________________
अचलगच्छ की विभिन्न उपशाखायें और उनका इतिहास
१०९
पं० हर्षवर्धनगणि
पं० भावकीर्तिगणि
पं० क्षेमकीर्तिगणि (वि.सं. १६२५ में लिखी गयी कल्प
सूत्रवृत्ति की दाता प्रशस्ति में उल्लिखित) चूंकि अचलगच्छ की विभिन्न शाखाओं का नामकरण शाखा प्रवर्तक मुनिजनों के नामान्त पद (नन्दि) पर ही हुआ है, अत: उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित क्षेमकीर्तिगणि को अचलगच्छ की कीर्तिशाखा से सम्बद्ध मानने में कोई बाधा दिखाई नहीं देती। इस आधार पर उक्त प्रशस्ति को कीर्तिशाखा का प्रथम साक्ष्य माना जा सकता है। शाखाप्रवर्तक लावण्यकीर्ति और पं० क्षेमकीर्ति की गुरु-परम्परा के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता है।
जयकीर्तिसूरि (अचलगच्छ के १२वें पट्टधर) जन्म
वि.सं. १४३३; दीक्षा वि.सं. १४४४; आचार्यपद वि० सं० १४६७; मृत्यु वि०सं०
१५००) लावण्यकीर्ति
(अचलगच्छ कीर्तिशाखा के आदिपुरुष); वि०सं० की १५वीं शती के अन्त या १६वीं शती के प्रथम चरण के आस-पास कीर्तिशाखा
के प्रवर्तक) हर्षवर्धनगणि पं० भावकीर्ति पं० क्षेमकीर्ति (वि०सं० १६२५ में इन्हें कल्पसूत्रवृत्ति
की प्रति भेंट में दी गयी) वि०सं० १६६७ में अपने प्रशिष्य विजयकीर्ति के पठनार्थ कल्याणमन्दिरस्तव के प्रतिलिपिकार राजकीर्तिगणि भी कीर्तिशाखा से सम्बद्ध माने जा सकते हैं। उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति३ में प्रतिलिपिकार ने अपने गुरु, शिष्य, प्रशिष्य आदि का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि उनके गुरु का नाम क्षमाकीर्ति, शिष्य का नाम श्रुतकीर्ति और प्रशिष्य का नाम विजयकीर्ति था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org