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अचलगच्छ का इतिहास कल्याणसागरसूरि के विभिन्न शिष्यों-प्रशिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनके प्रशिष्य एवं पुण्यमन्दिर के शिष्य उदयमन्दिर हए जिनके द्वारा वि०सं० १६७५/ई०स० १६१९ में मरु-गुर्जर भाषा में रचित ध्वजभुजंगआख्यान नामक कृति मिलती है।७९ इसी प्रकार इनके एक अन्य प्रशिष्य एवं देवसागर के शिष्य उत्तमचन्द्र ने वि०सं० १६९५/ई०स० १६२९ में सुनन्दारास की रचना की।८° कल्याणसागरसूरि के तीसरे प्रशिष्य एवं गुणचन्द्र के शिष्य विवेकचन्द्र ने वि०सं० १६९७/ई०स० १६३१ में मरु-गूर्जर भाषा में सुरपालरास की रचना की।८१ कल्याणसागरसूरि के शिष्य मतिनिधानगणि द्वारा वि०सं० १६७१/ई०स० १६१५ में पुण्यपालकथानक एवम् इसी के आस-पास नेमिनाथछन्द की प्रतिलिपि की गयी। ८२ वि०सं० १६६६/ई०स० १६१० में मरु-गूर्जर भाषा में दयाशील नामक एक अंचलगच्छीय मुनि द्वारा रचित ईलाचीकेवलीरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि रचनाकार के गुरु विजयशील आचार्य कल्याणसागरसूरि के शिष्य थे।८३ कल्याणसागरसूरि के एक अन्य शिष्य भीमरत्न हुए। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती। यही बात इनके शिष्य उदयसागर के बारे में भी कही जा सकती है। उदयसागर के शिष्य मुनि दयासागर हुए, जिन्होंने वि०सं० १६६९ में मदनराजर्षिरास की रचना की।८४ इनके शिष्य मुनि धनजी द्वारा रचित सिंहदत्तरास (रचनाकाल वि०सं० की १७वीं शती का अन्तिम भाग) नामक कृति प्राप्त होती है।८५ वि०सं० १५७७ में लिखी गयी नेमिनाथचरित (त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित का एक भाग) की दाताप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को भुज में चातुर्मास के अवसर पर पुण्यसिंह नामक एक श्रेष्ठी ने मुनि दयासागर और मुनि देवनिधान को समर्पित की थी।८६ इस दाताप्रशस्ति में लेखनकाल वि०सं० १५७७ दिया गया है, जो असम्भव है। वस्तुत: यह वि०सं० १६७७ होना चाहिए, क्योंकि अन्य सभी साक्ष्यों से उक्त मुनिजनों का काल विक्रम संवत् की १७वीं शती का अन्तिम चरण सिद्ध होता है। कल्याणसागरसूरि के एक शिष्य रत्नसागर हुए, जिनसे अंचलगच्छ की सागरशाखा अस्तित्त्व में आयी।
__इस प्रकार उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर कल्याणसागरसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों की एक तालिका निर्मित की जा सकती है -
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