________________
अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास १२३ वि०सं० १६७५ का एक शिलालेख शत्रुञ्जय स्थित हाथीपोल पर उत्कीर्ण है। यह लेख ३१ पंक्तियों का है। इसके लेखक के रूप में देवसागर गणि का नाम मिलता है।
यावद्विभाकरनिशाकरभूधरार्यरत्नाकरध्रुवधराः किल जाग्रतीह। श्रेयांसनाथजिनमंदिरमत्र तावन्
नंदत्वनेकभविकौधनिषेव्यमानम्।। १ ।। वाचकश्री विनयचन्द्रगणिनां शिष्यमु० देवसागरेण विहिता प्रशस्तिः।। अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, सम्पा०- श्रीपार्श्व, लेखांक ३१०.
शत्रुञ्जय स्थित हाथीपोल और वाघणपोल के मध्य स्थित विमलवसही ढूंक पर बायें हाथ स्थित एक मन्दिर पर वि०सं० १६८३ का एक शिलालेख उत्कीर्ण है। इस लेख में भी लेखकर्ता के रूप में देवसागर गणि का उल्लेख मिलता है।
...... भट्टारक कल्याणसागरसूरिभिः प्रतिष्ठितं।। वाचक देवसागरगणीनां कृतिरिय।। ..................।
अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक ३१५. वि०सं० १७०० वैशाख सुदि २ रविवार को लिखी गयी सर्वज्ञशतकस्तवक की एक प्रति श्री हु०म० ज्ञानभण्डार, सुरत में संरक्षित है। इस कृति की प्रतिलेखन प्रशस्ति में लिपिकार पं० कनकसागर ने अपने गुरु के रूप में पण्डित देवसागर गणि का उल्लेख किया है। यद्यपि इस प्रशस्ति में लिपिकार ने अपने गच्छ-शाखा आदि का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर कनकसागर के गुरु पं० देवसागर गणि और अंचलगच्छीय- चन्द्रशाखा के देवसागर गणि को एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती।
उक्त प्रशस्ति का मूलपाठ निम्नानुसार है :
संवत् १७०० वर्षे वैशाख सुदि २ रवौ पंडितचक्रचक्रवर्ती पंडित श्रीदेवसागरगणिशिष्य पं० कनकसागरलिखितं स्ववाचनकृते श्रीराजनगरे।।
देवसागर गणि के एक अन्य शिष्य उत्तमचन्द्र हुए, जिन्होंने वि०सं० १६९५ में सनन्दारास की रचना की।५ देवसागर गणि के पट्टधर जयसागर हुए। जयसागर के पट्टधर के रूप में लक्ष्मीचन्द्र का नाम मिलता है। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु लक्ष्मीचन्द्र के पट्टधर लावण्यचन्द्र और कुशलचन्द्र हुए जिनके द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org