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अचलगच्छ का इतिहास धर्ममूर्तिसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों में कई प्रसिद्ध रचनाकार हो चुके हैं। इनके द्वारा रचित विभिन्न उपलब्ध कृतियों से इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
वि०सं० १६०५ में रची गयी वैराग्यवीनती की प्रशस्ति में रचनाकार सहजरत्न ने स्वयं को धर्ममूर्तिसूरि का शिष्य बतलाया है। ५९ इसी प्रकार वि०सं० १६२४ में रची गयी गजसुकुमारसन्धि के रचनाकार मूलावाचक ने स्वयं को धर्ममूर्तिसूरि का प्रशिष्य और वा०रत्नप्रभ का शिष्य कहा है।६०
__धर्ममूर्तिसूरि के एक शिष्य हेमशील हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति तो नहीं मिलती; किन्तु उनके शिष्य विजयशील ने वि० सं० १६४१ में उत्तमचरित-ऋषिराजचौपाई की रचना की।६१ विजयशील के एक शिष्य दयाशील हुए जिन्होंने वि०सं० १६६४/ ई०स० १६०८ के आसपास अन्तरंगकुटुम्बगीत की रचना की। ६२ इनके द्वारा रचित एक अन्य कृति कायाकुटुम्बसज्झायस्तवन भी प्राप्त होती है। ६३ विजयशील के एक अन्य शिष्य जसकीर्ति हुए जिन्होंने अंचलगच्छीय श्रावक कुंवरपाल सोनपाल द्वारा वि०सं० १६७०/ई०स० १६१४ में तीर्थयात्रा हेतु निकाले गये संघ का विस्तृत एवं ऐतिहासिक विवरण अपनी महत्त्वपूर्ण कृति सम्मेतशिखररास में प्रस्तुत किया है।६४
धर्ममूर्तिसूरि के एक अन्य शिष्य विमलमूर्ति के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। इनके द्वारा रचित कोई कृति तो नहीं मिलती, यही बात इनके शिष्य गुणमूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है; किन्तु इनके प्रशिष्य ज्ञानमूर्ति ने वि०सं० १६९४/ ई०सन् १६३८ में रूपसेनराजर्षिचौपाई की रचना की जिसकी प्रशस्ति से उक्त बात ज्ञात होती है।६५ इसी प्रकार धर्ममूर्तिसूरि के एक अन्य शिष्य भानुलब्धि द्वारा कोई कृति नहीं मिलती; किन्तु उनके शिष्य मेघराज द्वारा रचित वि०सं० १६७० में रचित सत्तरभेदीपूजा नामक कृति प्राप्त होती है जिसकी प्रशस्ति में रचनाकार ने अपने गुरु-प्रगुरु आदि का सादर उल्लेख किया है।६६ कल्याणसागरसूरि भी धर्ममूर्तिसूरि के ही शिष्य थे जो उनके निधनोपरान्त अंचलगच्छ के नायक बने। इस प्रकार उक्त साक्ष्यों के आधार पर धर्ममूर्तिसरि के शिष्यों-प्रशिष्यों की एक तालिका निर्मित की जा सकती है, जो इस प्रकार है -
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