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अचलगच्छ का इतिहास
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जो निश्चय ही वि०सं० १५१२ के उक्त प्रतिमालेख में उल्लिखित भावसागरसूरि से अभिन्न हैं। लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है :
सं० १५१९ वैशाख वदि १ गुरौ श्रीश्रीवंशे श्रे० तेजा भा० सोमाई पु० जावड श्रेयसे श्रीअंचलगच्छे श्रीभावसागरसूरीणामु० श्रीमुनिसुव्रतस्वामिबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन । ।
मुनिसुव्रत की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, वासुपूज्य जिनालय, सुरेन्द्रनगर अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ६२०.
कवि पेथो
ये जयकेशरीसूरि के श्रावक शिष्य थे। इनके द्वारा गुजराती भाषा में रचित "पार्श्वनाथ दसभव विवाहलो" नामक कृति प्राप्त होती है । ५० रचना के अन्त में प्रशस्ति के अन्तर्गत इन्होंने अपने गुरु का सादर स्मरण किया है। मुनिसुव्रत जिनालय खम्भात में रखी श्रेयांसनाथ की धातु- प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में भी पेथो का अंचलगच्छीय श्रावक के रूप में नाम मिलता है । ५१ यह प्रतिमा आचार्य जयकेशरीसूरि के उपदेश से श्रीसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थी । लेख का मूलपाठ इस प्रकार है
संवत् १५१२ फाल्गुन सुदि ८ शनौ श्रीमालज्ञातीय पं० नरूआ भार्या वाछी पुत्र कूरणा मं... जणसी प्रमुखस्वकुटुंबसहितेन पं० पेथासुश्रावकेन भार्या बीरू संजितेन च निजश्रेयसे श्रीअंचलगच्छे श्रीजयकेशरीसूरीणामुपदेशेन श्रीश्रेयांसनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन ।।
पार्श्वनाथदसभवविवाहलो के रचनाकार पेथो और उक्त प्रतिमालेख में उल्लिखित पं० पेथा को समसामयिकता, नामसाम्य आदि को दृष्टिगत रखते हुए एक व्यक्ति माना जा सकता है। श्री पार्श्व का भी यही मत है । ५२
वि०सं० १५४१ में जयकेशरीसूरि के निधन के पश्चात् सिद्धान्तसागरसूरि अंचलगच्छ के नायक बने । पट्टावलियों के अनुसार वि०सं० १५०६ में इनका जन्म हुआ, वि० सं० १५१२ में इन्होंने दीक्षा ली, वि०सं० १५४१ में ये गुरु के पट्टधर बने और वि० सं० १५६० में इनका निधन हो गया ।
सिद्धान्तसागरसूरि द्वारा रचित चतुर्विंशतिस्तव नामक कृति प्राप्त होती है । ५३ वि०सं० १५४२ से वि०सं० १५५७ तक प्रतिष्ठापित अंचलगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों में इनका नाम मिलता है । ५४
इनका विवरण इस प्रकार है
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