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अचलगच्छ का इतिहास
जी का चातुर्मास होना निश्चित हुआ तथा अन्य सभी यतिजन जलयान द्वारा वि०सं० १९२९ के वैशाख माह में कच्छ पहुँचे। स्वरूपसागर जी अपने शिष्यों के साथ वि०सं० १९४० में पुन: मुम्बई गये जहाँ श्रीपूज्य विवेकसागरसूरि ने ज्ञानचन्द जी यति दीक्षा दी। यति दीक्षा लेने के पश्चात् उन्होंने रात्रिभोजन और कन्दमूल का त्याग कर दिया
और धर्मप्रचार में लग गये। इनके ओजस्वी विचारों एवं स्पष्ट वक्तव्यों से यतिसमाज में खलबली मच गयी। वि०सं० १९४६ में अपने जन्मभूमि पाली में इन्होंने संवेगीमुनि की दीक्षा ली और मुनि गौतमसागर नाम प्राप्त किया। वि०सं० १९४९ में इनकी बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई, तब से लेकर वि०सं० २००९ में अपने मृत्युपर्यन्त इन्होंने ८० बालिकाओं एवं महिलाओं को जैन साध्वी तथा १४ पुरुषों एवं बालकों को जैनमुनि के रूप में दीक्षित किया।
___ महान् तेजस्वी, गुणों की खान, ज्ञान के धनी और संगठन शक्ति के प्रणेता के रूप में दूर-दूर तक इनकी ख्याति फैल गयी। समय-समय पर अंधविश्वासी एवं विलासी धर्मप्रचारकों ने आपके संगठन को तोड़ने का प्रबल प्रयास किया किन्तु वे अपने उद्देश्यों में असफल रहे।
___ अंचलगच्छ में जहाँ पहले साधु-साध्वियों की संख्या नगण्य थी, वहाँ आपने अनेक लोगों को दीक्षित कर इस क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य किया और अंचलगच्छ को नया जीवन प्रदान किया। आपके द्वारा दीक्षित शिष्यों ने अनेक लोगों को आपकी मौजूदगी में दीक्षित किया। आपके चातुर्मासों की सूची निम्नानुसार है- जामनगर-१७; भुज ७; गोधरा ६; पालीताणा ४; नालिया ४; मुम्बई ३; मोटी खावडी ३; मांडल २; देवपुर १; सायरा १; वराडीया १; आसंबीया १; मुंदरा १- कुल ६२।
जैसा कि आगे हम देखेंगे अंचलगच्छ के ६४वें पट्टधर आचार्य कल्याणसागरसूरि के एक शिष्य महोपाध्याय रत्नसागर से अंचलगच्छ की सागरशाखा अस्तित्त्व में आयी। रत्नसागर के पश्चात् क्रमश: मेघसागर-वृद्धिसागर-हीरसागर-सहजसागर-गणि मानसागर-गणि रंगसागर-गणि फतेहसागर-देवसागर-स्वरूपसागर हुए। जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं महान् क्रियोद्धारक आचार्य गौतमसागरसूरि उक्त स्वरूपसागर के शिष्य थे।
गौतमसागर जी की निश्रा में अनेक धार्मिक प्रतिष्ठानों, मंदिरों का नवनिर्माण, जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न हुए। आपने वि०सं० १९५२ में नारायणपुर, वि०सं० १९५८ में नवागाम, वि० सं० १९६२ में बंढी, १९७८ में देवपुर, १९८४ में पडाणा, १९९२ में मोडपुर, १९९७ में नालीया, १९९८ में लायजा, २००७ में रायण एवं २००८ में गोधरा में मन्दिरों का निर्माण, प्रतिष्ठा, स्वर्णमहोत्सव, जीर्णोद्धार आदि सम्पन्न कराया। आपके उपदेश से अनेक स्थानों पर निर्मित देरासरों
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