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अचलगच्छ-लाभशाखा
अचलगच्छ की उपशाखाओं में लाभशाखा भी एक है। इस शाखा में चारित्रलाभ, गजलाभ, जयलाभ, हर्षलाभ, समयलाभ, विनयलाभ, मेरुलाभ, पद्मलाभ, माणिक्यलाभ, सत्यलाभ, नित्यलाभ आदि मुनिजन हो चुके हैं। इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये भी न तो इससे सम्बद्ध कोई पट्टावली मिलती है और न ही किन्हीं प्रतिमालेखों आदि में इसका उल्लेख मिलता है। सम्बद्ध शाखा के मुनिजनों द्वारा रचित अथवा प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियों से इसके इतिहास की एक झलक प्रस्तुत है।
___ लाभशाखा से सम्बद्ध सर्वप्रथम साक्ष्य है मुनि गजलाभ द्वारा वि०सं० १५९७ में रचित बारव्रतटीपचौपाई की प्रशस्ति; जिससे ज्ञात होता है कि यह कृति रचनाकार ने अपने शिष्य वरन के लिये रची थी। ____ इनके द्वारा रचित दूसरी कृति है जिनाज्ञाहुण्डी अपरनाम अंचलगच्छनी हुण्डी,२ जो वि०सं० १६१०/ई०स० १५५४ में रची गयी है। आचार्य धर्ममूर्तिसूरि के सान्निध्य में ५२ मुनिजनों और ४० साध्वियों के साथ इन्होंने क्रियोद्धार किया और उक्त ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में रचनाकार ने अंचलगच्छ की सात शाखाओं का उल्लेख किया है :
जयकीर्ति वरधन लाभ सूंदर चंद नंद सूवलभा।
सात शाखा लाभ केरी सांभलजो तुमे मुनीवरा।। गजलाभ के शिष्य समयलाभ ने वि०सं० १६११/ई०स० १५५५ में अपने गुरुभ्राता शंकर के पठनार्थ मुनिपतिचरित्र की प्रतिलिपि की।३ गजलाभ के दूसरे शिष्य हर्षलाभ ने वि०सं० १६१३ के आसपास अंचलमतचर्चा की रचना की।
वि०सं० १६४२/ई०स० १५८६ में लिखी गयी शाम्बप्रद्युम्नरास की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार जयलाभ ने स्वयं को गजलाभ का शिष्य बतलाया है।५ जयलाभ के शिष्य माणिक्यलाभ हुए जिन्होंने शांतिनाथचरित की प्रतिलिपि की।६ श्रीपार्श्व ने इसका लेखनकाल वि०सं० १७१८/ई०स० १६६२ बतलाया है जो इनके गुरु के काल को देखते हुए असम्भव तो नहीं, परन्तु मुश्किल अवश्य लगता है।
श्रीपार्श्व ने पं० गजलाभ के गुरु का नाम चारित्रलाभ बतलाया है, परन्तु उसके इस कथन का क्या आधार है, यह उन्होंने नहीं बतलाया है।
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