपिकार के रूप में नाम मिलता है :
वाचक राजकीर्तिगणि
पं० गुणवर्धनगणि
श्रुतसागरगणि दयाकीर्तिगणि विजयकीर्ति
(वि.सं. १६७६ चैत्र वदि १२ को सिंहासनबत्तीसी के प्रतिलिपिकार)
उक्त तीनों तालिकाओं के परस्पर समायोजन से एक विस्तृत तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है :
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