Book Title: Ratnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003822/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री जिनविजय मुनि (सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क 60 ठक्कुर-फेरू-विरचित रत्नपरीक्षादि सप्त-ग्रन्थ संग्रह सम्पादक अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur द्वितीयावृत्ति 1996 मूल्य 67.00 रु. For Personal and Private Use Only wwvisioclibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री जिनविजय मुनि (सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क 60 ठक्कुर-फेरू - विरचित रत्नपरीक्षादि सप्त-ग्रन्थ संग्रह सम्पादक अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान) RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR द्वितीयावृत्ति 1996 मूल्य : 67.00 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान-राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिलभारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध विविधवाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्टग्रन्थावली प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री, जिनविजय मुनि (ऑनररी मेंबर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी) सम्मान्य सदस्य-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य सभा, अहमदाबाद; विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, पञ्जाब; निवृत्त सम्मान्य नियामक (ऑनररी डायरेक्टर)—भारतीय विद्याभवन, बंबई; प्रधान संपादक-गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर ग्रन्थावली; भारतीय विद्या ग्रन्थावली; सिंघी जैन ग्रन्थमाला; जैन साहित्यसंशोधक ग्रन्थावली;--इत्यादि, इत्यादि। ग्रन्थाङ्क ठक्कुर - फेरू - विरचित रत्नपरीक्षादि-सप्त-ग्रन्थसंग्रह सम्पादक अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार संचालक-राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान Director, Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur विक्रमाब्द 2017 राज्यनियमानुसार सर्वाधिकार सुरक्षित ख्रिस्ताब्द 1961 द्वितीयावृत्ति : 500 1996 ईसवी मूल्य : 67.00 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर - फेरू - विरचित रत्नपरीक्षादि-सप्त-ग्रन्थसंग्रह समुपलब्ध प्राचीनतम-पुस्तकानुसार पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि द्वारा संशोधित एवं सुपरिष्कृत सामग्री-संपादनकर्ता अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्याज्ञानुसार संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (डायरेक्टर, राजस्थान ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट) जोधपुर (राजस्थान) विक्रमाब्द 2017 विक्रमाब्द 2053 प्रथमावृत्ति द्वितीयावृत्ति 1961 1996 मुद्रक : राजस्थानी ग्रन्थागार, सोजती गेट, जोधपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदेशकीय राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला के 60 वें पुष्प के रूप में आज से करीब 34 पूर्व ठक्कर फेरू विरचित “रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रंथ संग्रह” का प्रकाशन किया गया था । इन सात लघु रचनाओं को ज्योतिषसार, द्रव्यपरीक्षा, वास्तुसार, रत्नपरीक्षा, धातूत्पत्ति, युगप्रधान चतुष्पदी एवं गणितसार नाम से जाना जाता है। जहां गणितसार और ज्योतिषसार संबंधित विषय के प्राथमिक ज्ञान हेतु उपयोगी हैं। वहीं द्रव्यपरीक्षा मध्यकालीन भारत में प्रचलित तत्कालीन विभिन्न प्रकार के सिक्कों और रत्न-परीक्षा तत्कालीन रत्नों के अध्ययन हेतु उपयोगी है । संक्षेप में ज्योतिष, गणित, वास्तुशास्त्र, रत्नशास्त्र और मुद्राशास्त्र पर प्रामाणिक लेखन इस रचनावली एक विशेषता है । इन कृतियों के प्रणेता ठक्कुर फेरू 14 वीं शताब्दी में सम्राट् अलाउद्दीन खिलजी के समय उसकी टकसाल के अधिकारी थे और उन्होंने तत्कालीन सिक्कों व रत्नों का वास्तव में अध्ययन कर इन रचनाओं का सृजन किया था । रत्नपरीक्षादि सप्त-ग्रंथ-संग्रह के पुनर्मुद्रण की विद्वज्जगत् में काफी समय से प्रतीक्षा की जा रही थी। आशा है पुस्तक के वर्तमान संस्करण से सुधीजन लाभान्वित होंगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ओ. पी. सैनी I.A.S. निदेशक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या 1-4 5-8 1-35 1-16 17-38 1. प्रधान संपादकीय-किंचित् प्रासंगिक 2. प्रास्ताविक कथन - अगरचन्द्र, भंवरलाल नाहटा 3. ठक्कुर फेरूकृत रत्नपरीक्षाका परिचय ले. डॉ. मोतीचन्द्र एम्. ए. पीएच्. डी. (1) रत्नपरीक्षा मूल ग्रन्थ (2) द्रव्यपरीक्षा मूल ग्रन्थ (3) धातूत्पत्ति (4) ज्योतिषसार मूल ग्रन्थ (5) गणितसार मूल ग्रन्थ (6) वास्तुसार मूल ग्रन्थ (7) खरतरगच्छयुगप्रधानचतुःपदिका (8) परिशिष्ट – ज्योतिषविषयक स्फुटपद्य 39-44 1-40 41-74 75-103 104-106 107-108 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला - रत्नपरोक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह दिसतो काफी सुर रातरात्यतः मा ८ मा ४२४ गाना मन मा •मानतामा 2011 सीटका दा स कणमभ्या हम बिचमा कविता गणमा सा ८ राळा अमे द्रव्यपरीक्षा ग्रन्थ का मध्य का एक पृष्ठ द्रव्यपरीक्षा ग्रन्थ का समाप्तिसूचक पृष्ठ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला-रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह Jain Educationa International तिमतिमष्टि मत्रिणी भझिवि वितरीयमबाटाइदिएमा Hinानिमायामयलसरसरविदमणचनाएगाइनमिजणापयरणतिलसानिसदेविताणमादामोदन दियसत्रिपरिकामादतीमा पासाश्सटिलमिटयगणदियासयनिंसारमावतीसंगलमीस्वागवितरित रातिमासानातिपोवमहिएगादीवाकियसमा दवशियनीरवासांगतमाणासुसजतिऽशाना गुलकमिबिहमसिमाउसमाजायणनिधिसत्रियणीयलावासाणकसिमक्षाणामहिट्यदत्रयमाणेसुदया। विवरीयअसुक्ष्यशालासिमियीक्षा सममिडकण्डिादयस्यामझिरविसकापडमंतलाया। समीतिहाविदंतिलाहकोणकावडाहरुपदिसि । सतरंटलामति लिस्टिदलचनरसे॥ठरसिक्किक्किदिसावारसलागाठवतामझ लणेदिसहतिय तियएवंऊदवसापतितमिसाधमानाला ॥रमवदिर समादाविम्भियातिदि बीयरुदा प्रकलस्ट्रमिसु दासोसायतरबुबुदारव माशीवादिकशारोरुसर: अमिमयससलाव २४ १५ अंशय अकानिंबुसल्लमाण मिम वस्तुसार ग्रन्थ का आदि पृष्ठ A2/: निस्सिदमाइतिकृमिसायद Tike . . For Personal and Private Use Only संबंकिमामारतिलिचसंवलासंदसतियएगविमोवगासुकमियतयाकढिगवल सवसोवादेमिमिमिमनगरवासामनयपिरिपवयमामिस्विदणतरूवरेवदिनिलया। Hोपालपमतमेसजवणगंधमिश्विंदपुतदवंटनीलकमकडिमानातियातदयमनिंदीकउदीयमा जयवंदणउविदवासंवारहगनिदाउपाविपक्वंदर्णपोषणनिरख्याउटकारियलउतिधिकमिसन माएकडमीयांसाक्सिनावमसायरा नया लकासम्पनाकामरूयामिवारप्रतिपक मेणामासीखगठिटामाकरपियवरुपपीयवसायवाला। यसटीदायीमासिवाय पतालाबासरनोलाकण्वार विश्वासमाविषवहामियानादिकपाककऽयतिका "कायोपिलादिमियोपदबसमा NिERमस्जिवकिमरिक पानीमवारहविनयापण्यादणमयसातारावरमामऊटवालयानदवेदपायका, अमिासादडपशामियाददंगनुमति लियमस्वामिणवासियामामानेकामा MARAan कमधिोमब४ वर्मकापचयामरागमिस्नलिखिनीमाजाववाल्यारा धातूत्पत्ति ग्रन्थ का अन्तिम पृष्ठ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान संपादकीय-किंचित् प्रासंगिक राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के ४४ वें ग्रन्थांक रूप में, ठकुर फेरू रचित ७ ग्रन्थों का यह एकत्र संग्रह प्रकट किया जा रहा है। __टक्कुर फेरू के इन ग्रन्थों की लिखी हुई प्राचीन पोथी का पता लगाने का श्रेय श्री अगर चन्दजी और भंवर लालजी नाहटा को है। इन साहित्यखोजी बन्धुओं की लगन ने, कलकत्ते के एक कोने में पड़े हुए जैन ग्रन्थों के पिटारे में से, इस मूल्यवान निधि को प्रकाश में लाने का अभिनन्दनीय यश प्राप्त किया है। ___ठक्कुर फेरू के ये प्रबन्धात्मक ग्रन्थ कैसे मिले और इन को प्रकाश में लाने का कैसा प्रयत्न किया- इस विषय में नाहटा बन्धुओं ने, अपने प्रस्तावनात्मक वक्तव्य में यथेष्ट लिखा है। इस से पहले भी इन्हों ने, कुछ पत्रों में लेख प्रकट करा कर इस विषय पर काफी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है ।। इस संग्रह की प्राचीन पोथी जब इन के देखने में आई, तो इन की शोधक . बुद्धि ने तत्काल उस का विशिष्ट महत्त्व पिछान लिया और तुरन्त उस पोथी पर से अपने हाथ से नकल उतार कर मेरे पास देखने के लिये भेज दिया। मैं ने भी ग्रन्थ के 'द्रव्यपरीक्षा' नामक प्रबन्ध में वर्णित सर्वथा अज्ञात विषय की उपलब्धि देख कर, इस को सुप्रसिद्ध सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट कर देने की अपनी इच्छा नाहटा बन्धुओं को व्यक्त की और उस असल प्राचीन लिखित पोथी को मेरे पास भेज देने को लिखा । पर उस समय कलकत्ते में सांप्रदायिक मार-पीट की तूफान वाली हल - चल मच रही थी इस लिये तुरन्त वह प्रति मेरे पास न आ सकी । प्रतिका प्रत्यक्ष अवलोकन किये विना किसी ग्रन्थ को छाप देने के लिये मेरी रुचि संतुष्ट नहीं रहती, इस लिये मैं उस की प्रतीक्षा करता रहा । बाद में, मेरा खयं जब कलकत्ता जाना हुआ तो मैं उस प्रति को देखने में समर्थ हुआ और नाहटा बन्धुओं के सौजन्य से वह प्रति कुछ समयके लिये मुझे मिल गई । बंबई आ कर मैं ने उस पर से अपने निरीक्षण में प्रतिलिपि करवाई और उसे प्रेस में छपवाने की व्यवस्था की । ... बाद में बंबई छोड कर मेरा अधिक रहना राजस्थान में होने लगा और मैं मेरे तत्त्वावधान में प्रस्थापित और संचालित राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर (अब, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ) के संगठन और संचालन के कार्य में अधिक व्यस्त रहने लगा, तो इस का प्रकाशन स्थगित सा हो गया। । पर इस ग्रन्थ को, इस रूप में, प्रकट करने-कराने की अभिलाषा नाहटा बन्धुओं को बहुत ही उत्कट रही और मुझे भी ये बहुत प्रेरणा करते रहे । तब मैं ने इसे राजस्थान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह - किंचित् प्रासंगिक पुरातन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट करने की व्यवस्था की और उसी के फल स्वरूप, आज यह ग्रन्थ प्रकाश में आ रहा है । नाहटा बन्धुओं का जो सतत आग्रह न रहता तो मैं इसे प्रकट करने में शायद ही समर्थ होता । अतः इस के संपादन के श्रेयोभागी ये बन्धु हैं । इस संग्रह की प्रेस कॉपी से ले कर ग्रन्थ को वर्तमान रूप देने तक के प्रुफ गैरह सब मुझे ही देखने पडे और भाषा एवं अर्थानुसन्धान की दृष्टि से इस के संशोधन में मुझे बहुत श्रम उठाना पडा । इस लिये ग्रन्थ के प्रकाशित होने में अपेक्षा से भी बहुत अधिक समय व्यतीत हुआ । ठक्कर फेरू ने अपनी ये सब रचनाएं प्राकृत भाषा में लिखी हैं। पर इस की यह प्राकृत भाषा, शिष्ट और व्याकरण बद्ध न हो कर, एक प्रकार की प्राकृत - अपभ्रंश की चलती शैली वाली भाषा है जिसे हम न शुद्ध प्राकृत कह सकते हैं, न शुद्ध अपभ्रंश ही कह सकते हैं । फेरू के इन ग्रन्थों के जो विषय हैं वे लोकव्यवहार की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी और अभ्यसनीय हैं । इस लिये उस ने अपनी रचना के लिये प्राकृत भाषा की बहुत ही सरल शैली का उपयोग करना पसंद किया। उस का लक्ष्य अपने भाव कोविषय के अर्थ को अभिव्यक्त करना रहा है, इस लिये व्याकरण के रूढ नियमों का अनुसरण करने के लिये वह प्रयत्नवान् नहीं दिखाई देता । अपनी रचना के लिये प्राकृत का प्रसिद्ध गाथा छन्द उस ने पसन्द किया है और वह छन्द के नियम का ठीक पालन करने की दृष्टि से, कहीं हख को दीर्घ और दीर्घ को हख रखता है; और कहीं कहीं द्वित्व अक्षर को एकाक्षर के रूप में तो कहीं एकाक्षर को द्वित्व के रूप में भी ग्रथित कर देता है । छन्द का भंग न हो इस विचार से वह शब्दों का निर्विभक्तिक रूप तक रख देता है । ग्रन्थकार की इस शैली का ठीक अध्ययन करते करते हमें इस का संशोधन करना पडा है । इस लिये हमारा समय भी इस में बहुत व्यतीत हुआ । फेरू के इन ग्रन्थों में से 'वस्तुसार' और 'रत्नपरीक्षा' तथा ' धातूत्पत्ति' के कुछ हिस्से के सिवा, और ग्रन्थों की अन्य कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई, अतः उक्त एकमात्र प्रति के आधार पर ही सब पाठनिर्णय करना पडा। साथ में प्रति के लेखक की अशुद्धियों ने भी कुछ परिश्रम बढा दिया । प्रति का लिखने वाला न संस्कृत जानता है न प्राकृत । उस कहीं कहीं अपनी भाषा में जो वाक्य लिखे हैं उन पर से उस के भाषाज्ञान का परिचय मिल जाता है । हम ने इस के संशोधन में केवल उतना ही प्रयत्न किया है जिस से अर्थबोध ठीक हो सके, और व्याकरण के नियम के निकट शब्द का रूप रह सके । द्रव्यपरीक्षा, रत्नपरीक्षा और धातूत्पत्ति ये तीन प्रबन्ध लौकिक शब्दों के ऊपर आधारित हैं और इन में के अनेक शब्द ऐसे हैं जो सर्वथा अपरिचित से लगते हैं । इन शब्दों का ठीक स्वरूप जानने का कोई अन्य साधन नहीं । अतः उन की स्थिति जैसी लिखित प्रति में है वैसी ही रखनी आवश्यक रही । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह-किंचित् प्रासंगिक __'वस्तुसार' एक प्रसिद्ध रचना है। इसका मुद्रण भी पहले हो चुका है और फिर इस की अन्य प्रतियां भी उपलब्ध होती हैं । अतः उन के आधार पर यह प्रबन्ध तो प्रायः ठीक शुद्ध किया जा सका है । इस के तो विशिष्ट पाठ भेद भी दे दिये हैं। फेरू के इन ग्रन्थों में सब से अधिक महत्त्व का ग्रन्थ 'द्रव्यपरीक्षा' है । इस प्रबन्ध में, उस ने अपने समय में भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों और प्रान्तों में प्रचलित, सिक्कों की जो जानकारी लिखी है वह सर्वथा अपूर्व है। इस विषय पर प्रकाश डालने वाली और कोई ऐसी प्राचीन साहित्यिक कृति अभी तक ज्ञात नहीं है। इस ग्रन्थ पर तो भारत के मध्यकालीन सिक्कों के परिज्ञाता ऐसे किसी विशिष्ट विद्वान् को, एक अध्ययन पूर्ण एवं प्रमाणभूत ग्रन्थ लिखना आवश्यक है। इस का संपादन कार्य प्रारंभ करते समय हमारा उत्साह था, कि हम इस विषय में यथाशक्य जानकारी एवं साधनसामग्री प्राप्त करके, इस के साथ छोटा-बडा भी वैसा कोई निबन्ध लिखेंगे; पर समयाभाव के कारण हम वैसा निबन्ध लिखने में असमर्थ रहे । हम आशा करते हैं कि अब इस ग्रन्थ का यह मूल स्वरूप प्रकट हो जाने पर, कोई सुयोग्य निष्कविज्ञ विद्वान् वैसा प्रयत्न करने की प्रेरणा प्राप्त करेंगे। फेरू के 'रत्नपरीक्षा' ग्रन्थ के विषय में तो प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. मोती चन्दजी ने एक अच्छा परिचयात्मक निबन्ध लिख देने की कृपा की है, जो इसके साथ दिया गया है । इसके लिये हम डॉक्टर साहब के प्रति अपना आभार प्रदर्शित करते हैं । गणितसार' और 'ज्योतिषसार ' ये रचनाएं प्राथमिक अभ्यासियों के अध्ययन की दृष्टि से अच्छी उपयोगी हैं । गणितसार में तो ठक्कुर फेरू ने अपने समय में दिल्ली के आसपास के प्रदेश में व्यवहृत अनेक देश्य शब्दों और स्थानिक पदार्थों का भी उल्लेख किया है जिन पर विशेष प्रकाश डाला जा सकता है। . फेरू के इस ग्रन्थ संग्रह की जो उक्त प्राचीन प्रति उपलब्ध हुई है वह, जैसा कि उसके लिपि कर्ता ने दो तीन स्थानों पर निर्देश किया है, वि. सं. १४०३ और १४०४ वर्ष के बीच में लिखी गई है। वास्तव में यह पोथी उक्त संवत् के फाल्गुण और चेत के महिने के बीच में, डेट-दो महिने के अन्दर ही लिखी गई है । ठकुर फेरू ने 'द्रव्य परीक्षा' की रचना, संवत् १३७५ में दिल्ली में अल्लाउद्दीन बादशाह के राज्य • काल में की थी । अतः रचना समय के बाद २५-३० वर्ष के भीतर ही यह पोथी लिखी गई थी जिस से इस की प्राचीनता स्वतः सिद्ध है। इस प्रति की कुल पत्रसंख्या ६० हैं और उन में निम्न तालिका के अनुसार फेरू की इस संग्रह वाली सातों रचनाएं लिखी गई हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ war ro rur, रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह-किंचित् प्रासंगिक १ पत्रांक १ से १८ तक में ज्योतिषसार २ ,, - १९ से २७ A , द्रव्यपरीक्षा ३ , २८ से ३५ वास्तुसार ३६ से ४१ A . रत्नपरीक्षा ४१ A से ४३ A धातूत्पत्ति ६ , ४३ B से ४४ युगप्रधान चतुष्पदी ७. ४५ से ६० गणितसार हम ने इस संग्रह में प्रतिस्थित ग्रन्थक्रम का अनुसरण न करते हुए, प्रथम रत्नपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा और धातूत्पत्ति नामक इन ३ रचनाओं को एक साथ रखा है, और फिर ज्योतिषसार, गणितसार एवं वास्तुसार इन ३ रचनाओं को एक साथ रख कर, अन्त में 'युग प्रधान चतुष्पदी' रचना को दे दिया है । इस से विषय का विभाजन ठीक संगत हो गया है। - इसके साथ मूल प्राचीन प्रति जो कलकत्ते के जैन भंडार में प्राप्त हुई उसके कुछ पन्नोंके ब्लाक भी बना कर दिये जा रहे हैं जिस से पाठकों को प्रति की प्रतिकृति का दर्शन हो सके। ज्योतिष, गणित, वास्तुशास्त्र, रत्नशास्त्र और मुद्राविषयक विज्ञान पर, इस प्रकार की विशिष्ट ग्रन्थ-रचना करने वाला ठकुर फेरू, सचमुच अपने समय का एक बहुत ही बहुश्रुत विद्वान् और अनुभवी शास्त्रज्ञ था। उसकी ये कृतियां हमारे प्राचीन साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं और इस प्रकार राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान द्वारा इन का प्रकाशित होना सर्वथा समादरणीय होगा। ) चैत्र शुक्ल १३, वि. सं. २०१७ दिनांक-३१, मार्च, १९६१ भारतीय विद्या भवन, वंबई. - मुनि जिन विजय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेरू और उनके ग्रन्थों के विषय में . प्रास्ता वि क कथन (लेखक-अगरचन्द, भंवरलाल नाहटा) कनाणा निवासी ठक्कर फेरू का नाम यों तो उन की सुप्रसिद्ध कृति 'वास्तसार प्रकरण के कारण सर्व विदित था, परन्तु उन के बहुमुखी प्रतिभासंपन्न एवं महान् ग्रंथकार होने का अब तक पता नहीं था। १५ वर्ष पूर्व, कलकत्ते की श्रीमणि जीवन जैन लायब्रेरी की सूची में 'सारा कौमुदी गणित ज्योतिष' नाम से उल्लिखित फेरू ग्रंथावली की प्रति देखने पर ठक्कर फेरू की कई नई कृतियाँ ज्ञात हुई । इस प्रति की प्राप्ति से केवल हमने ही नहीं, पर जिस किसीने सुना परम आनंद प्राप्त किया । इन ग्रंथों की उपलब्धि से ठक्कुर फेरू की गणना, भारतीय साहित्य में, एक अनूठा स्थान प्राप्त करने वाले विद्वानों में की जा सकती है। ठक्कर फेरू विक्रम की चौदहवीं शती के राजमान्य जैन गृहस्थों में प्रमुख व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी कृतियों में जो परिचय दिया है उससे विदित होता है कि ये कन्नाणा निवासी श्रीमाल वंश के धांधिया (धंधकुल ) गोत्रीय श्रेष्ठि कालिय या कलश के पुत्र ठकुर चंद के सुपुत्र थे। इनकी · सर्व प्रथम रचना 'युगप्रधान चतुष्पदिका' है जो संवत् १३४७ में वाचनाचार्य राजशेखर के समीप, अपने निवासस्थान कन्नाणा में बनी थी। इन्होंने अपनी कृतियों के अंत में “परम जैन" और अपने आप को “जिणंद पय भत्तो" लिख कर अपना कट्टर जैनत्व सूचित किया है । इन्होंने 'रत्नपरीक्षा में अपने पुत्र का नाम हेमपाल लिखा है, जिसके लिये इस ग्रंथ की रचना की है। इनके भाई का नाम अज्ञात है परन्तु भ्राता और पुत्र के लिए 'द्रव्यपरीक्षा' नामक विशिष्ट ग्रंथ की रचना की थी। दिल्लीपति सुरत्राण अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी या मंत्रिमंडल में होने के कारण, पीछे से इनका निवास स्थान अधिकतर दिल्ली हो गया था। इन्होंने 'द्रव्यपरीक्षा' दिल्ली की टंकसाल के अनुभव से तथा 'रत्नपरीक्षा' ग्रंथ सम्राट् के रत्नागार के प्रत्यक्ष अनुभव से, एवं 'गणितसार' में भी दी हुई तत्कालीन राजनैतिक गणित प्रश्नावली आदि से, यह फलित होता है कि ये अवश्य शाही दरबार में उच्च पदासीन व्यक्ति थे। संवत् १३८० में दिल्ली से श्रीमाल सेठ रयपति ने महातीर्थ शत्रुञ्जय का संघ निकाला था, जिसमें ठक्कुर फेरू भी सम्मिलित हुए थे। १-पं. भगवानदासजी जैन ने जयपुर से “वास्तुसार” (गुजराती अनुवाद सहित संस्करण) के साथ "रत्नपरीक्षा" और "धातोत्पत्ति” का अपूर्ण अंश भी प्रकाशित किया है। २-देखें हमारी “दादा जिन कुशल सूरि" पुस्तक । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कथन ठक्कुर फेरू की "युगप्रधान चतुष्पदिका" के अतिरिक्त सभी कृतियाँ प्राकृत में हैं । भाषा बडी सरल, प्रवाही और अपभ्रंश या तत्कालीन लोकभाषा के प्रभाव से प्रभावित है। ग्रन्थोक्त कतिपय वृत्तान्त तत्कालीन भारतीय संस्कृति एवं भाषा पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । इनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १. युगप्रधान चतुष्पदिका- यह कृति तत्कालीन लोकभाषा अपभ्रंश में २८ चौपई व एक छप्पय में रची गई है। इसमें भगवान महावीर से लगा कर खरतरगच्छ के युगप्रधान आचार्यों की परंपरा की नामावली निबद्ध है । आचार्य श्री वर्द्धमान सूरि के पट्टधर श्री जिनेश्वर सूरिजी से यह गच्छ खरतर नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके परवर्ती आचार्यों के संबन्ध में कतिपय संक्षिप्त ऐतिहासिक वृत्तान्तों का भी निर्देश किया गया है। जैसे १. श्री जिनेश्वर सूरिजी ने अणहिलपुर में दुर्लभराज के समक्ष ८४ आचार्यों को जीत कर वसति मार्ग प्रकाशित किया। . २. श्री जिनचंद्र सूरिजी ने उपदेश द्वारा नृपति को रंजित किया एवं 'संवेगरंगशाला नामक ग्रंथ की रचना की । .. ३. श्री अभयदेव सूरिजी ने ९ अंगों पर टीकाएँ बनाई एवं स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट की। . . ४. श्री जिनवल्लभ सूरिजी ने नंदी, न्हवण, रथ, प्रतिष्ठा, युवतियों के ताला रास आदि कार्य रात्रि में किये जाने निषिद्ध किये। ५. श्री जिनदत्त सूरिजी ने उज्जैन में ध्यान-बल से योगिनी चक्र को प्रतिबोध दिया । शासन देवता ने इन्हें 'युग प्रधान' पद धारक घोषित किया। ६. श्री जिनचंद्र सूरिजी बडे रूपवान थे। इन्होंने बहुत से श्रावकों को प्रतिबोध दिया। ७. श्री जिनपति सूरिजी ने अजमेर के नृपति (पृथ्वीराज ) की सभा में पद्मप्रभ को पराजित कर जयपत्र प्राप्त किया। ८. श्री जिनेश्वर सूरिजी ने अनेक स्थानों में जिनालय एवं तदुपरि ध्वज, दण्ड, कलश, तोरणादि स्थापित किये एवं १२३ साधु दीक्षित किये। इनके पट्टधर श्री जिनप्रबोध सूरि के पट्टधर श्री जिनचंद्र सूरिजी के समय में कनाणा में वाचनाचार्य राजशेखर गणि के समीप, संवत् १३४७ के माघ मास में, इस चतुष्पदी की रचना हुई । इसकी एक प्रति हमें जैसलमेर के भंडार का अवलोकन करते हुए प्राप्त हुई थी, जिसकी नकल हमारे पास विद्यमान है और उससे आवश्यक पाठान्तर भी लिये गये हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कथन - . . २. रत्नपरीक्षा- यह ग्रंथ १३२* प्राकृत गाथाओं में है । संवत् १३७२ में दिल्ली में सम्राट् अल्लाउद्दीन के शासनमें वपुत्र हेमपाल के लिये प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की। पूर्व कवि अगस्त्य और बुद्ध भट के ग्रंथों के अतिरिक्त शाही रत्नकोश की अनुभूति द्वारा अभिलषित विषय का सुन्दर प्रतिपादन किया है। . .. ३. वास्तुसार-शिल्प स्थापत्य के विषय में प्रस्तुत ग्रंथ प्रामाणिक माना जाता है । पं. भगवानदासजी ने हिन्दी और गुजराती अनुवाद सह जयपुर से प्रकाशित मी कर दिया है। प्रस्तुत प्रति संवत् १४०४ की लिखित है और मुद्रित संस्करण से पाठ भेद का प्राचुर्य है । इसकी रचना संवत् १३७२ विजया - दशमी को कनाणापुर में हुई। ४. ज्योतिषसार- यह ग्रंथ संवत् १३७२ में २४२ प्राकृत गाथाओं में रचित है, जिसकी श्लोक संख्या, यंत्र कुंडलिका सह ४७४ होती है । इसमें ज्योतिष जैसे वैज्ञानिक विषय को बडी कुशलता के साथ निरूपण किया है। ५. गणितसार कौमुदी- यह ग्रंथ कुल ३११ गाथाओं में है । गणित जैसे शुष्क और बुद्धि प्रधान विषय का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार ने अपनी योग्यता का अच्छा परिचय दिया है । इस ग्रंथ के परिशीलन से तत्कालीन वस्तुओं के भाव, तौल, नाप इत्यादि सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति का अच्छा ज्ञान हो जाता है । वस्त्रों के नाम, उनके हिसाब, पत्थर, लकड़ी, सोना, चाँदी, धान्य, घृत, • तैलादि के हिसाबों के साथ साथ क्षेत्रों का माप, धान्योत्पत्ति, राजकीय कर, मुकाता इत्यादि अनेक. महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डाला गया है । इसके कतिपय प्रश्न देश्य भाषा के छप्पयों में भी है, जो भाषाकीय अध्ययन की दृष्टि से भी अपना वैशिष्टय रखते हैं। ६. धातोत्पत्ति- प्राकृत की ५७ गाथाओं में पीतल, तांबा, सीसा प्रभृति धातुओं के उत्पत्ति विधानादि के साथ साथ हिंगुल, सिंदुर, दक्षिणावर्त संख, कपूर, अगर, चंदन, कस्तूरी आदि वस्तुओं का भी विवरण दिया है; जो कवि के बहुज्ञ होने का सूचक है। ७. द्रव्यपरीक्षा- प्रस्तुत ग्रंथ कवि की समस्त रचनाओं में अद्वितीय है । भारतीय साहित्य में पुराने सिक्कों के संबन्ध में खतन्त्र रचना वाला यही एक ग्रंथ उपलब्ध है * पं. भगवानदासजी के प्रकाशित वास्तुसार (गुजराती अनुवादसहित ) के अंत में रत्नपरीक्षा (गा० २३ से १२७) छपी हैं। उसके बीच की ६१ से ११९ तक की गाथाएं : धातोत्पत्ति की हैं। पाठ-भेद भी काफी है। उक्त ग्रन्थानुसार रत्नपरीक्षा १२७ गाथाओं का होता है । पर वास्तव में उसमें बीच की बहुत सी गाथाएं छूट गई हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कथन जिसमें मुद्राओं के मूल उपादान, धातुओं की चासनी, धातुशोधन प्रणालिका, भिन्न भिन्न मुद्राओं (सैकडों रकम की ) के नाम, टंकसालस्थान, आकार प्रकार, तौल, माप, धातु के मिश्रण, राजाओं के नाम - ठाम आदि सभी विषयों पर १४९ गाथाओं में, प्राचीन काल से ले कर तत्कालीन समय तक की प्राप्त सभी मुद्राओं पर विशिष्ट विवेचन किया गया है। प्रस्तुत प्रति जिसके कुल ६० पत्र हैं, संवत् १४०३-१४०४ में लिखी हुई सुन्दर सुवाच्य और अच्छी स्थिति में है। किसी सा० भावदेव के पुत्र पुरिसड़ ने अपने लिए लिखी है। प्रति के हांसिये पर “पत्तनीय प्र.” लिखा हुआ है जिससे मालुम होता है कि यह प्रति मूलमें पाटण के ज्ञानभंडार की रही होगी । फेरू ग्रंथावली की प्रस्तुत प्रति से “ग्रेसकापी” भंवरलालने स्वयं अपने हाथ से करके पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी को भेजी, जिसे देख कर इन्होंने उस समय सिंधी जैन ग्रन्थमाला द्वारा इसे तुरन्त प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की। साथ में आपने मूल प्रति को भी देखना चाहा। पर कलकत्ते की तत्कालीन सांप्रदायिक विषम परिस्थिति वश, वह तब उन्हें नहीं भेजी जा सकी । बादमें जब मुनिजी कलकत्ता पधारे तब प्रस्तुत प्रति को बंबई ले गये। श्रद्धेय मुनिजी जैसे विद्वान के तत्वाधान में यह ग्रंथ शीघ्र प्रकाशित हो ऐसी हमारी उत्कट इच्छा रही, पर सिंधी जैन ग्रन्थमाला के अनेकानेक ग्रन्थों के संपादन कार्य में मुनिजी अत्यन्त व्यस्त रहने के कारण इसके प्रकाशन कार्य में विलंब होता रहा। पर अब यह ग्रन्थ, इस रूप में राजस्थान पुरातन ग्रन्थ माला द्वारा प्रकाशित हो रहा है, जो इस विषय के जिज्ञासुओं को परम आनन्द दायक होगा। , ' प्रस्तुत संग्रह में ठक्कुर फेरू के 'रत्नपरीक्षा' ग्रन्थ के परिचय रूप में, सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. मोती चन्दजी ने, हमारी प्रार्थना पर, एक विस्तृत निबन्ध लिख दिया है, जो इसमें मुद्रित हो रहा है। हम इसके लिये डॉ. साहब के प्रति अपना हार्दिक कृतज्ञ भाव प्रकर करना चाहते हैं। . . अन्त में हम आचार्य श्री जिनविजयजी के प्रति अपना विनम्र और सादर आभारभाव प्रदर्शित करना चाहते हैं कि इन्हों ने, बहुत परिश्रम के साथ, इस ग्रन्थ का यह सुन्दर प्रकाशन, राजस्थान पुरातन ग्रन्थ माला के एक सुन्दर रत्न के रूप में प्रकट कर, हमारे चिराभिलषित मनोरथ को सफल बनाया। अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेरूकृत रत्नपरीक्षाका परिचय लेखक - डॉ. मोतीचन्द्र, एम्. ए., पीएच्. डी. (क्युरेटर, प्रिन्स ऑफ वेल्स मुजिअम, बंबई) अमरकोश (२।१।३-४ ) में पृथ्वी के अड़तीस नामों में वसुधा, वसुमती और रत्नगर्भा नाम आए हैं जिनसे इस देश के रत्नों के व्यापार की ओर ध्यान जाता है । प्लिनी ने ( नेचुरल हिस्ट्री ३७७६ ) भी भारत के इस व्यापार की ओर इशारा किया है । इसमें जरा भी संदेह नहीं कि १८ वीं सदी पर्यंत जब तक कि, ब्राजिल की रत्नों की खानें नहीं खुलीं थीं, भारत- संसार भर के रत्नों का एक प्रधान बाजार था । रत्नों की खरीद विक्री के बहुत दिनों के अनुभव से भारतीय जौहरियोंने रत्नपरीक्षा शास्त्र का सृजन किया। जिसमें रत्नों के खरीद, बेच, नाम, जाति, आकार, घनत्व, रंग, गुण, दोष, कीमत तथा उत्पत्तिस्थानों का सांगोपांग विवेचन किया गया। बाद में जब नकली रत्न बनने लगे तब उन्हें असली रत्नों से विलग करने के तरीके भी बतलाए गए । अंत में रत्नों और नक्षत्रों के सम्बन्ध और उनके शुभ और अशुभ प्रभावों की ओर भी पाठकों का ध्यान दिलाया गया। रत्नपरीक्षा का शायद सबसे पहला उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र (२।१०।२६) में हुआ है । इस प्रकरणमें अनेक तरह के रत्न, उनके प्राप्तिस्थान तथा गुण और दोष की.विवेचना है । कामसूत्र की चौंसठ कलाओं की तालिका में (कामसूत्र, १।३।१६) रूप्य-रत्न-परीक्षा और मणिरागाकर ज्ञान विशेष कलाएँ मानी गई हैं। जयमंगला टीका के अनुसार रूप्य-रत्न-परीक्षा के अन्तर्गत सिक्कों तथा रत्न, हीरा, मोती इत्यादि के गुण दोषों की पहचान व्यापार के लिए होती थी । मणिरागाकर ज्ञान की कला में गहनों के जड़ने के लिए स्फटिक रंगने और रत्नों के आकरों का ज्ञान आ जाता था। दिव्यावदान (पृ० ३) में भी इस बात का उल्लेख है कि व्यापारी को आठ परीक्षाओं में, जिनमें रत्नपरीक्षा भी एक है, निष्णात होना आवश्यक था । पर इस रत्नपरीक्षा ने किस युग में एक शास्त्र का रूप ग्रहण किया इसका ठीक ठीक पता , नहीं चलता। कौटिल्य के कोश-प्रवेश्य रत्नपरीक्षा प्रकरण से तो ऐसा मालूम पड़ता है कि मौर्य युग में भी किसी न किसी रूप में रत्नपरीक्षा शास्त्र का वैज्ञानिक रूप स्थिर हो चुका था । रोम और भारत के बीच में ईसा की आरंभिक सदियों में जो व्यापार बलता था उसमें रत्नों का भी एक विशेष स्थान था । इसलिए यह अनुमान करना शायद गलत न होगा कि भारतीय व्यापारियों को, रत्नों का अच्छा ज्ञान रहा होगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित और किसी न किसी रूप में रत्नपरीक्षा शास्त्र की स्थापना हो चुकी होगी। जो भी हो, इसमें जरा भी संदेह नहीं कि ईसा की पांचवीं सदी के पहले रत्नपरीक्षा का सृजन हो चुका था। . यह समझ लेना भूल होगा कि रत्न-परीक्षा शास्त्र केवल जौहरियों की शिक्षा के लिए ही बना था । इसमें शक नहीं कि, जैसा दिव्यावदान में कहा गया है, व्यापारियों के पुत्र पूर्ण और सुप्रिय (दिव्यावदान, पृ० २६, २९,) को और और विद्याओं के साथ साथ रत्नपरीक्षा भी पढ़ना पड़ा था । हमें इस बात का पता है कि प्राचीन भारत में राजा और रईस रत्नों के पारखी होते थे। यह आवश्यक भी था क्यों कि व्यापारियों के सिवा वे ही रत्न खरीदते थे और संग्रह करते थे । जैसा कि हमें साहित्य से पता चलता है, काव्यकारों को भी इस रत्नशास्त्र का ज्ञान होता था और वे बहुधा रत्नों का उपयोग रूपकों और उपमाओं में करते थे, गो कि रत्न सम्बन्धी उनके अकंलार कभी कभी अतिरंजित होकर वास्तविकता से बहुत दूर जा पहुंचते थे । जैसा कि हमें मृच्छकटिक के चौथे अंक से पता चलता है, कि जब विदूषक वसंतसेना के महल में घुसा तो उसने छटे परकोटे के आंगन के दालानों में कारीगरों को आपस में वैडूर्य, मोती, मूंगा, पुखराज, नीलम, कर्केतन, मानिक और पन्ने के सम्बन्ध में बातचीत करते देखा । मानिक सोने से जड़े (बध्यन्ते) जा रहे थे, सोने के गहने गढ़े जा रहे थे, शंख काटे जा रहे थे, और काटने के लिए मूंगे सान पर चढ़ाए जा रहे थे । उपर्युक्त विवरण से इस बात का पता चल जाता है कि शूद्रक को रत्नपरीक्षा का अच्छा ज्ञान रहा होगा । कलाविलास के आठवें सर्ग में सोनारों के वर्णन से भी इस बात का पता चलता है कि क्षेमेन्द्र को उनकी कला और रत्नशास्त्र का अच्छा परिचय था। रत्नपरीक्षा शास्त्र का जितना ही मान था, उतना ही वह शास्त्र कठिन माना जाता था । इसीलिए एक कुशल रत्नपरीक्षक का समाज में काफि आदर होता था। रत्नपरीक्षा के ग्रंथ उसका नाम बड़े आदर से लेते हैं। अगस्तिमत' (६७-६८) के अनुसार गुणवान मंडलिक जिस देश में होता है, वह धन्य है। ग्राहक को उसे बुलाकर आसन देकर तथा गंध मालादि से सत्कार करना चाहिए । बुद्धभट्ट (१४-१५) के अनुसार रत्नपरीक्षकों को शास्त्रज्ञ एवं कुशल होना चाहिए । इसीलिये उन्हें रत्नों के मूल्य और मात्रा के जानकार कहा गया है। देश काल के अनुसार मूल्य न आंकने वाले तथा शास्त्र से अनभिज्ञ जौहरियों की विद्वान कदर नहीं करते। ठकुर फेरू (१०६-१०७) का भाव भी कुछ ऐसा ही है। उसके अनुसार मंडलिक 1. देखिए, लेलेपिदर आंदियां, श्री लुई फिनो, पारी १८९६ । मैंने इस भूमिका को लिखने में श्री फिनो के ग्रंथ से सहायता ली है जिसका मैं आभार मानता हूं। श्री फिनो ने अपने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ. में उपलब्ध रत्न शास्त्रों को एक जगह इकट्ठा कर दिया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय को शास्त्रज्ञ, आंखवाला, अनुभवी, देश, काल और भाव का ज्ञाता और रत्नों के खरूप का जानकार होना आवश्यक था। हीनांग, नीच जाति, सत्य रहित और बदनाम व्यक्ति जानकार और मान्य होने पर भी असली जौहरी .कभी नहीं हो सकता । अगस्तिमत (६५) ने भी यही भाव प्रकट किए हैं। अगस्तिमत (५४-६६ ) के अनुसार चतुर जौहरी को मंडलिन् कहा गया है। यह नाम शायद इसलिए पड़ा कि जौहरी अपना काम करते समय मंडल में बैठता था। यह भी संभव है कि यहां मंडल से मंडली यानी समूह का मतलब हो। अगस्ति मत (६१-६६) के अनुसार जौहरी रत्नों का मूल्य आंकता था। उसे देश में मिलनेवाले आठ खानों तथा विदेशी और द्वीपों से आए हुए रत्नों का ज्ञान होता था। उसे रत्नों की जाति, राग रंग, वर्ति, तौल, गुण, आकर, दोष, आब (छाया) और मूल्य का पता होता था। वह आकर (पूर्वी मध्यभारत), पूर्वदेश, कश्मीर, मध्यदेश, सिंहल तथा सिंधु नदी की घाटी में रत्न खरीदता था तथा रत्न बेचने और खरीदने वाले के बीच मध्यस्थ का काम करता था। अगस्तिमत (७२) के अनुसार वह रत्न विक्रेता से हाथ मिलाकर अंगुलियों के इशारे से उसे रत्न के मूल्य का पता दे देता था। उसी के एक क्षेपक (१३-२३ ) के अनुसार १, २, ३, ४ संख्याओं का क्रमशः तर्जनी से दूसरी अंगुलियों को पकड़ने से बोध होता था । अंगूठे सहित चारों अंगुलियां पकड़ने से ५ की संख्या प्रकट होती थी। कनिष्ठा आदि के तलस्पशे से क्रमशः ६, ७, ८ और ९ की संख्याओं का बोध होता था; तथा तर्जनी से १० का। फिर नखों के छूने से क्रमशः ११, १२, १३, १४ और १५ का बोध होता था । इसके बाद हथेली छूने पर कनिष्ठादि से १६ से १९ तक की संख्याओं का बोध होता था। तर्जनी आदि का दो, तीन, चार और पांच बार छूने से २० से ५० तक की संख्याओं का बोध होता था । कनिष्ठा आदि के तलों को ६ वार तक छूने से ६० से ९० तक अंकों की ओर इशारा हो जाता था; तथा आधी तर्जनी पकड़ने से १००, आधी मध्यमा पकड़ने से १०००, आधी अनामिका पकड़ने से अयुत, आधी कनिष्ठिका से १०००००, अंगूठे से प्रयुत, कलाई से करोड़ । मुगल काल में तथा अब भी अंगुलियों की सांकेतिक भाषा से जौहरी अपना व्यापार चलाते हैं। प्राचीन साहित्य में भी बहुधा जौहरियों के सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं । दिव्यावदान (पृ० ३) में कहा गया है कि किसी रत्न की कीमत आंकने के लिए जौहरी बुलाये जाते थे। अगर वे रत्न की ठीक ठीक कीमत नहीं आंक सकते थे तो उसका मूल्य वे एक करोड़ कह देते थे। बृहत्कथाश्लोकसंग्रह ( १८, ३६६) से पता चलता है कि सानुदास ने पांड्य मथुरा में पहुंच कर वहां का जौहरी बाजार देखा और वहां एक क्रेता और विक्रेता को, एक जौहरी से, एक रत्नालंकार. का मूल्य आंकने को कहते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरू-विरचित सुना । सानुदास को उस गहने की ओर ताकते हुए देखकर उन्होंने समझा कि शायद यह निगाहदार था। उससे पूछने पर उसने गहने की कीमत एक करोड़ बता कर कह दिया कि बेचने और खरीदनेवाले की मर्जी से सौदा पट सकता था । वे दोनों एक दूसरे जौहरी के पास पहुंचे जिसने कहा कि गहने की कीमत सारा संसार था पर नासमझ के लिए उसका मोल एक छदाम था । सानुदास की जानकारी से प्रसन्न होकर राजा ने उसे अपना रत्नपरीक्षक नियुक्त कर दिया । प्राचीन साहित्य में अनेक ऐसे उल्लेख आए हैं जिनसे पता चलता है कि रत्नों के व्यापार के लिए भारतीय जौहरी देश और विदेश की बराबर यात्रा करते थे। दिव्यावदान (पृ० २२९-२३०) की एक कहानी में बतलाया गया है कि रत्नों के व्यापारी मोती, वैडूर्य, शंख, मूंगा, चांदी, सोना, अकीक, जमुनिया, और दक्षिणावर्त शंख के व्यापार के लिए समुद्र यात्रा करते थे। निर्यामक प्रायः उन्हें सिंहल द्वीप में बनने वाले नकली रत्नों से होशियार कर देता था तथा उन्हें आदेश दे देता था कि वे खूब समझ कर माल खरीदें । ज्ञाताधर्म कथा (१७) और उत्तराध्ययन सूत्रकी टीका (३६।७३ ) से भी रत्नों के इस व्यापार की ओर संकेत मिलता है । उत्तराध्ययन टीका में एक ईरानी व्यापारी की कहानी दी गई है जो ईरान से इस देश में सोना, चांदी, रत्न और मूंगा छिपा कर लाना चाहता था । आवश्यक चूर्णि (पृ० ३४२ ) में रतव्यापार के लिए एक बनिए का पारसकूल जाने का उल्लेख है । महाभारत (२।२७।२५-२६) के अनुसार दक्षिण समुद्र से इस देश में रत्न और मूंगे आते थे । ईसा की प्रारंभिक सदियों में तो भारत से रोम को हीरे, सार्ड, लोहितांक, अकीक, सार्डोनिक्स, बाबागोरी, क्राइसाप्रेस, जहर मुहरा, : रक्तमणि, हेलियोटाप, ज्योतिरस, कसौटी पत्थर, लहसुनियां, एवेंचुरीन, जमुनिया, स्फटिक, बिल्लौर, कोरंड, नीलम, मानिक लाल, लालवर्द, गार्नेट, तुरमुली, मोती इत्यादि पहुंचते थे (मोतीचन्द्र, सार्थवाह, पृ० १२८-१२९) -:२: प्राचीन रत्नपरीक्षा का क्या रूप रहा होगा यह तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता, पर उस सम्बन्ध के जो ग्रंथ मिले हैं उनका विवरण नीचे दिया जाता है। . १. अर्थशास्त्र-कौटिल्य ने कोश-प्रवेश्य रत्नपरीक्षा (अर्थशास्त्र, २-१०-२९) में रत्नपरीक्षा के सम्बन्ध की कुछ जानकारियां दी हैं । कोश में अधिकारी व्यक्तियों के सलाह से ही रत्न खरीदे जाते थे । पहले प्रकरण में मोती के उत्पत्ति स्थान, गुण, दोष तथा आकार इत्यादि का वर्णन है । इसके बाद मणि, सौगंधिक, वैडूर्य, पुष्पराग, इन्द्रनील, नंदक, स्रवन्मध्य, सूर्यकान्त, विमलक, सस्यक, अंजनमूल, पित्तक, सुलभक, लोहितक, अमृतांशुक, ज्योतिरसंक, मैलेयक, अहिच्छत्रक, कूर्प, पूतिकूर्प, सुगन्धिकूप, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय क्षीरपक, सुक्तिचूर्णक, सिलाप्रवालक, चूलक, शुक्रपुलक तथा हीरा और मूंगा के नाम आए हैं । इनमें से बहुत से रत्नों की ठीक ठीक पहचान भी नहीं हो सकती क्यों कि बाद के रत्नशास्त्र उनका उल्लेख तक नहीं करते । २. रत्नपरीक्षा-बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा का समय निश्चित करने के पहले वराहमिहिर की बृहत् संहिता के ८० से ८३ अध्यायों की जानकारी जरूरी है । इन अध्यायों में हीरा, मोती और मानिक के वर्णन हैं । पन्ने का वर्णन तो केवल एक श्लोक में हैं । बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा और बृहत्संहिता के रत्नप्रकरण की छानबीन करके श्री फिनो (वही पृ० ७ से ) इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि दोनों की रत्नों की तालिकाओं तथा हीरे और मोती का भाव लगाने की विधि इत्यादि में बड़ी समानता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों ग्रंथों ने समान रूप से किसी प्राचीन रत्नशास्त्र से अपना मसाला लिया। गरुड़ पुराण ने भी बुद्धभट्ट का नाम हटाकर ६८ से ७० अध्यायों में रत्नपरीक्षा ग्रहण कर लिया । बहुत संभव है कि शायद बुद्धभट्ट का समय ७-८ वीं सदी या इसके पहले भी हो सकता है। ३. अगस्तिमत-अगस्तिमत और रत्नपरीक्षा का विषय एक होते हुए भी दोनों में इतना भेद है कि दोनों एक ही अनुश्रुति की बहुत दिनोंसे अलग हुई शाखा जान पड़ते हैं। श्री फिनो (पृ० ११) के अनुसार अगस्तिमत का समय बुद्धभट्ट के बाद यानी छठी सदी के बाद माना जाना चाहिए । शायद उसका लेखक दक्षिण का रहनेवाला जान पड़ता है । संभव है कि अगस्तिमत का आधार कोई. ऐसा रत्नशास्त्र रहा हो जिसकी ख्याति दक्षिण में बहुत दिनों तक थी। ग्रंथ के अनेक उल्लेखों से ऐसा पता चलता है, कि रत्नशास्त्र के प्राचीन सिद्धान्तों को निबाहते हुए भी ग्रंथकार ने अपने अनुभवों का उल्लेख किया है । अभाग्यवश ग्रंथकार के व्याकरण और शैली में निष्णात न होने से उसके भाव समझने में बड़ी कठिनाई पड़ती है। ४. नवरत्नपरीक्षा-नवरत्नपरीक्षा के दो संस्करण मिलते हैं। छोटे संस्करण में सोम भूभूज का नाम तीन जगह मिलता है जिसके आधार पर यह माना जा सकता है कि इसके रचयिता कल्याणी का पश्चिमी. चालुक्य राजा सोमेश्वर (११२८-११३८, ई.) था । इस कथन की सचाई इस बात से भी सिद्ध होती है कि मानसोल्लास के कोशाध्यायमें (मानसोल्लास, भा० १, पृ० ६४ से ) जो रत्नों का वर्णन है, वह सिवाय कुछ छोटे मोटे पाठभेदों के नवरत्नपरीक्षा जैसा ही है । नवरत्नपरीक्षा का दूसरा संस्करण बीकानेर और तंजोरकी हस्तलिखित प्रतियों में मिलता है । इसमें धातुगद, मुद्राप्रकार और कृत्रिम रत्नप्रकार प्रकरण अधिक हैं । संभव है कि स्मृतिसारोद्धार के लेखक नारायण पंडित ने इन प्रकरणों को अपनी ओर से जोड़ दिया हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित ५. अगस्तीय रत्नपरीक्षा-अगस्तीय रत्नपरीक्षा वास्तव में अगस्ति मत का सार है । पर विस्तार में कहीं कहीं नई बातें आ गई हैं । अभाग्यवश इसका पाठ बहुत भ्रष्ट और अशुद्ध है। . उपर्युक्त ग्रंथों के सिवाय रत्नसंग्रह, अथवा रत्नसमुच्चय, अथवा समस्तरत्नपरीक्षा २२ श्लोकों का एक छोटा सा ग्रंथ है। लघुरत्नपरीक्षा में भी २० श्लोक हैं, जिनमें रत्नों के गुण दोषों का विवरण है । मणिमाहात्म्य में शिव पार्वती संवाद के रूप में कुछ उपरत्नों की महिमा गाई गई है। ६. फेरू रचित रनपरीक्षा-ठकुर फेरूर चित रत्नपरीक्षा का कई कारणों . से विशेष महत्व है । पहली बात तो यह है कि यह रत्नपरीक्षा प्राकृत में है। ठक्कुर फेरू के पहले भी शायद प्राकृत में रत्नपरीक्षा पर कोई ग्रंथ रहा हो, पर उसका अभी तक पता नहीं। दूसरी बात यह है कि ग्रंथकार श्रीमाल जाति में उत्पन्न ठक्कुर चंद के पुत्र ठकुर. फेरू का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६) के खजाने और टक्साल से निकटतर सम्बन्ध था। उसका स्वयं कहना है कि उसने बृहस्पति, अगस्त्य और बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षाओं का अध्ययन करके और एक जौहरी की निगाह से अलाउद्दीन के खजाने में रत्नों को देख कर, अपने ग्रंथ की रचना की (३-५). उसके इस कथन से यह बात साफ मालूम पड़ जाती है कि कम से कम ईसा की १३ वीं सदी के अंत में बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा, वराहमिहिर के रत्नों पर के अध्याय और अगस्तिमत, रत्नशास्त्र पर अधिकारी ग्रंथ माने जाते थे और उनका उपयोग उस युग के जौहरी बराबर करते रहते थे । जैसा हम आगे चल कर देखेंगे, ठक्कुर फेरू ने रत्नपरीक्षा की प्राचीन परम्परा की रक्षा करते हुए भी तत्कालीन मूल्य, नाप, तोल तथा रत्नों के अनेक नए स्रोतों का उल्लेख किया है जिनका पता हमें फारसी इतिहासकारों से भी नहीं चलता। . प्राचीन रत्नशास्त्रों में खानों से निकले रनों के सिवाय मोती और मूंगा भी शामिल है जो वास्तव में पत्थर नहीं कहे जा सकते । साधारणतः जवाहरात के लिए रत्न और. मणि और कभी कभी उपल शब्द का व्यवहार किया गया है । संस्कृत साहित्य में रत्न शब्द का व्यवहार कीमती वस्तु और कीमती जवाहरात के लिए हुआ है । वराहमिहिर (बृ० सं० ८०१२) के अनुसार रत्न शब्द का व्यवहार हाथी, घोड़ा, स्त्री इत्यादि के लिए गुणपरक है, रत्नपरीक्षा में इसका व्यवहार केवल कंचनादि रनों के लिए हुआ है । मणि शब्द का व्यवहार कीमती रत्नों के लिए हुआ है, पर बहुधा यह शब्द मनिया, गुरिया अथवा मनके लिए भी आया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय वेदों में रत्न शब्द का प्रयोग कीमती वस्तु और खजानों के अर्थ में हुआ है । ऋग्वेद में तीन जगह (फिनो, पृ० १५) सप्त रत्नों का उल्लेख है । मणि का अर्थ ऋग्वेद में तावीज की तरह पहननेवाले रत्नों से है (ऋग्वेद, १।३।८; अ० वे० २२९२, २।४।१ इत्यादि ) मणि तागे में पिरोकर गले में पहनी जाती थी (वाजसनेयी सं० ३०१७; तैत्तिरीयसं ३।४।३।१ ) इसमें भी संदेह नहीं कि वैदिक आर्यों को मोती का भी ज्ञान था। मोती ( कृशन) का उपयोग शृंगार के लिए होता था (ऋग्वेद, २।३५/४; १०।६८।१; अथर्ववेद ४।१०।१-३) 'सुव्यवस्थित रत्नशास्त्रों के अनुसार नव रत्नों में पांच महारत्न और चार उपरत्न हैं। वज्र, मुक्ता, माणिक्य, नील और मरकत महारत्न हैं। गोमेद, पुष्पराग, वैडूर्य (लहसनिया ) और प्रवाल उपरत्न हैं । मानिक और नीलम के कई भेद गिनाए गए हैं । वराहमिहिर ( ८२।१ ) तथा बुद्धभट्ट (११४) के अनुसार मानिक के चार भेद यथा-पद्मराग, सौगंधि, कुरुविंद और स्फटिक हैं। अगस्तिमत (१७३) के अनुसार मानिक के तीन भेद हैं, यथा-पद्मराग, सौगंधिक, कुरुविंद । नवरत्नपरीक्षा (१०९-११०) में इनके सिवाय नीलगंधि मी आ गया है। अगस्तीय रत्नपरीक्षा में (४६ से) मानिक का एक नाम मांसपिंड भी है। ठक्कुर फेरू के अनुसार (५६) मानिक के साधारण नाम माणिक्य और चुन्नी है, अब भी मानिक के ये ही दो नाम सर्वसाधारण में प्रचलित हैं। मानिक के निम्नलिखित भेद गिनाए गए हैं- पाराय (पद्मराग ), सौगंधिय (सौगंधिक), नीलगंध, कुरुविन्द और जामुणिय । रत्नपरीक्षाओं में नीलम के तीन भेद गिनाए गए हैं-नील साधारण नीलम के लिए व्यवहृत हुआ है तथा इन्द्रनील और महानील उसकी कीमती किस्में थीं। ठकुर फेरू ने (८१) नीलम की केवल एक किस्म महिंदनील (महेन्द्रनील) बतलाया है। प्राचीन रत्नपरीक्षाओं में पन्ने के मरकत और तार्क्ष्य नाम आए हैं। पर ठक्कुर फेरू (७२) ने पन्ने के निम्नलिखित भेद दिए हैं- गरुडोदार, कीडउठी, बासउती, मूगउनी, और धूलिमराई। , उपर्युक्त नव रत्नों की तालिका प्रायः सब रत्नशास्त्रों में आती है पर अगस्तिमत (३२५-२९) में स्फटिक और प्रभ जोड़कर उनकी संख्या ग्यारह कर दी गई है। बुद्धभट्ट ने उस तालिका में पांच निम्नलिखित रत्न जोड़ दिए हैं - यथा शेष (onyx) कर्केतन (thrysobenyl ) भीष्म, पुलक (garnet) रुधिराक्ष (carnelial) शेष का ही अरबी जज रूपान्तर है । यह पत्थर भारत और यमन से आता था। इसके बहुत से रंग होते हैं जिनमें सफेद और काला प्रधान है। भारत में इस पत्थर का पहनना अशुभ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित माना जाता था । मीष्म कोई सफेद रंग का पत्थर होता था। बुद्धभट्ट ( २१२-७९) के अनुसार कषायक पिलाहट लिए हुए लालरंग का पत्थर होता था जो युक्तिकल्पतरु के अनुसार स्फटिक का एक भेद मात्र था । सोमलक नीलमायल सफेद पत्थर था और कुल कर्केतन के किस्म का नीला पत्थर था। वराहमिहिर की रनों की तालिका में बाईस नाम गिनाए गए हैं पर एक ही रत्न की अनेक किस्में देखते हुए उनकी संख्या कम कर दी जा सकती है। जैसे शशिकान्त स्फटिक का ही एक मेद है, महानील और इन्द्रनील नीलम हैं, तथा सौगंधिक और . पराग मानिक के ही मेद हैं । इस तरह रत्नों की संख्या घट कर उन्नीस हो जाती है यथा स्फटिक के सहित दस रत्न, कर्केतन, पुलक, रुधिराक्ष तथा विमलक, राजमणि, शंख, ब्रह्ममणि, ज्योतिरस और सस्यक । ज्योतिरस और सस्यक का उल्लेख अर्थशास्त्र (२।११।२९) में भी हुआ है। शंख से शायद यहां दक्षिणावर्त शंख का अनुमान किया जा सकता है । ज्योतिरस शायद जेस्पर या हेलियोट्रोप था। उपर्युक्त रनों के सिवाय, फिरोजा (पेरोज, पीरोज) लाजवर्द और लसुन यानी लहसुनिया या वैडूर्य के नाम भी आए हैं। रत्नसंग्रह । (१९) में मसारगर्भ (रूपमुसारगर्भ, मुसलगभे, मुसारगल्व; पालि-मसारगल्ल, मुसारगल्ल) को दूध पानी अलग करने वाला, श्यामरंग का, चमकीला तथा दुष्ट दोषों का अपहर्ता कहा गया है । शब्दकल्पद्रुम ने इसे · इन्द्रनीलमणि कहा है जो ठीक नहीं । महाभारत (२२४७१४ ) में भगदत्त द्वारा युधिष्ठिर को अश्मसार का बना पात्र देने का उल्लेख है जिसकी पहचान शायद मसारगर्भ से की जा सकती है । मसारगर्भ की पहचान चीनी रुन-चे-यू यानी जमुनियां से की जाती है, पर अश्मसार यशब भी हो सकता है। क्यों कि आसाम का पड़ोसी बर्मा यशब के लिए प्रसिद्ध है। ठक्कुर फेरुकृत रत्नपरीक्षा (१४-१५) में नवरत्न यथा पनराग, मुक्ता, विद्रुम, मरकत, पुखराज, हीरा, इन्द्रनील, गोमेद और वैडूर्य गिनाए हैं। इनके सिवाय हसणिया (९२-९३) फलह (स्फटिक, ९५-९६) कर्केतन (९८) भीसम (भीष्म, ९९) नाम आए हैं। ठकर फेरू ने लाल, अकीक और फिरोजा को पारसी रत्न बतलाया है (१७३), इस तरह ठकुर फेरू के अनुसार, रत्नों की संख्या सोलह बैठती है। पर वर्णरत्नाकर के रचयिता ज्योतिरीश्वर ठक्कर (आरंभिक १४ वीं सदी) के समय में लगता है कि १८ रत्न और ३२ उपरत्न माने जाते थे ( वर्णरत्नाकर, पृ० २१, ४१, श्री सुनीतिकुमार चेटर्जी द्वारा संपादित, कलकत्ता १९४०)। रत्नों की तालिका में गोमेद, गरुड़ोद्गार, मरकत, मुकुता, मांसखंड, पद्मराग, हीरा, रेणुज, मारासेस, सौगं For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय धिक चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, प्रवाल, राजावर्त, कषाय और इन्द्रनील के नाम आए हैं। इस तालिका में रत्नपरीक्षा के महारत्नों में गोमेद, मरकत, मुक्ता, हीरा, पद्मराग, इन्द्रनील, प्रवाल और सूर्यकान्त हैं । मांसखंड, सौगंधिक, (शायद चुन्नी), तो पनराग या मानिक के ही भेद हैं । इसी तरह चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त और कषाय स्फटिक के भेद हैं । मारासेस. जिसका सम्बन्ध शेष (onyx) से हो सकता है; तथा लाजवर्द की गणना रत्नों में किस प्रकार की गई यह कहना सम्भव नहीं । ___ उपमणियों की तालिका वर्णरत्नाकर में दो जगह आई है [पृ० २१, ४१] इनमें [१] कूर्म, [२] महाकूर्म, [३] अहिछत्र, [४ ] श्यावगं (सं) घ, [५] व्योमरागं, [६] कीटपक्ष, [७] कुरू [ कूर्म ] विंद, [८] सूर्यभा (ना)ल, [९] हरि (री) तसार, [१०] जीविउ (जीवित), [११] यवयाति (यवजाति), [१२] शिखि (खी) निल, [१३] वंशपत्र, [१४] धू (चू ) लिमरकत, [१५] भस्मांग, [१६] जंबुकान्त, [१७] स्फटिक, [१८] कर्केतर, [१९] पारिपात्र, [२०] नन्दक, [२१] अंच (तु) नक, [२२] लोहितक, [२३] शैलेयक, [२४] शुक्तिचूर्ण, [२५] पुलक, [२६] तुल्य (त्थ ) क, [२७] शुकग्रीव [२८] गुरुत् (ड) पक्ष, [२९] पीतराग, [३०] वर्णरस (सर), [३१] कपूर्रक, [३२] काच । उपमणियों की उपर्युक्त तालिका में कुछ मणियों पर ध्यान दिलाना आवश्यक है । इसमें कूर्म और महाकूर्म तो मणियों की श्रेणी में नहीं आते । कछुए की खपडियों का व्यापार बहुत पुराना है और इसका उल्लेख पेरिप्लस में अनेक बार हुआ है (शाफ, पेरिप्लस आफ दि एरीथ्रियन सी, पृ० १३ इत्यादि) अहिछत्रक का उल्लेख हमारा ध्यान कौटिल्य (२।१।२९) के आहिच्छत्रक रन की ओर ले जाता है। धूलिमरकत से यहां शायद पन्ने के खड से मतलब है और इस तरह वह ठक्कुर फेरू की धूलिमराई भी शायद खड़ हो । भस्मांग से यहां शायद भीष्म से मतलब है । जंबुकान्त से शायद जमुनियां का मतलब है। अंजन, पुलक, नंदक और शुक्तिचूर्णक के नाम भी अर्थशास्त्र में आए हैं। कर्केतर से यहां कर्केतन का तथा लोहितक से लोहितांक का मतलब है । तुत्यक से हमारा ध्यान कौटिल्य के तुत्थोद्गत चांदी की और खींच जाता है (१२।१४।३२)। काच से काच मणि की और इशारा है। सन् १४२१ में लिखित पृथ्वीचन्द्र चरित्र (प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ० ९५, बडोदा, १९२०) में रनों और उपरत्नों की निम्न लिखित तालिका दी गई हैपनराग, पुष्पराग (पुखराज) माणिक, सींधलिया, गरुडोद्गार, मणि, मरकत, कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, जलकान्त, शिवकान्त, चन्द्रप्रभ, साकर प्रभ, प्रभनाथ, अशोक, वीतशोक, अपराजित, गंगोदक, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलिक, सौगंधिक, सुभग, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित सौभाग्यकर, विषहर, धृतिकर, पुष्टिकर, शत्रुहर, अंजन, ज्योतिरस, शुभरुचि, शूलमणि, अंशुकालि, देवानन्द, रिष्टरत्न, कीटपंख, कसाउला, धूमराइ, गोमूत्र, गोमेद, लसणीया, नीला, तृणधर, खगराइ, वजधार, षट्रोण, कणी, चापडी, पिरोजा, प्रवाला, मौक्तिक । उपर्युक्त तालिका के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि ग्रंथकार ने उसमें रत्नों और उपरत्नों के सिवाय उनके भेद, गुण, दोष इत्यादि की भी गिनती कर ली है । जैसे पत्नराग, माणिक, सींधलिया और सौगंधिक मानिक के भेद हैं। मरकत के भेद में ही गरुडोद्गार, मणि, मरकत, धूमराई और कीटपंख आ जाते हैं । स्फटिक के भेदों में चन्द्रकांत, जलकांत, शिवकांत, चन्द्रप्रभ, साकरप्रभ, प्रभानाथ, गंगोदक, हंसगर्भ, कसाउला (काषाय) आ जाते हैं। पुखराज, कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, अशोक, वीतशोक, पुलक, अंजन; ज्योतिरस, अंशुकालि, मसारगल्ल, रिष्टरत्न, गोमूत्र, गोमेद, लहसनिया, नीला, पिरोजा, मोती, मूंगा अलग अलग रत्न या उपरत्न हैं । अपराजित, सुभग, सौभाग्यकर, विषहर, धृतिकर, पुष्टिकर, शत्रुहर, देवानन्द, तृणधर, रत्नों के गुण से सम्बन्ध रखते हैं। वज्रधार, षट्रोण, कर्णी और चापड़ी रनों की बनावट से सम्बन्धित हैं। ___ यहां बौद्ध और जैन शास्त्रों में आई रत्नों की तालिकाओं की ओर भी ध्यान दिला देना आवश्यक मालूम होता है । चुल्लवग्ग ( ९।१।३ ) में मुत्ता, मणि, वेलरिय, शंख, शिला, पवाल, रजत, जातरूप, लोहितंक और मसारगल्ल के नाम आए हैं । मिलिन्द्र प्रश्न (पृ० ११८) में इंदनील, महानील, जोतिरस, वेलुरिय, उम्मापुप्फ, सिरीस पुप्फ, मनोहर, सूरियकंत, चंदकंत, वज्र, कजोपमक, फुस्सराग, लोहितंक और मसारगल्ल के नाम आए हैं। सुखावती व्यूह (५६ ) में वैडूर्य, स्फटिक, सुवर्ण, रूप, अश्मगर्भ, लोहितिका और मुसारगल्ल नाम आए हैं । दिव्यावदान में रत्नों की दो तालिकाएं हैं । एक में (पृ० ५१) मुक्ता, वैडूर्य, शंख, शिला, प्रवालक, रजत, जातरूप, अश्मगर्भ, मुसारगल्ल, लोहितिका और दक्षिणावर्त के नाम हैं, और दूसरीमें (पृ० ६७) पुष्यराग, पद्मराग, वज्र, वैडूर्य, मुसारगल्ल, लोहितिका, दक्षिणावर्त शंख, शिला और प्रवाल के नाम हैं । जैन प्रज्ञापना सूत्र (भगवान दास हर्षचन्द्र द्वारा अनूदित १, पृ० ७७, ७८) में वदूर, जग ( अंजण ), पवाल, गोमेज, रुचक, अंक, फलिह, लोहियक्ख, मरकय, मसारगल्ल, भुयमोयग, इंदनील, हंसगब्भ, पुलक, सौगंधिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकांत और सूर्यकांत के नाम आए हैं । चुल्लवग्ग की तालिका में शिला से शायद स्फटिक से मतलब है । मिलिंद प्रश्न की तालिका में उम्मपुष्फ से शायद जमुनिया का; शिरीषपुष्पक से (अ० शा० २।११।२९) शायद किसी तरह के वैडूर्य का बोध होता है । कज्जोपमक से शायद चिन्तामणि रत्न की ओर इशारा है जो सब काम पूरा करता था । वराहमिहिर का (बृ० सं० ८०५) ब्रह्ममणि भी शायद चिन्तामणि ही हो । सुखावती व्यूह के अश्मगर्भ से शायद पन्ने का मतलब हो ( अमरकोश २।९।९२ )। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय प्रज्ञापनासूत्र में भुयगमोचक से शायद जहर मुहरे का और हंसगर्भ से किसी तरह के स्फटिक का बोध होता है। अर्थशास्त्र ( २।११।२९) में जैसा हम पहले देख आए हैं, अनेक रत्नों के उल्लेख हैं। इनमें मोती, हीरा पद्मराग, वैडूर्य, पुष्पराग, गोमंदक, नीलम, चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त इत्यादि रत्नों की श्रेणीमें आ जाते हैं। कौट, मौलेयक और पारसमुद्रक से मणियों के उत्पत्ति स्थान का बोध होता है। कूट पर्वत का तो पता नहीं पर मौलेयक रत्न का नाम शायद बलूचिस्तान में झालावन में बहनेवाली मूलानदी से पड़ा हो (मोतीचन्द्र जे० यू० पी० एच० एस० १७ मा० १, पृ० ६३) लगता है कि प्राचीन साहित्य में रत्नों की तालिका देने की कुछ रीति सी चल गई थी। तमिल के सुप्रसिद्ध काव्य (शिलप्पदिकारम् में भी एक जगह रत्नों का उल्लेख आया है (शिलप्पदिकारम् १४।१८०-२०० : श्री दीक्षितारद्वारा अंग्रेजी अनुवाद, मद्रास १९३९) मथुरै में घूमता घामता कोवलून जौहरी बाजार में पहुंचा । वहां उसने चार वर्ण के निर्दोष हीरे, मरकत, पमराग, माणिक्य, नीलविंदु, स्फटिक, पुष्पराग, गोमंदक और मोती देखे। प्रायः रत्नशास्त्रों में ( अगस्तिमत ४, ६३, बुद्धभट्ट ११ का पाठमेद ) रत्नों की परख आठ तरह से, यथा-(१) उत्पत्ति (२) आकर (३) वर्ण अथवा छाया (४) जाति (५) गुण-दोष (६) फल (७) मूल्य और (८) विजाति (नकल ) के आधार पर, की गई है । इस का विस्तार नीचे दिया जाता है। (१) उत्पत्ति-यहां उत्पत्ति से रत्नों की वास्तविक अथवा पारलौकिक उत्पत्ति से तात्पर्य है । रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रायः सब शास्त्रों का मत है कि वे एक वज्राहत असुर से पैदा हुए । बुद्धभट्ट (२; १२) के अनुसार एक पराक्रमी त्रिलोक विजेता दानव राज बलि था । एक समय उसने इन्द्र को जीत लिया । खुली लडाई में उससे पार न पा सकने के कारण देवताओं ने उससे यज्ञ में बलि-पशु बनने का वर मांगा। उसके एवमस्तु कहने पर सौत्रामणि यज्ञ में देवताओं ने उसे स्तंभ से बांध दिया। उसकी विशुद्ध जाति और कर्म से उसके शरीर के सारे अवयव रत्नों में परिणत हो गए। ऐसा होने पर देव और नागों में यज्ञ सिद्ध रत्नों के लिए छीनाझपटी होने लगी। इस छीनाझपटी में समुद्र, नदी, पर्वत, वन इत्यादि में रत्न गिर कर आकर रूप में परिवर्तित हो गए । इन रत्नों से राक्षस, विष, सर्प और व्याधियों से तथा पापलग्न में जन्म तथा दुर्दिन से रक्षा होती है । अगस्तिमत (१-९) में भी कहानी का यही रूप है। केवल फरक इतना है कि यज्ञ में असुर के सिर पर इन्द्र ने वज्र मारा और वज्राहत सिर से ही रत्नों की सृष्टि हुई । उसके सिर से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, नाभि से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ठक्कुर - फेरू - विरचित वैश्य और पैरों से शूद्र रत्नों की उत्पत्ति हुई । नवरत्न परीक्षा ( ८ से) में दैत्य का नाम वज्र दिया गया है । वज्रासुर को हराने के लिए इन्द्र ने उससे उसके शरीर का वर मांगा । ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर लेने पर यह जान कर कि उसका शरीर अमेद्य है, इन्द्र ने उसके मस्तक पर वज्र से प्रहार किया । उसके शरीर से - तरह तरह के रत्न निकले । देव, नाग, सिद्ध, यक्ष, राक्षस और किन्नरोंने तो वह रत्न जाल ग्रहण कर लिया, बाकी रत्न पृथ्वी पर फैल गए । ठक्कुर फेरु ( ६--१९ ) की रत्नोत्पत्ति सम्बन्धी अनुश्रुति का रूप भी बुद्धभट्ट वाली जनश्रुति जैसा ही है । एक दिन असुर बलि इन्द्रलोक को जीतने गया । वहां देवातओं ने उससे यज्ञ - पशु बनने की प्रार्थना की जिसे उसने स्वीकार कर लिया । उसकी हड्डियों से हीरे, दांतों से मोती, लहू से माणिक, पित्त से पन्ना, आंखों से नीलम, हृत् रस से वैडूर्य, मज्जा से कर्केतन, नखों से लहसुनिया, मेद से स्फटिक, मांस से मूंगा, चमड़े से पुखराज तथा वीर्य से भीष्म पैदा हुए । असुर बल के शरीर से निकले रत्नों में से सूर्य ने पद्मराग, चन्द्र ने मोती, मंगल ने मूंगा, बुद्ध ने पन्ना, बृहस्पति ने पुखराज, शुक्र ने हीरा, शनि ने नीलम, राहु ने गोमेद और केतुने वैर्य ग्रहण कर लिए और इसीलिए इन रत्नों को धारण करने वाले उपर्युक्त ग्रहों से पीड़ा नहीं पाते । चोखे रत्न ऋद्धिदायक और सदोष रत्न दरिद्रता देने वाले होते हैं ! पर रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्युक्त मत ही प्रचलित नहीं था, इसका निराकरण वराहमिहिर ( ८० । ३ ) ने कर दिया है। उनके अनुसार एक मत से रत्न दैत्यबल से उत्पन्न हुए, दूसरों का कहना है कि दधीचि से । कुछ इस मत के हैं कि उनकी उत्पत्ति पत्थरों के स्वभाववैचित्र्य से है । ठक्कुर फेरू ( १२ ) के अनुसार मी कुछ लोग ऐसे थे जिनका मत था कि रत्न पृथ्वी के विकार हैं । जैसे सोना, चांदी, तांबा आदि धातु हैं वैसे ही रत्न मी । 1 एक दूसरे विश्वास के अनुसार मनुष्य, सर्प तथा मेंढक के सर में मणि होती थी ( अगस्तिमत, ६३–६७ ) वराहमिहिर, ( ८५ - ५ ) के अनुसार सर्पमणि गहरे नीले रंग की और बड़ी चमकदार होती थी । (२) आकर - रत्नों की खान को आकर कहा गया है । वराहमिहिर ( ८०-१७ ) के अनुसार नदी, खान और छिटफुट मिलने की जगह आकर है । बुद्धभट्ट (१०) ने. आकरों में समुद्र, नदी, पर्वत और जंगल गिनाए हैं । (३) वर्ण, छाया - प्राचीन ग्रंथों में रत्नों के रंग को छाया कहा गया है । पर बाद के शास्त्रों में वर्ण के लिए छाया शब्द का व्यवहार हुआ है । बहुधा शास्त्रकार रत्नों को छाया की उपमा जानी पहचानी वस्तुओं से देते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . रत्नपरीक्षा का परिचय (४) जाति-रत्नशास्त्रों में इस शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग हुआ है । यथा असली रत्न, रत्न की किस्म और जाति । अंतिम विश्वास के अनुसार रत्नों में भी जातिभेद होता था। यह विश्वास शायद पहिले पहल हीरे तक ही सीमित था । इसके अनुसार ब्राह्मण को सफेद हीरा, क्षत्रिय को लाल, वैश्य को पीला और शूद्र को काला हीरा पहनने का विधान था । बाद में यह विश्वास ओर रत्नों के सम्बन्ध में भी प्रचलित हो गया । (५) गुण, दोष-रत्नों के सम्बन्ध में इन शब्दों का प्रयोग उनकी शुद्धता और चमत्कार लेकर हुआ है । पहिले अर्थ में वे रत्न के गुण और दोष परक हैं । दूसरे अर्थ में वे रत्न के बुरे और भले प्रभाव के द्योतक हैं। रत्नों के गुण निम्नलिखित हैं-महत्ता ( भारीपन ) गुरुत्व, गौरव ( घनत्व) काठिन्य, स्निग्धता, राग-रंग, आब ( अर्चिस् , द्युति कांति, प्रभाव ) और स्वच्छता । (६) फल सभी रत्नों के फल की विवेचना की गई है। अच्छे रत्न खास्थ्य, दीर्घजीवन, धन और गौरव देने वाले, सर्प, जंगली जानवर, पानी, आग, बिजली, चोट, बिमारी इत्यादि से मुक्ति देनेवाले तथा मैत्री कायम रखने वाले माने गए हैं। उसी तरह खराब रत्न दुख देनेवाले माने गए हैं। ___ यह ध्यान देने योग्य बात है, कि रत्नों के बीमारी अच्छा करने के गुणों का रत्न शास्त्रों में उल्लेख नहीं है । रत्नों के फलों की जांच पड़ताल से यह भी पता चलता है कि उनके लिखने में दिमागी कसरत को अधिक प्रश्रय दिया गया है । पर इसमें संदेह नहीं कि शास्त्रकारों ने रत्न-फल के सम्बन्ध में लोकविश्वासों की भी चर्चा कर दी है। हीरे का गर्भस्रावक फल और पन्ने का सर्पविष को रहना इसी कोटि के विश्वास हैं। (७) रनों के मूल्य-उनके तौल और प्रमाण पर आश्रित होते थे। प्राचीन ग्रंथों में रत्नों का मूल्य रूपकों और कार्षापणों में निर्धारित किया गया है। यह पता नहीं चलता कि रत्नों का मूल्य सोना अथवा चांदी के सिक्कों में निर्धारित होता था पर कार्षापणके उल्लेख से इनका दाम चांदीके सिक्को ही में मालूम पडता है । अगस्तिमत के एक क्षेपक (१२) से पता चलता है कि गोमेद और मूंगे का दाम चांदी के सिक्कों में होता था, तथा वैडूर्य और मानिक का सोने के सिक्कों में । ठक्करफेरु (१३७) ने, बडे हीरे, मोती, मानिक और पन्ने का मूल्य खर्णटंकोंमें बतलाया है।' आधे मासे से चार मासे तक के लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील और फिरोजा के दाम भी : वर्णमुद्राओं में होते थे ( १२१-१२३ ) एक टांक में १० से १०० तक चढने वाले - यहां यह बात उल्लेखनीय है कि दिव्य शरीर का रत्नों में परिणत होजाने का विश्वास वैदिक है . (जे० आर० एस०. १८९४, पृ० ५५८-५६०) ईरानियों का भी कुछ ऐसा ही विश्वास था (जे० आर० एस० १८९५, पृ० २०२-२०३) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ठकुर - फेरू - विरचित मोतियों का दाम रूप्य टंकों में होता था ( १२४-१२६ ) । उसी तरह एक रती में १ से २ थान चढने वाले हीरे का मूल्य भी चांदी के टंको में कहा गया है ( १२७,२८ ) । गोमेद, स्फटिक, मीष्म, कर्केतन, पुखराज, वैडूर्य-इन सबके मूल्य भी द्रम्म में होते थे ( १३० ) । 1 मानसोल्लास ( १, ४५७-४६४ ) में रत्न तोलने की तुला का सुंदर वर्णन है । उसके तुलापात्र कांसे के बने होते थे । उनमें चार छेद होते थे । जिनसे डोरियां पिरोई जाती थीं । कांसे की दांडी १२ अंगुल की होती थी । जिसके दोनों बगल मुद्रिकाएँ होतीं थीं । दांडी के ठीक बीचोबीच पांच अंगुल का कांटा होता था । जिसका एक अंगुल छेद में फंसा दिया जाता था। कांटे के दोनों ओर तोरण की आकृति बनाई जाती थी। जिसके सिर पर कुंडली होती थी । उसी में डोरी लगती थी । तराजू साधने के लिए एक कलंज तौल का माल एक पलड़े में और पानी दूसरे पलडे में भरा जाता था । जब कांटा तोरण के ठीक बीच में बैठ जाता था तो तराजू सध गई मानी जाती थी । ( ८ ) विजाति - इस शब्द से कृत्रिम रत्नों का तथा कीमती रत्नों की तरह दिखनेवाले उपरत्नों से अभिप्राय है । ऐसे नकली रत्न भारत और सिंहल में बहुतायत से बनते थे । नवरत्न परीक्षा ( १७४ - १८३ ) के अनुसार सम भाग जले शंख और सिंदूर को सद्यः प्रसूता गाय के दूध में सान कर फिर उसे तृण से बांध कर बांस में भर कर, मिट्टी के बरतन में चावल के साथ पका कर फिर उसे निकाल कर धीमी आंच पर रख देते थे; फिर उसे तेल में बोरते थे । इससे बांस के भीतर नकली मूंगा बन जाता था । इन्द्रनील बनाने के लिए एक कुप्पे में एक पल नील का चूर्ण और दो पल शंख का चूर्ण मिलाकर खूब हिलाते थे। फिर पूर्वोक्त विधि से नकली इन्द्रनील बना लेते थे । नकली मरकत बनाने के लिए मंजीठ, ईंगुर और नील समभाग में लेकर उसे शीशे की कुप्पी में खूब मिलाते थे । फिर उनके रखे अलग करके उन्हें आग में पकाया जाता था । मानिक शंख के चूर्ण और ईंगुर के मेल से उपर्युक्त विधि से बनता था । -:४: इस प्रकरण में रत्न- परीक्षाओं के आधार पर उनमें आए रत्नों के उपर्युक्त आठ विशेषताओं की जांच पड़ताल करके यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि ठक्कुर फेरु ने अपनी रत्नपरीक्षा में कहां तक प्राचीनता का उपयोग किया है और कहां उसने रत्न सम्बन्धी अपने अनुभवों का । हीरा - हीरा रत्नों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । उसकी विशेषता यह है कि वह सब रत्नों को काट सकता है उसे कोई रत्न नहीं काट सकता । प्रायः सब शास्त्रों के अनुसार हीरे की उत्पत्ति असुरबल की हड्डियों से हुई । उसका नाम वज्र इसलिए पड़ा कि इन्द्र से पाहत होने पर ही वह निकला । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय प्रधान रत्नशास्त्र हीरेकी खानें आठ या दस मानते हैं । पर कौटिल्य (अनुवाद, पृ० ७८ ) में हीरे की खानों के कुछ दूसरे ही नाम हैं । यथा, सभाराष्ट्रक ( विदर्भ या बरार में ) मध्यम राष्ट्रक (कोसल यानी दक्षिण कोसल में ) काश्मक (शायद अश्मक) [ हैदराबाद की गोलकुंडा की खान ] इन्द्रवानक (कलिंग, ओड़ीसा ) की तो पहचान टीकाकारों ने की है । काश्मक की पहचान टीकाकर ने बनारसी हीरे से की है। जिससे बनारस का हीरे तराशोंका अड्डा होने की ओर संकेत हो सकता है। श्रीकटनक हीरा वेदोत्कट पर्वत में मिलता था । श्रीकटनक का ठीक पता नहीं चलता पर शायद इससे, धनकटक (धरणीकोट ) जो प्राचीन अमरावती का नाम था, बोध होता है । अगर यह पहचान ठीक है तो यहां कृष्णानदी की घाटी में मिलनेवाले हीरों की ओर संकेत हो सकता है। मणिमन्तक हीरा मणिमत् अथवा मणिमंत पर्वत के पास पाया जाता था। इस मणिमत् पर्वत की पहचान श्रीपार्जिटर ने (मार्कण्डेय पुराण, पृ० ३७०) में कश्मीर के दक्षिण की पहाड़ियों से की है। यहां अब हीरा मिलनेका पता नहीं चलता । रत्नशास्त्रों में दी गई हीरे की खानों का पता निम्नलिखित तालिका से चल जाएगाबुद्धभट्ट वराहमिहिर अगस्तिमत मानसोल्लास अगस्तीय रत्न-संग्रह ठक्कुर फेरू | रत्नपरीक्षा । हेमंत हिमालय हिमवंतः बंग । मातंग मातंग पंडुरः (पौडूः) कोशल वैण्यातट वणातट वेणु वैरागर आरब । वेणु सूर ... ... सौपार सौपारक यहां यह निश्चित कर लेना कठिन है कि उपर्युक्त यंत्र में कितने भौगोलिक नाम वास्तविकता लिए हुए हैं और कितने काल्पनिक हैं । पर इसमें संदेह नहीं की यंत्र में खानों और बाजारों के नाम मिल गए हैं। यह भी संभव है कि बहुत सी प्राचीन खाने समाप्त हो गई हों और उनकी खुदाई बहुत प्राचीन काल में बंद कर दी गई हो । सुराष्ट्र यानी आधुनिक सौराष्ट्र में हीरे की किसी खान का पता नहीं चलता पर यह संभव है कि यहां से रत्न बाहर मेजे जाते हों। यहां एक उल्लेखनीय बात यह है कि प्राचीन साहित्य में जैसे महानिद्देस और वसुदेवहिण्डी में सुराष्ट्र एक बंदर का नाम भी आया है जो शायद सोमनाथ पट्टन हो । यही बात सूर्पारक यानी बम्बई के पास सोपारा बंदरगाह के बारे में भी कही जा सकती है । आर्यशूर की जातकमाला में तो इस बंदर में रत्नों लाए जाने का उल्लेख भी है। हिमालय में हीरे का होना तो उस अनुश्रुति का द्योतक है जिसके अनुसार मेरू, हिमालय और समुद्र रत्नों के आकर माने गए हैं। यह बात सुराष्ट्र .... मातंग मगध पौड़ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित ठीक है कि शिमला के पास कुछ हीरे मिले थे पर हिमालय में हीरे की खान होने का पता नहीं चलता । मातंग से यहां किस प्रदेश से तात्पर्य है इसका भी ठीक पता नहीं चलता । श्री फिनो (पृ० २६) चालुक्यराज मंगलीश के एक लेख के आधार पर मातंगों का निवास स्थान गोलकुंडा का प्रदेश स्थिर करते हैं । हरिषेण (बृहत्कथाकोश ७५।१-३ ) के अनुसार मातंग पांड्य देश तथा उसके उत्तर में पर्वत की संधि पर रहते थे। शायद यहां सेलम जिले के चीवरै पर्वत श्रेणी से मतलब है, पर यहां हीरे का पता नहीं चला है । पौण्ड देश से मालदह, कोसी के पूर्व पुर्निया जिले का कुछ भाग तथा दीनाजपुर और राजशाही जिले के कुछ भाग का बोध होता है। तथा पौण्ड्वर्धन से बोगरा जिले के महास्थान से मतलब है । शायद कलिंग के हीरे से कडपा, बेलारी, कर्नूल, कृष्णा, गोदावरी इत्यादि के तथा संभलपुर के पास ब्राह्मणी, संक, तथा दक्षिणी कोयल नदियों से मिलने वाले हीरे से है । जहांगीर युग की खोखरा की हीरे की खान भी इस बात की पुष्टी करती है । जहांगीर ने खयं अपने राज्य के दसवें वर्ष के विवरण (तुजूक, अंग्रेजी अनुवाद, भा० १, ३१६ ) में इस बात का उल्लेख किया है कि बिहार के सूबेदार इब्राहीम खांने खोखरा को फतह करके वहां के हीरे की खान पर कब्जा कर लिया । हीरे वहां की एक नदी से निकलते थे । इसमें संदेह नहीं कि कोसल से यहां दक्षिण कोसल से मतलब है । जिसकी पहचान आधुनिक महाकोसल से है. । शायद वैरागर और वेणातट या वेणु के हीरे कौसल ही के अन्तर्गत आ जाते हैं । वेणा नदी जो आज कल की वेन गंगा है चांदा जिले से होकर बहती है और उसी पर स्थित बैरागढ़ में हीरे मिलते हैं। मानसोल्लास के वैरागर (सं० वज्राकर ) की पहचान इसी वैरागढ़ से ठीक उतर जाती है । शायद यही स्थान चीनी यात्रियोंका कोस्सल और टाल्मी का कौसल रहा हो। अगस्तीय रत्नपरीक्षा में आए मगध से भी शायद छोटा नागपुर की खानों का बोध होता है। रत्नशास्त्रों में हीरे के अनेक रंग बताए गए हैं। इनके अनुसार सुराष्ट्र का हीरा लाल, हिमालय का तमैला, मातंग का पीला, पुंड का भूरा, कलिंगका सुनहरा, कोसल का सिरीस के फूल के रंगवाला वेणा, का चन्द्र की तरह सफेद, तथा सुपारा का सफेद होता था। ठक्कुर फेरू (२२) ने हीरे का रंग तमैला, सफेद नीला, मटमैला, हरताल की तरह पीला, तथा सिरीस के फूल जैसा बतलाया है। ये रंग खान-परक थे । हीरे के वर्गों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है । सफेद हीरा ब्राह्मण, लाल क्षत्रिय, पीला वैश्य और काला शूद्र पहनने का अधिकारी था । पर राजा को चारों वर्ण के हीरे पहनने का अधिकार था । पर बाद के लेखकों ने सफेद, लाल, पीले और काले हीरे को ही क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति में बांट दिया है । ठक्कुर फेरू (२६) भी इसी मतके हैं। उनकी राय में सफेद चोखा हीरा मालधी अर्थात मालवे का कहलाता था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय जिनके घरों में निर्दोष हीरे होते हैं उनकी विघ्न, अकाल मृत्यु और शत्रुभय से रक्षा होती है। लाल और पीले हीरे पहनने से राजा को विजयश्री हाथ लगती थी। पुरुष लपलपाते हीरे में भूत, प्रेत, वृक्ष, मंदिर, इन्द्रधनुष इत्यादि देख सकते थे (३०)। हीरे का आरंभिक रूप अठपहला होता था और हीरे के इसी आकार को रनशास्त्रों में सबसे अच्छा माना है। प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार अच्छे हीरे में छ: या अष्ट कोण, बारह धाराएं, आठ दल, पार्श्व या अंग कहे गए हैं । हीरे की चोटी को कोटि, तल को विभाजित करने वाली रेखा को अग्र, चोटी की उठान को उत्तुंग, तथा नुकीली विभाजक रेखाओं को तीक्ष्ण कहते थे। तौल में कम, खच्छ, शुद्ध और निर्मल और भास्कर -ये हीरे के गुण माने गए हैं। ठक्कुर फेरू (२४) ने हीरे के आठ गुण कहे हैं-सम फलक, उच्च कोणी, तीक्ष्ण धारा, पानी (वारितक), अमल, उज्वल, अदोष और लघुतोल । __ रनशास्त्रों में हीरे के अनेक दोष भी उल्लिखित हैं। जिनमें टूटी चोटी या पहल, एक की जगह दो कोण, दल दीनता, बर्तुलता, दलहीनता, चपटापन, लंबोदरपन, भारीपन, बुलबुलापना, और कांतिहीनता मुख्य हैं । ठक्कुर फेरू (२५) ने नौ दोष यथाकाकपद, विंदुर (छींटा) रेखा, मैलापन, चिकट, एक शंगता, वर्तुलता, जोका आकार, तथा हीन अथवा अधिक कोण बतलाया है । उसके अनुसार (३१-३२) अत्यन्त चोखी तीखी धारा पुत्रार्थी स्त्रियों के लिए हानिकर थी । पर इसके विपरीत चिपटा, मलिन और तिकोना हीरा रमणियों को इसलिए सुख कर होता था कि पुत्ररत्नों की जननी होनेसे वे अपने को प्रथम रत्न मानतीं थीं, भला फिर उनका सदोष रत्न क्या कर सकता था। हीरे का मूल्य प्राचीन रत्नशास्त्रों में तौल के आधार पर निश्चित किया जाता था। इस सम्बन्ध में दो मत थे एक बुद्धभट्ट और वराहमिहिर का और दूसरा अगस्तिमत का । पहिली व्यवस्था में तौल तंडुल और सर्षप (१ तंडुल = ८ सर्षप) में थी तथा मूल्य रूपकों में। हीरे की सबसे अधिक तौल बीस तंडुल और दाम दो लाख रूपक निश्चित की गई थी। तौल के इस क्रममें हरे घटाव या चढ़ाव दो इकाइयों के बराबर होता था। २० तंडुल के हीरे का दाम दो लाख था और एक तंडुल के हीरे का एक हजार । देखने में तो यह हिसाब सीधा साधा मालूम पडता है, पर श्री फिनोने हिसाब लगा कर बतलाया है कि २० तंडुल यानी चार केरट के हीरे का दाम इस रीति से बहुत अधिक बैठ जाता है। __ अगस्तिमत के अनुसार तौल्य और स्थौल्य के आधार पर पिंड से हीरे का दाम निश्चित किया जाता था। पिंड का माप १ यव स्थौल्य और .१ तंडुल तौल्य मान लिया गया है । इस तरह एक पिंड के हीरे का दाम ५०; दो का ५० गुणा ४, चार का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૯ ठकुर- फेरू - विरचित - - ५० गुणा १२; पांच का ५० गुणा १६. ....इस तरह बढ़ते बढ़ते २० पिंड का दाम ३८०० पहुंच जाता है। पर इस मूल्यांकन में एक ही घनत्व के हीरे आते हैं; उनके हलके होने पर उनका दाम बढ़ जाता था तथा भारी होने पर घट जाता था । इस तरह एक हीरा एक पिंड के घनत्व का होते हुए भी १।४ हलके होने पर उसका दाम अठारह गुना होता था, १२ हलके होने पर छत्तीस गुना तथा ३।४ हलके होने पर बहत्तर गुणा हो जाता था । इसी तरह एक हीरा एक पिंड का घनत्व होते हुए मी भारी हो तो उसका दाम १।४ भारी होने पर आधा हो जाएगा इत्यादि । श्री फिनो की राय में अगस्तिमत का ही मूल्यांकन वास्तविक मालुम पड़ता है । ठक्कुर फेरूने हीरे का मूल्यांकन अलग न देकर मोती, मानिक और पन्ने के साथ दिया है। पर हीरे का मूल्य निर्धारण करते समय उसे अगस्तिमत का ध्यान अवश्य रहा होगा । उसके अनुसार ( ३३ ) समपिंड हीरे का भारी होने पर कम दाम और फार तथा हलके होने पर ज्यादा दाम होता था । अलाउद्दीन के समय जौहरियों की तौल का वर्णन ठक्कुर फेरू ने इस तरह से किया है - ३ राई ६ सरसों - Jain Educationa International २ तंडुल १ जौ - १ सरसों १ तंडुल ४ मासा १६ तंडुल या ६ गुंजा ( रत्ती ) १ टांक टांक के उपर्युक्त तौल में कई बातें उल्लेखनीय हैं। श्री नेल्सन राइट ( दि कॉयन्स एंड मेटालोजी आफ दि सुलतान्स् आफ देहली, पृ० ३९१ से ) ने अपनी खोज से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सुलतान युगके टांक में ९६ रत्तियां होती थीं। रत्ती का वजन १०८ ग्रेन मान कर उन्होंने टांक की तौल १७२ ग्रेन निर्धारित की है। पर ठक्कुर फेरू के हिसाब से तो २४ रत्ती १ टांक यानी १७२.८ ग्रेन के बराबर हुई यानी एक रत्ती का वजन करीब ६.३५ ग्रेन के करीब हुआ। अब यहां प्रश्न उठता है कि गुंजा से यहां साधारण गुंजा का ही अर्थ है अथवा यह कोई तौल थी जिसका वजन आधुनिक रत्तीसे करीब करीब पांचगुना अधिक था । - ठक्कुर फेरू (१११ ) ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि रत्नों का मूल्य बंधा हुआ न होकर अपनी नजर पर अवलंबित होता है, फिर भी अलाउद्दीन के समय रत्नों के जो दाम थे उनकी तौल के साथ उसने वर्णन किया है और यह भी बतलाया है की चार रत्न यानी हीरा, मोती, मानिक और पन्ने का दाम सोने के टंके में लगाया १ मासा For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय १९ जाता था । इन रत्नों की बड़ी से बड़ी तौल एक टांक और छोटी तौल एक गुंजा मान ली गई है। पर एक टांक में १० से १०० तक चढ़नेवाले मोती तथा एक गुंजा में १ से १२ थान तक चढ़नेवाले हीरे का मूल्य चांदी के टांक में होता था । उपर्युक्त रत्नों के तौल और मूल्य दो यंत्रों में समझाए गए हैं' कीमती रत्न सम्बन्धी यंत्र गुंजा १ २ ३ ४ ५ ६ ७ १८ ९ १० ११ १२ १५ १८ २१ ૨૪ हीरा ५ | १२ २०३० ५०|७५|११०|१६० २४०|३२०|४०० ६०० १४०० २८०० ५६०० ११२०० ************************************************ मोती ० ॥ १ २ ४ ८ १५/२५ ४० ६० ८४ ११४ १६० ३६० ७०० | १२०० २००० मानिक २ ५८ |१२|१८| २६/४० ६० ८५ १२० | १६० २२० ४२० ८०० १४०० २४०० पना |०|० ॥ ११॥ २ ३ ४ ५ ८ १० १३ १८ २७ ४० ६०. उपर्युक्त यत्र की जांच से कई बातों का पता लगता है । सबसे पहली बात तो यह है कि अलाउद्दीन के काल में और युगों की तरह हीरे की कीमत सब रत्नों से अधिक थी । हीरा जैसे जैसे तौल में बढ़ता जाता था उसी अनुपात में उसकी कीमत बढ़ती जाती थी । बारह रत्ती तक तो उसका दाम क्रमशः बढता था पर उसके बाद हर तीन रत्ती के वजन पर उसका दाम दुगना हो जाता था । अगर चांदी और सोने का अनुपात १० : १ मान लिया जाय तो एक टांक के हीरे का मूल्य १,२०००० चांदी के टांक के बराबर होता था । इसके विपरीत एक टांक के मोती का मूल्य २००० और मानिक का २४०० सुवर्ण टंका था । पन्ने का दाम तो बहुत ही कम यानी एक टंक के पन्ने का दाम ६० सुवर्ण टंका था । छोटे मोती और हीरों के तौल और दाम का यंत्र - मोती(टंक १)|१०|१२|१५/२०,२५/३० ४०,५०,६०-७० ७०-१०० रूप्यटक वज्रगुंजा रूप्य टंक ५० ४० ३० २०,१५१२ १०/८ 19 ११ २ ३ ४५ ६ ७ ८ ९ |३५ २६ २० १६ १३ १० ८ ७ ६ |३ १० Jain Educationa International ५ ११ १२ ४ ૨ उपर्युक्त यंत्र से यह पता चलता है कि मोती और हीरे जितने अधिक एक टांक में चढ़ते थे उतना ही उनका दाम कम होता जाता था और इसीलिए उनका दाम सोने के टांकों में न लगाया जाकर चांदी के टांको में लगाया जाता था । रत्न शास्त्रों के अनुसार नकली हीरा लोह, पुखराज, गोमेद, स्फटिक, वैडूर्य और शीशे से बनता था । ठक्कुर फेरू ( ३७ ) ने भी इन्हीं वस्तुओं को नकली हीरा बनाने के काम का उल्लेख किया है। नकली हीरे की पहचान अम्ल तथा दूसरे पत्थरों के काटने की शक्ति से होती थी । ठक्कुर फेरू ( ४८ ) के अनुसार नकली हीरा वजन में भारी, जल्दी बिंधनेवाला, पतली धार वाला तथा सरलतापूर्वक घिस जानेवाला होता था । For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर - फेरू - विरचित मोती - महारतों में मोती का नम्बर दूसरा है। भारतीयों को शायद इस रत्नका बहुत प्राचीनकाल से पता था । मोती को जिसे वैर्दिक साहित्य में कृशन कहा गया है, सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद ( १ | ३५ |४; १०/६८ / १ ) में आता है । अथर्ववेद में वायु, आकाश, बिजली, प्रकाश तथा सुवर्ण, शंख और मोती से रक्षा की प्रार्थना की गई है। शंख और मोती राक्षसों, राक्षसियों और बीमारियों से रक्षा करने वाले माने जाते थे । उनकी उत्पत्ति आकाश, समुद्र, सोना तथा वृत्र से मानी गई है । । २० रत्नशास्त्रों के अनुसार मोतीके आठ स्रोत - यथा सीप, शंख, बादल, मकर और सर्प का सिर, सूअर की दाढ़, हाथी का कुंभस्थल तथा बांस की पोर माने गए हैं। यह विश्वास भी था कि स्वाती की बूंदें सीपियों में पडकर मोती हो जातीं थीं । असुरदल के दांतों से भी मोती बनने का उल्लेख आता है । मोती के उत्पत्ति सम्बन्धी उपर्युक्त विश्वासों की जांच पडताल से पता चलता है कि अथर्ववेद वाली अनुश्रुति से उनका खासा सम्बन्ध है । उसके वृत्रजात मानने से असुरबल वाली अनुश्रुति की ओर ध्यान जाता है । इस तरह हम देख सकते हैं कि मोती सम्बन्धी प्राचीन विश्वासों की जड़ वैदिक युग तक पहुंच जाती है । ठक्कर फेरू ने भी मोती के उत्पत्तिस्थान, रत्नेशास्त्रों की ही तरह कहे हैं । उसके अनुसार शंखजन्य मोती छोटे, सफेद तथा लाल होते हैं और उनमें मंगल का आवास होता है । मच्छ से उत्पन्न मोती काला, गोल तथा हलका होता है और उसके पहनने से शत्रु और भूत प्रेतों से रक्षा होती है । बांस में पैदा मोती गुंजे के इतने बड़े तथा राज देनेवाले होते हैं । सूअर की दाद से पैदा मोती गोल चिकना और साखू के फल इतना बड़ा होता है । उसको पहननेवाला अजेय हो जाता है। सांप से निकला मोती नीला तथा इलायची इतना बड़ा होता है । उसके पहनने से सर्पोपद्रव, विष, तथा बिजली से रक्षा होती है । बादल में पैदा मोती तो देवता पृथ्वी पर आने ही नहीं देते, गिरने के पहिले ही उन्हें रोक लेते हैं । चिन्तामणि मोती वह है जो बरसते पाणी की एक बूंद हवा से सूख कर मोती हो जाय । सीप के मोती छोटे और मूल्यवान होते है । रत्नशास्त्रों में मोती के आकरों की संख्या भिन्न भिन्न दी हुई है । एक अनुश्रुति के अनुसार आठ आकर हैं तो दूसरी के अनुसार चार । अर्थशास्त्र ( ३ । ११ । २९ ) के अनुसार ताम्रपर्णी से निकलनेवाले मोती ताम्रपर्णिक, पांड्यकत्राट से पांड्यकत्राटक, पाश से पाशिक्य, कूल से कौलेय, चूर्ण से चौर्ण, महेन्द्र से माहेन्द्र, कार्दम से कार्दमिक, स्त्रोतसि से स्त्रोतसीय, हृद से हृदीय और हिमवत् से हैमवतीय । • उपर्युक्त तालिका में ताम्रपर्णिक और पांड्यकत्राटक तो निश्चय मनार की खाड़ी के मोती के द्योतक हैं । ताम्रपर्ण से यहां ताम्रपर्णी नदी का तात्पर्य माना गया है। पांड्यवाट मथुरै है जहां मोती का व्यापार खूब चलता था । पाश से शायद फारस का मतलब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय है । चूर्ण को टीकाकार ने केरल में मुचिरिके पास एक गांव माना है । यह गांव शायद तामिल साहित्य का मुचिरि और पेरिप्लस (शाफ, वहि, पृ० २०५) का मुजिरिस था जिसकी पहचान क्रेगनोर में मुयिरिकोट्ट से की जाती है । मुजिरिस ईसा की आरंभिक सदियों में एक बड़ा बंदर था और बहुत संभव है कि यहां मोती आने से किसी नदी के नाम के आधार पर मोती का चौर्णेय नाम पड़ गया हो । टीका के अनुसार कौलेय मोती का नाम सिंहल की किसी कूल नदी के नाम पर पड़ा, पर विचार करने से यह बात ठीक नहीं मालूम पड़ती। कूल से पेरिप्लस (५९) के कोल्चि तथा शिलप्पदिकारम् (पृ० २०२) के कौरकै से बोध होता है जो मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। पेरिप्लस के समय में वह पांड्य देश का एक प्रसिद्ध बंदरगाह था। पर ताम्रलिप्ती नदी द्वारा बंदर के भर जाने पर बंदरगाह वहां से पांच मील दूर हटकर कायल में पहुंच गया। माहेन्द्रक, कार्दमक, हादीय और स्रोतसीय का ठीक पता नहीं चलता । टीकाकार के अनुसार कार्दम ईराम और स्रोतसी बर्बर देश में नदियां और हृद बर्बर देश में दह था । इन संकेतों में जो भी तथ्य हो पर यहां टीकाकार का फारस की खाडी और बबेर देश से मोती आने की ओर संकेत अवश्य है । हिमालय तो सब रत्नों का घर माना ही जाता था। वराह मिहिर ८१३२ के अनुसार सिंहल, परलोक, सुराष्ट्र , ताम्रपर्णी, पार्श्ववास, कौकेरवाट, पांड्यवाट और हिमालय में मोती होते थे। सिंहल-मनार की खाडी मोती के लिए प्रसिद्ध है। यह खाडी ६५ से १५० मील चौडी हिन्द महासागर की एक बाहु है । मोती के सीप सिंहल के उत्तर पश्चिमीतट से सट कर तथा तूतीकोरिन के आसपास मिलते हैं । मोतियों के इस स्रोत का उल्लेख प्लिनी ( ९।५४-८), पेरिप्लस (३५,३६,५६,५९), मार्कोपोलो (दि बुक आफ सेर मार्कोफोलो, भा०२, पृ०२६७, २६८) फ्रायर जार्डेनस (मीराविलिया डिसक्रिप्टा, हक्ल्येत सोसाइटी, १८६३, पृ०६३) लिनशोटेन (दि वोयज आफ लिनशोटेन, हक्लूयेत सोसाइटी, १८८४, भा०२ पृ०१३३-१३५) इत्यादि करते हैं। परलोक-इसी को शायद ठक्कर फेरू ने रामावलोक कहा है। इस प्रदेश का ठीक ठीक पता नहीं चलता पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि मध्यकाल में अरब भौगोलिक पेगू को ब्रह्मादेश कहते थे। बरमा के समुद्रतट से कुछ दूर मे ई द्वीप समूह के समुद्र में अब भी मोती मिलते हैं। रामा से पेगू की पहचान की जा सकती है। यहां सलंग लोग मोती निकालते हैं । सुराष्ट कल के रनके दखिन में, नवानगर के समुद्र तट के आगे जोधाबंदर के पास, मंगरा से कछ की खाड़ी में पिंडेरा तक, आजद, चोक, कलंबार और नीरा के द्वीपों के आसपास भी मोती मिलते हैं (सी० एफ० कुंज और सी० एच० स्टिवेन्सन, दि बुक आफ पर्ल, पृ० १३२, लंडन १९०८)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ठकुर-फेरू-विरचित ताम्रपर्णी-जैसा हम ऊपर कह आए हैं यहां ताम्रपर्णी से मनार की खाडी से मतलब है । ताम्रपर्णी नदी के मुहाने पर पहले कोरके बंदरगाह पर, वाद में उसके भरजाने से उसके दक्खिन पांच मील पर, कायल बंदरगाह हो गया। पांड्यवाट- इससे शायद मथुरे का मतलब है जहां मोती का खूब व्यापार चलता था । शिलप्पदिकारम् (पृ०२०७ ) के अनुसार वहां के जौहरी बाजार में चन्द्रागुरु, अंगारक और अणिमुत्तु किस्म के मोती बिकते थे। कौवेरवाट - इसका ठीक पता तो नहीं चलता पर संभव है कि यहां चीलों की सुप्रसिद्ध राजधानी कावेरीपट्टीनम् अथवा पुहार से मतलब हो । शिलप्पदिकारम् (पृ० ११०.१११) के अनुसार यहां मोतीसाज रहते थे और बे ऐब मोती बिकते थे। पारशववास- इससे फारस की खाड़ी से मतलब है। यहां मोती बहुत प्राचीन काल से मिलते हैं। इसका उल्लेख, मेगास्थनीज, चेरक्स के इसिडोर, नियर्कस, तथा टाल्मी ने किया है । टाल्मी के अनुसार मोती के सीप टाइलोस द्वीपमें (आधुनिक बहरैन ) मिलते थे । पेरिप्लस (३५) के अनुसार कलैई ( मश्कत के उत्तर पश्चिम दैमानियत द्वीप समूह में कल्हातो) में मोती के सीप मिलते थे। नवीं सदी में मासूदी ने उसका वर्णन किया है। पारी रेनो, 'मेमायर सुर लें द' १८५९ । इब्नबतूता ( गिब्स, इब्नबतूता ) ने इसका उल्लेख किया है । बार्थेमा ने (दि ट्रावेल्स आफ लोदीविको बार्थिमा, पृ० ९५, लंडन, १८६३) हुमुज की यात्रा में फारस की खाड़ी के मोतियों का वर्णन किया है। लिन्शोटन और तावनिये ने भी हुरमुज, बसरा और वहरैन के मोती के व्यापार का आंखों देखा वर्णन दिया है। अगस्तिमत (१०९-१११) और मानसोल्लास (१, ४३४) के अनुसार सिंहल, आरवाटी, बर्बर और पारसीक से मोती आते थे । सिंहल और फारस का तो हम वर्णन कर चुके हैं। आरवाटी से यहां अरब के दक्खिन-पूर्वी तट और बर्बर से लाल सागर से मिलनेवाले मोती के सीपों से तात्पर्य मालूम पडता है । अरब में अदन से मश्कत तक के बंदरों में मोती के गोताखोर मिलते हैं जो अपना व्यापार सोकोतरा के द्वीपों, पूर्वी अफ्रीका और जंजीबार तक चलाते हैं। लाल सागर में अकाबा की खाडी से बाबेल मंदेव तक मोती के सीप मिलते हैं ( कुंज, वही, पृ० १४२)। ठक्कुर पेरू के अनुसार (४९) मोती रामावलोइ, बब्बर, सिंहल कांतार, पारस, कैसिय और समुद्रतट से आते थे। उपर्युक्त तालिका कुछ अंश में रत्न शास्त्रों की तालिकाओं से भिन्न है। रामावलोइ से जैसा हम पहले कह आए हैं, शायद मेरगुई के द्वीप समूह से अथवा पेंगू से मतलब हो । बब्बर से लाल सागर के अफ्रीकी तट से मतलब है । यहां बर्बर लोगों से तात्पर्य नील नदी और लाल सागर के बीच रहनेवाले दनाकिल तथा सोमाल और गल्लों से है। कान्तार से यहां रेगिस्तान से अभिप्राय है । महानिदेस (ला पूसां द्वारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय संपादित, पृ० १५४-५५) में मरु कान्तार किसी प्रदेश का नाम है जो शायद बेरेनिके से सिकंदरिया तक के मार्ग का घोतक था। यह भी संभव है कि ठक्कुर फेर का मतलब यहां कांतार से अरब के दक्खिन पूर्वी समुद्र तट से हो जहां के मोतियों के बारे में हम ऊपर कह आए हैं। अगर हमारा अनुमान ठीक है तो यहां कांतार से अगस्तिमत के आवाटी और मानसोल्लास के आवाट से मतलब है । केसिय से यहां निश्चय इब्नबतूता (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० १२१, पृ० ३५३) के बंदर कैस से मतलब है जिसे उसने मूल से सीराफ के साथ में मिला दिया है । ( वास्तव में यह बंदर सीराफ से ७० मील दक्खिन में है)। सीराफ (आनुधिक तहीरी के पास ) पतन के बाद, १३ वीं सदी में उनका सारा व्यापार कैस चला आया। करीब १३०० के कैस का व्यापार हुरमुज उठ आया। कैस के गोताखोरों द्वारा मोती निकालने का आंखों देखा वर्णन इब्नबतूता ने किया है। जैसे, बाद में चल कर और आज तक बसरा के मोती प्रसिद्ध हैं उसी तरह शायद चौदहवीं सदी में कैस के मोती प्रसिद्ध थे। इब्नबतूता के शब्दों में- 'हम खुंजुवाल से कैस शहर को गए। जिसे सीराफ भी कहते हैं। सीराफ के लोग भले घर के और ईरानी नस्ल के हैं। उसमें एक अरब कबीला मोतियों के लिए गोताखोरी का काम करता था । मोती के सीप सीराफ और बहरेन के बीच नदी की तरह शांत समुद्र में होते हैं । अप्रेल और मई के महीनों में यहां फार्स, बहरेन और कतीफ के व्यापारियों और गोताखोरों से लदी नावें आती है। बुद्धभट्ट ने केवल सफेद मोतियों का वर्णन किया है। अगस्तिमत के अनुसार मोती महुअई (मधुर) पीले और सफेद होते हैं । मानसोल्लास में नीले मोती का भी उल्लेख है तथा रत्नसंग्रह में लाल मोती का । ठक्कुर फेरू ने भी प्रायः मोती के इन्हीं रंगो का वर्णन किया है। रत्नशास्त्रों के अनुसार गोल, सफेद, निर्मल, खच्छ, स्निग्ध, और भारी मोती अच्छे होते हैं । अच्छे मोती के बारे में ठक्कुर फेरू (५१) का भी यही मत है। रत्नशास्त्रों के अनुसार मोती के आकार दोष-अर्धरूप, तिकोनापन, कृशपार्श्व और त्रिवृत्त ( तीनगांठ ); बनावट के दोष-शुक्तिपार्श्व ( सीप से लगाव ) मत्स्याक्ष (मछली के आंख का दाग), विस्फोटपूर्ण (चिटक), बलुआहट (पंकपूर्ण शर्कर), रूखापन तथा रंग के दोष-पीलापन, गदलापन, कांस्यवर्ण, ताम्राभ और जठर माने गए हैं। मोती के प्रायः यही दोष ठकुर फेरू ने भी गिनाए हैं। इन दोषों से मोती का मूल्य काफी घट जाता था। . हम हीरे के प्रकरण में देख आए हैं कि ठक्कर फेरू ने मोतियों के तौल और दाम का क्या हिसाब रखा था । प्राचीन रत्नशास्त्रों में इस सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं-एक तो बुद्धभट्ट और वराहमिहिर का और दूसरा अगस्ति का । पहले सिद्धान्त में गुंजा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित अथवा कृष्णल की तौल है । माष पांच गुंजों के बराबर होता था और शाण चार माष के । दाम रूपक अथवा कार्षापण में लगाया गया है। सबसे बडी तौल एक शाण मान ली गई है और कीमत ५३०० रूपक । तौल में हर एक माष बढने पर दाम दुगुना हो जाता था । दूसरे सिद्धान्त में तौल गुंजा, मंजली और कलंज में निर्धारित है । एक कलंज चालीस गुंजों के अथवा चौतीस मंजली के बराबर माना गया है । गुंजा की तौल करीब आधा केरेट तथा कलंज करीब साड़े बाईस केरेट के है । मोती की भारी से भारी तौल दो कलंज मानकर उनकी कीमत ११७११७३ (१) मानी गई है । तौल पर दाम किस आधार पर बढ़ता था, इसका विवरण ठीक तरह से समझ में नहीं आता । सब रत्नशास्त्रों के अनुसार सिंहल में नकली मोती पारे के मेल से बनते थे । नकली मोती जांचने के लिए मोती, पानी तेल और नमक के घोल में एक रात रख दिया जाता था। दूसरे दिन उसे एक सफेद कपडे में धान की भूसी के साथ रगडते थे। ऐसा करने से नकली मोती का रंग उतर जाता था पर असली मोती और भी चमकने लगता था। मानिक-अनुश्रुति के अनुसार पद्मराग की उत्पत्ति असुरबल के रक्त से हुई। मानिक के नामों में पद्मराग, सौगंधिक, कुरुविंद, माणिक्य, नीलगंधि और मांसखंड मुख्य हैं। बुद्धभट्ट के कुरुविंदज; सुगंधिकोत्थ, स्फटिक प्रसूत तथा वराहमिहिर के कुरुविंदभव, सौगंधिभव तथा स्फटिक का शाब्दिक अर्थ जैसे गंधक से उत्पन्न, ईगुर से उत्पन्न स्फटिक से उत्पन्न लिया जाय अथवा नहीं इसमें संदेह है। यह नहीं कहा जा सकता कि रस्नपरीक्षाकार को जिससे दोनों शास्त्रकारों ने मसाला लिया है गंधक, ईगुर और स्फटिक से मानिक की उत्पत्ति के किसी रासायनिक प्रक्रिया का ज्ञान था अथवा नहीं । प्रायः सब शास्त्रों के अनुसार सबसे अच्छा मानिक लंका में रावणगंगा नदी के किनारे मिलता था । कुछ हलके दर्जे के मानिक कलपुर, अंघ्र तथा तुंबर में मिलते थे (बुद्धभट्ट, ११४ वराहमिहिर ८२।१, मानसोल्लास, ११४७३-७४) ठकुर फेरू (५५) के अनुसार मानिक सिंहल में रामागंगा नदी के तट पर, कलशपुर और तुंबर देश में मिलते थे। रावणगंगा- ठक्कर फेरू की रामागंगा शायद रावणगंगा ही है। यहां हम पाठकों का ध्यान इब्नबतूता की सिंहल यात्रा की ओर दिलाना चाहते हैं । अपनी यात्रा में वह कुनकार पहुंचा जहां मानिक मिलते थे ( गिब्स, इब्नबतूता, पृ० २५६-५७) वह नगर एक नदी पर स्थित था जो दो पहाडों के बीच बहती थी । इब्नबतूता के अनुसार (मौलवी मुहम्मदहुसेन, शेख इब्नबतूता का सफरनामा । पृ० ३३८-३९ लाहोर' १८९८) इस शहर में ब्राह्मण किस्म के मानिक मिलते थे। उनमें से कुछ तो नदी से निकलते थे और कुछ जमीन खोदकर । इब्नबतूता के वर्णन से यह भी पता चलता है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय कि याकूत शब्द का व्यवहार माणिक और नीलम तया दूसरे रंगीन रत्नों के लिए मी होता था । सौ फनम से ऊंची मालियत के पत्थर राजा खयं रख लेता था । मार्कोपोलो (यूल, दि बुक आफ सर मार्कोपोलो, २, १५४ ) ने भी सिंहल के मानिक और दूसरे कीमती पत्थरों का उल्लेख किया है । तापनिये (दावेल्स, भा॰ २, पृ० १०१-१०२) के अनुसार भी मध्यसिंहल के पहाडी इलाकेकी एक नदी से मानिक और दूसरे रत्न मिलते थे । बरसात में यह नदी बहुत बढ जाती थी। पानी कम हो जाने पर लोग इसमें मानिक इत्यादि की खोज करते थे। उपर्युक्त उद्धरणों से रावणगंगा अथवा रामागंगा की वास्तविकता सिद्ध हो जाती है। सर ए० टेनेंट के अनुसार इब्नबतूता का कुनकार या कनकार गंपोला था जिसका दूसरा नाम गंगाश्रीपुर या गंगेली था। पर गिब्स के अनुसार कुनकार की पहचान कोर्नेगल्ले (कुरूनगल) से की जा सकती है जो इब्नबतूता के समय सिंहल के राजाओं की राजधानी थी। (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० ३६५ नोट ६). क (का) लपुर-कलशपुर -प्राचीन रत्नशास्त्रों में मानिक का एक, प्राप्तिस्थान कलपुर दिया है । यह पाठ ठीक है अथवा नहीं यह तो कहना संभव नहीं, पर खोटे मानिक का वर्णन करते हुए बुद्धभट्ट (१२९-१३१) ने कलंशपुर का उल्लेख किया है । अगर कलपुर (मानसोल्लास-कालपुर ) पाठ ठीक है तो शायद उसका मिलान तामिल काव्य पट्टिन्नप्पाले के कालगम् से किया जा सकता हैं जिसे श्री नीलकंठशास्त्री कडारम् अथवा आधुनिक केदा मानते हैं (नीलकंठशास्त्री, हिस्ट्री आफ श्रीविजय, पृ० २६, मद्रास १९४६) पर केदा में मानिक कैसे पहुंचे यह प्रश्न विचारणीय है । संभव है कि स्याम और बर्मा के मानिक यहां बिकने के लिए पहुंचते हो और बाजार के नाम से ही उत्पत्तिस्थल का नाम पड गया हो। कलशपुर की पहचान लिगोर के इस्थमस पर स्थित कर्मरंग से श्री लेवी ने की है (वही, पृ० ८१) । अगर यह पहचान ठीक है तो कलशपुर में शायद मानिक का व्यापार होता रहा होगा। अंध्र-आंध्रदेश में मानिक मिलने का और दूसरा उल्लेख नहीं मिलता। तुंबर - मार्कंडेय पुराण (पार्जिटर का अनुवाद, पृ० ३४३ ) के तुंबर, जैसा श्री पार्जिटर का अनुमान है, शायद विंध्यपाद पर रहनेवाली एक जंगली जाति के लोग थे पर तुंबर देश की स्थिति का ठीक पता नहीं चलता । विंध्य में मानिक मिलने का भी पता नहीं है। .. रत्नशास्त्रों में मानिक के बहुत से रंग कहे गए हैं जिनमें चटकीला ( पमराग) पीतरक्त (कुरुविंद) और नीलरक्त (सौगंधिक) मुख्य है । प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार सब तरह के मानिक एक ही खान में मिलते थे। बुद्धभट्ट के अनुसार सिंहल की नदी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६ ठकुर-फेरू-विरचित रावणगंगा में चार रंग के मानिक मिलते थे पर मानसोल्लास (४७५-४७६) के अनुसार सिंहल का पराग लाल, कालपुर का कुरुविंद पीला, आंध्र का सौगंधिक अशोक के पल्लव के रंग का, तथा तुंबर का नीलगंधि नीले रंग का होता था। पर खानों के अनुसार मानिक का रंगों के अनुसार वर्गीकरण कोरी कल्पना जान पड़ती है। अगस्तीय रत्नपरीक्षा (४७,५२) के अनुसार तो मानिक के वर्ण भी निश्चित कर दिए गए है। उस ग्रंथ में पद्मराग ब्राह्मण, कुरुविंद क्षत्रिय, श्यामगंधि वैश्य और मांसखंड शूद्र माना गया है । ब्राह्मण वर्ण का मानिक सफेद और लाल मिश्रित, क्षत्रिय गहरा लाल, वैश्य पीला मिश्रित लाल और शूद्र पीला मिश्रित लाल रंग का होता था। यहां यह बात जानने लायक है कि यह विश्वास केवल शास्त्रीय ही नहीं था इसका प्रसार लोगों में भी था। इब्नबतूता के अनुसार सिंहल के मानिक को ब्राह्मण कहते भी थे। . ठक्कुर फेरू के अनुसार (५७-६१) पराग, सूर्य तपे सोने और अग्निवर्ण का; सौगंधिक पलास के फल, कोयल, सारस और चकोर की आंख के रंग जैसा तथा अनारदाने के रंग का; नीलगंध कमल, आलता, मूंगा और ईगुर के रंग का; कुरविंद पनराग और सौगंधिक के रंग का; और जमुनिया जामुन और कनेर के फल के रंग का होता था । मानसोल्लास (४८५) के अनुसार स्निग्ध छाया, गुरुत्व, निर्मलता और अतिरक्तता मानिक के गुण माने गए हैं । अगस्तीय रत्नपरीक्षा के अनुसार (५३, ६०) बढ़िया, मानिक गहरे लाल रंग का, लोहे से न कटनेवाला, चिकना, मांसपिंड की आभा देने वाला, बुद्धिदायक तथा पापनाशक होता था। मानिक के आठ दोष यथा - द्विच्छाय, द्विपद, भिन्न, कर्कर, लशुनपद (दूध से पुतेकी तरह ) कोमल, जड़ (रंगहीन ) और धूम्र (धुमैला ) मानिक के दोष हैं (मानसोल्लास, ४७९-४८३)। ठकुर फेरू के अनुसार (६२) मानिक के ये आठ गुण हैं यथा - सच्छाय, सुस्निग्ध, किरणाभ, कोमल, रंगीलापन, गुरुता, समता और महत्ता । इसके दोष हैं (६३) गतछाय, जड़ धूम्रता, भिन्न लशुन कर्कर और कठिन, विपद तथा रूक्ष । ठक्कुर फेरू के अनुसार मानिक की तौल और दाम के बारे में हम ऊपर कह आए है। वराहमिहिर के अनुसार एक पल (४ कार्ष) के मानिक का दाम २६०००, ३ कार्ष का २००००, २ कार्ष का १२०००, १ कार्ष (१६ माषक) का ६०००, ८ माषक का ३०००, ४ माषक का १००० और २ माषक का ५०० है । बुद्धभट्ट (१४४) के अनुसार समान तौल के हीरे और मानिक का एक ही मूल्य होता है; पर हीरे की तौल तंडुलों में और मानिक की तौल माषकों में होती है । अगस्तिमत के अनुसार मानिक का दाम बढना तीन बातों पर अवलंबित था। यथा-मानिक की किस्म, घनत्व ( यवों में ) तथा कांति ( सर्षपों में ) मानिक की साधारण कांति का मापदंड २० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय सर्षपों के उतार चढाव में निहित थी । इसके लिए ऊर्ध्ववर्ति, पार्श्ववर्ति, अधोवर्ति; अथवा, ठकुर फेरू (६७) के ऊर्ध्वज्योतिस्, पार्श्वज्योतिस् और अधोज्योतिस् शब्द व्यवहार में पाए हैं। अगर कांति २० सर्षपों से अधिक हुई तो उसे कांतिरंग कहते थे और उसी अनुपात में उसका दाम बढ जाता था। घनत्व की इकाई ३ यव मानी गई है, इसमें हर बार इकाई बढने पर मानिक का दाम दुगुना हो जाता था । अधिक से अधिक दाम २६१, ९१४,००० तक पहुंचता है। ठक्कर फेरू ने (६१) मानिक के किस्मों पर दाम का अनुपात निश्चित किया है। उसके अनुसार पद्मराग, सौगंधिक, नीलगंध, कुरुविंद और जमुनिया के दामों में २०, १५, १०, ६ और ३ बिखा मूल्य का अंतर पड जाता था। ठक्कुर फेरू ने (६८) केवल उर्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यवर्ती मानिकों को उत्तम, मध्यम और अधम श्रेणी का माना है बाकी को मिट्टी । सान पर चढाने से घिसनेवाली, तथा छते ही दाग पडने वाली तथा हीर में पत्थरवाली चुन्नी को चिप्पटिका कहते थे (७०)। ___ठकुर फेरू ने तो नकली मानिक बनाने की किसी विधि का उल्लेख नहीं किया है पर रत्नशाखों में, जैसा हम ऊपर देख आए हैं, नकली मानिक बनाने की विधियां दी. हुई हैं और यह भी बतलाया गया है कि नकली मानिक कैसे पहचाने जा सकते थे । बुद्धभट्ट (१२९-१३१) ने पांच तरह के नकली मानिक बताए हैं जो बनाए तो नहीं जाते थे पर वे साधारण उपरत्न थे जो मानिक से मिलते जुलते थे और जिनसे मानिक का धोखा खाया जा सकता था। ये पत्थर कलशपुर, तुंबर, सिंहल, मुक्कामालीय और श्रीपूर्णक से आते थे । मुक्कामाल का पता नहीं चलता पर श्रीपूर्णक से शायद यहां सिंहल के श्रीपुर से मतलब हो। नीलम-अनुश्रुति के अनुसार नीलम की उत्पत्ति असुरबल की आंखों से हुई। शाखों के अनुसार नीलम की दो किस्में थीं इन्द्रनील और महानील; पर इनके रंगों के बारे में शास्त्रकारों के विभिन्न मत हैं । बुद्धभट्ट के अनुसार इन्द्रनील का रंग इन्द्रधनुष जैसा होता है और महानील का रंग दूध में नीलापन ला देता है। पर दूसरे शास्त्रों के अनुसार यह इन्द्रनील का गुण है। ठक्कुर फेरू (८१) ने इन्द्रनील और महानील को मिलाकर नीलम का नामकरण महेन्द्रनील किया है। बुद्धभट्ट के अनुसार नीलम केवल सिंहल से आता था । मानसोल्लास (४९२ ) के अनुसार नीलम सिंहल द्वीप के मध्य में रावणगंगा नदी के किनारे पनाकर से मिलता था। अगस्तिमत ने कलपुर और कलिंग के नाम भी जोड़ दिए हैं। उसके अनुसार कलपुर का नीलम गाय की आंख के रंग का और कलिंग का नीलम बाज की आंख के रंग का होता था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पराचत ठकुर-फेरू-विरचित ___ हम ऊपर देख आए हैं कि इब्नबतूता सिंहल के नीलम और उसके प्राप्तिस्थान का किस तरह आंखों देखा हाल वर्णन करता है । लिंक्शोटेन (भा० २, पृ० १४०) के अनुसार पेगू का नीलम भी अच्छा होता था, जो शायद मोगाके की मानिक की खानों से निकलता था। (तावनियेर, २, पृ० १०१,१०२)। कलपुर और कलिंग के नीलम से शायद बर्मा और स्याम के नीलम से मतलब हो जो कलिंग और केदा के बाजारों में जाकर बिकते थे। रत्नशास्त्रों में नीलम के दस या ग्यारह रंग कहे गए हैं। श्वेतनीलाभ नीलम ब्राह्मण, रकनीलाभ क्षत्रिय, पीतनीलाभ वैश्य, तथा घननील शूद्र माना गया है । ठक्कुर फेरू के अनुसार नीलम के नौ रंग होते थे यथा-नील, मेघवर्ण, मोरकंठी, अलसीका फूल, गिरकर्णका फूल, भ्रमरपंखी, कृष्ण, श्यामल और कोकिलप्रीवाभ । 'रत्नशास्त्रों के अनुसार नीलम के पांचगुण है, यथा- गुरुता, स्निग्धता, रंगान्यता, पार्श्वरंजनता और तृणग्राहित्व । ठक्कुर फेरू के अनुसार ये गुण हैं-गुरुता, सुरंगता, सुश्लक्ष्णता, कोमलता और सुरंजनता। रत्नशास्त्रों के अनुसार नीलम के छः दोष हैं यथा-अभ्रक (धूमिल ) कर्कर या सशर्कर ( रेतीला), त्रास (टूटा ), भिन्न (चिटका), मृदा या मृत्तिका गर्भ ( मीतर मिट्टी होना) और पाषण (हीर में पत्थर होना)। ठक्कुर फेरू (८३) के अनुसार नीलम के नौ दोष हैं, यथा - अभ्रक, मंदिस (भद्दा), सर्करगर्भ, सत्रास, जठर, पथरीला, समल, सागार (मिट्टीभरा) और विवर्ण । नीलम का दाम मानिक की तरह लगाया जाता था । टक्कुर फेरू के समय में नीलम के दाम के बारे में हम ऊपर कह आए हैं। पन्ना-(मरकत, तार्क्ष्य ) की उत्पत्ति असुर बल के उस पित्त से मानी गई है जिसे गरुड़ ने पृथ्वी पर गिराया। प्राचीन रत्नशास्त्रों में पन्ने की खानों का वर्णन अस्पष्ट है । बुद्धभट्ट (१५०) के अनुसार जब गरुड़ ने असुर बल का पित्त गिराया तो वह बबरालय छोड़कर, रेगिस्तान के समीप, समुद्र के किनारे के पास एक पर्वत पर गिरकर मरकत बना गया । यह मी कहा गया है (१४९) की वहां तुरुष्क के वृक्ष होते थे। अगस्तिमत ( २८७) के अनुसार वह सुप्रसिद्ध पर्वत समुद्र के किनारे के पास तुरुष्कों के देशमें स्थित था। अगस्तीय रत्नपरीक्षा (७५) के अनुसार पने की दो खानें थीं एक तुरुष्क देश में और दूसरी मगध में । ठक्कुर फेरू ने (७३) मरकत के उत्पत्ति स्थान अवलिंद, मलयाचल, बर्बर देश और उदधितीर माने हैं। मरकत के उपर्युक्त आकर की जांच पड़ताल से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रायः सब शास्त्रकार पन्ने की खान बर्बर देश के रेगिस्तान में, समुद्र तीर के निकट, मानते हैं। टालमी युग से लेकर मध्यकाल तक प्रायः सब विवरण मित्र में विशेष कर लाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय सागर के पास स्थित 'जर्बर' पर्वत की पन्ने की खान का उल्लेख करते हैं। इस खान का उल्लेख प्लिनी, कासमास इंडिको प्लायस्टस (करीब ५४५ ई०) मासूदी और नवीं सदी के दूसरे अरब यात्री करते हैं। अल ईद्रिसी के अनुसार मध्य नील पर अखान से कुछ दूर एक पर्वत के पाद पर पन्ने की खान है। यह खान शहर से बहुत दूर एक रेगिस्तान में है । इस पन्ने की खान की, दुनिया की और कोई दूसरी खान मुकाबला नहीं कर सकती। अपने फायदे और निर्यात के लिए यहां काफी आदमी काम करते हैं (पी०ए०जोबत, अल ईदिसी, १, पृ०३६), यहां यह भी उल्लेखनीय बात है कि अखान से एक महीने की राह पर मरकता नामक एक शहर था जहां हब्श के लाल सागरवाले किनारे पर स्थित जलेग के व्यापारी रहते थे। यह संभव हो सकता है कि संस्कृत मरकत का नाम शायद इसी शहर से पडा हो पर संस्कृत मरकत की व्युत्पत्ति यूनानी स्मरग्दोस से की जाती है। यह यूनानी शब्द असीरी बरक्त, हिब्रू बारिकेत या बारकत, शामी बोर्को का रूपांतर है । अरबी जुम्मुरुद शायद यूनानी से निकला हो (लाउफर, साइनो इरानिका, पृ० ५१९) लिंक्शोटेन (२, ५, १४०) के अनुसार भी भारत में बहुत कम पन्ने मिलते थे। यहां पन्ने की काफी मांग थी और वे मिस्र के काहिरा से आते थे। ___ अवलिंद- इस देश का नाम और कहीं नहीं मिलता । पर यहां हम पेरिप्लस (७) के अवलितेस की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं जिसकी पहचान बाबेल मंदेव के जल विभाजक से ७९ मील दूर जैला से की जाती है । खाडी के उत्तर में अबलित गांव में प्राचीन अवलितेस का रूप बच गया है। बहुत संभव है कि अवलिंद भी इसी अवलितेस-अबलित का रूप हो। यहां पन्ना तो नहीं मिलता पर संभव है कि जैला के व्यापारी मिस्री पन्ना इस देश में लाते रहे हों और उसी के आधार पर अवलिंद-अवलित पन्ने का एक स्रोत मान लिया गया हो। मलयाचल- यह दक्षिण भारत का मलयाचल तो हो नहीं सकता। शायद ठक्कर फेरू का उद्देश्य यहां गेबेल जर्बर से हो जहां. बुद्धभट्ट के अनुसार तुरुष्क यानी गुगुल होता था । बर्बर और उदधि तीर का संकेत भी लाल सागर की ओर इशारा करता है। मगध-अगस्तीय रत्नपरीक्षा में, मगध में भी पन्ने की खान मानी गई है। मालेट ( रेकार्डस आफ दि जियालोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भा० ७ पृ० ४३ ) के अनुसार बिहार के हजारीबाग जिले में पन्ने की एक खान थी। रलशास्त्रों में पन्ने की चार से आठ छाया मानी गई है । अगस्तिमत के अनुसार महामरकत में अपने पास की वस्तुओं को रंगीन कर देने की शक्ति होती थी। मरकत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित सहज और श्यामलिक रंग के होते थे। सहज का रंग सेवार जैसा और दूसरेका शुकपंख, शिरीष पुष्प और तूतीया जैसा होता था । - रत्नशास्त्रों में पन्ने के पांच गुण यथा-खच्छ, गुरु, सुवर्ण स्निग्ध और अरजस्क (धूलिरहित ) हैं । ठक्कुर फेरू के अनुसार (७६) अच्छी छाया, सुलक्षणता, अनेकरूपता, लघुता और वर्णान्यता पने के पांच गुण हैं। रनशास्त्रों के अनुसार शबलता, जठरता (कांतिहीनता) मलिनता, रूक्षता, सपाषाणता, कर्करता और विस्फोट पन्ने के दोष हैं । ये ही दोष ठक्कुर फेरू ने गिनाए हैं । केवल शबलता की जगह सरजस्कता आ गई है। बुद्धभट्ट के अनुसार नकली पन्ना शीशा, पुत्रिका और भल्लातक से बनता था । इसके बनाने में मंजीठ, नील और ईगुर भी उपयोग में लाए जाते थे । .. उपरत्न रत्नशास्त्रों में उपरत्नों का बडी सरसरी तौर पर उल्लेख हुआ है । पांच महारत्नों के विपरीत ठक्कुर फेरू ने विद्रुम, मूंगा, लहसनिया, वैडूर्य, स्फटिक, पुखराज, कर्केतन और भीष्म का उल्लेख किया है। विद्वम-अर्थशास्त्र (अंग्रेजी अनुवाद, पृ० ७६) के अनुसार मूंगा आलकंद और विवर्ण से आता था । यहां आलकंद से मिस्र के सिकंदरिया के बंदरगाह से मतलब है । टीका के अनुसार विवर्ण यवन द्वीप के पास का समुद्र है । अगर यह ठीक है तो यहां विवर्णसे भूमध्य सागर से तात्पर्य होना चाहिए । बुद्धभट्ट (२४९-२५२) के अनुसार मूंगा.शकंवल, सम्लासक, देवक और रामक से आते थे। यहां रामक से शायद रोम का मतलब हो सकता है । अगस्तिमत के एक क्षेपक (१०) में कहा गया है कि हेमकंद पर्वत की एक खारी झील में मूंगा पाया जाता था । ठक्कुर फेरू के अनुसार (९०) मूंगा कावेर, विन्ध्याचल, चीन, महाचीन, समुद्र और नेपाल में पैदा होता था। पेरिप्लस (२८, ३९, ४९, ५६) के अनुसार भूमध्य सागर का लाल मूंगा बारबारिकम, बेरिगाज़ा (भरुकच्छ ) और मुज़िरिस के बंदरगाहों में आता था। प्लिनी (२२।११) के अनुसार मूंगे का भारत में अच्छा दाम था । आज की तरह उस समय भी मूंगा सिसली, कोर्सिका और सार्जीनिया, नेपल्स के पास लेगहार्न और जेनेवा, कारालोनिया, बलेरिक द्वीप तथा ट्यूनिस अलजीरिया और मोरक्को के समुद्र तट पर मिलता था। लाल सागर और अरब के समुद्रतट के मूंगे काले होते थे । अगस्तिमत के हेलकंद पर्वत के पास एक खारी झील में मूंगा मिलने के उल्लेख से भी शायद लाल सागर अथवा फारस की खाड़ी के मूंगों से पतलब हो सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रनपरीक्षा का परिचय श्री लाउफर के अनुसार (साइनो ईरानिका; पृ० ५२४-२५) चीनी ग्रंथों में ईरान में मूंगा पैदा होने के उल्लेख हैं । सुकुन के अनुसार मूंगा फारस, सिंहल और चीनं के दक्षिण समुद्र से आता था । तांग इतिवृत्त से पता चलता है कि झारस की प्रवाल शिलाएँ तीन फुट से ऊंची नहीं होती थीं । इसमें संदेह नहीं कि फारस के मुंगे एशिया में सब जगह पहुंचते थे । काश्मीर के मूंगे का वर्णन जो एक चीनी इतिहास कार ने किया है, वह फारसी मूंगा ही रहा होगा। मार्कोपोलो ( भा० २, पृ० ३२) के अनुसार तिब्बत में मूंगे की बड़ी मांग थी और उसका काफी दाम होता था। मूंगे स्त्रियां गले में पहनती थीं अथवा मूर्तियों में जड़े जाते थे । काश्मीर में मूंगे इटली से पहुंचते थे और वहां उनकी काफी खपत थी (मार्कोपोलो; १, पृ० १५९)। तावनिये (भा० २, पृ० १३६) के अनुसार आसाम और भूटानमें मूंगे की काफी मांग थी। कावेर-यहां दक्षिण के काबेरी पट्टीनम् के बंदरगाह से मतलब हो सकता है। शायद यहां मूंगा बाहर से उतरता हो । विंध्याचल में मूंगा मिलना कोरी कल्पना मालूम पडती है। चीन, महाचीन लगता है चीन और महाचीन से यहां क्रमशः चीन देश और केंटन से मतलब हो । संभव है कि चीनी व्यापारी इस देश में बाहर से मूंगा लाते हों। समुद्र-इससे भूमध्य सागर, फारस की खाड़ी और लाल सागर के मूंगों से मतलब मालूम पड़ता है। नेपाल-जैसा हम ऊपर देख आए हैं तिब्बत और काश्मीर की तरह नेपाल में भी मूंगे की बड़ी मांग थी। हो सकता है कि नेपाली व्यापारियों द्वारा मूंगा लाए जाने पर नेपाल उसका एक उत्पत्ति स्थान मान लिया गया हो । लहसनिया-नीले, पीले, लाल और सफेद रंग की लहसनिया ठक्कुर फेरू (९२-९३ ) के अनुसार सिंहल द्वीप से आती थी। इसे बिडालाक्ष अथवा बिल्ली के आंख जैसी रंगवाली भी कहा गया है । उसमें सूत पड़ने से उसे कोई कोई पुलकित भी कहते थे। वैडूर्य-सर्व श्री गार्बे, सौरीन्द्र मोहन ठाकुर और फिनो की राय है कि वैदर्य का वर्णन लहसनिया से बहुत कुछ मिलता है । बुद्धभट्ट (२००) ने भी वैडूर्य को बिल्ली की आंख के शक्ल का कहा है। पाणिनि ४।३१८४ के अनुसार वैदूर्य (वैडूर्य) का नाम स्थान वाचक है । पतंजलि के अनुसार विदूर में य प्रत्यय लगाकर उसे स्थान वाचक मानना ठीक नहीं; क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित वैदूर्य विदूर में नहीं होता, वह तो बालवाय में होता है और विदूर में कमाया जाता है । पर शायद बालवाय शब्द विदूर में परिणत हो गया हो और इसीलिए उसमें य प्रत्यय लम गया हो। इसके माने यह हुए कि विदूर शब्द बालवाय का एक दूसरा रूप है । इस पर एक मत है कि विदूर बालवाय नहीं हो सकता; दूसरा मत है कि जिस तरह व्यापारी वाराणसी को जित्वरी कहते थे उसी तरह वैय्याकरण बालवाय को विदूर। उपर्युक्त कथन से यह बात साफ हो जाती है कि वैडूर्य बालवाय पर्वत में मिलता था और विदूर में कमाया और बेचा जाता था । यह पर्वत दक्षिण भारत में था । बुद्धभट्ट (१९९) के अनुसार विदूर पर्वत दो राज्यों की सीमा पर स्थित था। पहला देश कोंग है जिसकी पहचान आधुनिक सेलम, कोयंबटूर, तिन्नेवेली और ट्रावन्कोर के कुछ भाग से की जाती है। दूसरे देश का नाम बालिक, चारिक या तोलक आता है, जिसे श्री फिनो चोलक मानते हैं जिसकी पहचान चोलमंडल से की जा सकती है। इसी आधार पर श्री फिनो ने बालवाय की पहचान चीवरै पर्वत से की है। यह बात उल्लेखनीय है कि सेलम जिले में स्फटिक और कोरंड बहुतायत से मिलते हैं । । ठक्कुर फेरू ( ९४ ) का कुवियंग कोंग का बिगडा रूप है । समुद्र का उल्लेख कोरी कल्पना है । ठक्कुर फेरू ने लहसनिया और वैडूर्य अलग अलग रत्न माने हैं । संभव है कि देशभेद से एक ही रत्न के दो नाम पड गए हों। स्फटिक ___ प्राचीन रनशास्त्रों के अनुसार स्फटिक के दो भेद यानी सूर्यकांत और चन्द्रकांत माने गए हैं । ठक्कुर फेरू (९६) ने भी यही माना है पर अगस्तिमत के क्षेपक में स्फटिक के भेदों में जलकांत और हंसगर्भ भी माने गए हैं । पृथवीचन्द्र चरित्र (पृ० ९५) में भी जलकांत और हंसगर्भ का उल्लेख है। सूर्यकांत से आग, चन्द्रकान्त से अमृतवर्षा, जलकांत से पानी निकलना तथा हंसगर्भ से विष का नाश माना जाता था। बुद्धभट्ट के अनुसार स्फटिक कावेरी नदी, विंध्यपर्वत, यवन देश, चीन और नेपाल में होता था। मानसोल्लास के अनुसार ये स्थान लंका, ताप्ती नदी, विंध्याचल और हिमालय थे । ठक्कुर फेरू के अनुसार नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी नदी, जमुना, और विंध्याचल से स्फटिक आता था । पुख राज पुखराज की उत्पत्ति असुर बल के चमड़े से मानी गई है । इसका दाम लहसनिया जैसा होता था । बुद्धभट्ट के अनुसार पुखराज हिमालय में, अगस्तिमत के अनुसार सिंहल और कलहस्थ (१) में तथा रनसंग्रह के अनुसार सिंहल और कर्क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ रत्नपरीक्षा का परिचय में होता था। ठक्कुर फेरू ने हिमालय को ही पुखराज का उद्गम स्थान माना है पर यह बात प्रसिद्ध है कि सिंहल अपने पीले पुखराज के लिए प्रसिद्ध है। कर्केतन-कर्केतन के उत्पत्ति स्थान का किसी रत्नशास्त्र में उल्लेख नहीं है। पर ठक्कुर फेरू ने पवणुप्पट्ठान देश में इसकी उत्पत्ति कही है। यहां शायद दो जगहों से मतलब है पवण और उप्पट्ठान । पवण से संभव है शायद अफगानिस्तान में गजनी के पास पर्वान से मतलब हो और उप्पट्टान से परि-अफगानिस्तान से। अगर हमारी पहचान ठीक है तो यहां पर्वान से शायद वहां कर्केतन के व्यापार से मतलब हो। उप्पट्ठान से रूस में उराल पर्वत में एकाटेरिन बर्ग और टाकोवाजा की कर्केतन की खानों से मतलब हो (जी० एफ०, हर्बर्ट स्मिथ, जेम स्टोन्स, पृ० २३६, लंडन १९२३)। यह भी संभव है कि उपपट्ठान में पट्टन शब्द छिपा हो। इब्नबतूता ने (२६३-६४ ) फट्टन को चोल मंडल का एक बडा बंदर माना है पर इस बंदर की 'ठीक पहचान नहीं हो सकती। संभव है कि इससे कावेरी पट्टीनम् अथवा नागपट्टीनम् का बोध होता हो। अगर यह पहचान ठीक है तो शायद सिंहल का कर्केतन यहां आता हो। ठक्कुर फेरू के अनुसार इसका रंग तांबे अथवा पके हुए महुए की तरह अथवा नीलाभ होता था। भीष्म-ठक्कुर फेरू ने भीष्म का उत्पत्ति स्थान हिमालय माना है। यह रंगमें सफेद तथा बिजली और आग से रक्षा करनेवाला माना गया है। गोमेद-रत्नशास्त्रों में इसका विवरण कम आया है । अगस्तिमत के क्षेपक में (४-५) गोमेद को स्वच्छ, गुरु, स्निग्ध और गोमूत्र के रंग का कहा गया है। अगस्तीय रत्नपरीक्षा (८३-८६ ) में गोमेद को गाय के मेद अथवा गोमूत्र के रंग का कहा गया है। उसका रंग धवल और पिंजर भी होता था। ठक्कुर फेरू (१००) ने इसका रंग गहरा लाल, सफेद और पीला माना है। और किसी रत्नशास्त्र में गोमेद के उत्पत्तिस्थान का पता नहीं चलता। पर ठक्कुर फेरू ने इसका स्रोत, सिरिनायकुलपरेबग देस तथा नर्मदा नदी माना है। सिरिनायकुलपरे में कौन सा नाम छिपा हुआ है यह तो ठीक नहीं कहा जा सकता पर गोलकुंडा से मसुलीपटन के रास्ते में पुंगल के आगे नगुलपाद पडता था जिसे तावनिये ने नगेलपर कहा है ( तावनिये, १, पृ० १७३ ) संभव है कि नायकुलपर यही स्थान हो। बग देस से शायद बंगाल का बोध हो सकता है, बहुत संभव है कि ११ वीं सदी में सिंहल से गोमेद वहां जाता रहा हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ ठकुर- फेरू - विरचित पारसी रत्न ठक्कुर फेरू ने (१०३ ) लाल, अकीक और पिरोजा को पारसी रत्न माना है । इसका यह अर्थ हुआ कि ये रत्न या तो फारस में होते थे अथवा उनका व्यापार फारस और अरब के व्यापारी करते थे । लाल - आग की तरह लाल - यह रत्न बंदखसाण देश यानी बदख्शां से आता था । मार्कोपोलो ( भा० १, पृ० १४९-५० ) के अनुसार बदख्शां के बलास मानिक प्रसिद्ध थे । वे सिग्नान के एक पहाड से खोद कर निकाले जाते थे और उन पर वहां के शासक का पूरा अधिकार होता था । लाल की खानें बंक्षु नदी के दाहिने किनारे पर इराकाशम जिले में शिगनान के सीमा पर स्थित हैं (वुड, ए जर्नी टु आक्शस, भूमिका पृ० ३३ ) अकीक-ठक्कुर फेरू ने इसे पीले रंग का कहा है और इसकी उत्पत्ति जमण देश यानी अरब में यमन देश माना है । यमन देश के अकीक का उल्लेख इब्नबैतर ( ११९७ - १२४८) ने किया है ( फेरां, तेक्सत् रेलातीफ अ ल एक्सप्रेम ओरियां, १, पृ० २५६ ) और इसे कई बीमारियों की औषधि मानी है आज दिन भी यमनी अकीक बंबई में प्रसिद्ध है। इसका दाम ठक्कुर फेरु के अनुसार बहुत कम होता था । फिरोजा -ठक्कुर फेरू के अनुसार नीलाम्ल रंग का फ़िरोजा नीसावर और मुवासीर की खानों से आता था । निसावर से यहां फारस के निशापुर से मतलब है । तावर्निये (२, पृ० १०३-०४ ) के अनुसार फिरोजा फारस में दो खानों से पाया जाता था । पुरानी खान मशद से तीन दिन के रास्ते पर निशापुर के आसपास थी और नई मशद से पांच दिन के रास्ते पर थी । मुवासीर से यहां ईराक के मोसुल या अमौसिल से बोध होता है । लगता है फारसी फिरोजा यहां व्यापार के लिये आता था । आज दिन भी मोसुल में फिरोजे का व्यापार होता है । लाल, लहसनिया, इन्द्रनील और फिरोजे का दाम ठक्कुर फेरू के अनुसार तौल से सोने के टांकों में होता था । निम्नलिखित यंत्र से यह बात साफ हो जाती है: मासा लाल ल्हसणी ०॥ ●||| इन्द्रनील 이 पेरोजा 이 १ २॥ १॥ -२॥ ०॥ Jain Educationa International oll १॥ १४॥ •lil olli २ ९ ६॥॥ १ १ दूसरे महारनों के मुकाबिले में काफी कम थी । २॥ १५ ११॥ १ २ ३ २४ १८ For Personal and Private Use Only ५ ३॥ ३४ २५॥ . ረ उपर्युक्त यंत्र के अध्ययन से पता चल जाता है कि लाल इत्यादि की कीमत ४ ५० ३७॥ १५ १५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय उपसंहार प्राचीन रत्नशास्त्रों के आधार पर हमने ऊपर यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि रत्नशास्त्र प्राचीन भारत में एक विज्ञान माना जाता था । उस विज्ञान में बहुत सी बातें तो अनुश्रुति पर अवलंबित थीं पर इसमें संदेह नहीं की समय समय पर रत्नशास्त्रों के लेखक अपने अनुभवों का भी संकलन कर देते थे । ठक्कुर फेरू ने भी अपनी 'रत्नपरीक्षा' में प्राचीन ग्रंथों का सहारा लेते हुए भी चौदहवीं सदी के रत्न व्यवसाय पर काफी प्रकाश डाला है । ठक्कुर फेरू के ग्रंथ की महत्ता इसलिये और मी बढ जाती है कि रत्न सम्बन्धी इतनी बातें, सुल्तान युग के किसी फारसी अथवा भारतीय ग्रंथकार नहीं दी है । कुछ रत्नों के उत्पत्ति स्थान भी, ठक्कुर फेरु ने १४ वीं सदी के रत्नों के आयात निर्यात देख कर निश्चित किए हैं । रत्नों की तौल और दाम भी उसने समया1 नुसार रखे हैं; प्राचीन शास्त्रों के आधार पर नहीं । पारसी रत्नों का विवरण तो ठक्कुर फेरू का अपना ही है; पद्मराग के प्राचीन भेद तो उसने गिनाए ही हैं पर चुन्नी नाम का भी उसने प्रयोग किया है जिसका व्यवहार आज दिन भी जौहरी करते हैं । उसी तरह घटिया काले मानिक के लिए देशी शब्द चिप्पड़िया का व्यवहार किया गया है । हीरे के लिए फार शब्द मी आजकल प्रचलित । लगता है उस समय मालवा हीरे के व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध था; क्योंकि ठक्कुर फेरू ने. चोखे हीरे के लिए मालवी शब्द व्यवहार किया है। पन्ने के बारे में तो उसने बहुत सी नई बातें कही हैं । कुछ ऐसा लगता है कि ठक्कुर फेरू के समय में नई और पुरानी खान के पन्नों में मेद हो चुका था और इसीलिए उसने पन्नों के तत्कालीन प्रचलित नाम गरुडोदूगार, कीडउठी, वासवती, मूगउनी और धूलिमराई दिए हैं । इन सब बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ठक्कुर फेरू रत्नों के सच्चे पारखी थे । उन्होंने देख समझ कर ही रत्नों के वर्णन लिखे हैं केवल परंपरागत सिद्धांतों के आधार पर ही नहीं ।. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३५ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. रत्नपरीक्षा २. द्रव्यपरीक्षा ३. धातूत्पत्तिः " , १७-३८ ३९-४४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमालवंशीय ठक्कुर - फेरूविरचिता प्राकृत भाषाबद्धा रत्न परीक्षा सयलगुणाण निवासं नमिउं सव्वन्नं तिहुयणपयासं । संखेवि परप्पहियं रयणपरिक्खा भणामि अहं ॥ १ ॥ सिरिमाल कुलुत्तंसो ठक्कर चंदो जिदिपयभत्तो । तस्संगहो फेरू जंपइ रयणाण माहप्पं ॥ २ ॥ पुव्वि रयणपरिक्खा सुरमिंति - अगत्थ - बुद्धभट्टेहिं । विहिया तं दणं तह बुद्धी मंडलीयं च ॥ ३ ॥ अल्लावदीणकलिकाल - चक्कवट्टिस्स कोसमज्झत्थं । रयणायरु व्व रयणुच्चयं च नियदिट्ठिए दहुं ॥ ४ ॥ पच्चक्खं अणुभूयं मंडलिय - परिक्खियं च सत्थायं ( इं ) । नाउं रयणसरूवं पत्तेय भणामि सव्वेसिं ॥ ५॥ लोए भणति एवं आसी बलदाणवो महाबलवं । सो पत्तो अन्नदिणे सग्गे इंदस्स जिणणत्थं ॥ ६ ॥ तहिं पत्थिओ सुरेहिं जन्ने अम्हाण तुं पसू होह | तेण पन्ने भणियं भविओहं कुणसु नियकज्जं ॥ ७ ॥ सो पसु वहिउ सुरेहिं तस्स सरीरस्स अवयवाओ य । संजाया वर रयणा सिरिनिलया सुरपिया रम्मा ॥ ८ ॥ अस्थिस्स जाय हीरय मुत्तिय दंताउ रुहिर माणिक्कं । मरगयमणि पित्ताओ नयणाओ इन्दनीलो य ॥ ९ ॥ बइडुज्जो य रसाओ बसाउ कक्यगं समुप्पन्नं । ल्हसणीओ य नहाओ फलियं मेयाउ संजायं ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिताविहुमु आमिस्साओ चम्माओ पुंसराउ निप्पन्नो। सुक्काउ य भीसम्मो रयणाणं एस उप्पत्ती ॥ ११ ॥ एवं भणंति एगे भूमि]विकारं इमं च सव्वं च । जह रुप्प कणय तंब य धाऊ रयणा पुणो तह य ॥ १२ ॥ तट्ठाणाओ गहिया निय निय वन्नेहिं नवहि सुगहेहिं । तत्तो जत्थ य जत्थ य पडिया ते आगरा ज़ाया ॥ १३ ॥ सूरेण पउमरायं मुत्तिय चंदेण विदुमं भूमे। मरगयमणीउ बुद्धे जीवेण य पुंसरायं च ॥१४॥ सुक्केण गहिय वजं सणिंदनीलं तमेण गोमेयं । केएण य वेडुजं मुक्का तत्थेव सेस तहिं ॥ १५ ॥ इय रयण नव गहाणं अंगे जो धरइ सच्चसीलजुओ। तस्स न पीडति गहा सो जायइ रिद्धिवंतो य ॥ १६ ॥ पुणु जह सत्थे भणिया अदोस अइचुक्खया गुणड्डा य । ते रयण रिद्धिजणया सदोस धण - पुत्त - रिद्धिहरा ॥ १७ ॥ जइ उत्तिमरयणंतरि इक्को वि सदोसु कूडु समलु हवे । ता सयलउत्तिमाणं कतिपहावं हणेइ धुवं ॥ १८ ॥ भणिया मूलुप्पत्ती अओ य वुच्छामि आगराईणि । वन्न गुण दोस जाई मुल्लं सव्वाण रयणाणं ॥१९॥ वज्रं जहा हेमंत सूरपारय कलिंग मायंग कोसल सुरतु। पंडुर विसएसु तहा वेणुनई वजठाणाई ॥२०॥ तंब सिय नील कुक्कुस हरियाल सिरीसकुसुम घणरत्ता । इय वजवन्नछाया कमेण आगरविसेसाओ ॥२१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा परं विशेषोऽयम् - कोसल कलिंग पढमे दुइए हेमंत तह य मायंगे । पंडुर सुरट्ठ तईए वेणुज सोपारय कलिंमि ॥ २२ ॥ छ कोण अट्ठ फलहा वारस धारा य हुंति वजा य । अट्ठ गुणा नव दोसा चउ छाया चउर वन्न कमा ॥ २३ ॥ समफलह उच्चकोणा सुतिक्खधारा य वारितर अमला । उज्जल अड़ोस लहु तुल इय वजे होंति अट्ठ गुणा ॥ २४ ॥ कागपग बिंदु रेहा समला फुट्टा य एगसिंगा य ।। वट्टा य जवाकारा हीणाहियकोण नव दोसा ॥ २५ ॥ सिय विप्प अरुण खत्तिय पीय वइस्सा य कसिण सुदा य। इय चउ वन्न दुजाई चुक्खा तह मालवी नेया ॥ २६ ॥ निदोस सगुण उत्तिम चत्तारि वि वन्न हुँति जस्स गिहे । तस्स न हवंति विग्धं अकालमरणं न सत्तुभयं ॥ २७ ॥ चत्तारि वि वन्न तहा पीयारुण नरवराण रिद्धिकरा । सेसा नियनिय वन्ने सुहंकरा वज नायव्वा ॥ २८ ॥ लच्छीए आयड्डी थंभइ अरिणो परि(र)कम समरे । तेणं अरुणं पीयं नरेसरो धरइ वरवजं ॥ २९॥ जह दप्पणेण वयणं दीसइ तह उत्तमेण वजेण । नर तिरिय रुक्ख मंदिर तहिंदधणुहाई दीसंति ॥ ३० ॥ अइचुक्ख तिक्खधारा पुत्तत्थीइत्थियाण हाणिकरा । चप्पड़ि मलिण तिकोणा रमणीणं वज्ज सुहजणया ॥ ३१ ॥ भणियं चअहमेव पढमरयणं सुपुत्तरयणाण खाणि मुह कुच्छी । कोण वराओ वज्जो इय दोसं दाउ धर इत्थी ॥ ३२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचितासमपिंड सगुण निम्मल गुरुतुल्ला हीणपिंड लहुमुल्ला । फार लहुतुल्ल वज्जा बहुमुल्ला सम समा मुल्लो ॥ ३३ ॥ वजं लहु फलह सिरं वित्थरचरणं तिलोवरिं काउं । जो जड़इ अह जड़ावइ तस्स धुवं हवइ बहु दोसं ॥ ३४॥ जस्स फलहाण मज्झे वुड्डो वुड्डो हुंति भिन्न वन्नाई। कागपय रत्तबिंदू तं वजं होइ पुत्तहरं ॥ ३५॥ वज्जेण सव्वि रयणा वेहं पावंति हीरए हीरा। कुरुविंदो पुण वेहइ नीलस्स न अन्नरयणस्स ॥ ३६ ॥ अयसार कच्च फलिहा गोमेयग पुंसराय वेडुजा । एयाउ कूडवज्जा कुणंति जे होति कलकुसला ॥ ३७॥ कूडाण इय परिक्खा गुरु विन्नाया य सुहमधारा य । साणायं सुह घसिया दुह घसिया रयण जाइभवा ॥ ३८॥ ॥ इति वज्रपरीक्षा॥ अथ मुत्ताहलं - गयकुंभ १ संखमझे २ मच्छमुहे ३ वंस ४ कोलदाढे य ५। सप्पसिरे ६ तह मेहे ७ सिप्पउड़े ८ मुत्तिया हुंति ॥ ३९ ॥ मंदव(प)ह पीय रत्ता इय उत्तिम जंबुछाय मज्झत्था । वट्टामलयपमाणा गयंदजा हुँति रजकरा ॥ ४० ॥ दाहिणवत्ते संखे महासमुद्दे य कंबुजा हुंति । लहु सेया अरुणपहा नरदुलहा मंगलावासा ॥ ४१॥ मच्छे य साम वट्टा लहुतुला विमलदिट्ठिसंजणया । अरि - चोर - भूय - साइणि - भयनासा हुंति रिद्धिकरा ॥४२॥ गुंजसमा मंदपहा हवंति कच्छ वन सव्व भूमीसु । रजकरा दुक्खहरा सुपवित्ता वंसउद्धरणा ॥ ४३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा सूवरदाढे वट्टा घियवन्ना तह य सालफलतुल्ला । चिट्ठति जस्स पासे इंदेण न जिप्पए सोवि ॥ ४४ ॥ सप्पस्स नील निम्मल कंकोलीफलसमाण लच्छिकरा । छल -च्छिद्द - अहि - उवद्दव - विसवाही- विजु नासयरा ॥१५॥ मेहे रवितेयसमा सुराण कीलंत कहव निवडंति । गिण्हंति अंतराले अपत्त धरणीयले देवा ॥ ४६॥ वायं छिज्जइ कोवि हु जलबिंदू जलहरंमि वरिसंते । सु वि मुत्ताह[ल]लच्छी भणंति चिंतामणी विउसा ॥ ४७ ॥ एए हुंति अवेहा अमुल्लया पूयमाण रिद्धिकरा । लोए बहुमाहप्पा लहु बहुमुल्ला य सिप्पिभवा ॥४८॥ रामावलोइ ववरि सिंघलि कंतारि पारसीए य । केसिय देसेसु तहा उवहितडे सिप्पिजा हुंति ॥ ४९॥ सव्वेसु आगरेसु य सिप्पउडे साइरिक्ख जलजोए । जायंति मुत्तियाई सव्वालंकारजणयाइं ॥ ५० ॥ तारं वटै अमलं सुसणिद्ध कोमलं गुरुं छ गुणा । लहु कढिण रुक्ख करडा विवन्न सह बिंदु छह दोसा ॥ ५१ ॥ ससिकिरणसमं सगुणं दीहं इक्कंगि कलुसियं हवइ । तस्स य खडंस हीणं मुल्लं निंबउलिए अद्धं ॥५२॥ अहरूव पंकपूरिय असार विप्फोड मच्छनयणसमं । करयाभं गंठिजुयं गुरुं पि वढं पि लहुमुल्लं ॥ ५३ ॥ पीयड अय? तिहा सखुद्द छटुंसु खरड जह जुग्गं । सदोसे य दसंसं इयराणं दिट्ठए मुल्लं ॥ ५४॥ ॥ इति मुत्ताहलपरीक्षा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्करफेरूविरचिता - अथ पद्मरागमणिर्यथा रामा गंगनई तड़ि सिंघलि कलसउरि तुंबरे देसे । माणिक्काणुपपत्ती विहु विह पुण दोस गुण वन्ना ॥ ५५ ॥ पढमित्थ पउमरायं सोगंधिय नीलगंध कुरुविंदं । जामुणिय पंच जाई चुन्निय माणिक्क नामेहिं ॥ ५६ ॥ सूरु व्व किरणपसरा सुसणिद्धं कोमलं च अग्गिनिहा । जं कणयसमं कढिया अक्खीणा पंउमरायं सा ॥ ५७ ॥ किंसुय कुसुम कसुंभय कोइल सारिस चकोर - अक्खिसमं । दाडिमबीजनिहं जं तमित्थ सोगंधिया नेया ॥ ५८ ॥ कमला लत्तय - विद्दुम- हिंगुलुयसमो य किंचि नीलाभो । खज्जोयकंतिसरिसोइय वन्ने नीलगंधो य ॥ ५९ ॥ पढम तह साव गंधयसमप्पहं रंगबहुल कुरविंदा | पुण सत्तासं लहुयं सजलं च इय सहाव गुणं ॥ ६० ॥ जामुणिया विन्नेया जंबू कणवीररत्तपुप्फसमा । मुल्लरसंतरमेयं वीसं पनरस दस छ तिग विसुवा ॥ ६१ ॥ सुच्छायं सुसद्धिं किरणाभं कोमलं च रंगिल्लं | सुरुयं समं महंतं माणिक्कं हवइ अट्टगुणं ॥ ६२ ॥ गयछायं जड धूमं भिन्नं ल्हसणं सकक्करं कढिणं । विपयं रुक्खं च तहा अड दोसा भणिय माणिक्कं ॥ ६३ ॥ गुणपुवुन्न जहुत्तं माणिक्कं दोसवज्जियं अमलं । जो घर तस्स रज्जं पुत्तं अत्थं हवइ नूणं ॥ ६४॥ गुणसहिय पउमरायं धरिए नरनाह आवया टर्लर्इ । सद्दोसेण उवज्जइ न संसयं इत्थ जाणेह ॥ ६५ ॥ Jain Educationa International - अगुण विवन्नच्छायं ल्हसण जुयं थड्डूयं च खग्गं च । इय माणिकं धरियं सुदेसभट्टं नरं कुणइ ॥ ६६ ॥ For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा कर-चरण - वयण - नयणं सुपउमरायं पइस्स जणयंती । तो वहइ पउमरायं पउमिणि सुयपउमजणणत्थं ॥ ६७ ॥ अहवट्टि उड्डवट्टी तिरीयवट्टी य जा हवइ चुन्नी । सा अहमुत्तिम मज्झिम कूडा पुण सव्ववट्टी य ॥ ६८ ॥ जो मणि बहिप्पएसे मुंचइ किरणं जहग्गि गयधूमं । सा इंदकंति नेया चंदो व्व सुहावहा सघणा ॥ ६९॥ साणाइ पउमरायं जो छिज्जइ अंगुली छिविय कसिणा । तं च पहाउ सगब्भा चिप्पिडिया हवइ सा चुन्नी ॥ ७० ॥ ॥इति माणिक्यपरीक्षा समत्ता ॥ अथ मरकतमणिर्यथा अवलिंद मलयपव्वय कव्वरदेसे य उवहितीरे य । गरुडस्स उरे कंठे हवंति मरगय महामणिणो ॥ ७१॥ गरुडोदगार पढमा कीडउठी दुईय तईय वासउती । मूगउनी य चउत्थी धूलिमराई य पण जाई ॥ ७२ ॥ गरुडोदगार रम्मा नीलामल कोमला य विसहरणा । कीडउठि सुहम णिद्धा कसिणा हेमाभकंतिल्ला ॥ ७३ ॥ वासवई य सरुक्खा नील हरिय कीरपुच्छसम णिडा। मूगउनी पुण कढिणा कसिणा हरियाल सुसणेहा ॥ ७४ ॥ धूलमराई गरुया तह कढिणा नीलकच्च सारिच्छा। मुल्लं वीस विसोवा दसट्ठ तह पंच दुन्नि कमा ॥ ७५ ।। रुक्ख विफोडा पाहण मल कक्कर जठर सज्जरस तह य । इय सत्त दोस मरगयमणीण ताणं फलं वोच्छं ॥ ७६ ॥ रुक्खा य वाहिकरणी विष्फोडा सत्यघायसंजणणी । मलिण वहिरंधयारी पाहाणी बंधुनासयरी ॥ ७७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उडरफेरूविरचिताकक्कर सहिय अउत्ता जठरा जाणेह सव्व दोसगिहं । सज्जरसा मामिचू मरगइदोसाइं ताण फलं ॥ ७८ ॥ सुच्छायं सुसणिद्धं अणेरुयं तह लहुं च वन्नडूं । पंच गुणं विसहरणं मरगय मसराल लच्छिकरं ॥७९॥ सूराभिमुहं ठवियं कर उयरे मरगयमि चिंतिजा । विप्फुरइ जस्स छाया पुन्नपवित्ता धुरीणा सा ॥ ८० ॥ ॥ इति मरकतमणिपरीक्षा समता ॥ अथ इन्द्रनीलम्सिंघलदीव समुब्भव महिंदनीला य चउ सुवन्ना य । छ दोस पंच गुणाहि य तहेव नव छाय जाणेह ।। ८१॥ सियनीलाभं विप्पं नीलारुण खत्तियं वियाणाहि । पीयाभनील वइसं घणणीलं हवइ तं सुद्धं ॥ ८२॥ अब्भय मंदि सकक्कर गब्भा सत्तास जठर पाहणिया । समल सगार विवन्ना इय नीले होति नव दोसा ॥ ८३ ॥ अब्भय दोस धणक्खय सकक्कर वाहिउ मंदिए कुटुं। " पाहणिए असिघायं भिन्नविवन्ने य सिंहभयं ॥ ८४॥ सत्तासे बंधुवहं समल सगारे य जठर मित्तखयं । नव दोसाणि फलाणि य महिंदनीलस्स भणियाइं ॥ ८५॥ . गुरुयं तह य सुरंगं सुसणिद्धं कोमलं सुरंजणयं । इय पंच गुणं नीलं धरति मणि कोव पसमंति ॥ ८६ ॥ नील घण मोरकंठ य अलसी गिरिकन्नकुसुमसंकासा । अलिपंखकसिण सामल कोइलगीवाभ नव छाया ॥ ८ ॥ हीरय चुन्निय माणिक मरगय नीलं च पंच रयणमयं । इय धरिए जं पुन्नं हवइ न तं कोडिदाणेण ॥ ८८॥ ॥ इति इन्द्रनीलमहापंचरयणुच्चयं ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा अह विदुम ल्हसणिययं वइडुज्जो फलिह पुंसराओ य। कक्केयग भीसम्मो भणियं इय सत्त रयणाणं ॥ ८९॥ विदुमं जहा कावेर विंझपव्वइ चीण महाचीण उवहि नयपाळे । वल्लीरूवं जायइ पवालयं कंदनालमयं ॥ ९०॥ [पाठान्तर-वल्लीरूवं कच्छ(त्थ)वि पवालय होइ उयहिमज्झम्मि । बहुरत्त कढिण कोमल जह नालं सव्वसुसणेहं ॥ ५०] बहुरंगं सुसणिद्धं सुपसन्नं तह य कोमलं विमलं । घणवन्न वन्नरत्तं भूमिय पयं विदुमं परमं ॥ ९१ ॥ छ । ल्हसणियओ जहा नीलुज्जल पीयारुण छाया कंतीइ फिरइ जस्संगे । तं ल्हसणियं पहाणं सिंघलदीवाउ संभूयं ॥ ९२॥ इक्कोवि य ल्हसणियओ अदोस अइ चुक्खओ विरालक्खो। नवगहरयण समगुणो भणंति तं सपुलियं केवि ॥ ९३ ॥ वइडुजं जहा कुवियंगय देसोवहि वइडूरनगेसु हवइ वइडुजं । वंसदलाभं नीलं वीरिय - संताण-पोसयरं ॥ ९४ ॥ [ पाठान्तर-रयणायरस्स मज्झे कुवियंगय नाम जणवओ तत्थ । __ वइडूरनगे जायइ वइडुजं वंसपत्ताभं ॥५१] फलिहं जहा नयवाल कासमीरे चीणे कावेरि जउणनइतीरे । विंझगिरि हुंति फलिहं अइनिम्मलदप्पणु व सियं ॥ ९५ ॥ [पाठान्तर-नयवाले कसमीरे चीणे कावेरि जउणनइकूले । विझनगे उप्पजइ फलिहं अइनिम्मलं सेयं ॥ ५४] रविकंताओ अग्गी ससिकंताओ झरेइ अमिय जलं । रविकंत-चंदकंते दुन्नि वि फलिहाउ जायंति ॥ ९६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता [पाठान्तर-उप्पतीओ अग्गी ससिकंतिओ झरेइ अमियजलं । रविकंत-चंदकंते दुन्नि वि फलिहाओ जायंति ॥ ५५] पुंसरायं जहा बहुपीय कणयवन्नो समणिद्धो पुंसराओ हिमवंते । जायइ जो धरइ सया तस्स गुरू हवइ सुपसन्नो ॥ ९७ ॥ [पाठान्तर-बहुपीय रुहिरवण्णो ससिणेहो होइ पुंसराओ य । भीसमु विण चंदसमो दुन्नि वि जायंति हिमवंते ॥५६] ककेयणं जहा पवणुप्पट्ठाण देसे जायइ कक्केयणं सुखाणीओ।। तंबय सुपक्क महुवय नीलाभं सदिढ सुसणिद्धं ॥ ९८ ॥ छ । [पाठान्तर-पवणुत्थठाणदेसे जायइ कक्केयगं सुखाणिओ। तंबय सुपकमहुय चय नीलाभं सुदिढ सुसणेहं ॥ ५२] भीसमं जहाभीसमु दिणचंदसमो पंडुरओ हेमवंतसंभूओ। जो धरइ तस्स न हवइ पाएणं अग्गि - विजुभयं ॥ ९९ ॥ ॥इति रयणसप्तकं ॥ सिरिनायकुल परेवग देसे तह नव्वुया नईमझे । गोमेय इंदगोवं सुसणिद्धं पंडुरं पीयं ॥ १०॥ [पाठान्तर-सिरिनायकुलपरेवमदेसे तह जम्मलनईमज्झे । गोमेय इंदगोवं सुसणेहं पंडुरं पीयं ॥ ५३] गुणसहिया मलरहिया मंगलजणया य लच्छिआवासा । विग्घहरा देवपिया रयणा सव्वे वि सपहाया ॥१०१॥ मुत्तिय वज्ज पवालय तिन्नि वि रयणाणि भिन्नजाईणि । वन्नवि जाइविसेसो सेसा पुण भिन्नजाईओ॥ १०२॥ इय सत्थुत्तर(सत्तुत्तम) रयणा भणिय भणामित्थ पारसीरयणा । वन्नागर संजुत्ता लाल अकीया य पेरुजा ॥१०३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा [पाठान्तर-इय सत्थुत्तयरना भणिय भणामित्थ पारसी रयणा । वण्णागर संजुत्ता अन्ने जे धाउसंजाया ॥५७] अइतेय-अग्गिवन्नं लालं वंदखसाण देसंमि । जमणदेसे यकीकं लहु मुल्लं पिल्लुसमरंगं ॥ १०४ ॥ [पाठान्तर-अइतेय अग्गीवणं लालं वद्दक्खसाए देसम्मि । यमणदेसे यकीकं लहु मुल्लं पिल्लुसमरंगं ॥ ५८] नीलामल पेरुज्जं देसे नीसावरे मुवासीरे । उप्पजइ खाणीओ दिट्ठिस्स गुणावहं भणियं ।।१०५॥ [पाठान्तर-नीलनिहं पेरुज देसे नीसावरे गुवासीरे । ___ उप्पजइ खाणीओ दिहिस्स गुणावहं भणियं ॥ ५९] ॥ इति वज्रादिसर्वरत्नानां स्थानज्ञातिस्वरूपाणि समाप्तः (१) ॥ अर्थतेषामेव मूल्यानि वक्ष्यते जथागाहा। पुनः भावानुसारेण जथा जे सत्थ-दिट्ठिकुसला अणुभूया देस -काल-भावन्नू । जाणिय रयणसरूवा मंडलिया ते भणिज्जंति ॥ १०६ ॥ हीणंग अंतजाई लक्खण - सत्तुज्झया फुडकलंका । अय जाणमाणया विहु मंडलिया ते न कईयावि ॥ १०७ ॥ मंडलिय रयण दटुं परोप्परं मेलिऊण करसन्नं । जंपति ताम मुल्लं जाम सहासम्मयं होइ ॥ १०८ ॥ धणिओ अमुणियमुल्लो हीणहियं मुणइ तस्स नहु दोसो। मंडलिय अलियमुलं कुणंति जे ते न नंदति ॥ १०९॥ अहमस्स अहियमुलं उत्तमरयणस्स हीणमुल्लं च । जे मयलोहवसाओ कुणंति ते कुट्ठिया होंति ॥११॥ रयणाण दिट्ठ मुलं निरुद्ध वद्धं न होइ कईयावि । तहवि समयाणुसारे जं वट्टइ तं भणामि अहं ॥ १११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ठक्करफेरूविरचिता तिहु राइएहिं सरिसम छहि सरिसम तंदुलो य बिउण जवो । सोलस जवेहि छहि गुंजि मासओ तेहिं चहु टंको ॥ ११२ ॥ गाइ जाव [ब] रस तिग वुड्डी जाम गुंज चउवीसं । चउ रयणाणं मुल्लं तोलीण सुवन्नटंकेहिं ॥ ११३ ॥ पंच दुवास वीसा तीसा पन्नास पंचसयरी य । दहिय चउस सयं दो चाला ति सय वीसा य ॥ ११४॥ चारि सय तह य छह सय चउदस सय उवरि विउणविउँण जा । इकार सहस दुगसय मुल्लमिणं इक हीरस्स ॥ ११५ ॥ अड इग दु चउ अट्ठय पनरस पणवीस याल सट्ठी य । चुलसीइ चउदसुत्तर सयं च कमसो य सट्टिसयं ॥ ११६ ॥ तिन्नि सय सट्ठि समहिय सत्त सया तहय वारस सया य । दो सहस कणय टंका मुत्तियमुलं वियाहिं ॥ ११७ ॥ दो पंच अट्ठ बारस अड्डार छवीसा य [याल] सट्ठी य । पंचास वीसा सउ सट्ठि सयं दुसय वीसा य ॥ ११८ ॥ चउ सय वीसा अड सय चउदस चउवीस पिहु पिहू सयाणि । गुंजाइ [मास ?] टंकं उत्तिम माणिक्क मुल्लु वरं ॥ ११९ ॥ पाय एग दिवढं दु ति चउ पण छच्च अट्ठ दह तेरं । ठार सगवीस चत्ता सट्टि महामरगयमणीणं ॥ १२० ॥ अस्यार्थ एष पत्रपूठिजंत्रेणाह ॥ छ ॥ गुंजा १ हीरा ५ १२ २० ३० ५० ७५ ११० १६० २४० ३२० ४०० ६०० १४०० २८०० ५६०० ११२०० २ ४ ८/१५ २५ मोती ० ॥ १ माणिक २ ५ ८ १२ १८२६ ४० ६ ७ 4 ९. Jain Educationa International १० 19 १८ १२ १५ ६० | ८५१२० १६० २२० ४२० मराइ of ०॥ ११॥ २। ३ ४ ५ ६ ८ १० १३ १८ अस्य यंत्रस्य अर्थ गाह ११२ उपरे गाह १२० जाव जाणनीयं ॥ छ ॥ * For Personal and Private Use Only ४० ६० ८४ | ११४३६० ३६० ७०० १२०० २००० २१ २७ २४ ८०० १४०० २४०० ४० ६० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा अद्धमासाय अहियं मासय अडड जाम चउ मासं । तोलीण हेमटकिहिं मुल्लु कमेण सुरयणाणं ॥ १२१॥ एग दुसढ छ नवगं पनरस चउवीस तहय चउतीसं । पन्नास लालमुल्लं पउणं एयाउ ल्हसणिययं ॥ १२२ ॥ पा अड पउण एगं दु पंच अटेव तहय पन्नरसं । इय इंदानील] मुलं तहेव पेरोजयस्स पुणो ॥ १२३ ॥ अस्यार्थं जंत्रे जथा मासा | ॥ लाल १ २॥ ६ । ९ । १५ २४ ३४ ५० ल्हसणी ॥ १८ २९ ३२ इंद्रनील पेरोजा . सिरि वढं गुण अद्धं पायं अणुसार पाय करडं च । टंकिकि जे तुलंती मुत्ताहल तं भणामि अहं ॥ १२४ ॥ दस वारस पन्नरसा वीसं पणवीस तीस चालीसा । पन्नार(स?) सत्तर सयं चडंति टंकिक्कि तह मुल्लं ॥ १२५ ॥ पन्नासं चालीसं तीसं वीसं च तहय पन्नरसं । बारस दस दृ पण तिय इय मुल्लं रुप्पटंकेहिं ॥ १२६ ॥ इति मुत्ताहलं। अथ वज्रं जथाएगाइ जाम बारस तुलंति गुंजिकि वज ताणमिमं । मुलं मंडलिएहिं जं भणियं तं भणिस्सामि ॥ १२७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मोती टंक १ रुपय टंका वज्र गुंजा ठक्करफेरूविरचिता पणतीसं छव्वीसं वीसं सोलस तेरस [य] दसेवा | अहं च एग ऊणा जातिय कमि रुप्पट्टंकाय ॥ १२८ ॥ छ ॥ अस्यार्थं जंत्रेणाह - रूप्य टंका १० 9 ५० ४० ३० ३५ १२ १५ २० २ Jain Educationa International २० ३ ४ = २५ ३० ४० २६ २० १६ १३ १५ ७ ॥ 5 मराइ ४ ६ १० इंद्रनील , ल्हसणीया । ॥ लाल ॥ | ३ | पेरोजा 1 11 - १२ ॥ ॥ १० ፀ w ६ १० = ७ ८ ५० ७० १०० मासा १ १॥ २ २॥ ३ ३॥ हीरा १६ ३० ६० १०० १५० २२० ३४० ६० १२० २४० ४८० ९६० चून्नी ८ १८ ३० मोती २ ८ ३० ८० १२० १८० २७० ४०५ १५ २२ ३४ ५० ७० १ २ ५ ७ १० १ २ ५ ७ १० १० १३ १६ २२ ३० १ १० ८ मुद्रित प्रतिमें १२३ वीं गाथाका पाठ भिन्न रूपमें मिलता है और उसके नीचे यंत्ररूप कोष्ठक दिया गया है उसकी अंकगणना भी भिन्न प्रकारकी है । गाथा और कोष्ठक निम्न प्रकार हैं - [ अद्ध ति छह ] दह तेरस सोलस बावीस तीस टंकाई । लालस्स मुल्लु एयं पेरुजं इंदनील समं ।। १२३ अस्यार्थ यंत्रणाह - ८ ७ ५ ९ ६ For Personal and Private Use Only ३ २ ५ ७ १० ५ ११ ४ १२ ३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ रत्नपरीक्षा मुद्रित प्रतिमें १२४, १२५, १२६ इन ३ गाथाओंके स्थानपर पाठभेदवाली भिन्न गाथाएं हैं तथा उनके नीचे यंत्ररूपसे जो कोष्ठक दिये हैं उनमें अंकादि भी भिन्न गिनती बताते हैं । गाथाएं और कोष्ठक निम्न प्रकार हैं बारस चउदस सोलस वीसाई दसहियं च जाव सयं । टंकिक्कि जे तुलंती मुत्ताहल ताण मुल्लमिमं ॥ १२४१ चालीसं पणतीसं तीसं चउवीस सोलसिकारं । अट्ठ छ इगेग हीणं जाव दु कमि रुप्प टंकाणं ॥ १२५ एगाइ जाव बारस चडंति गुंजिकि वज ताणमिमं । वीसाय सोल तेरस गारस नव इगूण जाव दुगं ॥ १२६ . अस्यार्थ पुनयंत्रकेणाहमोती टंक प्रति १२ १४ १६ २० ३०/४० ५० ६० ७० ८० ९० १०० | रूप्य टंकण ४० ३५ ३० २४ १६ ११ ८ ६ ५४ ३ २ - | हीरा गुंजा १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२| रूप्य टंकण २०१६ १३ ११ ९ ८७६ ५४३ २ अइ चुक्ख निम्मला जे नेयं सव्वाण ताण मुल्ल मिमं । नहु इयर रयणगाणं कणयद्धं विदुमे मुल्लं ॥ १२९॥ गोमेय फलिह भीसम कक्केयण पुंसराय वेडुज्जे । एयाण मुल्लु दम्मिहि जहिच्छ कजाणुसारेण ॥ १३० ॥छ॥ [पाठभेद-अइ चुक्ख निम्मला जे नेयं सवाण ताण मुल्लमिमं । सदोसे सयमंसं भमालए मुटु दसमंसं ॥ २७ गोमेय फलिह भीसम ककेयग पुस्सराय वइडुज्जे । उकिट्ठ पण छ टंका कणयद्ध विदुसे मुलं ॥ २८ ॥इति सर्वेषां मूल्यानि समाप्तानि ॥] . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ठक्करफेरूविरचिता सिरि धंधकुले आसी कन्नाणपुरम्मि सिट्ठि कालियओ । तस्सुव ठक्कर चंदो फेरू तस्सेव अंगरुहो ॥ १३१ ॥ तेहि रयणपरिक्खा विहिया नियतणय हेमपालकए । केर मुणि गुण सैसि वरिसे ( १३७२ ) अल्लावदी विजयरज्जम्मि ॥ १३२ ॥ [ पाठभेद - तेणय रयणपरिक्खा रइया संखेवि ढिल्लिय पुरीए । कर मुणि गुण ससि वरिसे अल्लावदणस्स रजम्मि | १२६ ] * ॥ इति परमजैन श्रीचंद्रांगज ठक्कर फेरू विरचिता संक्षिप्तरत्नपरीक्षा समाप्ती ॥ १ पाठान्तर - फेरूविरचिते संक्षेप्यरत्नपरीक्षा समाप्तः ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरू विरचिता प्राकृतभाषाबद्धा द्रव्य परीक्षा ॐ नमो कमलवासिणी देवी। कमलासण कमलकरा छणससिवयणा सुकमलदलनयणा । संजुत्तनवनिहाणा नमिवि महालच्छि रिद्धिकरा ॥१॥ जे नाणा मुद्दाइं सिरि ढिल्लिय टंकसाल कज्जठिए । अणुभूय करिवि पत्तिउ वन्हि मुहे जह पयाउ घियं ॥२॥ तं भणइ कलसनंदण चंदसुओ फिरऽणुभाय तणयत्थे । तिह मुल्लु तुल्लु दव्वो नामं ठामं मुणंति जहा ॥ ३ ॥ पढमं चिय चासणियं, वीयइ कणगाइ रुप्प सोहणियं । तइए भणामि मुल्लं, चउत्थए सव्व मुंदाइं ॥ ४॥ दारं ॥ चासणियं जहासुक्कं पलासकटुं गोमय आरन्नगा अजा अस्थि । कमि तिय इगे गि भायं एगटुं दहिय तं रक्खं ॥५॥ छाणिय सेर सवायं वंधि गहं वंकनालि धमि मंदं । . धव अंगार सवा मणि सोहिय उत्तरइ चासणियं ॥६॥ तं पुणरवि सोहिज्जइ पण तोला रक्ख वंधिऊण गहं । ता हवइ सहं कूरं अइ निम्मल चासणिय रुप्पं ॥ ७ ॥ ॥ इति सर्व चासनिका मूलसोधनविधिः ॥ सीसस्स अमल पत्तं करेवि लहु खंड तुलिवि सोहिज्जा । नीसरइ रुप्प सयलं सीसं गच्छेइ खरडि महे ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता सय तोलामञ्झेणं वारह जव सीसए हवइ रुप्पं । . पच्छा पुण पुण सोहिय तहावि निकणं न कइयावि ॥ ९॥ ॥इति नागचासनिका ॥ रुप्पस्स वीस मासा छटंक नागं च देइ सोहिज्जा । जं जायइ ते विसुवा एवं हुइ रुप्प चासणियं ॥ १० ॥ ॥इति रुप्पचासनिका।। नाणय डहक्क हरजय रीणी चक्कलिय टंक दस गहिउं । पनरह गुण सीसेणं सोहिय नीसरइ जं रुप्पं ॥११॥ तस्साओ पाडिज्जइ रुप्पं सीसस्स जं रहइ सेसं । तं चासणिय सरूवं अन्नं जं खरडि मज्झि हवे ॥ १२ ॥ नीचुच्च नाणयाओ कमेण चउ दु जव किंचि हीणहिया । संगहइ खरडि रुप्पं अवस्स चासणिय समयंमि ॥१३॥ हरजय चासणिय दुगं दह दह टंकस्स मेलि गहि अद्ध । पउण दु जवंतरेसु ह दु जवंतरि वाहुडइ नूणं ॥ १४ ॥ . ॥इति द्रव्यचासनिका ॥ चासणिय जव दहग्गुण जि टंक मासा हवंति तस्सुवरे । अग्गिस्स भुत्ति दीयइ टंकप्पइ जे जवा होति ॥ १५॥ तं सय मज्झे रुप्पं तहच्छमाणस्स पूरणे जंतं । तंवअहियस्स पुण जुय सल्लाही सा भणिज्जेइ ॥ १६ ॥ ॥इति सल्लाहिकाविधिः॥ सामनेण सुवन्नो वारहि वन्नीय भित्ति कणओ य । पंच जव हीण चिप्पं पिंजरि वन्नी य पंच तुले ॥ १७॥ . सिय खडिय लूण कल्लर सम मिस्सिय चुन्न सा सलोणीयं । मेलगय कणय चिप्पय करेवि तेण सह पइयव्वं ॥ १८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा तिहु अग्गिक्क सोणी सत्ति सलूणीहि सुज्झए चिप्पं । इक्कारसीय वन्नी इक्कारस जब भवे सुकसं ॥ १९ ॥ सय तोल कणय पइए जं घट्टइ सा सलूणियं चिप्पे । चिप्पे दहग्गि पक्के जं घट्टइ तं च कायरियं ॥ २० ॥ चिप्पस तिन्नि मासा पत्त करिवि भित्ति कणय सह पइए । स तिहाउ जओ घट्ट भित्तीओ पढम चासणियं ॥ २१ ॥ पच्छा ति अग्ग पक्के पुणो वि तिय मास भित्ति सह पइए । तेरह विसुव जवरस य इय अंतरु वीय चासणिए ॥ २२ ॥ परपुन्न दहग्गि प[ [?] ए भित्ति समं हवइ तइय चासणियं । टंकाण चक्कलीयं गहिज्जइ य कणय चासणियं ॥ २३ ॥ ॥ इति सुवर्णशोधना चासनिका च ॥ मेलगइ रुप्प विसुवा दह तेरह सोल ठार उणवीसा । पंच उण चरण तिउणं विउणं सम सीसयं दिज्जा ॥ २४ ॥ सयल कुदव्वं गच्छइ खरडिंतरि रहइ सेस रुप्पवरं । तं पुण दिवड सीसइ सोहिय हुइ वीस विसुव धुवं ॥ २५ ॥ ॥ इति रुप्पसोधना ॥ तुलिय सलूणीयाओ अड्डाइ गुणीय खरडि रूप्पस्स । aa मेलि पंडिय करिज्ज कोमं स चुन्न सहा ॥ २६ ॥ ततो करेव कुट्टिय धमिज्ज घट्टेइ तईय अंसुमलं । हवइ दुभामिस्स दलं तरसाओ अड्डयं कुज्जा ॥ २७ ॥ नीसरइ सयल रुप्पं सीसं तंबं च जाइ खरडि महे | सा खरडि पुण धमिज्जइ पिहु पिहु नीसरहि दुन्नेवि ॥ २८ ॥ काइरिय पुणो एवं कीरइ तस्साउ तंब सह कणयं । नीसरइ तस्स चिप्पं हुइ सीसं खरडि मज्झाओ ॥ २९ ॥ ॥ इति मिश्रदल शोधना ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता कजलिय मूसि थूरिय तोपाल नियारयस्स सुहम कणं । सोहग्ग फक्क सज्जिय दसंस जुय कढिय हवइ दलं ॥३०॥ इति कणचूर्ण शोधना ॥ चउ भाय अमल तंबय वर पित्तल सोल भाय सह कढियं । इय रीसं कायव्वं रुप्पस्स विसोव करणत्थे ॥ ३१ ॥ वीस विसोवा रुप्पं मासा वीसाउ जं जि कडिजा। तित्तिय मासा रीसं दिज हवइ ते विसोव कसं ॥ ३२ ॥ ॥इति रुप्पवनमालिका ॥ अइ चुक्ख रुप्प तंबय कमि पनरह सड्ढ सड्ड चउ रीसे । इय भाय वंनियत्थे सोलस चउ कणय घडणत्थे ॥ ३३ ॥ जारिस वन्नी कीरइ तित्तिय दु जवहिय भित्ति कणओ य । सेस दु जवूण रीसं एवं तोलिक्कु हवइ परं ॥ ३४॥ रीस सम रुणय पढमं गालिवि पुण थोव कणय सह कढियं । पुण सेस सहा वट्टिय ता हवइ जहिच्छ वन्नाभं ॥ ३५॥ अथवाराम कर भाय सुलभं तारं मुणि सत्त भाय सह कढियं । एयं सयंस रीसं सुवन्न वन्नस्स हरण वरं ॥ ३६ ॥ सेयालीस विभायं धुर कणय करवि एग एगूणं । तत्तुल्लि दिज रीसं कमेण पाऊण हुइ वन्नं ॥ ३७ ॥ ॥इति कनकवनमालिका ॥ जवि सोलसेहि मासउ चहु मासिहि टंकु तोलओ तिउणो। सोलहि जवेहि वन्नी वारहि वन्नी महाकणओ ॥ ३८ ॥ वन्नी तुल्लेण हयं भित्ति सुवन्नस्स अग्घ सह गुणियं । वारस भागे पत्तं जहिच्छमाणस्स तं मुलं ॥ ३९ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा नाणा वन्नी कणओ नाणा तुल्लेण जाम गालिज्जा । केरिस वन्नी जायइ अह एरिस वन्नि किं तुल्लो ॥ ४ ॥ जसु वन्नी जं तल्लो सो तस्सरिसो गुणेवि करि पिंडं । तुल्लि विहत्ते वन्नं इच्छा वन्नी हरे तुलं ॥४१॥ ॥ इति खर्ण विवहारं ॥ उग्घाड मूसि दुग सउ पडिय सओ ढक्क मूसि उद्देसो । आवट्ट खए गच्छइ हरजइ तह रीण वट्टे य ॥ ४२ ॥ छेयणि घडणु जालणि सहस्सि तोलेहि रुप्पु चउमासा । कणओ सवाउ मासउ टंकट्ठ सहस्सि दम्मेहिं ॥ ४३ ॥ ॥इति हास्यं ॥ चहु सय ठुत्तरि कणओ चहु सय वत्तीस कणय टंको य। तेवन्नि सड्ड रुप्पउ सट्ठि टकउ नाणउ ति वन्ने ॥ ४४ ॥ तोलिक्कस्स सलूणी दम्मिहि वत्तीसि चउ हु कायरियं । रुप्पस्स खरडि सीसय पमाणि छह टंक दम्मिक्के ॥४५॥ सीसरस मली सीसस्स अद्धए तह य डउल खरडि पुणो । लोहद्धि लोह कक्कर इय अग्धं तेर वासट्टे ॥ ४६॥ रुप्पय कणय ति धाउय इय तिय मुद्दाण मुल्ल दम्मेहिं । वन्निय तुल्ल पमाणे सेस दु धाऊय टंकेण ॥ ७ ॥ नाणा मुद्दाण कए जारिसु टंको पमाणिओ होइ । टंकेण तेण मुल्लं गणियव्वं सयल मुद्दाणं ॥ ४८ ॥ भणिसु हव नाणवढं दम्मित्तिहि जाम इत्तियं मुदं । इय अग्घ पमाणेणं इत्तिय मुंदाण कई मुल्लं ॥ ४९ ॥ . रासिं तिगाइ गुणियं मज्झिम हरिऊण भाउ जं लद्धं । तं ताण मुंद मुल्लं न संसयं भणइ फेरु त्ति ॥ ५० ॥ ॥ इति मौल्यम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता अथ मुद्रा यथा सवा इगवन्न दम्मिहिं पुत्तलिया खीमलीय चउतीसे। तोला इक्कु कजानिय वावनि आदनिय इगवन्ने ॥५१॥ रीणी जे मुद्दा लग स तिहा गुणचासि तोलओ तेवि । सड्ढडयाल रुवाई खुराजमी सड्ड पंचासे ॥५२॥ वालिट्ठ पाउ ओवम रुप्प मया तिन्नि होंति तिहु तुल्ले । सह सउ असी चत्ता तोला इक्को य वावन्नो ॥ ५३॥ सिरि देवगिरिउ वन्नो सिंघणु तुल्लेण मासओ इक्को । सतरह विसुवा सड्डा रुप्पउ ताराय मासद्धो ॥ ५४॥ अन्नं जं जि करारिय खट्टा लग नरहडाइ रीणीय । तहं सयल दिहि मुल्लु अहवा चासणिय अग्गिमुहे ॥ ५५ ॥ ॥ इति रूप्यमुद्रा॥ ~-momwww.rrr पूतली तो० ५१॥ खीमली ० ३४ कजानी ० ५२ आदनी ० ५१ रीणीमुद्रा ० ४९ रुवाई ० ४८॥ खुराजमी ० ५०॥ वालिष्ट जि३ प्रति १६० वा. १ ८० वा. १ ४० वा.१ सीघणमुद्रा ३०४ तारा मा०॥5०२ रीणी खटिया लग नरहडादि करारी एते दृष्टि अथवा चासनी प्रमाणे मूल्यं । है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा कणय मय सीयरामं दुविहं संजोय तह विओयं च । दह वन्नी दस मासा अभन्नणीया सपूयवरा ॥ ५६ ॥ चउकडिय तह सिरोहिय अट्ठी वन्नी सवा चउ म्मासा । तुल्ले कुमरु पुणेवं अट्ठी वन्नी धुवं जाण ॥ ५७ ॥ पउमाभिहाण मुद्दा वारह वन्नी य तस्स कणओ य । तुल्लेण टंकु इक्को सत्त जवा सोल विसुवंसा ॥ ५८ ॥ देवगिरी हेमच्छू सवादसी सिंघणी महादेवी । ठाणकर लोहकुंडी अट्ठी वाणकर पउण दसी ॥ ५९॥ खग्गधर चुक्खरामा सड्ढनवी केसरी य छह सड्डा। सत्त जव दसी वन्नी कउलादेवी वियाणाहि ॥ ६ ॥ जे अनि अच्छु बहुविह थरेहि तह मुल्ल तुल्लु नज्जेइ । चउमासा दीनारो जहिच्छ वन्नी गुसारि फलो ॥६१ ॥ ॥इति वर्णमुद्रा ॥ rwarm वा. १० सीताराम मासा १० . १संयोगी १ वियोगी वानी ८ चउकडीया | वा. ८ सिरोहिया । वा. ८ कुमरु तिहुणगिरि मासा ४॥ • वा. १२ पदमा टं १ जव ७७०० आछू देवगिरी मुद्रा स्वर्णमय वानी विउराप्रमाणे १०। सिंघण १०। महादेवी ८ ठाणाकर ८ लोहकुण्डी ९॥ रामबाण ९॥ खड्गधर. चोषीराम ६॥ केसरी १० ज ७ कौलदेवी . दीनारु मा. ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ठक्कुरफेरूविरचिता वाणारसीय मुद्दा पउमा नामेण इक्कि सय मझे। . तिन्नेव धाउ तुल्ले तोला सइतीस जाणेह ॥ ६२ ॥ पंच जव हीण वारह वन्नी कणओ य टंक इगयाला । छत्तीस अमल रुप्पं तंबं चउतीस टंकेवं ॥ ६३ ॥ ० पदमा १०० मध्ये धातु ३ टंक १११ टं ४१ सोनावानी ११ जव ११ चीपा टं ३६ रूपा चोषा नवाती विश्वा २० टं ३४ ताम्बा चोषा अमल प्रधान इक्कि पउमस्स मज्झे रुप्प कणय तंब मासओकिक्को । सत्त दह पंच जव कमि सुन्न चउ पनर विसुवहिया ॥ ६४ ॥ इय एगि पउम तुल्लो मुणि ७ जव विसुवंस सोल टंकु इगो। जाणेह तस्स मुल्लो जइथल उणसहि अह सट्ठी ॥६५॥ १ . पदमा १ संतोल्ये टं १ जव ७ ३०॥१॥ मासा १ ज ७ 5०॥ रूपा चोखा ॥ १ मासा १ ज १० ऽ४॥ १ कनक चोखाः॥ है मासा १ ज ५॥ ०७४ तांबा निर्मल भगवा तिधाउ संभव पउमा समतुल्ल विविहमुल्ला य । भगवंदसणिय नामे कारिय जियसत्त रायस्स ॥६६॥ भगवा नानाविध मौल्य मुद्रा ११ तोल्ये मासा ४ जव ७ भगवंत नामे जितसत्र नृप कारितं ॥ मुद्द विलाई कोरं मासा नव तुल्लि तिन्नि धाऊ य। . तंबं दिवड्डमासं सेस कणय रुप्प अदृद्धं ॥ ६७॥ पउण ति टंका मुलं इमस्स सेसाण कमिण पाऊणं । जा पाय टंकओ हुइ इक्कारस मुद्द तुल्लि समा ॥ ६८ ॥ ७ १ विलाई कोर मुद्रा ११ तोल्ये। मासा ९ मूल्ये टंका 5२॥ऽ२॥ऽ।ऽ२ १॥ ३१॥ 51 5१०॥ sons Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ द्रव्यपरीक्षा माहोवयस्स मुद्दा तुल्लो इक्करस सड्ड चउमासा । संजोय तिन्नि धाऊ पिहु पिहु नामहि तं भणिमो ॥ ६९ ॥ रुव कणय गुंज चउ चउ तंवउ गुणवीस वीरवंभो – ।। मुल्लु चउवीस जइथल हीरावंभस्स वावीसं ॥ ७० ॥ तंबु अढाइ मासा रुप्पु सुवन्नो य इक्कु इक्को य । तियलोयवंभ मुल्लं छत्तीसं विविह भोजस्स" ॥ ७१ ॥ २४ वीरवरमु मासा ४॥ तृधातु ० सोनउ ० रूपउ त्रांबा ० राती ४ राती ४ रा. १९ २२ हीरावरमु मासा ४॥ तृधातु है ० ०सोनउ रूपउ तांबा ० ०रा. ॥ रा. ३॥ १९॥ ३६ त्रिलोकवरमु १ मासा ४॥ मा. १० मा १ सोन मा १ रूपौ मा २॥ तांबा • भोज नाना तौल्य विविध मूल्य १ ० तृधातु संभव। वल्लह तिय कमि धाऊ रुप्प कणय गुंज अट्ठ पण अहुटुं । तंबु भव ११ सतर १७ वीसं २० मुल्ले चालीस तीस वीस धुवं ॥७२॥ वालम्भ मासा सोना रूपा तांबा है ४० १ ४॥ रा.८ रा.८ रा.११ ३ १.३० १ ४॥ रा.५ रा.५ रा.१७ १ १२० १ ४॥ रा.॥ रा.३॥ रा.२० ॥ ॥ इति त्रिधातुमिश्रितमुद्राः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता अथ द्विधातुमुद्राः जे तोला जे मासा जि टंक उल्लविय सयल मुद्देहिं । तं सयमझे रुप्पउ जाणिज्जहु सेस तंबो य ॥ ७३ ॥ खुरसाण देस संभव चिन्हक्खर पारसीय तुरुकीय । तंबय रुप्प दु धाऊ इमेहि नामेहि जाणेह ॥ ७४ ॥ भंभइ य एगटिप्पी सिकंदरी कुरुलुकी पलाहउरी । सम्मोसीय लगामी पेरि जमाली मसूदीया ॥ ७५ ॥ सय मुद्द मज्झि रुप्पउ ति चउ ति दु इगेग दुदु इग दु तोला। सुन ति ३ सुन छ ६ दु २ सवापण ५। छ ६ दु २ सढनव ९॥ पउणदुइ १॥ मासा ॥ ७६ ॥ चउतीसं तेवीसं चउतीसिगयाल असी सहि कमे। इगयाल सत्तयालं पणपन्न ऽडयाल टंकिके ॥ ७७॥ ॥ इति खुरसाणीमुद्राः। विवरं जंत्रेणाह १३ ३४ भांभइ मुद्रा १०० मध्ये रूपा तो३ मा. . . २३ इगटीपी १०० मध्ये रूपा तो४ मा.३ ३४ सिकन्दरी १०० मध्ये रूपा ३ मा.. ४१ कुरुलुकी १०० मध्ये रूपा २ मा.६ ८० पलाहौरी १०० मध्ये रूपा १ मा. २ ६० समोसी १०० मध्ये रूपा १ मा. ५॥ ४१ लगामी १०० मध्ये रूपा २ मा. ६ ४७ पेरी १०० मध्ये रूपा २ मा. २ ५५ जमाली १०० मध्ये रूपा १ मा.९॥ है ४८ मसूदी करारी १०० मध्ये रूपा २ मा. १॥ अवदुल्ली तह कुतुली तुल्लि सवापण दुमासिया मुल्ले । सट्ठि असी तह रुप्पं दु दु जव चउ सोल विवकम्मे ॥७॥ سع ه س مم مم م س م १४ ० अबदुल्ली १ मासा ५। मध्ये रूपा जव २७४ ० कुतुली १ मासा २ मध्ये रूपा जव २॥ ॥ इति अठनारीमुद्राः॥ प्र० ६० प्र०८० } Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा विक्कम नरिंद भणिमो गोजिग्गा अउणतीस तोल रुवा । दउराहा पणवीसं सवा रुमे अहुठ चउ मुल्ले ॥ ७९ ॥ भीमाहा छव्वीसं तोला मासङ्घ चारि टंकिक्के । चोरी मोरी तोला पणवीसं मुल्लि चारि सवा ॥ ८० ॥ करड तह कुंम्मरूवी कालाकच्चरि य छक्क करि मुल्छे । सय मज्झि अट्ठमासा सतरह तोला य खलु रुप्पं ॥ ८१ ॥ ॥ इति विक्रमार्कमुद्राः॥ १५ १०० मध्ये रूपा तोला २५ मासा ३ प्रति ४ ० गोजिगा १०० मध्ये रूपा तोला २९ मासा ९ प्रति ० दउराहा ० भीमाहा १०० मध्ये रूपा तोला २६ मासा ॥ प्रति ४ ० चोरी मोरी १०० मध्ये रूपा तोला २५ मासा. प्रति ४ ० करड १०० मध्ये रूपा तोला १७ मासा ८ प्रति ६ ० कर्मरूपी १०० मध्ये रूपा तोला १७ मासा ८ प्रति ६ • कालाकचारि १०० मध्ये रूपा तोला १७ मासा ८ प्रति ६ गुज्जरवइ रायाणं बहुविह मुद्दाइ विविह नामाइं । ताणं चिय भणिमोहं तुल्लं मुल्लं निसामेह ॥ ८२ ॥ कुमर अजय भीमपुरी लूणवसा रुप्पु टंक पणवन्ना । पंच नव विसुव मुल्लो तुल्ले चउमास तेर जवा ॥ ८३ ॥ वीसलपुरीय छह करि कुंडे गुग्गुलिय टंक पन्नासं । डुल्लहर पनर तोला अहुट्ठ मासा छ सड करे ॥ ८४॥ अज्जुणपुरीय तोला वारह सड्डाय मुल्लि अट्ठ करे। कट्टारिया चउद्दस तोला मासा ति सत्तेव ॥ ८५ ॥ नव करि असपालपुरीगारस तोला अड्डाइय मासा । . सारंगदेव नरवइ तस्स इमं संपवक्खामि ॥ ८६ ॥ सोढलपुरी छ तोला मासा अट्ठेव मुल्लु पन्नरसा । पणमासा दहतोला दस करि लाखापुरी जाण ॥ ८७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता १६ १०० १०० 0 n n var १०० ५।४ कुमरपुरी १०० मध्ये तोला १८ मा० ४ ५।४ अजयपुरी १०० मध्ये तोला १८ मा० ४ ५४ भीमपुरी मध्ये तोला १८ मा० ४ ५।४ लावणसापुरी मध्ये तोला १८ मा० ४ ८ अर्जुनपुरी मध्ये तोला १२ मा० ६ ६ वीसलपुरी १०० मध्ये तोला १६ मा० ८ १ कुंडे १ गूगले ६॥ डोलहर १०० मध्ये तोला १५ मा० ३॥ ७ कटारिया १०० मध्ये तोला १४ मा० ३ ९ आसपाल पु १०० मध्ये तोला ११ मा० २॥ १५ सोढलपुरी १०० मध्ये तोला ६ मा०८ १० लाखापुरी १०० मध्ये तोला १० मा० ५ गविका य पंच तोला रुप्पउ सयमज्झि वीस करि मुल्ले । पडिया रजपलाहा सोलह करि छ तॉल अहुठ मसा ॥८॥ वेवलय सड्ड सोलस रुप्पु छ तोलाय मासओ पउणो । इय इत्तियाण तुल्लो मासा पंचेव इक्किको ॥ ८९ ॥ अट्ठ करिवि सह सया तोला सढवार तुल्लि मासहुठा। - दस तोल सत्त मासा वराह नव सड्ड टंकीण ॥ ९ ॥ वारह सड्ड करेविणु तोलट्ठ रुवा विनाइका चंदी। कन्हडपुरी छ सड्ढा कणु पनरह तोल अहुठ मसा ॥ ९१॥ वाण इगवीस तोला अधमासउ रुप्पु पंच इगि टंके। मछवाह छ करि सोलह तोला मास? रुप्पु सए" ॥९२॥ चउतीसा पइतीसा छत्तीसा तह य सत्ततीसाय । मालवपुरि छारीया चासणिए मुल्लु एयाणं ॥ ९३ ॥ ॥इति गुर्जरीमुद्राः॥ __१७ २० गविकाः १०० मध्ये तोला ५ मा० ० १६ पडिया १०० मध्ये तोला ६ मा० ३॥ १६ रजपलाहा १०० मध्ये तोला ६ मा० ॥ १६॥ वेवला १०० मध्ये तोला ६ मा० ॥ ८ साठसया मध्ये तोला १२॥ मा० ॥ ९॥ वराह मुंद १०० मध्ये तोला १० मा० ७ १२॥ विनायका १०० मध्ये तोला ८ मा० ० ६॥ काह्नडपुरी १०० मध्ये तोला १५ मा० ३॥ ५ वाण मुद्रा १०० मध्ये तोला २१ मा० ॥ ६ मछवाहा मध्ये तोला १६ मा० ८ १०० .wwwwwwwww Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा २९ मालविय चउक्कडिया तोला अट्ठाय सड्ड वारि करे। दिउपालपुरी पनरह तोला पण मास छह सड्ढा ॥ ९४॥ कुंडलिया छह तोला पउण छ मासा य मुल्लि पन्नरसा । मासट्ठ पंच तोला वारह जव कउलिया सतरं ॥ ९५ ॥ वावीस टंक दव्वो तेरह सट्टा छडुल्लिया होति । सेलक्की तुंगड पण तोला तियमास चउवीसं (उणवीसं?) ॥९६॥ इय इत्तियाण तुल्लं चउमासा दह जवा हवंति धुवं । जानीया चित्तउडी वीसं दव्वो य पण तोला ॥ ९७ ॥ १८ प्रति नाम १०० म रूपा तो० मा० तोल्ये टं० जव १२॥ चौकडिया ६॥ दिउपालपुरी १५ कुंडलियाः १७ कउलिया मुद्र ५ ॥ १३॥ छडुलिया १९ सेलकी तोगड़ २० जानीया चितौडी जकरिया गलहुलिया वावीसं तीस मुल्लु तह दव्वो। कमि चारि तिन्नि तोला छ जव चउम्मास चउमासा ॥ ९८ ॥ मासट्ठ इक्कु तोलउ रुप्पो य रवालगा य छप्पन्ना । सिवगणय पंचहत्तरि मुल्लि सवा तोलओ रुप्पो ॥ ९९ ॥ चउदस सवा चउदसी तोला वपडाय मलित सत्त करे। सिह चोर मार मलुवा तेरह तोलाय सत्त सत्त सवा ॥१०॥ ॥इति मालवीमुद्राः॥ m ........१९ प्रति नामानि १०० मध्ये रूपा तो० मा० तोल्ये टं. २२ जकारीया नाम १०० मध्ये ४ ४॥ . ३० गलहलिया ५६ रवालगा मुद्रा शत १ मध्ये १ ८ ० ० ७५ सिवगणा शत १ मध्ये १ ३ . ० ७ वापडा नाम मुद्रामध्ये १४ ० ० १७ मलीता नाम मुद्रा मध्ये १४ ७ सीहमार नाम मुद्रा म० १३ ७ चोरमार नाम १०० म० १३ १.९० ० ० ० ० ० ० ० . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता चाहंडी तिन्नि कमसो दुउत्तरी अंककी पुराणीय । ति ति दु तोल दह ति दह मास ऽडवीस वतीस पणतीसं ॥१०॥ आसलिय सतरहुत्तरि दु तोल छम्मास दव्वु चालीसं। आसल्ली ठेगा महि छ टंक कणु मुल्लि पन्नासं ॥ १०२॥ आसलिय नविय तुल्ले सतरह तोला सवाय इगि टंके । टंक अढाई रुप्पउ सय मज्झे वीस मासाय ॥ १०३ ॥ ॥ इति नलपुरमुद्राः ॥ प्र० २८ चांहडी दुओत्तरी १०० मध्ये तो० ३ मा० १० प्र० ३२ चांहडी आंककी १०० मध्ये तो०३ मा० ३ प्र० ३५ चांहडी पुराणी १०० मध्ये तो० २ मा० १० प्र० ४० आसली सतरहोत्तरी मध्ये तो० २ मा० ६. प्र०५० आसली ठेंगा १०० मध्ये तो० २ मा० प्र०१७ आसली नवी ठेका १ प्रति तलित तोला १७ मध्ये रूपा तोला २॥ सत १ मध्ये रूपा तो ५ (१) , चंदेरियस्स मुद्दा मुल्ले कोल्हापुरीय छह सड्डा । पनरह तोला सतिहा तुल्ले चउ विसुव टंकु इगो ॥ १०४॥ सट्ट सड्ड वारह तोला जीरीय हीरिया सयगे । वारट्ठ करिवि सु कमे टंकइ इक्के वियाणेह ॥ १०५॥ दव्वु अढाई तोला अकुडा सय मज्झि मुल्लु चालीसा । जइत अड मास नव जव दव्वो मुल्लेण दिवढ सयं ॥१०६ ॥ सट्ट सउ वीर टंकइ जव तेरह सत्त मास सय मज्झे । लक्खण सवा छ मासा रुप्पु सए मुल्लु असी सयं ॥ १०७ ॥ राम दु जव चउमासा दुन्नि सया मुल्लि टंकए इक्के । वव्वावरा मसीणा खसरं च सयं नवइ अहियं ॥ १०८ ॥ ॥ इति चंदेरिकापुरसत्कमुद्राः" ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा १०० मा०६ १०० मा HEEEEEE १० ० ० ० ० mma vvv .ar . . . ..... । १ प्र० ६॥ कोल्हापुरी १०० १५ मा०४ जव ० 'प्र० १२ जीरिया ८. मा०६ जव '. प्र० ८ हीरीया १०० मध्ये १२ मा०६ जव . प्र० ४० अकुडा १०० मध्ये जव ० प्र० १५० जात मा०८ प्र० १६० वीरमुंद मा०७ प्र० १८० लक्ष्मणी १०० मध्ये तो० ० मा०६ प्र०२०० राम १०० मध्ये तो० ० मा०४ प्र० १९० वव्वावरा १०० मध्ये तो० ० मा० ५ ज० ८ प्र० १९० मसीणा १०० मध्ये तो० ० मा०५ ज० ८ प्र०१९०खसर १०० मध्ये तो० ० मा० ५ ज० ८ ॥ इति चंदेरिकापुरमुद्राः॥ जालंधरी वडोहिय जइतनँदाहे य रूपचंदाहे । रुप्प चउ तिन्नि मासा दिवढ सयं दु सय टंकिक्के ॥ १०९॥ तिन्नि सय इकि टंके सीसडिया हुइ तिलोयचंदाहे। संतिउरीसाहे पुण चारि सया इक्कि टंकेणं ॥ ११० ॥ ॥इति जालंधरीमुद्राः ॥ २२ प्र० १५० जइतचंदाहे १०० मध्ये रूपा तो० ० मा० ४ प्र० २०० रूपचंदाहे १०० मध्ये प्र० ३०० त्रिलोकचंदाहे १०० मध्ये प्र० ४०० सांतिउरी साहे ॥मध्ये अथ ढिल्लिकासत्कमुद्रा यथा अणग मयणप्पलाहे पिथउपलाहे य चाहडपलाहे। सय मज्झि टंक सोलह रुप्पउ उणवीस करि मुल्लो ॥१११॥ ॥ एता मुद्रा राजपुत्र-तोमरस्य ॥ रूप्य तोला मासा प्रति नामानि मुद्रानां १९ अणगपलाहे १९ मदनपलाहे १९ पिथउपलाहे १९ चाहड पलाहे शत १ मध्ये सत १ , सत १ सत १ , सत१ , C Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता सूजा सहावदीणी तहेव महमूद साहि चउकडिया। टंक चउद्दस रुप्पउ सय मज्झे मुल्लु इगवीसं ॥ ११२॥ कडगा सरवा मखिया सवा छ तोला य रुप्पु सोल करे। कुंडलिया पण तोला छ मास अट्ठार इगि टंके ॥ ११३ ॥ छुरिया जगडपलाहा चउतोल दु मास रुप्पु पणवीसं । दुकडीटेगा अहिया इगि मासइ रुप्पि तेवीसं ॥११४ ॥ कुव्वाइची जजीरी तह य फरीदीय परसिया मज्झे । दस मासा तिय तोला मुल्ले टंक्किक्कि छव्वीसा ॥ ११५॥ चउक कुवाचीय वफा सवा ति तोला य मुल्लि इगतीसा । सतिहाय तिन्नि तोला खकारिया तीस करि जाण ॥ ११६ ॥ उणतीस निवदेवी मुल्ले तोला ति सड्ड चउमासा । धमडाह जकारीया अहुट्ठ तोलाऽडवीस करे ॥११७ ॥ पढमा अलावदीणी सयगा समसीय चारि टंक सवा । इगसहि इकि टंकइ सत्तरि चउ टंक मोमिणिया ॥ ११८ ॥ दुक सेला पंच रवा तोला तिय दिवढु मासओ रुप्पो। बत्तीस करिवि मुल्ले टंकइ इक्के वियाणिज्जा ॥ ११९॥ तितिमीसि कुव्वखाणी खलीफती अधचँदा सिकँदरीया। नव टंक रुप्पु मुल्ले चउतीस करेवि इय समसी ॥ १२० ॥ समसद्दीण सुयाणं रुकुणी पेरोजसाहि पणतीसं । तह वारसुत्तरी पुण इग मासा हीण तिय तोला ॥१२१॥ समसदि सुया रदीया तस्स रदी दुन्नि ढिल्लिय वुदउवा । सढ सोल पउण तेरह टंकक उणवीस इगतीसा ॥ १२२॥ नवगा पणगा मउजी मासा नव सड्ढ तोलओ इक्को । पणपन्न सोलहुतरी दुइ तोला मुल्लि पंचासं ॥ १२३ ॥ उणचास पनरहुतरी दुइ तोला इक्कु मासओ रुप्पो । छका दु तोल दु मासा सइँताल मउजिया एवं ॥ १२४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा पेरोजसाहि नंदण अलावदीणस्स एय मुद्दाई । वलवाणीय इकंगी अड्डा तिय टंक मुल्लि असी ॥ १२५॥ वलवाणि वामदेवी तिस्सूलिय चउकडीय सगवन्ना । मुल्ले दिवड्ड तोलउ सय मज्झे दव्वु नायव्वो ॥१२६ ॥ तेरहसई मरुट्टी नवइ करिवि इक्कु तोलओ रुप्पो । उच्चइ मूलत्थाणी नवमासा रुप्पु तीस सयं ॥ १२७ ॥ मरकुट्टीय सुकारी वारह नव नवइ १२९९ अंकितस्स महे । तोलिकु अद्ध मासउ सत्तासी मुल्लि जाणेह ॥ १२८॥ सीराजी दुइ तोला छम्मासा रुप्पु मुल्लि इगयाला। चउपन्न मुक्खतलफी मासा दस तोलओ इक्को ॥ १२९॥ काल्हणी तह नसीरी दक्कारी सत्त छ पण ७६५ टंक कणो। सगयालीस पचासं पणपन्ना कमिण टंकिक्के ॥ १३० ॥ सत्तावीस गयासी दुति हिय सयमज्झि १०२।१०३ टंक दस रुप्पं । मउजी सइ पण तोला समसी हुय रुप्प टंकाय ॥१३१॥ जल्लाली तह रुकुणी सड्ढा पण टंक रुप्पु सय मज्झे । मुल्लं सवाउ दंमं लहंति वटंति विवहारे ॥ १३२ ॥ अन्नन देससंभव अमुणियनामाइं जं जि मुद्दाई । ते पनरह गुण सीसइ सोहिवि कणु मुल्लु नजेई ॥१३३॥ AvvvvvAamnnamann रूप्य तोला मासा प्रति नामानि मुद्रानां शत १ मध्ये २१ सूजानाम मुद्रा सत १ सहावदीनी मुद्रा सत १ महमूदसाही मुद्रा सत १ चउकडीया मुद्रा सत १ कटका नाम मुद्रा सत सरवा नाम मुद्रा सत मखिया मुंद कुंडलिया मुंद " २५ छुरिया मुंद , जगटपलाहा नाम " २३ दुकडीया ठेगा , २६ कुवाइची जजीरी मुद्रा marrcccccc VVMMWN Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmswwww sna. ० ० ० ० ३४ ठक्कुरफेरूविरचिता प्रति नामानि मुद्रानां शत १ मध्ये रूप्य तोला मासा २६ फरीदी नाम मुद्रा , २६ परसिया मुद्रा " ३१ चउक नाम मुद्रा ,सत १ वफा नाम मुद्रा दर्दू , खकारिया नाम मुद्रा, नींवदेवी नाम मुद्रा , २८ धमडाहा नाम मुद्रा " २८ जकारीया नाम मुद्रा, अलावदीनी मुद्रा " सतका समसी मुद्रा , ७० मोमिनी अलाई मुद्रा, ३२ सेला समसी " " तितिमीसी नाम मुद्रा कुव्वखानी ३४ खलीफती अधचंदा सिकंदरी नाम मुद्रा रुकुनी नाम मुद्रा पेरोज साही , , , वारहोत्तरी , " ". रदी ढिल्लिका टंकसालसं मध्ये रदी वुदौवां टंकशाल वुदाऊ वार० नवका मउजी पनका मउजी नाम मुद्रा सोलहोत्तरी मुद्रा सत१ मध्ये ,, पनरहोत्तरी मुद्रा सत १ मध्ये , ४७ छका नाम मुद्रा सत १ मध्ये , __ वलवाणी इकांगी सत १ मध्ये , वलवाणी वामदेवी सत१ मध्ये , चौकडीया तेरहसई मरोटी सत १ मध्ये। उचई मुलथाणी सत१ मध्ये . मरोटी इंगानी मुद्रा सत १ मध्ये सुकारी नाम मुद्रा सत १ मध्ये सीराजी नाम मुद्रा सत १ मध्ये मुख्तलफी मुद्राः सत १ मध्ये . काल्हणी नाम मुद्रा सत १ मध्ये नसीरी ढिल्यां टकसालहता दकारी नाम मुद्रा सत १ मध्ये गयासी दुगाणी नाम मुद्रा २० मउजी नाम मुद्रा तिगानी सत १ ४८ जलाली नाम मुद्रा वर्तमाना ४८ रुकुनी नाम मुद्रा प्रवर्त्तमान ॥ इति श्री दिल्या राज्ये वर्चमानमुद्राः॥ س س س س س س س س م م م س س س س س سه م م ه م ه م م م م م م م م م m75 on a swer o. 000000 70. م م م م م ५० ५५ م م م س م ه مه Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा संपइ पवट्टमाणा मुद्दा अल्लावदीण रायस्स । दुविह दुगाणी दव्वो पउणा दस अट्ठ टंक सए ॥ १३४ ॥ छग्गाणी पुण दुविहा सड्डा पणवीस पउण पणवीसा । टंक सय मज्झि रुप्पउ सड्डा चउ दु जव नव विसुवा ॥ १३५ ॥ इग्गाणी सय मज्झे तंबउ पण नवइ टंक पण दव्वो । रायहरे विवहारे गणिज्ज इग्गाणिया सयलं ॥ १३६ ॥ इग पण दह पन्नासं सय तोला तुहि हेम टंकाई । चउ मासा दीनारो रुप्पय टंको य तोलीणो ॥ १३७ ॥ चउ मास जाव घडियं सहावदीणस्स तुच्छ मुद्दाई | दम्म छगाणी टंका रुप्प सुवन्नस्स तोलीणा ॥ १३८ ॥ ॥ इति अश्वपति महानरेन्द्र पातिसाहि अलावदी मुद्राः ॥ २५ • रूप्य टंका १ अलाई प्रति गण्यते ॥ १० छगानी सत मध्ये १० छगानी सतमध्ये ३० सत मध्ये ३० सत मध्ये ६० इगानी सत मध्ये ० शेष तांबा सत १ टंक पूरणे सर्व मुद्र दुगानी दुगानी तो ८ तो ८ तो ३ तो २ तो १ Jain Educationa International मा ६ मा ३ मा ३ मा ८ मा ८ ज ४॥ ज २२४ ज० इत्तो भणामि संपइ कुदुबुद्दी रायवंदिछोडस्स । चउरंस वट्ट मुद्दा नाणाविह तुल्ल मुल्लो य ॥ १३९ ॥ For Personal and Private Use Only ज० ज० ३५ बत्तीसं कणयमया रुप्पमया वीस दम्म सत्तविहा । चउविह तंबय साहा मुद्दा सव्वेवि तेसट्ठी ॥ १४० ॥ दारं ॥ इग पण दह तोलाई दस हिय जा सउ दिवड सउ दुसयं । इय वट्ट हेम टंका चउरंस पुणोवि एमेव ॥ १४१ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता तेरह मासा सतिहा सुवन्न टंको य सोनिया तिविहा । इग मासिया दुमासिय चउगुंजा एय बत्तीसं ॥ १४२ ॥ .॥ इति वर्णमुद्राः ॥ २६ हेम टंका नाना तौल्ये ० इक तोलिया १ ० पंच तोलिया १ .० दस तोलिया १ ० पंचाश तोलिया १ ० सय तोलिया टंका १ हेमदीनारु मासा ४ रूप्य टंका सर्वेपि इक तोलियाः। २७ कनक मुद्रा ३२ यथा२९. टंका नानाविधा तोलो यथा१४. वृत्ताकार नाना तो० तो १ ५ १० २० ३० ४० ५० ६० ७० ८० ९० १००१५० २०० १४. चतुःकोण तोल्ये वृत्तकार वत् । निश्चित। १. मासा १३ऽ संवृत्ताकारु । ३. अपर नाना वृत्त लघुमुद्राः १ मासा १। १ मा० २।१ गुं०४ रुप्पिग तोली वट्टा चउदस चउरंस हेम सम तुल्ला । पंच विहा रुप्पइया इग दु ति चउमासि अद्ध तुला ॥ १४३ ॥ ॥ इति रुप्यमुद्राः ॥ रूप्यमुद्रा २० विवरणम् । १ १५. टंका मुद्रा नानाविध तो। १. संवृत्ताकारु तो०१ १४. चतुःकोणः। तोलो यथा १ ५ १० २० ३० ४० ५०१ ६० ७० ८० १० १०० १५० २००३ एवं। ५. रुपीया मुद्रा नाना तोलो। १ मासा १/१ मासा २१ मा० ३ १ मासा ४|१मासा ६/ संवृत्ता १२०. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्रव्यपरीक्षा दुग्गाणी य छगाणी तुल्ले मुल्ले य रुप्प तंबे य।। अल्लाई सम जाणह अन्ने अन्ने वि ही भणिमो ॥ १४४ ॥ . चउगाणी वट्ट सए सोल सवा टंक नव जवा रुप्पं । चउमासा तुल्लेणं न संसयं इत्थ नायव्यं ॥ १४५ ॥ चउवीस वारसट्ठ य अडयालीसाण मुद्द चउरंसा । तुल्ले य रुप्प तंबय संखा कमि अट्ठगाणीओ ॥ १४६ ॥ तित्तीस टंक नव जव चउ विसुवा रुप्पु सेस तंबो य । सय अट्ठगाणिएहिं इगेगि तुल्लो य चउमासा ॥ १४७॥ . ॥इति द्रंम मुद्राः ॥ ..२९ द्रम्मा मुद्रा सप्त ७ नानाविध तोलो मूलो। १ वृत्ताकार मुद्रा ३ तोल्ये ८१ १. दुगाणी १०० मध्ये धातु २ ____टं. ८ नवाती रूप्य । टं. ९२ तांत्र १. चउगानी १०० मध्ये धातु २ टं. १६ मा० १ जव ९ रूप्य टं.८३ मा०२ जव ७ांबा १. छगानी १०० मध्ये धातु २ टं. २४ मा० ३ जव १॥ रूप्य टं.७५ मा० जव १४॥ ताम्र है चतुरन मुद्राः ४ १. अठगानी १०० मध्ये टं. ३३ मा० जव ९७४ रू० टं. ६६ मा० ३ ज० ६.१ तां० १. वारहगानी १०० टं० १५० मा० १ ज०१५॥ १॥ २७४ रू० मा०४ ज०७३॥.२.१ तां० १. चउवीसगानी तो ट० ३ (३००१) मा० ३ ज० १५. २॥. ४.३ रू० मा०८ ज०।२5015०॥ तां १. अडतालीसगानी टं० ६ (६००?) चळवीसगानीतो द्विगुण द्रव्यं । है तान्न मुद्रा ४ साहा सं। ०७१ मासा १ ०७१ मासा । ०७२॥ मासा २॥०७५मासा ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कुरफेरूविरचिता विसुवा सवाय विसुवा अधवा पइका य तंब चउरंसा । तुल्लेण कमि चडंता मासाओ जाम पण मासा ॥ १४८ ॥ ॥ इति साहे मुद्राः ॥ एवं दव्वपरिक्खं दिसिमित्तं चंदतणयफेरेण । भणिय सुय - बंधवत्थे तेरह पणहत्तरे वरिसे ॥ १४९ ॥ इति श्रीचन्द्रांगज ठक्कुर फेरू विरचिता द्रव्यपरीक्षा समाप्ता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्करफेरूविरचिता धा तू त्प त्तिः । * अथ धातूत्पत्तिमाह रूप्पं च मट्टियाओ नइ - पव्त्रयरेणुयाउ कणओ य । धाउव्वाओ य पुणो हवन्ति दुन्निवि महाधाऊ ॥ १ ॥ पट्टे च कीडयाओ मियनाहीओ हवेइ कत्थूरी । गोरोमयाउ दुव्वा कमलं पंकाउ जाणेह ॥ २ ॥ मउरं च गोमयाओ गोरोयण होन्ति सुरहिपित्ताओ । चमरं गोपुच्छाओ अहिमत्थाओ मणी जाण ॥३॥ उन्ना य बुक्कडाओ दन्त गइंदाउ पिच्छ रोमा ( मोरा ? ) ओ । चम्मं पसुवम्गाओ हुयासणं दारुखण्डाओ ॥ ४ ॥ सेलाउ सिलाइच्चं मलप्पवेसाउ हुइ जवाइ वरं । इय सगुणेहि पवित्ता उपत्ती जइय नीयाओ ॥ ५ ॥ इत्युत्पत्तिः । अथ करणीयमाह - पितलिं जहा वे मण अधा (१) वटि कुट्टिवि रंधिज्ज गुडमणेगेण । जं जायइ निच्चीढं तयद्ध तंबय सहा कढियं ॥ ६॥ सा वीस विसुव पित्तल दुभाय तंबेण पनर विसुवा य । तुल्लेण तंत्रयाओ सवाइया ढक्क मूसीहिं ॥ ७ ॥ तम्बयं जहा Jain Educationa International बब्बेरय खाणीओ आणवि कुट्टिज धाहु मट्टी य । गोमय सहियं पिंडिय करेवि सुकवि य पइयव्वं ॥ ८ ॥ For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता पच्छा खुड्डइ खिवियं धमिज नीसरई सव्व मलकडं । जं हिढे रहइ दलं तं पुण कुट्टेवि धमियव्वं ॥९॥ तस्साउ वहइ पयरं तं तंबमिट्ठयं वियाणेह । वुड्डाणए पुणेवं गुटुं गुलियं तओ हवइ ॥१०॥ अथ सीसयं जहाना(न)गखाणीओ पाहण कड्डिवि कुट्टेवि पीसि धोइज्जा । जं होइ तं मलदलं दुभाय तइयंस लोहजुयं ॥११॥ सय सय पलस्स मूसी ते चाडिवि तीस अंगए इक्के । आवट्टिय तुल्लेणं चउत्थभागूण हुइ सीसं ॥१२॥ लोहं सारं च पुणो उप्पत्ती धाहुपाहणाओ य । पित्तल-कंसाईणं विणट्ठए होइ भिंगारी ॥ १३ ॥ अथ रंगयं जहारंगस्स धाहु कुट्टिवि करिज कोमंस चुण्ण सह पिंडं । धमिय निसरई जं तं पुण गालिय कविया होन्ति ॥१४॥ अथ कंसयं जहाकंबिय सेरक्कारस मणेग तम्बं च पयर गुटुं वा । आवट्ट घडिय सुद्धं कंसं हुइ वीसयंसूणं ॥ १५ ॥ अथ पारयं जहापारस्स धाहु ठवियं तस्सोवरि गोमयहकुढि कुज्जा । मंदग्गिधमियमाणो उड्डवि संचरइ तस्स महे ॥१६॥ अहवा रसकूव भणन्तेगे तरुणत्थी तत्थ करवि सिंगारं । तुरियारूढं झकिवि अपुट्ठपयरेहिं नस्सेइ ॥ १७ ॥ कुवाओ तस्स कए पारं उच्छलवि धावए पच्छा। बाहुडइ दहमकाओ पुणोवि निवडेइ. तत्थे व ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातूत्पत्तिः जं रहइ नियट्ठाणे कत्थव कत्थेव खड्ड-खड्डीहिं । तत्थाउ गहइ सा तिय उप्पत्ती पारयस्स इमं ॥ १९॥ अथ हिंगुलयं जथाएगमण पारह तहा गन्धय चुन्नं च सेर दस खिविउं ।' दूराओ आसन्नं मंदग्गी कीरए मिस्सं ॥२०॥ कुट्टेवि तहिं खिविजइ मणसिल हरियाल सेर पा पायं । पूरिवि कच्च करावं दट्टिजइ खोरचुन्नेण ॥ २१ ॥ मढि मट्टिय सदलेणं तिन्नि अहोरत्ति वह्नि जालिजा । जाव सुगंधं ता हुइ सेर छयालीस हिंगुलयं ॥ २२ ॥ अथ सिन्दूरं जहासीसयमणेगमज्झे वंसयरक्खा दहद्ध सेराइं । गालिवि मेलिवि कुट्टिवि छाणवि जलि घोलि धरियव्वं ॥२३॥ नित्तारिऊण नीरं जं हिढे तस्स वडिय कय सुकं । घणि कुट्टि हंखि छाणिय ठवि भट्ठी अग्गि कायव्वं ॥ २४ ॥ जह जह लग्गइ तावं तह तह रंग चडेइ जा ति दिणं । सेरूणं सिन्दूरं तग्गालिय हवइ पुण सीसं ॥ २५ ॥ एवं च भणिय संपइ कुधाउमज्झे सुधाउ भणिमोहं । कविय रंगे कणयं तोलय सय जव चउत्तीसं ॥ २६ ॥ सयतोलामज्झेणं बारह जव सीसए हवइ रुप्पं । पच्छा पुण पुण सोहिय तहावि निकणं न कइयावि ॥२७॥ अथ धातोकरणी विधिः-कप्पूर-अगर-चंदण-मृगनाभीत्यादि । दाहिणवत्तं संखं इगमुह रुद्दक्ख सालिगामं च । देवाहिट्ठिय तिन्नि वि अमुल्ल सपहाय भणियन्ति ॥२८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ठक्करफेरूविरचिता खीरोवाहिसंभूयं विभूसणं सिरिनिहाण रायाणं । दाहिणवतं संखं बहुमंगलनिलयरिद्धिकरं ॥ २९ ॥ वट्टन्ति रेहकलियं पंचमुहं सुभ सोलसावतं । इय संखं विद्धिकरं संखिणि हुइ दीहहाणिकरा ॥ ३० ॥ सिरिकणय मेहलजुयं वरठाणे ठविय निच्च सुइ काउं । दुद्धि न्हविऊण चन्दणि कुसुमागरि मन्ति पूइज्जा ॥ ३१ ॥ पूजामन्त्रः ॐ ह्रीं श्रीं श्रीधरकरस्थाय पयोनिधिजाताय लक्ष्मीसहोदराय चिंतितार्थ संप्रदाय श्रीदक्षिणावर्त्तसंखाय । ॐ ह्रीं श्रीं जिनपूजायै नमः ॥ इति पूजाविधिः । दाहिणवत्तो य संखोयं जस्स गेहमि चिह्न | मंगलाणि पवट्टन्ते तस्स लच्छी सयंवरा ॥ ३३ ॥ तस्संखि खिविय चंदणि तिलयं जो कुणइ पुहवि सो अजिओ । तरस न पहवइ किंची अहि- साइणि-विज्जु-अग्गि-अरी ॥ ३४ ॥ नरनाहगिहे संखं वुड्डिकरं रजि रट्ठ भण्डारे । इराण य रिद्धिकरं अंतिमजाईण हाणिकरं ॥ ३५ ॥ दाहिणवत्ते संखे खीरं जो पियइ कय कुलच्छी य । साझा विपसूवइ गुणलक्खणसंजयं पुत्तं ॥ ३६ ॥ इति दक्षिणावर्त्तसङ्घः । दीवंतरि सिवभूमी सिवरुक्खं तत्थ होन्ति रुद्दक्खा । एगाई जा [च] उद्दस वयणा सव्वे वि सुपवित्ता ॥ ३७ ॥ पर उत्तमे गवयणा सिरिनिलया विग्घनासणा सुहया । कणयजुय कण्ठ सवणे भुय सीसे संठिया सहला ॥ ३८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातूत्पत्तिः दुमुहा मंगलजणया तिमुहा रिवहरण चा मज्झत्था । पंचमुहा पुन्नयरा सेसा सुपवित्त सामन्ना ॥ ३९ ॥ इति रुद्राक्षाः। गण्डुयनइसंभूयं सालिग्गामं कुमारकणयजुयं । चक्कंकिय सावत्तं वर्ल्ड कसिणं च सुपवित्तं ॥ ४०॥ लोया तईयभत्ता हरि व्व पूयंति सालिगामस्स । सेयस्थि मुत्तिहेऊ पावहरं करिवि झायंति ॥४१॥ इति शालिग्रामम् । महभूमि दक्षिणोवहि केलिवणं. तत्थ केलिगुंदाओ। कहरव्त्रओ य जायइ कप्पूरं केलिगब्भाओ ॥ ४२ ॥ कप्पूर तिन्नि कित्तिम इक्कडि तह भीमसेणु चीणो य । कच्चाउ सुकमि मुल्लो वीस दस छ विसु व विसुवंसो ॥४३॥ कायासुगन्धकरणं तहत्थिमज्जाय भेयगं सीयं । वाय-सलेसम-पित्तं तावहरं आमकप्पूरं ॥४४॥ इति कर्पूरः। अगरं खासदुवारं किण्हागर तिल्लियं च सेंवलयं । वीसं दस तिय एगं विसोवगा सुकमि अन्तरयं ॥४५॥ अइकढिण गवलवन्नं मज्झे कसिणं सरुक्ख गरुयं च । उण्हं घसिय सुयंधं दाहे सिमिसिमइ अगरवरं ॥ ४६ ॥ इत्यगरम् । मलयगिरि पव्वयंमि सिरिचंदणतरुवरं च अहिनिलयं । अइसीयलं सुधं तग्गंधे सयलवणगंधं ॥४७॥ सिरिचंदणु तह चंदणु नीलवई सूकडिस्स जाइ तियं । तह य मलिन्दी कउही वव्वरु इंय चंदणं छविहं ॥४८॥ वीसं वारट्ठ इगं तिहाउ पा विसुव चंदणं सेरं । पण तिय दु पाउ टंका जइथल चउ तिन्नि कमि मुल्लं ॥४९॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता सिरिचन्दणस्स चिण्हं वन्ने पीयं च घसिय रत्ताभं । साए कडुयं सीयं सगंठि संताव नासयरं ॥ ५० ॥ इति चन्दनम् । नयवाल-कासमीरा कामरुया मिय चरन्ति सुकमेण । मासी मुत्थगठि उनं कत्थूरिय अरुण पीयघणा ॥५१॥ नयवाल-कासमीरे मियनाही हवइ वीस विसुवा य । पंचि उरमाइ पव्वय संभूय दहट्ट जाणेह ॥५२॥ मियनाहि वीणओ हुइ पण तोला जाम चम्म सह तुल्लो । तस्स कणु वार विसुवा चम्मो विसुवट्ठ उद्देसो ॥ ५३ ॥ मियनाहि उण्हमहुरं कडुयं तिक्खं कसायसुग्गंधं । दुग्गन्धि छद्दि तावं तियदोसहरं च सुसणेहं ॥५४॥ इति मृगनाभीकत्थूरिकाः ।। कसमीरि जवडि केसरि देसे हुइ कुंकुमं सुगन्धवरं । वीस वारट्ठ विसुवा पण आदण हुरुमयस्स भवं ॥ ५५ ॥ इति कुंकुमम् । मुर मास कुट्ठ वालय नह चन्दण अगर मुत्थ छल्लीरं । सिल्हारसखंडजुयं सम मिस्स दहंग वर धूवं ॥ ५६ ॥ इति धूपः। कापूरसुरहिवासिय चन्दणसंभूय परम सिय वासा । मासीवालयसंभव कत्थूरिय वासिया सामा ॥ ५७ ॥ इति वासः। इति ठकुरफेरूविरचिते धातोत्पत्तिकरणीविधिः समाप्तः। श्रीविक्रमादित्ये संवत् १४०३ वर्षे फागुण शु० ८ चन्द्रवासरे मृगसिरनक्षत्रे लिखितम् । सा० भावदेवाङ्गज पुरिसड । आत्मवाचनपठनार्थे सुभमस्तु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेरू विरचित ज्योतिष सार -wwwmmm ॥ ॐ स्वस्ति ॥ ॥ आदित्यादिग्रहा नमः॥ सयलसुरासुर नमिउं जोइससारं भणामि किं पि अहं संखेवि परप्पहियं निरिक्खिउं पुव्वसत्थाई ॥१ हरिभद्द-नारचंदे पउमप्पहसूरि-जउण-वाराहे । लल्ल-परासर-गग्गे कयगंथाओ इमं गहियं ॥२ दिणसुद्धि बयालीसं विवहारे सहि गणिय अडतीसं । गाह दुहियसउ लग्गे दुसय बयालीस जुय सव्वे ॥३॥दारं॥ [प्रथमं दिनशुद्धिद्वारम् ] दिणशुद्धि जहारवि' ससि कुजै बुहँ गुरे सिर्य सणिवारा राहँ केय सहिय गहा। ससि बुह गुर सिय सोमा कूर त्ति बुहो य जेण जुओ ॥ ४ नंदा भद्दा य जया रित्ता पुन्ना य पडिवयाइ तिही। नक्खत्त जोय रासी. चकं अवकहड सुपसिद्धं ॥५ तं जहा-अश्विनी १, भरणि २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, मृगशिरः ५, आद्रा ६, पुनर्वसु ७, पुष्य ८, अश्लेषा ९, मघा १०, पूर्वफाल्गुनी ११, उत्तरफाल्गुनी १२, हस्त १३, चित्रा १४, खाति १५, विशाखा १६, अनुराधा १७, ज्येष्ठा १८, मूल १९, पूर्वाषाढा २०, उत्तराषाढा २१, अभीचि २२, श्रवण २३, धनिष्ठा २४, शतभिषा २५, पूर्वभाद्रपद २६, उत्तरभाद्रपद २७, रेवति २८ ॥ इति नक्षत्रनामानि ॥ ४२ दिणसुद्धि, ६० व्यवहार, ३८ गणित, १०२ लग्न,-२४२ गाहा । -टिप्पणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार विष्कंभ १, प्रीति २, आयुष्मान् ३, सौभाग्य ४, सोभन ५, अतिगंड ६, सुकर्मा ७, धृति ८, शूल ९, गंड १०, वृद्धि ११, ध्रुव १२, व्याघात १३, हर्षण १४, वज्र १५, सिद्धि १६, व्यतीपात १७, वरियानु १८, परिघ १९, शिव २०, सिद्धि २१, साध्य २२, शुभ २३, शुक्ल २४, ब्रह्मा २५, ऐंद्र २६, वैधृति २७॥ इति योगनामानि ॥ ___ मेषु १, वृषु २, मिथुनु ३, कर्कु ४, सिंघु ५, कन्या ६, तुला ७, वृश्चिकु ८, धनु ९, मकरु १०, कुंभु ११, मीनु १२॥ इति राशिनामानि॥ चु चे चो ला अश्विनी । लि लु ले लो भरणि।अइ उए कृत्तिका। ओ व वि वु रोहिणी । वे वो क कि मृगशिरः।कुघ ङ छ आद्रा । के को ह हि पुनर्वसु । हहे होड पुष्य । डि डु डे डो अश्लेषा। ममि मु मे मघा। मोट टि टु पूर्वफाल्गुनी । टे टो प पि उत्तरफाल्गुनी । पुषण ठ हस्तः। पे पो र रि चित्रा। रु रे रो त स्वाति । ति तु ते तो विशाखा । न नि नु ने अनुराधा। नो य यि यु ज्येष्ठा । ये यो भ भि मूल । भूध फ ढ पूर्वाषाढा । भे भो ज जि उत्तराषाढा। जु जे जो खा अभिजित् । खि खु खे खो श्रवण । ग गि गु गे धनिष्ठा । गो स सि सु शतभिषक् । से सो द दि पूर्वभद्रपदा । दु श झ थ उत्तरभद्रपदा । दे दो च चि रेवती । इति नक्षत्रावकहडचक्रम् ॥ अश्विनी भरणी कृत्तिकापादे मेषः १। कृत्तिकाणां त्रयः पादा रोहिणी मृगशिरार्द्ध वृषः २ । मृगशिरार्द्ध आद्रा पुनर्वसुपादत्रयं मिथुनः ३। पुनर्वसुपादमेकं पुष्य अश्लेषा कर्कटः ४ । मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनीपादे सिंहः ५। उत्तरफाल्गुनीनां त्रयः पादा हस्त चित्रार्द्ध कन्या ६ । चित्रार्द्ध स्वाति विशाखापादत्रयं तुला ७। विशाखापादमेकं अनुराधा ज्येष्ठा वृश्चिकः ८। मूल पूर्वाषाढ उत्तराषाढपादे धनः ९। उत्तराषाढाणां त्रयः पादा श्रवण धनिष्ठाई मकरः१० । धनिष्ठाई शतभिष पूर्वभद्रपदपादत्रयं कुंभः ११ । पूर्वभद्रपादमेकं उत्तरभद्रपद रेवती मीनः १२ । इति नक्षत्रे राशयः॥ रवि पडिवट्ठमि नवमी कर मूल पुणव्वसू धणिट्ठा य । अस्सिणि पुस्सो य तहा ति-उत्तरा रेवई सिद्धा॥ ६ सोमे नवमी वीया मियसिरि अणुराह पुस्सु रोहिणिया । सवण इय पंच रिक्खा मयंतरे जया तिहि सुहया ॥ ७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दिनशुद्धिद्वार तिय छट्टऽमि तेरसि मूलस्सणि रेवई य असलेसा । मिसिर उत्तरभव इय सिद्धा भूमवारंमि ॥ ८ बीया सत्तमि बारस असलेसा पुस्सु सवण अणुराहा । कित्तिय रोहिणि मियसिरि बुद्धदिणे इय सुहा भणिया ॥ ९ पंचमि दस मिक्कासि पुन्निम अणुराह पुव्वफग्गु करं । पुस्सु पुणव्वसु रेas अस्सणि य विसाह गुरि सिद्धा ॥ १० सु तेरसि नंदा अणुराहा सवण पुव्वफग्गु तियं । उत्तरसाढ पुणव्वसु रेवइ अस्सिणिय रिद्धिकरा ॥ ११ सणि नवमि चउथि अट्ठमि चउदसी सवण साइ रोहिणिया । मह सयभिस पुव्वफग्गु तिहि वार- भि सिद्धिजोय सुहा ॥ १२ ॥ इति वार- तिथि-नक्षत्र - सिद्धियोगः ॥ छट्टिक्कासि चउदसि रवि बारसि तेरसी य सोमदिणे । भूमे पडिव इगारसि तेऽट्ठमि चउदसी बुद्धे ॥ १३ गुरि दु चउ सत्त बारसि नम्वि बीय चउत्थि चउदसी सुके । पण सत्त पुंन दह सणि तिहि वार विरुद्ध जाणेह ॥ १४ 2 ॥ इति तिथि - वार- विरुद्वयोगः ॥ सूराइ बारसीओ इगूणजा छट्ठि कक्कजोगोऽयं । रवि ससि सत्त बुहि तिये संवत्तय छ गुरि सुक्कि तिया ॥ १५ ॥ कर्कट - संवर्त्तयोगो ॥ भर चित्तत्तरसाढा धण- उत्तर फग्गु - जिट्ट -रेवइया । सूराइ जम्मरिक्खा मुणेह तह वज्जमुसल पुणो ॥ १६ ॥ इति जन्मनक्षत्र वज्रमुशलं च ॥ 1 दृश्यतां प्रथमं कोष्टकम् | 2 दृश्यतां द्वितीयं कोष्टकम् । 3 दृश्यतां तृतीयं कोष्टकम् । 4 दृश्यतां चतुर्थी कोष्टकम् | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार रवि मह ति विसाहाई चंदि विसाहा ति-पुव्वसाढाई। कुजि अद्द धणिट्ठतियं बुह मूल ति रेवयाईया ॥ १७ गुरि कित्तिय रोहिणि तिय भिगु रोहिणि पुस्स तिय सणे हत्थं । उत्तरफग्गु तियं तह जमघंटुप्पाय-मिच्चुकमो ॥ १८ ॥ इति जमघंटः । उत्पातादित्रययोगः ॥ विक्खंभ मूल गंडे अइगंडे वजु तह य वाघाए । वइधिइ सूराइ कमे अइदुट्ठा मूलजोगा ए ॥१९ ॥ इति शूलयोगः ॥ रवि सत्त पण ति चउ वसं चंदे रर्स वेय नयेण मुणि रामौ । पण तिय इग दु छ भूमे चउँ कैर मुणि पंचें एग बुहे ॥ २० राम इग छ वर्स चउ गुरि भिगु ? मुँणि सेरऽग्गैि मुँणि सणि रसौ। चउ छ दु कुलि-उवकुलिया कंटय पहररुद्ध कालकमे ॥ २१ ॥ इति कुलिक-उपकुलिकादित्रयम् ॥ इग दुन्नि छ च रविणो चंदे पढमऽट्ठ पंचमी सुहया । चउ-सत्तऽट्ठा भूमे तिन्नि खडट्ठा बुहम्मि सुहा ॥ २२ दो पंच सत्त जीवे सुक्के चउ पढ़म छ च अट्ठ वरा । सणि सत्तऽट्ठम पंचम पहरद्धपमाण सुहवेला ॥ २३ ॥ शुभवेला इदम्॥ दुपहर घडिए ऊणे दुपहर घडि एगि अहिय मज्झण्हे । विजयं नाम मुहुत्तं पसाहगं सयलकज्ज सया ॥ २४ ॥विजयायमुहूर्तम् ॥ जइ पुण तुरियं कज्जं हविज्ज लग्गं न लब्भए सुद्धं । ता छायाधुवलग्गं गहियव्वं सयलकज्जेसु ॥ २५ 5 दृश्यतां पञ्चमं कोष्ठकम् । G दृश्यतां षष्ठं कोष्ठकम् । 7 दृश्यतां सप्तमं कोष्ठकम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दिनशुद्धिद्वार रवि वीस चंदि सोलह कुजि पनरह सड्ढ बुद्धि चउदसगं। गुरि तेर सुक्कि सणिणो वारह वारंगुले संको ॥ २६ अथवा सणि सुक्कि सोमवारे सट्टट्ठ पया बुहिऽट नव भूमे । गुरि सत्त रविक्कारस नियतणु छाया उ सुहकजे ॥ २७ ॥छायालग्नम् ॥ मह य धणिट्ठा उदए उट्टो कित्तियऽणुराह धू तिरिओ। उड्डे धयाइ कीरइ तिरिए दिक्खा-पयट्ठाई ॥ २८ ॥ध्रुवलग्नम् ॥ मुणि घडिय सूलगंडे विक्खंभे पंच तिन्नि वाघाए । वज अइगंड नव नव परिह वलं वजि सेस सुहा ॥ २९ ॥ योगः॥ जाणेह काल होरा पढमा वाराहिवस्स तत्तो य । छट्टे छठे ठाणे घडिया अड्डाइया जाव ॥ ३० ॥कालहोरा ॥ धण-मीणे विस-कुंभे अज-कक्के मिहुण-कन्न अलि-सीहे । मिय-तुल रवि दड्डकमे दु चउ छ अड दसमि बारसिया ॥ ३१ ॥ इति सूर्यदग्धतिथयः ॥ कुंभ-धणे अज-मिहुणे तुल-सीहे मयर-मीण विस-कक्के । विच्छिय-कन्ने सुकमे पुव्वुत्ततिही य ससिदड्डा ॥ ३२ ॥ इति चंद्रदग्धतिथयः" । मेसाइ कमि चउक्के पडिवाई पंचमिस्स पा पायं । एवं तप्परए पुण जा पुंनिम कूरदड्डतिही ॥ ३३ ॥ इति क्रूरदग्धास्तिथयः" । 8 दृश्यतां अष्टमं कोष्ठकम् । 9 दृश्यतां नवमं कोष्ठकम् । 10 दृश्यतां दशमं कोष्टकम् । 11 दृश्यतां एकादशं कोष्ठकम् । 12 दृश्यतां द्वादशं कोष्टकम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार चउ छटे नव दसमे तेरसमे वीसमे य नक्खत्ते । रविरिक्खाउ गणिज्जइ रविजोयं सयलकज्जकरं ॥ ३४ रवि-कुज-बुह-सियवारा दुगंतरे भरणिमाइ रिक्खाई। पुन्निम तिय भद्दा तिहि निवजोया तरुणजोगा य ॥ ३५ नंदा पंचमि नवमी अस्सणिमाई दुगंतरे रिक्खा । बुह-भूम-सोम-सुक्का कुमारयोगा मुणेयव्वा ॥ ३६ रविजोय-रायजोए कुमारजोए सुसुद्धदियहे वि । जं सुहकजं कीरइ तं सव्वं बहुफलं हवइ ॥ ३७ ॥ इति रविजोग - राजजोग-कुमारयोगत्रयम् ॥ गुर कुज सणि तिहि भद्दा मिय चित्त धणिट्ठ जमलजोगोऽयं । तिप्पाए नक्खत्ते इय सहिय तिपुक्खरं जाण ॥ ३८ जमल-तिपुक्खरजोए सुहकजं पुत्तजम्म-वीवाहं । नट्ठ-विणटुं सव्वं हवेइ तं बिउण-तिउण कमे ॥ ३९ ॥ इति जमल"-त्रिपुष्करयोगौ" ॥ . वे वार सणि विहप्पइ दु दु अंतरि कित्तिगाइ नक्खत्ता । तिहि रत्ता तेरऽहमि नायव्वा थविरजोगा य ॥४० जुई जणावणीयं जलासए बुंव अणसणाईणं । जं पुण वि अकरणीयं तं कीरइ थविरजोगेण ॥ ४१ ॥ इति स्थविरयोगः ॥ सणि ससि बुह अभिसेयं बुह-गुर-सुक्केसु वत्थपहिरणयं । सूरे कज्जारंभं पुर नंगल मंगले कुजा ॥ ४२ । इति श्रीचंद्रांगजठकुरफेरूविरचिते ज्योतिषसारे दिनशुद्धिर्नाम प्रथमं द्वारं समाप्तम् ॥ गाथा ४२॥ १ सूर्यनक्षत्रात् चंद्रनक्षत्रं जाम गणनीयम् । ४।६।९।१०।१३।२०। रवियोग उत्तमः। "इक्कस्स भए पंचाणणस्स भजंति गयघडसहस्सा । तह रविजोगपणट्ठा गयणम्मि गहा न दीसंति ॥” 13 दृश्यतां त्रयोदशं कोष्टकम् । 14 दृश्यतां चतुर्दशं कोष्टकम् । 15 दृश्यतां पश्चदशं कोष्टकम् । 16 दृश्यतां षोडशं कोष्ठकम् । 17 दृश्यतां सप्तदशं कोष्ठकम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतैर्यत्रेणाह - वार तिथिसिद्धियोग रवि ११८४९ चंद्र ९२ मतं० ज्ञेया मंगल ३२६|८|१३ बुध २|७|१२ गुरु ५।१०।११।१५ शुक्र ११६/११/१३ | शनि| ९|४|८|१४ ७ रवि ६।११।१४ १२ ७ सोम १२/१३ | ११ मंगल १।११ १० वुध | १३३८|१४ ९ गुरु २४|७|१२ ८ शुक्र ९२|४|१४ ७ शनि ५।७।१०।१५. ६ 歌 द्वितीयं कोष्टकम् वार तिथिविरुद्ध कर्कट संवर्त वज्रमुशल यमघंट उत्पात मृत्युयोग काणयोग रवि | चंद्र मंग बुध गुरु शुक्र शनि ७ 95 20 mov Jain Educationa International नक्षत्र सिद्धियोग ह | मू । पु । ध । अ । पु । उ ३ । रे । मृग । अनु । पुष्य । रो । श्र । 5 20 mins प्रथम दिनशुद्धिद्वार 1 | अवि । रे । अले । मृ । उभ अश्ले | पुष्य । श्र । अनु । कृ । रो । मृ । अनु । पू० फा । ह । पुन । पु । वि । रे । अश्वि । अनु । श्र । पू० फा। उ० फा। उ० षा। पुन। रे। अवि । ह । श्र । स्वा । रो । मघा । शत । पूर्वाफाल्गुनी 1 1 ० १३ प्रथमं कोष्टकम् ३ ० तृतीयं कोष्टकम् वार कुलिक उपकुलिक कंटक अर्द्धप्रहर कालवेला शुभवेलाप्रहरार्द्ध C66NAW भरणी चित्रा उ० षा धनि० मूल उ० फा कृत्ति ज्येष्ठा रोहि रेवती हस्तु मघा विशा आर्द्रा 20917 5 vm w ४ विशा ज्येष्ठा पू० षा अनु उ० षा | अभि शत पू० भा रेवती | अश्वि भणीर धन रोहि मृग आर्द्रा पुष्य अश्ले मघा उ०फा हस्तु चित्रा vm w or 20 9 2 ७ For Personal and Private Use Only ११२६ १/८/५ ઢાળ ३२६८ २५७ ४|११६८ ७८५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता ज्योतिषसार चतुर्थ कोष्टकम् पञ्चमं कोष्टकम् छायालग्नौ(नम्) होरा २४ भवन्ति। प्रथमवाराधिपस्य. शंकुअंगुल तनुछायापाद यावत् घटी २॥ कालहोरा अहोरात्रेऽपि होरा घटी रवि वार २॥ २॥ NEEEEE 2095 २॥ २॥ - षष्ठं कोष्ठकम् सूर्यदग्धास्तिथयः सप्तमं कोष्ठकम् चंद्रदग्धास्तिथयः राशयः - तिथि: राशयः तिथिः धन । मीन वृष । कुंभ मेष । कर्क मिथुन । कन्या वृश्चिक । सिंह मकर । तुल कुंभ । धन मेष । मिथुन तुला । सिंह मकर । मीन वृष । कर्क वृश्चिक । कन्या 20nm com -- अष्टमं कोष्ठकम् ___ एते क्रूरदग्ध(ग्धा)स्तिथयः मेषसंक्रान्त्यादिः वृष मिक | सिं कं तु वृश्चि धमकुं मी | २ ३ ४ ६ ७ ८ ९ ११ १२ १३ o xx Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार प्रथम दिनशुद्धि द्वार नवमं कोष्ठकम् दशमं कोष्ठकम् राजयोगः, तरुणयोगः-द्वौ कुमारयोगः तिथि नक्षत्र तिथि नक्षत्र १५ भर। मृग। पुष्य अश्वि । रो ३ | पू० फा।चित्रा अनु पुन । म २ पू० षा । ध। ह । विशा उत्तरा भा १० पू० भा 2.64 mor " ११ एकादशं कोष्ठकम् यमलयोगः तिथि नक्षत्र वार द्वादशं कोष्टकम् त्रिपुष्करयोगः तिथि नक्षत्र वार २ कृत्ति । पुन ७ उ० फा। वि | मंग १२ उ०षा।पू०भा शनि गुरु | गुरु G शनि वार त्रयोदशं कोष्ठकम् स्थविरयोगः तिथि | नक्षत्र | कृत्ति । आर्द्रा | आश्लेषा | उत्त० फाल्गुनी | स्वाती । ज्येष्ठा उत्तराषाढा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पञ्चदशं कोष्ठक ३४८|११| उत्तिम ५/९/१०/१२ मध्यमः ६७१११२ अधमः ग्रहणराह | फलं इति ३ सूर्यादिग्रह रवि चंद्र राशिस्थिति मासु दिन શ उदयदिन सं० ० अस्तदिन सं० ० व दिन 12 w ११ ५ ३ | १२ ११ ०६ 20 ४ १२ ० ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार चतुर्दशं कोष्ठकम् ≈ Jain Educationa International ० ० ० मंग बुध गुरु शुक्र शनि मासु मासु मास मासु मास १ १३ १॥ ३० ३ | १२ ०५ ११ ०५ ०९ ०६ ०९ ६६० ३६ ३७२ २५१ रवि वेधः शनिवामवे शनि विनाधः रविविना वामवेधः भूमस्य १२० १६ ३२ ९ ० ३२ ० ७७ ११२ ५२ सप्तदशं कोष्ठकम् शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ ७ २ २ ५. २ १२ ११ * * ६५ २१ राहु ३ । ६ । १० । ११ शनि ३ । ६।११ षोडश कोष्ठकम् रवि चंद्र मंगल ३।६।१०।११ १।३।६।७।१० । ३ । ६ । ११ |११ सित० २/५/९/ m ६ १२ ११ ८ १० ५ ४ गोचर कुंडलिका शुभा ग्रहा 20 o चंद्रवेधः बुध विना 3 w शुक्र गुरुः १।२।३।४।५। २।५।७।९।११ ८।९।११।१२ विवाहे भव्य V. Dav ३४२ ० ४२ पश्चि० ० १३४ ० m of राहु . मास १८ DV ११ १२ For Personal and Private Use Only पूर्व० बुध २२४६८।१०।११ ५ ४ १० ८ ७ ०३ ११ ०८ १० ०४ बुध वेधः | बृहस्पतिः चंद्र विना वामवेधः ACA V9 oog १२ ३ शुक्रस्य वेधः Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्यवहार द्वार [द्वितीयं व्यवहारद्वारम् ] सणि तीस गुरू तेरह अट्ठारस राहु दिवढ मासु कुजो । बुह-सिय-रवेगु मासो सिवा दु दिण चंदु रासिठिई ॥१ खडु सय सट्ठ छतीसौं तिन्नि बहत्तर दु-एग-वनासी । तिन्नि वैयोलं गारय(ह) आइ कमे उदयदिणसंखा ॥ २ सुन्न-रवि सोल दसणी नंद वयालीसें पच्छिमत्थ दिणा । भूमाई तह पुव्वे बुह सिय बत्तीस सगँसयरी ॥ ३ - पणसँटि एगैवीसं वारेसअहियं सयं च बावन्ना । चउँतीस सयं दियहा वक्कगया मंगलाइ कमे ॥ ४ ... ॥ इति ग्रहाणां राशि-स्थिति-उदया-ऽस्त-वक्रदिनसंक्षा(ख्या)॥ रवि तिय छट्ठो दसमो चंदो तिय सत्त छ इग दसमो य । सियपक्खि दु पण नवमो गुरु पंचम दु नव सत्तमओ ॥ ५ बुहु दु चउ खड दहट्ठो कुजु सणि ति छ भिगु छ सत्त दसरहिओ। राहू तिय दस छट्ठो गोयरि सवि गारहा सुहया ॥ ६ रवि मंगलु पविसंता चंदु सणी निस्सरंत गुरु अंते । मज्झगया बुह सुक्का सुह-असुह फलं पयच्छति ॥ ७ बुहु विज्जा-गमणि सिओ सणि दिक्खा गुरु विवाहि जुद्धि कुजो । निवदंसणंमि सूरो सव्वसुकज्जे बली चंदो ॥ ८ नव सत्त पंच बीओ दिवायरोऽ सुरगुरू य ति छ दहमो। एए जहुत्तपूइय हवंति सुपसन्न वीवाहे ॥ ९ ॥ इति जन्मराशितो ग्रहाणां गोचरः ॥ गहणे रासीओ जानिय रासी ति चउ अट्ठ गार सुहा । पण नव दहं-ऽत मज्झिम, छ सत्त इग दुन्नि अइअहमा ॥ १० ॥ इति ग्रहणराशिफलम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ठक्कुर फेरूविरचित ज्योतिषसार चंद्रबलं सियपक्खे कसिणे ताराबलं सुरिक्खाओ । उ छे नेवुत्तिम दु ईगई मज्झिमा ति पर्णं सत्तऽहमा ॥ ११ ॥ इति ताराबलं जन्मनक्षत्रात् ॥ जो गहु गोयरि अबलो तस्समसुहमंकि जइ गहो कोइ । हुइ वामवेहि सु हो असुहो वि सुहस्स फलु देइ ॥ १२ रवि सणि विणु सणि रवि विणु चंद विणा बुद्धु बुह विणा चंदो । असुहंक समसुहंके सेसस्स गहाण वेहसुहा ॥ १३ गारह तिय दह छ सुहो पण नव चउरंतिमो रवी असुहो । सणि कुजति गार छ सुहा असुहंतिम पंचमा नवमा ॥ १४ सत्तेग छ इक्कारस दह तिय चंदो सुहंकरो भणिओ । दुपणंतिम च नव असुंदरो वामवेहंमि ॥ १५ दु चउ छ अड दह गारस ठाणे बुद्धो महाबली होइ । पण ति नवेगऽते असुहो विय होइ नायव्वो ॥ १६ बीओ इकारसमो नव पंचम सत्तमो य विद्धिकरो । वाट्ट दह चउत्थो तइओ य असुंदरी जीओ ॥ १७ सुक्को इगाई जा पण अट्ठ नविकार अंतिमो सुहओ । अड सत्तिगदह नव पण इक्कारस छ तिय विद्ध सुहो ॥ १८ ॥ इति सूर्यादिग्रहाणां जन्मराशितो वामवेधः, फलाफलम् ॥ पुव्वऽगी जर्म नेरई पच्छिम वायव्व उत्तरीसणं । इय अट्ठदिसा सुकमं पायालाऽऽयाससहिय दसं ॥ १९ ॥ इति दिसाक्रमम् ॥ 1 सिरि' मुहि कंधे ' य भुर्यौ कैरि हियँए नाहि गुझ जाणु पैएं तिति दुदु दु पण इगेगं दु छ रवि रिक्खा उ गण सुकमे ॥ २० For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्यवहार द्वार एयरस फलं कमसो सिरिवइ मिहीर सुहैड परएसं । चोरी सरे हुतुट्टो तिर्यरत विदेस अप्पऊ ॥ २१ ॥ इति रविनक्षत्राद् रविचक्रम् ॥ हि दाहिणेकर पाए वामकरे हिये सिरे नयण गुज्झे । इगे चर्चे है चर्डे पणे ति दे दे सणि नक्खत्ताउ सुकमेणं ॥ २२ रोयं' लाहे विदेसं' बंधर्णे लाहं च पूर्यं सुहँ मिर्चू । भणिया एइ गुणागुण गणिज्ज ता जाव नियरिक्खं ॥ २३ ॥ इति शनिचक्रम् ॥ चउ सिरि चर्डे दाहिणकरि कंठिगे पण हिये छ पार्यं वामकरे * । चउ, ति नयणि गुररिक्खा पय वामकरं वज्जि सेस सुहा ॥ २४ ॥ इति गुरचकं ॥ तम रिक्खु मुंहिति फुल्लियै चउ फलिये ति अहले ति झडिये गुडिक्क तिय रायस तिय तास चउ सुर्हे तिय अमुँह तमचकं ॥ २५ फुल्लिय फलिए लाहं अषा (खा ) णि लच्छी सुहं च सुहि रिक्खे | मुह अहल झडिय रायस तामस असुहे य असुहतमं ॥ २६ ॥ राहुनक्षत्राद् गणनीयम् ॥ राहतनुचक्कं - पुव्वो वायव्वों विय दाहिणे ईसार्णे पच्छिऽग्गी य । उत्तर- नेरइ सुकमे चउघडियं राहु दिणमाणं ॥ २७ १३ ॥ इति राह दिनचक्रम् ॥ पुव्वुत्तरऽग्गिनेरइ दाहिण पच्छिम्म वायवीसाणे | सियपडिवयाइ जोइणि कमि संमुह दाहिणे वज्जा ॥ २८ ॥ इति योगिनीचक्रम् ॥ कसि सत्तम चउदसि दिन भद्दा दसमि तीय रयणीए । सिय पुन्नमयि चउत्थि इक्कारसी य निसे ॥ २९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार पण घडिय धणहराऽऽइम भयंकरी दह दुबालसंतकरी । विट्ठी तियघडियंतिम धण - कणयसुहंकरी जाण ॥ ३० मर्णे वसुं मुँणि तिहि" वेर्यो दहं रुदै ति पुव्वयाइ अट्ठ दिसे । पढमपहराइ भद्दा पिट्टि सुहा संमुहा असुहा ॥ ३१ ॥ इति भद्राचक्रम् ॥ गिहभूमि सत्तभायं पण दह तिहि तीस तिहि दहिकु कमे । इय दिण संख च [ उ ]द्दिसि सिर पुंछ समंकि वच्छठिई ॥ ३२ विच कोष्टकम् शनिचत्र कोष्टकम् मस्तके मुखे कंधे भुजौ हस्तयोः हृदये नाभिः गुह्ये जानुभ्यां पादयोः मस्तके दा० हस्ते कंठे ३ अल्पतुष्ट स्त्रीरत विदेस अल्पायु रविनक्षत्रात् रविचक्रम् । हृदये पादयोः वा० हस्ते नेत्रयोः २ Jain Educationa International ६ गुरु कोष्टकम् राज्यं लक्ष्मी विभूति राज्यश्री पीडा श्रीपति मिष्टभोजन स्कंधपति परदेसी ४ ४ तस्कर ईश्वर ४ ३ मृत्यु सुखप्राप्ति बृहस्पतिनक्षत्रात् गणनीयम् । जाव जन्मऋक्षम् । मुखे द० करे पादयोः वामहस्ते हृदये शीर्षे नेत्रयोः गुह्येः अशुभ शुभ शुभ अशुभ अशुभ शुभ अशुभ अशुभ शुभ अशुभ १ शनिनक्षत्रात् गणनीयम् । जाव जन्मरिक्षम् | शनिचक्रम् । ४ For Personal and Private Use Only ४ ४ mr २ २ राहु कोष्ठक रोग लाभ विदेश बंधन लाभ पूजा सौभा मृत्यु मुख नक्षत्र पुष्पित नक्षत्र फलित नक्षत्र अफलित नक्षत्र झडित नक्षत्र गुडि नक्षत्र राजस नक्षत्र तामस नक्षत्र शुभ नक्षत्र अशुभ रिक्ष राहुनक्षत्राद् । रेखाशुभाशुभः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहघडीचक्र कोष्टकम् पूर्व ४ ईशा १६ उत्त २८ वायु ८ ctor सिंह कर्क पूर्व आने कृष्णे शुक्ले कृष्णे दिवा दिवा दिवा १४ ८ ७ प्रहर १ प्रह २ प्रह ३ मिथुन राहघडी चक्रम् पश्चिम २० Jain Educationa International 5 १० १५ ३० १५ १० द्वितीय व्यवहार द्वार कन्या अग्नि २४ १० दक्षिण १२ दक्षिण नैऋत्य शुक्ले दिवा १५ प्रह ४ उत्तर नैऋत्य ३२ १५ भद्राचक्र कोष्टकम् । तिथियोगिनीचक कोष्ठकम् । आग्नेय ३।११ ईशा ८ 1.1 -1 उत्त २/१० ॥ इति भद्राचक्रं सन्मुखं वर्जा प्रहरमाने ॥ वत्सचत्र कोष्टकम् ।.. इति वत्सं वायु ७२५ १५ ३० पूर्व १९ पश्चिम वायव्य | उत्तर शुक्ले कृष्णे शुक्ले रात्रि रात्रि रात्रि ४ १० ११ प्रह ५ प्रह ६ प्रह ७ तिथियो गिनी चक्रं पश्चिम ६।१४ तुला वृश्चिक ३० १५ १० ५ १० १५ दक्षिण | ३० १५ १० दक्षिण ५/१३ ५ नैऋत्य ४।१२ ईशान कृष्णे रात्रि ३ प्रह ८ आ धनु ५ १० १५ १० वा 照 빵 भिगु सणि तमु सत्तु रखे, तमु चंदे, बुहु कुजे, ससी बुद्धे । बुह भिगु जीवे, सुक्के रवि ससी, मंदे रविंदु कुजा ॥ ३४ चं मं गु मित्त सूरे, बु र चंदि, र चंगु भूमि सु र बुद्धे । चं मं र गुरि सबु सिए, बु सु मंदे, मित्त सेस समा ॥ ३५ ॥ इति शत्रु मित्रौ दासीनाः ॥ For Personal and Private Use Only मकर कुंभ 4 १५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ग्रह रवि बुध बृह शुक्र बुधः चंद्र शत्रु शु.श. रा राहु मित्र चं.मं.गु. बु. र. र. चं.गु सम बुधः मं.गु.शु.श. शु.श.र. मं.गु.श.रा. बु.शु. / र.चं. चं.मं. र. श. बु. शु.र. ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार शत्रु-मित्र उदासीन ग्रहकोष्टकम् | चंद्र मंग शनि र.चं.मं. बु.शु. श. रा. मं. बृ. रा. गु.रा. मेस विस मयर कन्ने कक्के मीणे तुले य मिहुणे य । सूराइ कमेणुच्चा नीचा उच्चा उ सत्तमगा ॥ ३६ ॥ इति उच्चनीचौ ॥ Horse पुस्सु रोहिणि ति उत्तरा सय धणिट्ट उड़मुहा । रायाभिसेय मंदिर छत्तालंबाई कायव्वा ॥ ३७ भरणिऽसलेस ति-पुव्वा मू म वि कित्ती अहोमुहा रिक्खा । नीम्व सर कूव वावी पकीर भूमिखणणाई ॥ ३८ चित्त अणु जिट्ठ रेवइ मिय कर पुण साइ अस्स तिरियमुहा । गय तुरय करह दमणं जंत सगड अरहटं कुजा ॥ ३९ ॥ इति ऊर्ध्वमुख - अधोमुख पार्श्वमुखा नक्षत्राः ॥ मूस स्सा ह ति-पुव्वा मिय धण सवणऽद्द चित्त असलेसा । पुस्सु पुणऽस्मिणि गुर बुह ससि रवि भिगु इय सुहा विज्जा ॥ ४० ॥ विद्यारंभे श्रेष्ठाः ॥ धण पुण रोहिणि रेवइ ति उत्तरा पुस्सु पंच हत्थाई । अस्सिणि बुह-गुरु-सुक्का वत्थालंकारि पुरिससुहा ॥ ४१ हत्थाइ पंच रेवइ धणिट्ठ अस्सिणि गुरऽक्क भिगुवारे । चूडाइकणयरयणं वत्थं पहिरेइ नारिवरा ॥ ४२ Jain Educationa International ॥ इति पुरुषस्त्रियो वस्त्रालंकारे प्रधानाः ॥ पाणिगहणाउ गमणं पढने तइए य पंचमे वरिसे । गुर सुक्क चंद सबले विवाहलग्गो व मेलग्गो ॥ ४३ रोहिणि मूल ति- उत्तर मह मिय कर चित्त पुस्सु धण साई । सुहवारे नववहुया सुगिहिपविट्ठा हवइ सुहया ॥ ४४ ॥ नूतनवहगृहप्रवेसे शुभदिननक्षत्राः ॥ । For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्यवहार द्वार कित्तिय भरणि सलेसा पुणव्वसू चित्त सवण मूल महा । अद्दा पुरसो य तहा न कुणइ न्हाणं पसू य तिया ॥ ४५ ॥ प्रसूतास्त्रीस्नाने एते नक्षत्रा निषेधाः ॥ पंचग धणिट्ठगाई जा रेवइ पंचक्खि ताव धुवं । दक्खिणदिसे न गम्मइ न कट्ठ- तिणगहण गिहछाया ॥ ४६ हत्थ - सवणाइतिय तिय अणुहार (राह ) स्सिणि अभीइ मिय मूलं । पुस्सु पुणव्वसु रेवइ सुहया गुर चंद भेसिज्जे ॥ ४७ ॥ इति भैखजे ( षज्ये) ॥ जे इच्छंति सुसहलं नववहुय सबाल गुब्विणी ते वि । नहु गच्छति पएगं दाहिण तह संमुहे सुके ॥ ४८ दुक्काल- देसभंगे रायभए इक्कि यरि वीवाहे । जे तिय तिवार आगय ताणं सुक्को न हन्नेइ ॥ ४९ पोढतिय सुक्कि दाहिण आगच्छइ संमुहं च वज्जेइ । कन्न चेय तवस्सिणी दाहिण समुहो न दूसेइ ॥ ५० ॥ इति शुक्रफलम् ॥ सिंघट्टिय जन जीवे महभुत्तं होइ अहव रवि - मेसे ! ता कुहु निव्विसंकं पाणिग्गहणाइ कन्नाणं ॥ ५१ ॥ इति मते गुरसिंघस्थफलम् ॥ जो कज्जु जेण रिक्खे भणिओ सो तरस मुहुति काव्वो । दिण- निसि पनरसमं सो जं हुइ तं मुहुतपरिमाणो ॥ ५२ अद्दे अहि मि(च) म धणे पुर्व्वत्तर - साढ ऽभीई रोहिणियों । जिट्टै विसंह मूल सैंयं पुर्खेत्तर. - फग्गु दिणमुहुता ॥ ५३ रयणिमुत्तं अद्द पुव्वाभद्दाइ अट्ठे नक्खत्ता । पुणवसुं पुस्तु सवणे करै चित्त सोई य पन्नरसा ॥ ५४ ॥ इति दिन-रात्रिमुहूर्त्तनाम ॥ ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार मूल मिय सवण हत्थे पुस्सु पुणव्वसु कुज - ऽक्क -गुरुवारे । घणपक्खि सुद्धदियहे सीमंतयउन्नयं कुजा ॥ ५५ ॥सीमंतोन्नयनम् ॥ सवणाइ तिन्नि हत्थं रेवइ अणुराह साइ अस्सिणिया । पुस्सु पुणव्वसुऽभीई ति-उत्तरा सुहदिणे चंदे ॥ ५६ नामक[र]ण - ऽन्नपासण नयणंजण जायकम्म वयबंधं । सिप्पाइ चूडकरणं तणुभूसणमाइ कायव्वं ॥ ५७ ॥ इति नामकरण - अन्नप्रासन - चूडाकरणं च ॥ कर सवण चित्त रेवइ रोहिणि अणुराह पुस्सु जिट्ठा य । अस्सिणि पुणव्वसे वि य करिज सिसुकन्नवेह सुहा ॥ ५८ पुस्सु पुणव्वसु रोहिणि ति - उत्तरेहिं कुसुंभवत्थाई । जत्तेण परिहरिजहु जइ वंछहु सुपइसोहग्गं ॥ ५९ ॥ इति कुसुंभवस्त्रे निषेधः॥ रोहिणि पमुहाईणं अंधय काणं च चिप्पडं अमलं । सयलहसुद्धिसुन्नं गयवत्थ कमेण उवएसं ॥ ६० ॥ इति श्री चन्द्राङ्गज- ठक्कुरफेरू-विरचिते ज्योतिषसारे व्यवहारद्वारं द्वितीयं समाप्तम् ॥ २॥ <>*[ तृतीयं गणितपदद्वारम् ।] उज्जेणि दाहिणुत्तर जत्थ ठिए सुहमु कीरए लग्गो । तत्थंतरस्स जोयण पंच उण रसेहिं जं पत्तं ॥ १ बि-सैय छ उत्तर पिंडे हीणज्जुयं दाहिणुत्तरे कमसो । ससि-वेय भाइ लद्धं अंगुल - पडिअंगुलं जं च ॥२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय गणितपद द्वार रवि अंगुल संकस्स य विसव च्छायाइ तं च मेस-तुले। अयणं सूणदिणेहिं जहिच्छट्ठाणस्स नायव्वं ॥ ३ ॥इति विषवच्छाया ॥ एगूणं सैह्रसयं पंणेसहि दंसेहि विसवच्छायहयं । सोलह वसु रौम फलं सदेसचरखंडियपलाइं ॥ ४ . ॥ चरखंडिकानयनम् ॥ वसु-रिक्स नंद-नैव-कर ति - देसैण तिय -देते नंद-गुणतीसं । वैहुँ - रिक्खं चरखंडिय कमुक्कमे रिणधणं कुज्जा ॥ ५ मेसाइ कमि उवक्कमि इच्छियठाणस्स लग्गपलसंखा । भणियं च अओ वुच्छं तकालिय जं फुडं लग्गं ॥ ६ ॥ लग्नानयनम् ॥ स्थापना लिख्यतेढीली जोजन ७४/ आसी जोजन ८१ / लग्नप्रमाणं पलसंख्या। विषवच्छाय अंगुल विषम च्छाया अंगुल अंगु ६ ढीली सं० आसी सं० प्र.३० मेषु २१४ २१२ मीनु चरखंडिक चरखंडिका वृषु २४७ २४५ कुंभ मिथु ३०१ ३०१ मकर ५२ कर्कु ३४५ ३४५ धनु २२ सिंघु ३५१ | ३५३ वृश्चि परमदिनं परमदिनं कन्या ३४२ / ३४४ तुल घ०३४ घ० ३४ प० ३६ | प०४४ धण-मिहुणगए सूरे जित्तिय भोयंसि फिरइ संकपहा । तित्तिय अयणंस धुवं अनि पवाहिय इमं जाण ॥ ७ पण-ख - रुद्रूणे सागं सट्ठिफलं रुदसहियं अयणंसा। ते सूरे दायव्वा लग्गे कंती चराणयणे ॥ ८ ॥ इत्ययनांशः॥ लंकोदयलग्नमान - - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार संकंतीभुत्तंसा संकमणं सोहि सहि घडियाओ। सेसकल - वियलजं तं मेसाइउ देस फुडसूरं ॥ ९ ॥ स्फुटसूर्यः॥ फुडसूरऽयणंसजुयं तीसाओ सेस जं च अंसाई । तेण हय उदयलग्गं तं रविरासीउ नायव्वं ॥ १० हिट्ठाओ सट्ठिफलं उड्डड्डे जुय ख- राँम फलजंतं । हीणं हिट्ठपलाओ सेसाओ लग्ग साहिज्जा ॥ ११ सेसं तीसउणं खलु असुद्धलग्गे फलंसगाईणि । मेसाइभुत्तसहियं अयणंसविहीण फुडु लग्गं ॥ १२ ॥ इति इष्टकालजन्मादि स्फुटलग्नम् ॥ एवं च फुडियलग्गं भणिय, भणामित्थ सत्तवग्गविहिं। गिह होरो देकाणं नैव वारह सत्त तीसंसा ॥- दारं ॥ १३ रवि सीहो ससि कको कुज अलि मेसो य वुह मिहुण कन्ना। गुर धण मीणो सिय विस तुलो य सणि कुंभ मयर गिहा ॥ १४ ॥ इति गृहखामी ॥ लग्गड पढम होरा विसमे सूरस्स तह य चंदसमे ।-होरा । दिक्काणो य तिभागो सपंच नव अहिवई कमसो ॥-द्रेःकाणः । १५ अज सीह धणु अजाई विस मयर त्थी नवंस मयराई । तुल मिहुण घड तुलाई कक्को अलि मीण कक्काई ॥-नवांशकः । १६ नियअहिवयाइ सुकमे वारस अंसा मुणेह इक्किक्के। एवं च सत्तमंसो गणिजए जम्मलग्गमि ॥ १७ ॥ इति द्वादशांशाः खराशौ॥ सेर बोण वसु मुणिंदिये मंगल सणि जीव सुक्कस्स । विसमे लग्गे सुकमे उवक्कमे स मिण तंसंसा ॥ १८ ॥ इति त्रिंशांशः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय गणितपद द्वार फुडलग्गस्संसाई कलपिंडं व छ दुसेय दिवढसएँ। सट्टि फलं चउठाणं इय खडुवग्गस्स खडुवग्गं ॥ १९ ॥ इति सप्तषड्वर्गशुद्धिः ॥ अथ चायमुपाय:इगवीस पुव्व सतरह अड अठरह अट्ठ जिण रवी सतरं । चउदह छवीस अट्ठय मेसाई सुकमि गुणयारा ॥ २० गुणाकार २१ | १४ | १७/८ १८/८ २४ १२ | १७ | १४ | जो लग्गो ठाविजइ तीसंसो तस्स गुणह गुणयारे । जं हुइ तं पल उवरि हवइ छ पण वग्गसुद्धी य ॥ २१ । अह जं लग्गं सुहगह नवंसगेगूण तं गुणेयव्वं । नंद फल उवरि सुद्धं विणावि खडुवग्ग भणहि इगे ॥ २२ ॥ इति षवर्गस्योपायः॥ इय छ पण वग्गसुद्धी सोमगहाणं च सयलकज्जकरा । कूरग्गहाण असुहा सुहया उदयत्थसुद्धि पुणो ॥ २३ । दत्तनवंसगसामी जा पिक्खइ लग्ग उदयसुद्धि इमं । दिक्खा - पयट्ठमाई सुहावहा सव्वकज्जेसु ॥ २४ . ॥इति उदयशुद्धिः॥ जोइ नवंसगु लग्गे तस्स कलत्तस्स सामि जइ पिच्छे । लग्गस्स य जा मित्तं हविज्ज ता अड( त्थ ? )सुद्धी य ॥ २५ अस्तशुद्धिः स्त्रीणां शुभकरी। दसम - तिए नव - पणगे चउ - अट्ठ गहा कॅलत्तठाणाओ। पिक्खंति पायवुड्डी लग्गं दिट्ठीणुसारि फलं ॥ २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार मुत्ते गारसठाणे संठिय पिक्खति पुन्नदिट्टि गां । लग्गं गहाण दिट्ठी गणिज्ज वामं विणा राहू ॥ २७ अत्र पुनः केचिदेवमाहु: दो वारधा य छहट्ट पाओ, दिट्ठी य अद्धं तिय गारसाओ । पंची नवं ठाण गहाण पडणं, चउकिंद दिट्ठी पर (रि) पुन्न नूणं ॥ २८ अथवा तिय दसमगो य मंदो तिकोणगो ५ । ९ जीओ अट्ठ-चउ भूमो। सुक्क रवी बुह - चंदा पुन्नं पिक्खंति जायाओ ॥ २९ ॥ इति ग्रहाणां दृष्टिः ॥ जातिय ता न विकप्पं तियहिय किंदं खडाउ हीलिज्जा । खड्डु खडहियाउ हीणा नवहिय चैक्काउ सोहि भुजं ॥ ३० ॥ इति भुजम् ॥ चरखंड पिंडविउणं ख - छै लद्धं तीसैं जुत्त परमदिणं । कक्कयणं सूणदिणे निसिद्ध दिणमाणु मिस्सु भवे ॥ ३१ ॥ इति परमदिन - मिश्री ॥ अयणंसजुत्तसूरं भुजकंमं करिवि सेस जं रासी । तं चरखंडियभुत्तं भुज्जेहि गुणिज्ज अंस कला ॥ ३२ हरिऊण तीसि भायं लपलं जुत्त भुत्त खंडिचरं । तं पनरहिजुय हीणं अज तुल कमि बिउण दिणरयणिं ॥ ३३ ॥ इति दिन - रात्रिमानम् ॥ परमदिणाओ हीणं इच्छिपय दिणमाणु सेस सत्तिहयं । पंचे फल बारसंगुले संकस्स दिन छाय धुवं ॥ ३४ ॥ इति मध्याह्नच्छाया ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ चतुर्थ लग्नद्वार जा जहि काले छाया दिणडछाया वि हीण संकेजुया । दिणमाणं छ च गुणतेण फलं दिवसगयसेसं ॥ ३५ ॥ गतशेषदिनम् ॥ दिवसद्ध संकेजुयं गयघडियफलेण मञ्झछायजुयं । संकूणे सेसअंगुल जहिच्छकालस्स छायवरं ॥ ३६ ॥ इति इष्टच्छाया ॥ संकपहावग्गजुयं तस्स पए कंनु कन्नवग्गाओ। सोहेवि संकवग्गं सेसस्स पए हवइ छाया ॥ ३७ ॥कर्णच्छाया ॥ वासरभुत्त घडी पल संपइ तिहि वार रिक्ख जोयजुयं । तं तकालियवारं तिहिरिक्खं जोय जाणेह ॥ ३८ ॥तिथ्यादितकालिक योग ।। ॥ इति परमजैन श्री चन्द्राङ्गज- ठकुरफेरू-विरचिते ज्योतिषसारे गणितपदं तृतीयं द्वारं समाप्तम् ॥ * [चतुर्थ लमद्वारम्] गुरखित्तगए सूरे रविखित्ते जीउ गुर-रविक्कि गिहे। सुके य सुरगुरे वा बाले वुड्डे य अत्थमिए ॥ १ ॥ तिन्नि दह दियह बाले पक्खं पण दियह भिगु सुए वुड्ढे । पुव्यावरसुकमेणं तिदिण गुरू बाल पण वुड्ढे ॥२ हरिसयण अहियमासे रवि-ससिगहणाउ जाव सत्त दिणा । संकंति पढम अग्गिम इय ति दिण दिणत्तयाईए ॥ ३ जिट्ठस्स जिट्ठमासे वइधिइ वितिपाय विट्टि ससि नट्टे । न हु लग्गं दायव्वं जम्मदिणे जम्मभे मासे ॥ ४ ॥इति वर्ष- मासादिनिषेधः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ . ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार लत्तो पायें वेहं जुई जॉमित्तं गलग्गैहु प्पगेंहं । इक्कग्गर्ल दिणदोसा चय दिक्ख पइट्ठ वीवाहे ॥ ५ ॥ चक्रम् ॥ पंचुरेहा पण तिरिय रेहा, पत्तेय चउकूणिहि बिन्नि रेहा । वामस्स कूणग्गहि बीयरेहा, कित्तीयमाई मुणि लत्तवेहा ॥ ६ ॥ पंचशलाकाचक्रम् ॥ रवि- कुज - गुर - सणिकमसो बारह ति छ अट्ठ पुरउ लत्तं ति । पुन्निम ससि बुह भिगु तम पच्छा बावीस सत्त पंच नवं ॥ ७ वित्तहरं भयजणणं मरणे कलॅहं च बंधुनासयरं । कजविसं गमण मरणं सूराइलत्तफलं ॥ ८ ॥ इति लातः॥ मह चित्ता असलेसा रेवइ अणुराह सवण इय पाओ। रविरिक्खाओ ठविजइ अस्सिणिमाईणि जोइज्जा ॥ ९ ॥ इति पातम् । वज्रपातकरम् ॥ ससिहरनक्खत्ताओ जइ हुइ गहु इक्कि रेह बीयदिसे । ता जाणिज्जहु वेहं परिहरियवं जओ भणियं ॥ १० रवि-कुजवेहे विहवा बुहि वंझा भिगु अउत्त सणि दासी । गुरवेहेण तवस्सिणी विलासिणी राहवेहेणं ॥ ११ उत्तरसाढंतपए सवणाइमघडिय चारि अब्भीई। तत्थट्ठिए गहेणं उप्पज्जइ रोहिणीभेयं ॥ १२ परिहरिवि विद्धपायं करिज कजं असंकियं नृणं । सप्पस्स दट्ठ अंगुलिछेए ता हवइ कत्थ विसं ॥ १३ ॥ इति वेधः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ चतुर्थ व्यवहार द्वार सणि सुक्क राह केऊ रवि कुज रासिक्कि चंदसहिय जुई। बुद्ध - विहप्पइसहियं न हवइ कत्थेव जुइदोसं ॥ १४ ॥ इति युतिः ॥ लग्गससि जो नवंसगु जामित्तनवंसगो य जेण गहो । चउवन्न जाव सुद्धं उवरे जामित्त जुइदोसं ॥ १५ ससि लग्ग सत्तमो जइ कूरगहो तं च चयहु जामित्तं । जत्थुभयदिसे कूरा चंदे अह लग्गि गलगहयं ॥ १६ . ॥ इति यामित्र-गलग्रहो द्वौ ॥ रविरिक्खाउ उवग्गह वजह पंचाट चउ दसऽट्ठारं । उणवीसं वावीसं तेवीसइमं च चउवीसं ॥ १७ विजुमुंह मूले असणी केॐक्को वर्ज कंपं निग्धार्य । इय नाम फलं कमसो अट्टेव उवग्गहाणं च ॥ १८ ॥ इति उपग्रहः ॥ एगुड़ तिरिय तेरस रेहाचकमि विसमजोगिकं । समं जए अडवीसं तयद्ध तुल्लं च सिररिक्खं ॥ १९ सिररिक्खाउ कमेणं अट्ठावीसं ठविज नक्खत्ता । जइ इक्कि रेह रवि-ससि इक्कग्गलु तं वियाणाहि ॥ २० ॥ इति इक्कग्गल । इति लत्तयादिदोसाः॥ सणि पवणु अंसु पायं बुह गुर कलहं कुजऽग्गि रवि रत्तं । सुक्केण य संतावं अहिचक्के कित्तियाइ ससिनाडिं ॥ २१ ॥ इति अहिचक्रदोषः॥ उदयाओ गय लग्गं संकंतीभुत्तदियह जुयसेयं । तं पंचहा ठवेउंतिहि" रवि दहं हूं मुणि सहियं ॥ २२ नवसेसं जत्थ पणं तत्थ फलं कलह अग्गिं रायभयं । चोरभयं मिच्चु कमे पइठ-विवाहे य ताऽरिष्टुं ॥ २३ ॥ इति बुधपंचकदोषः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार मुत्ति कलते रवि सणि खडऽट्ट इग ससि छ सत्त अड सुके । इगतss कुजि अड गुरि सत्तऽड बुहि किंदि राहु न विवाहं ॥ २४ उदय - ऽट्ठमगे मम्मं नव पंचम कूर कंटयं भणियं । दसम - चउत्थे सल्लं कूरा उदय - ऽत्थितं छिदं ॥ २५ मम्मणदोसे मरणं कंटयदोसे कुलक्खयं हवइ | सल्लेण रायसत्तू छिद्दे पुत्तं विणासेइ ॥ २६ ॥ इति लग्ने भंगकराः ॥ अरिगय नीए व अत्थमिए लग्गरासि निसिनाहे । अबले रवि - गुरु- चंदे अदिट्ठसामी सया वज्जे ॥ २७ ॥ इति लग्नदोषाः ॥ चरलग्गेण य जत्ता दुश्च्चियभावे विवाह - सुरठवणा । थिरलग्गि गिहपवेसं मेसाई चर - थिर दुभावं ॥ २८ तणुं धणुं सहये सुमितं सुर्य सन्तु कलत्त मिर्चु धम्मं च । कम्मं लौहं च वैयें लग्गाई सुकमि इय भावं ॥ २९ ससि बीउ कुसुम्व लग्गो नवंसगो सुफलु तह य भाउरसो । लग्गो मग्गणहारो भावाहिवई य दायारो ॥ ३० जुजु भाउ सामि - मित्ते सुहग्गहे दिट्टु जुत्तु सो सहलो । पावगहे हाणिकरो असेसकज्जेहि नायव्व ॥ ३१ भावाहिवई भाव लग्गवई लग्ग लग्गवइभावं । भावाहिवो य लग्गं पिक्खइ ससिदिट्ठ सयलसुहं ॥ ३२ लग्गाहिवई जहिं जहिं भावे संचरइ तं तहा कुणइ । मित्तगिहुच्चविसेसे इय तत्तं सव्वकज्जेसु ॥ ३३ भावंतगओ य गहो परभावफलं च देइ पिच्छासु । जावंतिम इक्क घडी जम्म विवाहाइ तत्थ फलं ॥ ३४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ व्यवहार द्वार पण ससि अहुट्ठ सूरो तिन्नि गुरे दु दु वुहे य सुक्के य । सड्ड सणि भूमि राहे इय लग्गे वीस विसुवा य ॥ ३५ ॥ इति लग्नभावः॥ अथ लग्नं यथाइग दु ति चउ पण नव दस सुहया सोमा ति गारहा सव्वे । कूर खडा ससि बीओ मुणि मज्झिम अहम अटुंता ॥ ३६ . असुहट्ठाणठिओ वि हु लग्गो कूरो न दोसकरणखमो । किंदु-तिकोणठिएहिं जइ दिट्ठो सुरगुरु- भिगूहि ॥ ३७ इय जम्म-जत्त - दिक्खा-रायभिसेयाइ- सूरिपयठवणे । बिंबपइट्ठ-विवाहे सुहलग्गो सयलकजेहिं ॥ ३८ ॥ इति जन्म-यात्रा-राज्याभिषेक- सूरिपदादिसर्वसामान्यलग्नम् ॥ अथ विशेषकार्यमाहरिक्ख-तिहि लग्ग सुकमे नव पंच चउत्थयं ति पुरिम धुरे । दुन्नेग अद्ध घडिया वजह गडुंत अइदुट्ठा ॥ ३९ ॥ इति गंडांतः॥ मूले तd छल्लि साहाँ पत्ते कुसुम्व फल सिहं च इय रुक्खं । चउँ सत्तं अ१ देह नवे पणे रसै भैवे घडिय सुकमि फलं ॥ ४० मूले मूलं तणि धेणु सहोव(य)रो छल्लि साह माक्खं । पत्तेऽपत्तक्वयं कमि मंती रजं च चिरजीवी ॥४१ ॥ इति मूलनक्षत्रजातफलम् ॥ छ पणऽय़ात विणा वुहु दु ति किंदि तिकोण सुक्क -गुरु-चंदा । इय जम्मलग्गि सुहया ति गारहा सव्वि कूर खडा ॥ ४२ सुगिहुच्च-मित्तगिहजुय सणि कुज सूरो य मुत्ति दसम सुहा । अरिगय अणुच्च रिउजुय विन्नेया अस्थहाणिकरा ॥ ४३ ॥ इति जन्मे ॥ २ ३ १ ।४७।१०।९।५ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेरूविरचित ज्योतिषसार सवण घणि विसाहा दक्खिण अवरेण मूल पुरसो य । कर पुव्वफग्गु उत्तर पुव्वे पुव्वुत्तरासाढा ॥ ४४ सोम-सणी पुव्वदिसे गुरु दाहिण पच्छिमेण सुक्क - रवी । उत्तर बुह - भूमो विय गमणे वज्जेह दिगसूलं ॥ ४५ ॥ इति नक्षत्रवार - दिक्शूलम् ॥ कित्तीउ सत्त सत्त य पुव्वाइ चउद्दिसेहिं परिघठिई । अग्गी वाra कोणे रेहा उल्लंघि न चलिज्जा ॥ ४६ ॥ इति परिघचक्रम् ॥ २८ पुव्वाइदसदिसेहिं कमेण सियपडिवयाइ हुइ पासो । तस्सम्हो य कालो गमणे दुन्नि व समुहवज्जा ॥ ४७ दिणवारं पुव्वाई कमेण संघारि जत्थ ठाणि सणी । कालं तत्थ वियाणसु तस्संमुहु पासु भणहि इगे ॥ ४८ ॥ काल - पाशौ सन्मुखौ वज्य ॥ जिट्ठा य पुव्वभद्दव रोहिणिया तह य उत्तराफग्गू । पुव्वाइ सुकमि कीला संमुह गमणे विवज्जिज्जा ॥ ४९ ॥ इति कीलाः ॥ धण सीह मेस पुव्वे, विस कन्ना मयर दाहिणे चंदो । तुल कुंभ मिहुण अवरे, उत्तर अलि मीण कक्के य ॥ ५० वामो चंदो ऽसुहो निच्चं, दाहिणोऽहाणि कारगो । पिट्ठि च असुहो चंदो, संमुहो अइसुंदरी ॥ ५१ ॥ इति चंद्रचार ॥ निसि अंतिमदुघडीओ पहरु पहरु पुव्वयाइ हुइ सूरो । गमणे दाहिण पिट्ठी पवेसगे वामु पिट्टि सुहो ॥ ५२ ॥ इति रविचार ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ चतुर्थ व्यवहार द्वार जा नाडी वहइ धुवं. तं चरणऽग्गे करेवि चलियव्वं । सिझंति सयलकजं इय लग्गं सयललग्गाणं ॥ ५३ ॥ इति हंसचार ॥ पडिवाट पुन्निमाऽवम रत्ता तिहि कूर वार भरणिऽद्दा । मह कित्ति विसाहुत्तर - ति सलेसा जत्त इय असुहा ॥ ५४ सय साइ चित्त रोहिणि धण सवंण ति - पुव्व मज्झिमा जत्ता । पुण पुस्स मूल रेवइ मिय कर जिट्ठऽस्सिणीऽणुराह सुहा ॥ ५५ ॥ इति अधम -मध्यमोत्तमप्रस्थानाः ॥ रवि-कुज ति छह दह लाहे बुह - गुर -सुक्का खडंत रहिय सुहा । इग छ अंडंऽत विणा ससि जत्ता लग्गे ति छायु सणी ॥ ५६ ॥ यात्रालग्नम् ॥ . इय मंडलीय नरवइ पत्थाणे पंच सत्त दह दियहा । पंचसयधणुहमज्झे दह उवरि ठविज सत्थ - वत्थाई ॥ ५७ रेवइ मूल ति - उत्तर सय साइऽणुराह पुव्वभद्दवया । पुस्सु पुणव्वसु रोहिणि सवणऽस्सिणि हत्थु दिक्खसुहा ॥ ५८ ॥ तिथिवारनक्षत्रप्रधानाः ॥ दु पण छ रवि दु ति छ ससी कुज ति छ दह बुद्ध ति दु छ पण दहमो। किंद तिकोणे य गुरू सुक्को तिय छ नव बारसमो ॥ ५९ मंदो दु पण छ अडमो सुक्क विणा सव्वि गारहा सुहया । चंदाउ कूर सत्तम अइ असुहा दिक्खसमयंमि ॥ ६० रवि ति संसि सत्त दहमो बुहेग चउ सत्त नव गुरू ति छ दो। सुक्को दु पंच सणि तिय मज्झिम सेसा असुह सेसा ॥ ६१ ॥ इति दीक्षालग्नकुंडलिका उत्तममध्यमाधमाः ॥ सियपक्खि पडिव बीया पंचमि दह तेर पुन्निमा सुहया । कसिणे पडिव दु पंचमि बिंबपइट्ठाइ सुहवारा ॥ ६२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार सवण धणिट्ठ पुणव्वसु पुस्सु महा मूल साइ रोहिणिया । हत्थु अणुराह रेवइ ति-उत्तरा हरिणि सुपइट्ठा ॥ ६३ . ॥ इति प्रतिष्ठायां तिथिनक्षत्रवारशुभाः ॥ अथ लग्नम्दुति छ ससी ति छ कूरा दु छ किंद - तिकोण गुरु पइट्ठसुहा । बुहु दह इगाइ जा पण इग चउ नव दह सिओ सविक्कारी ॥६४ ॥ इति उत्तिमा । मझिम रवि कुज पंचम दु पण छ मुणि सुकु छ नव सत्त बुहो। किंद - तिकोणे चंदो दहट्ठ पण सणि गुरु तईओ ॥ ६५ ॥ मध्यमा ॥ सोमगहटम ति सिओ मंगलु सूरो दु अट्ठ नव किंदे । सणिग दु चउ नव सत्तम पइट्ट सवि वारहा असुहा ॥ ६६ . ॥ अधमा इति प्रतिष्ठादिनशुद्धिः॥ गणे नाडि रौसि वेग्गं पंचम वेइरं च जोणिवईरं च । रासिवईणं भावं कन्ना वर - सत्तहा पीई ॥ दारं ॥ ६७ पुस्सु पुणस्सिणि रेवइ कर साइऽणुराह मिय सवण देवा । भरणि ति - पुव्व ति - उत्तर रोहिणि अद्दा य मणुयगणा ॥ ६८ धण चित्त जिट्ठ मह सय मूल विसा कित्ति रक्खससलेसा । सुकुलुत्तिम नर रक्खस मरणं मज्झिम्म सेसगणा ॥ ६९ ॥ इति देव-मनुक्ष (ष्य-) राक्षसगणाः॥ अहिचक्कि अस्सिणाई वरकन्न भ एगनाडि तं वेहं । कन्ना वरणे असुहं सुहयं गिहसामि - मित्ताई ॥ ७० ॥ इति नाडिवेधः ॥ समरासीओ अट्ठम वइरं विसमाओ अट्ठमे पीई । सत्तु खडऽट्ठय असुहं दु वारसं तह य अन्नसुहं ॥ ७१ ॥ इति षडाष्टक दु(द्वि)ीदशकौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ व्यवहार द्वार दुन्ह वग्गंकं ठविउं वर्स भाए सेस अग्गिमो लहइ । वहु काइणि मग्गंतो पुरिसो तियपासि सो सहलो ॥ ७२ ॥रिणलभ्यवर्गः॥ गरुड मंजोर सीहे साणे अहि उंदरे य मियँ मिढे । इय अट्ठवग्गजोणी पंचमठाणे हवइ वयरं ॥ ७३ . . ॥ इति पंचमे वैरम् ॥ तुरंय गये मेस अहि अहि साणं बिरालं च मेसें मंजारं । सुदुर पसु मैहिसं वैग्धं महिसी" य वैधं च ॥ ७४ मिय हरिण साणे वनरै निउलढुंगं वानरो य हरि रैयं सीहे पैसु हत्थैि एवं अस्सिणिमाईण जोणिकम ॥ ७५ ॥ नक्षत्राणां जो (यो) नयः॥ सीह गये महिस-तुरयं मूसयै-मंजार वनरं-मेसं । अहि-निठेलं पसु-वग्घं मिय-साण विरुद्ध अन्नोन्नं ॥ ७६ ॥ इति योनिवहरं ॥ वर - कन्नरासि सामि य सत्तू असुहा य सेस सुह वरणे । इय सत्तभेय पीई भणिय, भणामित्थ वीवाहं ॥ ७७ ॥ इति वरणे सप्तधा प्रीतिः॥ अट्ठि वरिसेहि गउरी, नवि रोहिणि, दसहि कन्न, उवरित्थी। एवं जाव गणिज्जइ, बारहवरिसुवरि न गणिज्जा ॥ ७८ गुर-रवि - ससि लग्गबले गउरी सेसा इगेगि रहियकमे । इय भणिय सुह विवाहं न विवाहं सत्तवरिसतले ॥ ७९ पंच घडी तिहि अंते छह रिक्खंते य ति दिण मासते। दुहिय अउत्त विहव कमि हवेइ तिय पाणिगहणकए ॥ ८० रेवइ मह मिय रोहिणि मूल ति - उत्तरऽणुराह कर साई । बुह गुर सिय ससि वारा पाणिग्गहणे सुहा भणिया ॥ ८१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अथ लग्नम् - भिगु ससि विणु सहि (? णि) छट्ठा इग दु चउ नवंऽति पंच दह सोमा । वीवाहे ससि बीओ सव्वे तिय गारहा सुहया ॥ ८२ बुह - गुर - छट्ठा सणि- सूरु अट्टमा सुहय भूम - रवि नवमा । बुह - गुर- सुक्का अंते करगहणे सयणसुक्खकरा ॥ ८३ भिगु सस्सू रवि सुसरो सुह दुह लग्गं पसूइ सुयठाणं । जामित्वई भत्ता तिस्स जाणेहु वलमाणो ॥ ८४ ॥ इति विवाहे लग्नम् ॥ ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार अथ क्षौरक छट्ठट्ठमि नम्वि चउदसि अमावस चउथि विट्ठि गते । संझा निसि मज्झन्हे एए वज्जेह खरकम्मे ॥ ८५ पुस्सु पुणव्वसु रेवइ सवण धणिट्ठा मियऽस्सिणी हत्था । चित्त बुह सोमवारा खउरं सुहलग्गि कायव्वा ॥ ८६ दु पण नवते सोमा सुहपावा असुह तिय छ गार सुहा । बुह गुर सिय किंदि सुहा ससि कूरा असुह सेस खउरि समा ॥ ८७ ॥ इति क्षउरकर्म्मफलाफलम् ॥ रोहिणि महा विसाहा ति - उत्तरा भरणि कित्तियऽणुराहा । इय मुंडण लोक इंदो वि न जीवए वरिसं ॥ ८८ ॥ इति नक्षत्राः मुंडन - लोचे वर्जनीयाः ॥ सुहलग्गे चंदबले खणिज्ज नीमा अहोमुहे रिक्खे | उड़मुहे नक्खत्ते चिणिज्ज सुहलग्गि चंदवले ॥ ८९ चित्तऽणुराह ति - उत्तर रेवइ मिय रोहिणी य सय पुरसो । साइ धणिट्ठ सुहंकर गिहप्पवेसे य ठिइसमए ॥ ९० . कुरा ति छ गारसगा सोमा किंदे तिकोणगे सुहया । कूरट्ठम अइअसहा सोमा मज्झिम गिहारंभे ॥ ९१ किंदऽट्टमं ति कूरा असुहा तिय गारहा सुहा सबे । कूरा बीया असुहा सेस समा गिहपवेसे य ॥ ९२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ व्यवहार द्वार सूरु गिहित्यो गिहिणी चंदु धणं सुक्कु सुरुगुरू सुक्खं । जो सबलु तस्स भावं सबलं हुइ नत्थि संदेहो ॥ ९१ ॥ इति गृहनीम्व-निवेस प्रवेसे च ॥ चंदबलहीणदियहे चरलग्गि तिकोण किंदि पावगहं । तिहि रित्त कूर वारे रोयविमुक्कस्स ह्राण वरं ॥ ९२ ॥ इति रोगीरोगविमुक्ते स्नानदिनम् । इति कुंडलिकालग्नानि ॥ फुडु गोधूलियलग्गं दिणंति दिट्ठे दुभाय रविबिंबे | अन्भच्छन्ने जाणसु दुदलतरूपतमिलमाणे ॥ ९३ फुल्लति य वल्लीओ सउणा निलयत्थि उच्छगा होंति । राइसिणि - सिरिस - किक्किरि - पवाडपत्ता मिलंति गोधूले ॥ ९४ जंमि गोधूलियालग्गे चंदो मुत्ती खडट्टो | कुलिओ कंतिसम्मो य, तं च वज्जेह जत्तओ ॥ ९५ रवि - चंदभुत्तरासी पिंडे हुइ जत्थ छच्च वारस वा । तत्थ कम कंतिसंमो सणिच्छरंते हवइ कुलिओ ॥ ९६ जइ सव्वदो सरहियं गुणबलसहियं च लब्भए लग्गं । ता गोधूलिय सहमवि बुहि एक सया वि वज्जिज्जा ॥ ९७ अजापाल [य] गोवाला लुडा झीवर कोलिया । जे धर्रति पुणो तेसिं, लग्गं गोधूलियं वरं ॥ ९८ ॥ इति गोधूलिकलग्नम् ॥ आसी सडकुलेसु सिट्टिकलसो ठाणे सुकन्नाणए, तस्संगस्स रुहो ठक्करवरो चंदु व चंदो इह | फेरू तत्तणओ य तेण रइयं जोइस्ससारं इमं, ३३ दोसत्तऽग्गिग (१३७२) वच्छरे दुगंसयं गाहा दु चत्ताहियं ॥२४२ ॥ इति श्री चंद्रांगज ठक्करफेरू विरचिते ज्योतिष्कसारे लग्नसमुच्चयद्वारं चतुर्थं समाप्तम् ॥ ज्योतिषसार गाथा २४२ । ग्रंथानं श्लोक ४१४ । यंत्र कुंडलिका सहितम् । ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार ज्योतिषसार ग्रन्थनिर्दिष्टानां यत्र-चक्र - कुण्डलिकादीनां स्थापना यथा२४ तमे पत्राके सूचितं पञ्चशलाका- २५ तमे पत्राङ्के सूचितं यन्त्रमिदम् 'इक्वग्गल' चक्रमिदम् । कृ रो मृ आ पु पु 110 wwwowowww inwwwwwwwwwwwwwwws घश पू उ रे अ भ. इ.. म पू उ ह चि स्वा वि Samammmmmmmmmmmmmamima VIA MMMMMMMMw www परिघचक्रमिदम् । क्रांतिसाम्यचक्रम् । ई कृ रो मृ आ पु पु आ ७ MiMMMMM पारघा* चक्रम् धश पू उरे अभ७ पश्चिम दक्षिण म पू उ ह चि स्वा वि ७ mammomamarmaamirmirmirmirmirmirmammamat wammamimawwam owwwwwww KER Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International २५ पत्राङ्के सूचितलग्न-भंगकरकुंडलिकायन्त्रमिदम्। of w Im w । है र|चं मं बु बृ शु श रा ग्रह है १ १ ७८६ १ १ भंगद है जन्म कुंडलिका Marainin. Ans. ००Gm. 4. 06 6 c m 64 ans. Gc m4 NSGc ma 9 ० ० ८ ० लिका wwwmwwmmms For Personal and Private Use Only यन्त्र-चक्र-कुण्डलिकादि wawwwwwwwwwww १| | °C ७/७७७७ | mr.vd रचं मं बु शु श राई यात्राकाकुंडलिकायंत्रमिदम् ।। है १२/१२/१२/१२१२ १२१२/१२॥ 02/02/०६/0202/02 Sr. Now रचं मं बु बृ शु 26.com Mam१ ० RIm WA Barm _429 6 h no wa wowowowowom wowowww भी । सर्वसामान्यलग्नकुंडलिकायंत्रमिदम् । mmamimarnamamammummmmmmmmmmmmmmamimal Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार awM Harr smau to Wwwar 920 wwwwwwwwwwwwww | m मध्यमा | . arwavo० | marvao ° | 9 v १ | १२ । ४ ४२ onw9 vo 20 अधमा ८९।१२/ rvar दीक्षाकुंडलिका उत्तम-मध्यम-अधमा wwwowowom प्रतिष्ठाकुंडलिकाचक्रम् MNN AR anwarwavm mo० 09 maaamwwwaaawmaraamaamaraaaamam अधम कुंडलि मध्यम कुडलि उत्तिम कुंडलिका । .. २८ ८ २८ ८ ९।१ १२ १४ १२ १२ ६ ४७ ०९/१० ० ० ६१०।११ ० ७॥१२ ० ० १२ ७/१२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • यन्त्र-चक्र-कुण्डलिकादि ६ २४ ६ | १२२ | १२ ૩ |૨૨ ૩ | કાર ११ ५१० ११ १२५ ८ ॥११ ९ १०।३ १०३ १०१३ १९६६ १२६ १२६ . wwww wowowr विवाह कुंडलिया क्षउर कर्मकुंडलिकायंत्र MMMMMMMV waaaaaaaaaawazawimwwwwwwwwimamiwMM ३ | २५ २५ २५ ३ ६ ९।१२ ९।१२ ९।१२ ६ १।४ | ११४ १३४ ११ ७।१० ७॥१० ७।१० श६ ३६ ३३६ ।८।११/ ८११/ ८।११। | मध्यम | उत्तिम कुडली Mariamama ८।११ २५ ९।१२ ४ ९।१२ ११४ ७१।४ है ७१० १० ११० ०२५ ० ९।१२ ९।१२ ०२४ .७॥१० ७१० अधम M WANANNA Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ग्रह र उत्तम ३ ठक्कुर फेरूविरचित ज्योतिषसार गृहनीम्वनिवेस प्रवेश कुंडलिका Jain Educationa International चं १/४ ६ ७ १० ११ ९१५ |३|११ मध्यमः ९ ટાર ५ ६ १२ अधम ८।१ ० ४७ ०० मं बु ० ३ ६ ११ ९ ८१ કાક १०।१२० |१०|१२| २ 5 Part ११४ १४ १४ ७ १० ७ १० ७ १० २१५ ९५ ९१५ |३|११ ३ ११ ३।११ ८२ ८२ | ८|२ ५ ६।१२ ६ १२ ६।१२ ० fav O बृ २ ० शु श ००० ०० ० ० o For Personal and Private Use Only Ww ११ 4, ३ ११ ५ ५ ९ ९ टा१ ८११ ४ ७४/७ १०।१२१०।१२ २ २ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. ३ द्वारगाथा 33 99 ވވ 35 35 33 "" 33 २ वार तिथिनामानि । ० नक्षत्र २८ नामा' । ० योग २७ नामानि । ० रासि १२ नामानि । ० नक्षत्र अवकहड चक्रं । 33 "" O नक्षत्रे राशयः । " ७ वार तिथि नक्षत्र सि० ।,, २ विरुद्धयोगः । १ कर्कट संवर्त्तकयोगः "3 99 "" बीजक विवरण ज्योतिषसारस्य विवरणम् - द्वार ४, गाथा २४२ प्रथमं दिनशुद्धि द्वारं गाथा ४२ "" 99 33 "" 39 द्वितीयं व्यवहारद्वारं गाथा गा० ४ ग्रहाणां राशिस्थिति गा० १ योगिनी चक्र | उदयास्तवऋदिन | ३ भद्रा चक्र । ५ ग्रहगोचर शुद्धि | २ वत्सगति चक्र । १ ताराबल जन्मन' | १ ग्रह गोचर राशि | ७ ग्रहाणां वामवेध | १ दिसाचक्रं जथा । २ रविचक्रं जथा । २ शनिचक्रं जथा । १ बृहस्पति जथा । । २ राहतनु चक्र | १ राहदिन चक्र । Jain Educationa International | गा०१ जन्म नक्षत्र वज्रमुश०|| गा० १ योगानां अशुभ घटीं । १ चंद्रदग्धास्तिथयः । १ सूर्यदग्धास्तिथयः । १ क्रूरदग्धास्तिथयः १ कुमारयोगः । १ राजतरुणयोगः । १ रविजोगः । १ योगत्रयफलं । १२ यमघंट उत्पातादियो० | 39 १ शूलयोगः । २ शुभवेला जंत्र । २ कुलिक उपकुलिकादि 35 "" 99 जंत्र । , १ विजयाह्वय मुहूर्त | १ ध्रुवलग्नं जंत्र । 39 99 ३ छायालग्नो जथा । १ काल होरा घ २ । 39 एवं गाथा ४२ दिनशुद्धिद्वार 59 35 33 99 33 99 33 33 99 99 "" २ शत्रु मित्रोदासीन । १ उच्चनीचौ । ३ ऊर्ध्वाधो तिर्यक् । १ विद्यारंभे श्रेष्ट | २ पुरुषस्त्रियो व० । २ वधूगृहप्रवेश० । १ स्त्रियःस्त्राने वर्जा० । १ पंचक नक्षत्रा | १ भेषज नक्षत्रा । 39 For Personal and Private Use Only RRRRRR 33 "" 39 99 ६० | गा० ३ शुक्र फलाफलं । १ गुरु सिंहस्थफलं । ३ दिनरात्रिमुहूर्त्त । १ सीमंतोन्नयन० "9 39 99 23 "" 39 २ यमल त्रिपुष्कर | २ स्थविरयोग | १ वार गुण । " ३९ २ नामकरणमन्नप्रा० । १ कर्णवेधदिन । १ कुसुंभवस्त्रनिषे० । १ अंधकाणादिनक्ष० । इति विवहारद्वार द्वितीयं । गाहा ६० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. उकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार तृतीयं गणितपदद्वारं गाथा ३८ गा०३ विषुवच्छायाः। गा०४ ग्रहाणां दृष्टि। ,, १ चरखंडिआनयनं । . , १ भुज कर्म। , २ लग्नानयनं । , १ परमदिन। ,, २ अयनांसानयनं। , २ दिनरात्रिमानं । , १ स्फुटसूर्यः। , १ मध्याह्नच्छाया। , ३ स्फुटलग्नानयनं। ,, १ गतशेषदिनं। , ७ षड्वर्गानयनं । ,, १ इष्टच्छाया। , ३ षड्वर्गउपायः। ,, १ कर्णच्छाया। ,, २ उदयशुद्धि। ,, १ तिथ्यादितकालिक ,, १ अस्तशुद्धि। इति गणितपदं तृतीयं द्वारं । गाथा ३८ चतुर्थ लग्नसमुच्चयद्वारं गाथा १०२ गा०४ वर्षमासादिनिषेध। गा०१४ यात्राकुंडलिका। ,,१६ लत्तापातादिदोष ८ । , ५ दीक्षाकुंडलिका। ,१ अहिचके नाडीदोष। , ५ प्रतिष्ठाकुंडलि। १२ बुधपंचकदोषः। ,, १८ विवाहकुंडलि०। ,३ लग्ने भंगकराः। ,, ३ क्षौरकम्मकुंड। १ लग्नदोषाः। १ मुंडनलोचकर्म। १७ लग्नस्य भावः। ,, ५ गृहनीम्वप्रवेश। ,१ लग्नविशोपकाः। १ रोगीस्नानदिनं । ,३ सर्वसामान्यलग्नं। ६ गोधूलिकलग्नं। ,५ जन्मकुंडलिका। , १ संपूर्णकरण। इति लग्नसमुच्चयद्वारं चतुर्थे । गाह १०२ इति श्री चंद्रांगजठरफेरूविरचितज्योतिष्कसार द्वार ४, गाहा २४२ सं० बीजकविवरणम्। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ ठक्कुर - फेरू - विरचित गणित सार 1888+++ [ प्रथमोऽध्यायः ।] नमिऊण तिजय नाहं लच्छीस - गिरीस सयल - देवज्जं । लेहाण गणणपाडी पुव्वायरिएहि जह वृत्ता ॥ १ तत्तो व (१ वि) किंचि गहियं किंचि वि अणुभूय किंचि सुणिऊणं । तं सयललोय हेऊ फेरू पभणेइ चंदसुओ ॥ २ पडिकाइणि तह काइणि पडिविस्संसा तहेव विस्संसा । जावय होंति विसोवा वीस उण कमेण नायव्वा ॥ ३ वीसि विसोइहि दम्मोदम्मिहि पंचासि टंकओ इक्को । वीस कम दीह वित्थरि अह कंवी सट्ठि वीगहओ ॥ ४ पव्वंगुलि चडवीसिहि बत्तीस करंगुली य विनेया । अट्ठ जवि तिरियगेहं पव्वंगुलु इक्कु जाणेह ॥ ५ चवीसंगुल हत्थो पंडिय चहुं हत्थि हवइ डंडु इगो । बिहुसह सिदंडि कोसो चहुँको सहि जोयणो इक्को ॥ ६ इय भणियं सरहत्थं विक्खंभायाम गुणिय पडहत्थं । वित्थारहु उदय गुणं तं घण अत्थं वियाणाहि ॥ ७ चहुँ करपुडेहि पाई चहुँ पाई एगु माणओ भणिओ । चहुँ माणेहि वि सेई सोलस सेई भवे पत्थो ॥ ८ छहिँ गुंजि मासओ हुइ तेहि वि चहु टंकु टंकि दसहि पलो । छहि पलिहि इक्कु सेरो सेरिहि चालीसि इक मणो ॥ ९ : ६ Jain Educationa International " For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित (अधिनसोलसहि मसिउ तेहिवि चहु टंकु तोलओ तिउणो । सोलहि जवेहि वन्नी बारहि वन्नी महाकणओ ॥ १० सट्ठि पलि एग धडिया घडिया सट्ठीहि एगु दिणु-रयणी । दिणि रयणि तीसि मासो बारहि मासंमि वरिसु इगो ॥ ११ एग दह सय सहसं दसहस लक्खं तहेव दसलक्खं । कोडिं तह दसकोडी अव्वं दसअव्व जाणेह ॥ १२ खवं तह दसखव्वं संखं दससंख पउम दसपउमं । नीलं तह दसनीलं नीलसयं नीलसहसं च ॥ १३ दससहस नील तह पुण नीलं लक्खो वि नील दसलक्खं । तह कोडिनील इच्चाइ संख अंकाई नामाइं ॥ १४ ॥इति २९ गणिताङ्क ॥ परिकम्मं पणवीसं तहाट जाई य अट्ठ विवहारा । अहिगारा चारेयं पणयालीसाइ दाराइं ॥ १५ ................ इच्छाएगि जुयद्धे इच्छा गुणियं हवेइ संकलियं ॥ १६ १. अथ संकलितमाह सम दिण दल मग्ग गुणं विसमं अग्गिमदलेण संगुणियं । जं हुइ तं संकलियं न संसयं इत्थ नायव्वं ॥ १७ इच्छा पण्हऽक्खरिहिं गुणिज्जइ, पन्हु मेलि पुणु इच्छ हणिज्जइ । बिउणिहिं पण्हिहिं भाउ हरिजइ लडंकिहि संकलिउ कहिज्जइ ॥१८ एग्गाई जाव दसं संकलियं पिहगु दस गुणाणं च । एगुत्तर वुड्डिकमे भणेह एयाण मूल पुणो ॥ १९ संकलियट्ठ गुणिगि जुय तस्स पयं एगि हीण अद्धेण । अह बिउण वग्गमूले सेस समं संकलियमूलं ॥ २० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-प्रथमाध्याय २. अह(थ) व्यवकलितमाह जह संकलियपएणं इक्किकं एगयाइ वड्डेइ । तह विमकलिए छिज्जइ इक्किकं मूलरासीओ ॥ २१ सेगं विमकलियपयं संकलियपयं च कीरए सहियं । दुन्ह पयंतरि गुणियं दलीकयं विमकलियसेसं ॥ २२ संकलिय सहस्साओ दसाइ दस-दसऽहियस्स संकलियं । साहेवि भणसु पंडिय जं हुइ विमकलियसेसंकं ॥ २३ विमकलियसेस सोहि वि संकलियधणाउ सेस्स बिउणजुयं । तस्स पयं सेससमं तं हुइ विमकलियमूलप्यं ॥ २४ संकलियपयं बिउणं सेगं विममलियपयविहीणदलं । विमकलियजुयं जं हुइ तं उवराओ य विमकलियं ॥ २५ सयसंकलियधणाओ उवराओ तीइ जाम विमकलियं । ता किं जायइ तं भणि, जइ विमकलियं वियाणाहि ॥ २६ ३. अथ गुणाकारमाहठवि गुन्नरासि हिढे कवाडसंधि व उवरि गुणरासी । अनुलोम-विलोमगई गुणिज सुकमेण गुणरासी ॥ २७ वीसा सउ बत्तीसिहि नव सइ चउस? सत्तवीसेहिं । अडहिय सउ सद्विगुणं किं किं पत्तेय होंति फलं ॥ २८ अह गुणरासी खंडिवि इगेग अंकेण गुणवि करि पिंडं । परकमि चडंति पंती छेय करवि सुकमि गुणिय पुणो ॥ २९ दुतीक गुणाकार सत्यालीक परिज्ञान गुणरासि गुन्नरासी पिहु पिहु पिंडं नवस्स सेसगुणं । तह गुणियरासिपिंडं नवसेससमं हवइ सुद्धं ॥ ३० खेवसमखंजोए रासि अविगयक्खं जोडणे हीणे । सुन्न गुणाणइ सुन्नं सुन्नगणे सुन्न सुन्नेण ॥ ३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित सुन्नस्स य गुणयारं सुन्नस्स य भागहरं तहा वग्गं । सुन्नस्स वग्गमूलं घणाइ भणि जइ वियाणासि ॥ ३२ ४, अथ भागाहरमाह- जस्साओ पाडिज्जइ संहरणीओ जु हरइ सुजि हरे । उवरि लिहि हारणीय हिटि हरंसं भवे भायं ॥ ३३ ५. अथ वर्ग:पढमंकु वग्गु ठवियं अवरकमे विउणआइ अंकेहिं । गुणि पुव्वसहिय पुण तह वग्गजुयं ठाणहियवग्गं ॥ ३४ जो अंकु तिणय अंके गुणिज्ज सो वग्गु अहव इच्छ दुहा । दद्रुण जुय गुणेविणु तहिट्ठवग्गहिय इय वगं ॥ ३५ एगाइ नवंताणं सोलस चउवीस अट्ठवीसाण । पत्तेय वग्गरासी जं जायइ तं भणह सिग्धं ॥ ३६ ६. अथ वर्गमूलमाह जं हवइ वग्गरासी तस्संताओ गणिज्ज जाव धुरं । विसम-सम-विसमट्ठाणे वग्गं साहेवि मूलंकं ॥ ३७ विउणु करि चालि भायं फलपंती तस्स वग्गि सोहि पुणो । पुव्वविहि जाव चरिमं विउण तमद्धियं मूलं ॥ ३८ ७. अथ घनमाह धुरिमंकघणं ठाविय तस्सेव धुरंक वग्गु तिहु गुणियं । वीयंके गणिऊणं ठाणाहिय सुकमि जोडिजा ॥ ३९ पुणु वीय अंकवग्गं धुरिमंकिहि गुणिवि तिउण करि जुत्तं । पुणु तस्स य अंसस्स य घणं करिवि सहिय घणमेयं ॥ ४० इच्छिय अंकु तिहा ठवि उवरुप्परि गुणिय जं हवइ स घणो । अग्गिमु पुव्बंकि हयं तिउणं पुव्वघणजुयसेसं ॥ ४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार -प्रथमाध्याय एगाई जाव नवं तह सोलस दुसय पंचवीसाण । तिन्नि सय नवऽहियाणं पत्तेयं किं हवेइ घणं ॥ ४२ ८. अथ घनमूलमाह घणपय दोअ घणपए घणपयभायं घणेण पाडिजं । तं लद्धकं मूलं चालिवि तईयंकतलि दिजा ॥ ४३ तवग्गु तिउणु तस्सेव पच्छए धरिवि भाउ पाडिज्जा । लद्धं पंति ठविजइ हरंकविगमो य कायब्वो ॥ ४४ पंतिस्स अंकवग्गं तिउणं पुव्वंकि गुणिवि सोहिज्जा । अंति पयस्स घणं पुण सोहिय तं लद्ध पुण एवं ॥ ४५ ९. अथ अभिन्नपरिकर्माष्टकमाहभिन्नंकु इम ठविजइ रू(ऊ)वरि अंसस्स मज्झि छेयतले। हीणंसे बिंदुचयं अच्छेयं जत्थ तत्थेगं ॥ ४६ छेय हय रूवरासी अंसा जुय गय सर्वनणं हवइ । अन्नोन्नछेयगुणिया हवंति कमि सदिसछेयंसा ॥ ४७ सदिसच्छेय करेविणु ता कीरइ जोड हीण अंसाणं । न हवइ छेयाण जुई कयावि इय भणिय सत्थेहिं ॥ ४८ छेयंके विउण कए उवरिमरासी हवेइ अद्धीय । सव्वेवि पायरेहिं भिन्नठिई एस नायव्वा ॥ ४९ १०. अथ भिन्नसंकलितमाह सदिसच्छेयंसजुई छेएण विहत्त भिन्नसंकलियं । ति छ पण नवंस पिंडं तह पउण ति दिउढ सतिहायं ॥ ५० आदायस्स वयस्स य सर्वनणं करवि सदिसछेय पुणो । पिहु पिहु अंसाण जुई तयंतरे भिन्न विमकलियं ॥ ५१ अद्ध तिहाय खडंसा नवंसु अट्ठाउ सोहि किं सेसं । सड तिय पंच सतिहा नवंस खडसाउ सोहिज्जा ॥ ५२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित ११. अथ भिन्नगुणाकारमाह अंसेण अंसगुणियं छेएण वि छेय गुणिवि हरियव्वं । जं हवइ लडमकं तं जाणह भिन्नगुणयारं ॥ ५३ पाऊण पंच दम्मा गुणिज्ज सतिहाय अट्ठ दम्मेहिं । अहं खडंसि गुणियं पिहु पिहु किं हवइ तस्स फलं ॥ ५४ १२. अथ भिन्नभागाहरमाह करिऊण छेय अंसा हरस्स विवरीय न हारणीयस्स । पुव्वविहि गुणि विभायं एस विही भिन्नभायस्स ॥ ५५ अड्डाइएहि भायं हरिजए पउणसत्तदम्मेहिं । चहु. सतिहाइ विहत्तं सवा छ कि ताण लड फलं.॥ ५६ १३. अथ भिन्नवर्गमाह अंसाण वग्गरासी हिट्ठिम छेयाण वग्गभाएण । पाडेवि जं जि लद्धं तं जाण [हु] भिन्नवग्गफलं ॥ ५७ अड्डाइयस्स वग्गं सतिहा पंचस्स पउणसत्तस्स । भणि अड तिहाय पुणो जइ वग्गविही वियाणासि ॥ ५८ १४. अथ भिन्नवर्गमूलमाह अंसस्स वग्गमूले छेयणमूलेण भाउ पाडिज्जा । विसम-सम-विसमकरणे हुइ मूलं भिन्नवग्गस्स ॥ ५९ १५. अथ भिन्नघनमाह अंसस्स घणं कुज्जा छेयस्स घणाण भाउ हरिऊणं । ज किंपि तत्थ लद्धं भिन्नघणं तं वियाणाहि ॥ ६० सड्डय-सत्तस्स घणं सवाय पनरस पा तिहायस्स । जं जायइ घणरासी पत्तेयं तं भणिज्जासु ॥ ६१ १६. अथ भिन्नघणमूलमाह अंसघणमूलरासे छेयणघण मूलभाउ पाडिज्जा । घणपय दोअ घणपए इय करणे हवइ घणमूलं ॥ ६२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ गणितसार-प्रथमाध्याय १७. अथ त्रैरासिकमाह आइ अंतेकजाई ठविजए अन्नजाइमज्झेण । अंतेण मज्झि गुणियं आइमभागं तिरासियगं ॥ ६३ जा इक्कारस दंमिहि दोसिय कर सत्त कप्पडो होइ । ता चउवीसिहि दम्मिहि कइ हत्थ हवंति ते कहसु ॥ ६४ भणिसु हव नाणवढें नव मुंद लहति दम्म पणवीसं । इय अग्धपमाणेणं सोलस मुंदाण कइ मुल्लं ॥ ६५ चंदण पलं सवायं सतिहा नव दम्म मुल्लु पावेइ । ता छ पल खडंसूणा कित्तिय दम्माइं पावंति ॥ ६६ दम्मि सवा सत्तेहिं पिप्पलि दुइ सेर छट्ठमंसऽहिया । लब्भइ ता नव दम्मिहि तिहाय ऊणेहिं किं हवइ ॥ ६७ पाउणवीसा सएहिं दम्मिहि सतिहाय पंच पत्था य । ता तंदुलाइ अन्नं कइ लब्भइ इक्कि दम्मेण ॥ ६८ बारहवन्नी कणओ सतिहा सय दम्मि तोलओ इक्को । जइ हुइ त इक्कि मासय दसंसहीणस्स कइ मुल्लो ॥ ६९ जइ जोयणछटुंसं पंगुलओ चलइ सत्त दिवसेहिं । ता सट्ठि जोयणाई कित्तिय कालेण गच्छेइ ॥ ७० अंगुलसत्तंसो जइ दिणस्स छटुंसि कीडओ चलइ । गच्छिहइ अट्ठजोयण नियत्तई केण कालेण ॥ ७१ अथ पंचरासिकमाह-; सप्तनवैकादसरासिको य (?) हिट्ठिम फलंक विवरिय पिहु पिहु कमि दो वि पक्ख गुणिऊणं थोवंक-रासिभायं पण सत्त नवाइ रासीणं ॥ ७२ १८. अथ पंचराशिकमाहमासेण पंचगसए वरिसे सट्ठिस्स किं फलं हवइ । अह नो नज्जइ कालं फल मूलं तह पमाणंत्रणं ॥ ७३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित मासे तिहाय ऊणे सडसए दिवढु दम्मु ववहारो। ता सतरहि पाऊणिहिं सवायनवमास किं हवइ ॥ ७४ सट्ठ मणहं भाडइ जोयण सतिहाइ दम्म पउणदुए । ता नव सवा मणाणं किं हुइ दस जोयणे पउणे ॥ ७५ जइ वारस कम्मयरा चहु दिवसिहि तीस दम्म पावंति । पणयालीस दिणेहिं ता किं पावंति अट्ठ जणा ॥ ७६ जइ किरि भित्ति सुवन्नो गुंजूण तिमास पउणवीस धणे । ता सड्ढदसी वन्नी गुंजहिय दुमास कइ मुलं ॥ ७७ १९. अथ सप्तराशिकमाह छ दीह तिकर वित्थर दुइ कंवल नवइ दम्म पावंति । नव दीह पंच वित्थरि ता कंवल सत्त कइ मुल्लं ॥ ७८ २०. अथ नवराशिकमाह चीर बारह पंच वन्नेहि, ते दीहण सत्त कर तिन्नि हत्थ वित्थारु अच्छइ । तहं सव्वहं मुल्लु किउ छ सय दम्म दोसियहि निच्छइ । जइ चहुं वन्निहि अट्ठ कर दीहि पंच वित्थारि । ता नव चीरह मुल्लु कइं, कहि दोसिय विच्चारि ॥ ७९ २१. अथ एकादश राशयो(?शीन् ) आह दु छ ति दु इग पत्थाई जा कर पुड मुंग सट्ठि दम्मेहिं । ___ता नव ति दुग तिकमे पत्थाई मुंग कई मुल्लं ॥ ८० २२. अथ व्यस्तत्रैराशिको(क)माह मज्झं च आइगुणियं अंतेण विहत्त वित्थ तियरासी । अंताइ एग जाई ठवि मज्झे अंत जाईय ॥ ८१ दह सेइयंमि पत्थे मविया सत्तहिय वीस पत्थाइं । सोलसि सेई पत्थे कह पत्थ हवंति ते कहसु ॥ ८२ छासहि टंकतुल्ले तुलिया मण वीस वक्खरं तइया । जइ वाहत्तरि तुल्ले तुलियं ति हवंति कितिय मणा ॥ ८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - प्रथमाध्याय सढिक्कारस वन्नी तोला चालीस सड कणओ य । ता दस सवाय वन्नी पवट्टणे हवइ केवइओ ॥ ८४ नव आयाम तिवित्थर दुइ सइ वीसहिय कंबला सव्वे | पंचायम दु वित्थर कइ कंबल होंति ते कहसु ॥ ८५ २३. अथ क्रयविक्रयमाह मज्झत गणिय मूलं अंताई गुणिय सव्व उप्पत्ती । विकय कयंतरि भायं नाइज्जइ मूललाहघणं ॥ ८६ सतरह मण टंकेणं लिज्जहि पन्नरस विक्किणिज्जंति । जइ दस टंका लाहे ता कहु टंकाण ते मूले ॥ ८७ तिहु दम्मि पंच वत्थू लिज्जहि नवि दम्मि सत्त विक्किज्जा । दंम दुवाल लाहे कित्तिय दम्माण सा मूले ॥ ८८ उवरि दम्म तलि वत्थु ठविज्जहि वंकइ विन्न वि रासि गुणिज्जइ । आइम रासि लाहि ताडिज्जइ विहू रासि अंतरि पाडिज्जइ ॥ ८९ २४. अथ भांडप्रतिभांडकमाह भंड- पडिभंडकरणे विवरिय मुल्लं फलं च विवरीयं । कमि गुणवि दोवि रासी हरिज्ज लहु रासिणा भायं ॥ ९० सइ दम्मि दुमण पिप्पलि तिहु सय दम्मेहि पंच मण सुंठी । ता पिप्पलि सत्त मणे पाविजइ सोंठि कितिय मणा ॥ ९१ २५. अथ जीवविक्रयकरणमाह जीवस्स विकएण य वरिस विवरीय फलंक विवरीयं । सेसं च पुव्वविहिणा जाणिज्जहु जीववर मुलं ॥ ९२ दस वरिसा तय करहा टंका सउ अट्ठ अहिय पावंति । ता नव वरिसा करहा कइ मुलं हवइ पंचाण ॥ ९३ ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठक्करफेरुविरचितायां गणितसारकौमुदीपाट्यां पंचविंशतिपरिकर्म्मसूत्र (त्राणि ? ) समाप्तानि ॥ ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द्वितीयोऽध्यायः ।। १. अथ भागजातौ कलासवर्णनमाहसमछेय करवि पच्छा अंसजुई हवइ भागजाई य। अद्धस्स अधु(ड) तस्स य पणंस - छटुंसु किं हवइ ॥ १ . २. अथ प्रभागजातिमाह छेएण छेय गुणियं अंसे अंसा पभागजाई य । अद्धस्स अधु (डु) तस्स य पणंस-छटुंसु किं हवइ ॥ २ ३. अथ भागभागजातिमाहछेएण रूवगुणिए छेयगमे हवइ भागभागविही । अंसाण जुई भायं धणेण पिहगंस गुणवि फलं ॥३ एगि तिभाय दुभायं एगि सु नव भाय सत्तभायं च । एगि छभाय तिभायं किं सयदम्माण पिहगु फलं ॥ ४ वावि छ कर चउ नालय भरंति कमि दिणिगि दल ति चउरंसो। जइ समकालि ति मुच्चहि ता पूरहि केण कालेण ॥ ५ ४. अथ भागानुबंधमाह अहहरि उवरिमु हरु गणि स अंसि हिटिमहरेण गुणि रूवं । जा हवइ चरिम छेयं एसा भागाणुबंधविही ॥ ६ सड्ढ तिय तस्स पायं सहियं जं तस्स छट्ठमंसजुयं ।। तस्सद्ध जुत्त किं हुइ तहत सतिहाय तस्स पायजुयं ॥ ७ ५. अथ भाग(?गा)पवाहमाहहिट्ठिम हरि उवरिमहरु गुणिज्ज हिट्ठिम हरे गयंसेण । उवरिम रूव गुणिज्जहि एवं भागापवाहं च ॥ ८ तिय अणं पउणं तस्स खडंसूण तहय अद्धं च । तंस - चउरंसरहियं किं किं पत्तेय हों( हो)ति फलं ॥ ९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार -द्वितीयाध्याय ६. अथ भागमातृजाती आह भागाई पंच जाई समासणं तं च भागमत्तीय । पिहु पिहु जहुत्तकरणं करेवि समछेय अंसजुई ॥ १० अद्ध पयस्स भायं तिभायभायं तहद्ध अडहियं । तइयंसु अहहीणं एगहूं किं हवेइ धणं ॥ ११ ७. अथ वल्लीसवर्णने आहवल्लीसवन्नणविही हिटिम छेएण गुणवि छेयंसा । उवरिमअंसे रिणु धणु पकीरए हिट्ठिमंसाण ॥ १२ दुइ तोला तिय मासा तहेव चउ गुंज पंच विसुवा य । ते सत्तमंसहीणा सवन्नणे किं हवइ वल्ली ॥ १३ ८. अथ स्थंभंस?स्तंभांश)कजातो आहसमछेय अंस पिंडं रूवाओ सोहि जं हवइ सेसं। तेण पञ्चक्खभायं लद्धंके थंभपरिमाणं ॥ १४ अद्ध खडंस दुवालस अंसा जल पंक वालुयत्थकमे । पञ्चक्ख तिन्नि कंविय भणि पंडिय ! थंभपरिमाणं ॥ १५ भाऊ पंचमु गयउ पुवद्धि, दक्षिण अट्ठमउ सोलसंसु पच्छिम पणट्ठउ, चाउडु गउ उत्तरह सीहभइण इम छट्ठ नट्ठउ । तलइ रहिउ पंडिय ! निसुणि गोरू सउ पणयालु, ते इक्कट्ठा जइ करहि कइ लोडइ थणवालु ॥ १६ अधु सतिहाउ विज्झे खडंसु सत्तंस अहिउ जलतीरे । अटुंसु नवंसहिउ थलिगय चउसेस किं जूहे ॥ १७ ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठक्कुरफेरूविरचिते गणितसारे कौमुदीपाट्यां अष्टौ भागजातयः॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तृतीयोऽध्यायः ।] १. अथ व्यवहारगणनायां मिश्रकव्यवहारे आहनियकालि पमाणधणं फलेण परकालु वि तज्जोयं । मिस्सि गुणिऊण दोन्नवि जोयाविह तम्मि फलमूलं ॥ १ मासेण पंचगसए चहु मासिहि दम्म पंचसइ वीसा । तस्स फलं किं मूलं जइ मुणसि त भणसु सिग्घेण ॥२ २. अथ भाव्यके आहनियकालि पमाणधणं गुणिज्ज फलकालि कमिफलाईणि । अंसाण जुईभायं मिस्सि गुणवि लद्ध मूलाई ॥ ३ मासे सयस्स पण फलु एगं विप्पस्स अडु वित्तीय । लेहगपायं वरिसे नवसयपंचहियमिस्सधणं ॥ ४ ३. अथ एकपत्रीकरणे आहगयकाल फलसमासे मासफलक्केण भाइ कालो य । मासफलु पिंडु सयगुणि धणपिंडे हरि सयस्स फलं ॥ ५ दुगि तिगि चउ पंचग सइ मासे धणु दिन्नु एग दु ति छ सयं । चहु छहि दसट्ठ मासिहि एगं पत्तं कहं हवइ ॥ ६ ४. अथ प्रत्ये(?क्षे)पके आह समछेयंसजुई हर मिस्सं पत्तेयअंसि गुणिऊण । पक्खेवकरणमेयं मिस्साउ फलं मुणिज्जेइ ॥ ७ दुनि तिय पंच चउ मण बीयं पक्खविय तं च निप्पन्नं । बिसय दहोत्तर हल हरि दिन्नाण वि किमह भिन्नफलं ॥८ टंकट्ठ छहि वुणिजहि मुल्ले दस टंक पंचि दम्मेहिं । टंक छयासी पढें किं वुणियं किं वुणाववियं ॥ ९ कंचोलु सत्त उदए सत्तोवरि एगु हिट्ठि विक्खंभा । दसि दम्मि भरिउ चंदणि अंगुलि इक्किक्कि कइ मुल्लो ॥ १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार -तृतीयाध्याय ५. अथ समविषमक्रययोः आहमुल्ले वत्थु वि हत्थो पिहगंस गुणेय अंस जुवभाव । दव्वेण अंसगुणिओ समविसमकयं तिरासि विहि पुत्वं ॥ ११ दम्मिकि सेरु हरडइ तिन्नि बहेडा छ सेर आमलया। भो विज्ज ! देहि फक्किय सममत्ता इक्क दम्मस्स ॥ १२ तिहुँ अडु सेरु पिप्पलि सतिहा नवि दम्मि मिरिय सेरु इगो। चहुँ पउणु सेरु सुंठी इगस्स तिउडू समं देहि ॥ १३ दंमि नव सेर तंदुल इक्कारस मुंग सेरु इक्कु घिओ। ति दु इग अंस वणिय ! कमि सवाय दम्मस्स मे देहि ॥ १४ ६. अथ सुवर्णव्यवहारे आहज सुवन्ना जं तुल्लं तं तेण गुणेवि कीरए पिंडं । तुल्लि विहत्ते वन्नी वन्नी भाए हवइ तुल्लं ॥ १५ नव दस अढिक्कारस वन्नी तोलाय तिय छ पण जुयलं । एगत्थ गालियं तं केरिस वन्नी हवइ कणयं ॥ १६ ७. अथ सुवर्णे भिन्नोदाहरणमाह अट्ट सवा नव पउण छ वन्नी तुल्लेति पंच दुइ मासा । तिय छ पण अंस सहिया आवट्टे किं हवइ कणयं ॥ १७ ८. अथ पक्कसुवर्णस्य आहवन्न सुवन्न गुणिकं विपक्क कणए विहत्तवन्नाय । इच्छा वन्नीभाए पक्कसुवन्नस्स तुळलंकं ॥ १८ छ पण? सत्त तोलय नव सत्त दसट्ठ वन्नपक्काय । संजायवीसतोला केरिस वन्नी हवइ कणयं ॥ १९ दुतीकःसत्तट्ठ नव छ वन्ना चउ पंच ति सत्त तोलया कमसो । इक्कारसीय वन्नी तुल्ले किं हवइ पक्कविओ ॥ २० . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित ९. अथ नष्टसुवर्णवर्णमाहउपन्नवन्नएणं सुवन्नपिंडं गुणेवि सोहिज्जा । वन्नसुवन्नवहिकं गयवन्न सुवन्नए भायं ॥ २१ तिय पंच सत्त मासा नवट्ठ दसवन्न अट्ठमासन्ने । उपन्ना दस वन्ना का वन्नी अट्ठमासाणं ॥ २२ उपन्नवन्नताडिय कणयजुई वन्नकणयवहपिंडं । सोहिवि भायं गयकणयवन्नि उप्पन्नवन्नूणे ॥ २३ अहियस्स हीणछेयं हीणस्स य अहिय इच्छ वन्नीओ। छेयंक तुल्ल भागा इय इच्छाकरणवन्नविही ॥ २४ पण सत्त नव इगारस वन्नीओ पिहगु पिहगु किं लिज्जा । जेण हुइ दसी वन्नी तुल्ले तोलिक्कु तं भणसु ॥ २५ ॥ इति मिश्रकव्यवहारम् (१रः)॥ १. अथ सेढीव्यवहारो यः (? यथा-) गच्छेगूणुत्तर हय सहाइ अंतधणु पुणवि आइ जुयं । दुविहत्त मज्झिम धणं गच्छ गुणं हवइ सव्व धणं ॥ २६ वीसाइ पंच उत्तर सत्तदिणे तुरिय हरडईमाणं । तं भणि तह नट्ठाई उत्तर गच्छं पुणो भणसु ॥ २७ २. अथ नष्टाद्यानयने करणमाहनट्ठाइजाणणत्थे सव्वधणं गच्छ भत्तलद्धाओ । एगूण गच्छिउ तरू गुणेवि दलि सोहि सेसाई ॥ २८ ३. अथ नष्टोत्तरानयने करणसूत्रमाहउत्तरनट्ठाणयणे गच्छेण विहत्तसव्वधणरासी । आइविहीणं काउं निररेगच्छ दल लड चयं ॥ २९ ४. अथ नष्टगच्छानयने आहअडउत्तर हयगुणियं दुगुणाई बुड्डि हीणवग्गजुयं । मूलं धण वि उणूणं सचयं चयविउण हरि गच्छं ॥ ३० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - तृतीयाध्याय ५. अथ संकलित्यैक्यानयने आहइग चय संकलियंकं वि जुएण पएण गुणिवि तिहु भायं । लडं संकलिय जुई न संसयं इत्थ नायचं ॥ ३१ संकलिय वग्ग तह घणं पिहु पिहु पंचाण किं हवइ इक्कं । गणिऊण भणसु सिग्धं जय गणियविहिं वियाणासि ॥ ३२ ६. अथ वर्गकघनैक्यानयनमाह- . इच्छपय बिउणसेगं ति हरिय संकलिय गुणिय वग्गजुई । संकलियवग्गु जं हुइ तं घणपिंडं वियाणेहि ॥ ३३ ७. अथ संकलितवर्गघनैक्यानयने आहसेग बिउण पय पय गुण सेग पयद्धेण गुणिय हुइ जं तं । संकलियवग्ग तह घण तिन्हाण जुई मुणेयत्वं ॥ ३४ ॥ इति सेढीव्यवहारे सूत्रगाथा सम्मत्ता ॥ अथ क्षेत्रव्यवहारमाहचउरंस दीह चउरस विक्खंभायामु गुणिय तं खेत्तं । चउरंसे छ कर भुया ति पंच कर दीह चउरंसे ॥ ३५ भुव पिंडई चउहा कमेण भुवहीण सेस गुण सुकमे । तस्स पए तं खित्तं तिभुए अ चउन्भुए जाण ॥ ३६ मुहभुव कर पणवीसं भूमिभुवं सट्ठि वाम वावन्नं । दाहिण उणयालीसं किं जायइ तस्स खित्तफलं ॥ ३७ भूमिभुव हत्थ चउदस तेरस एगं च बीय पन्नरसं । एवं विसम तिकोणं खित्तफलं अस्स किं हवइ ॥ ३८ सयलाण चउरसाणं भूमुह जोयद्ध लंब गुणखित्तं । तंसाण भूभुवद्धं लंबगुणं हवइ खित्तफलं ॥ ३९ भुवजुव तेरस पनरस भूभुव इगवीस पंच हत्थ मुहे । मझे लंबु दुवालस एरिसखित्तस्स किं माणं ॥ ४० For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर - फेरू - विरचित तिकोणफलं विउलं भूभत्तं मज्झ लंबओ हवइ । भुवलंब वग्ग अंतरि सेसस्स पए हवइ अहवा ॥ ४१ भुवलंब वग्गपिंडं तस्स पए हवइ निच्छयं कन्नं । सव्वत्थ वित्तगणणे एस विहि हवइ नायबा ॥ ॥ ४२ विक्खंभ वग्ग दह गुण तम्मूले वट्टखित्त परिहि धुवं । विक्खभ पाय गुणिया परिही ता हवइ खित्तफलं ॥ ४३ दस विक्खंभे खित् समवट्टे किंपि जायए परिही । गुणिऊण भणहि पंडिय ! तसु खित्तफलस्स किं हवइ ॥ ४४ वट्टस्स य विक्खंभं तिउणं तह छट्ठमंसजय परिही । विक्खंभद्धे गुणिया परिहि दलं तस्स खित्तफलं ॥ ४५ जीवा सर पिंडद्ध सर गुणियं वग्ग दहगुणं काउं । नव भाए जं लई तस्स पए हवइ धणुह फलं ॥ ४६ धणुपिंडे इगवीसं जीवा पनरस छक छक जस्स सरं । भणि पंडिय ! गणियफलं किं जायइ तस्स धणु खितं ॥ ४७ सरवग्गं छगुणकियं जीवा वग्गहिय मूल धणु पिंडं । धणुवग्गाओ जीवा वग्गूण छभाय मूल सरं ॥ ४८ धणु सर जुयद्धहीणं धणुहाओ वग्ग चउण पय जीवा । पत्तेय गणियमाणं एयाण फलं हवइ नूणं ॥ ४९ बालिदे तिभुव दुगं मुरुजे दो धणुह चउरसं मज्झे । दो गुह जवाकारे कुलिसे चउभुव दु कप्पिज्जा ॥ ५० तिभुवं गयदंतोवम चउन्भुवं सगडचक्कवट्टसमं । चंदस्स सरिस धणुहं वट्टं परिपुन्न चंदसमं ॥ ५१ बालिदोवम खित्तं वित्थारे पंचवीस कर दीहे । दल लंबं तिन्नि धरा गयदंते किं हवेइ फलं ॥ ५२ निम्मागारे खित्ते उभयमुहे तिकर पंचकर लंबे । धरामुहे पण हत्थं ति मज्झि दह लंब कुलिसुवमो ॥ ५३ ॥ इति क्षेत्रव्यवहारसूत्रं समाप्तं ॥ For Personal and Private Use Only ५६ Jain Educationa International Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-तृतीयाध्याय १. अथ खातव्यवहारमाहतलमुह मझे विसमं उंडुत्तं अहव दीह-विसमं वा । तं एगट्ठ काउं विसमट्ठाणेहिं हरिय समं ॥ ५४ सम-वित्थर -दीहगुणं उड्डत्ते गणिय हवइ खित्तफलं । खात्तं समभुववेहे घणोवमं जायए गणियं ॥ ५५ दु ति चउ कर उड्डुत्ते पुक्खरणी पंच हत्थ वित्थारे। सोलस हत्थायामे किं जायइ तस्स खत्तफलं ॥ ५६ दीह कर सड्ड सोलस वित्थारे दस सवाय अडुदए । अह वित्थरु दीहुदए सम नवकर किमिह पिहगु फलं ॥ ५७ २. अथ कूपस्य फलानयनमाहकुववित्थारं वग्गं तिउण खडंसहिय वेहि गुणियव्वं । चहुं भाए जं लद्धं तं करसंखा हवइ सव्वं ॥ ५८ कुवस्स य विक्खंभं छ हत्थ कर वीस जस्स उड्डत्तं । कूवस्स तस्स पंडिय ! खत्तफलं किं हवेइ धुवं ॥ ५९ . तिकोणयाई खित्ता पुव्वुत्ता खित्तफलसमा जाण । ते वि गुणियं तिवेहे हवंति घणहत्य खत्तफले ॥ ६० ३. अथ पाषाणफलानयनकरणसूत्रम् दीहंगुलाणि वित्थर पिंडंगुल ताडियाणि विभएहिं । जिणें अट्ठ तेरेसोहं हवंति पाहाणघणहत्था ॥ ६१ सङ्घतिय हत्थ वित्थरि करद्ध पिंडे सिलासहे जस्स । सतिहाय पंच दीहे कमित्थ हुइ तस्स गणियफलं ॥ ६२ जं हवइ विविहरूवं वट्ट - तिकोणाइ सयलपाहाणं । खित्तफलु व्व गुणेविणु पिंडगुणं हवइ तस्स फलं ॥ ६३ दस हत्थे विक्खंभे घरट्टपट्ट व्व वट्टपाहाणे । दिवढकरमाणपिंडे किं होइ इमस्स गणियफलं ॥ ६४ गोलस्सुदयघणदं सनवसे अहिय तं हवइ सेलं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर- फेरू-विरचित परिहि चउत्थं भायं हय परिहि नवंसहिय खित्तं ॥ ६५ छकर दीहुदय वित्थर समवट्टं गोलयस्स पाहाणं । किं गणियं किं खित्तं जं हुइ तं भणहि पत्तेयं ॥ ६६ ४. अथ पाषाणस्य तौल्यमाह घणकंबिय इक्केणं ढिल्लियसंभूय पाहणं सव्वं ॥ पंचास मणं जाय तुलिओ चउवीस तुल्लो [य] ॥ ६७ वंसी अडयालीसं मम्माणी सट्टि कसिणु बासट्ठी । जज्जावय कन्नाय उणवन्नकुडुक्कडो सट्ठी ॥ ६८ ॥ इति खातव्यवहारसूत्रगाथा १५ सम्मत्ता ॥ अथ चितिव्यवहारमाहगोमट्टे पायसेवं चउरसे वै मुनरयं तकिं । सोवण पुलं वं वांवी इय नवविहा भित्ती ॥ ६९ पढममवि सुद्धभित्ती वित्थरदीहुदय गुणिय जं हवइ । तस्साउ वार वारी आलय कट्ठाउ सोहिज्जा ॥ ७० सेसाओ दसमंसं दिवडूयं मट्टियस्स घट्टे । सेसा पाहणसंखा हवंति घणहत्यमाणेण ॥ ७१ पंच कर भित्ति उदये दस दीह दुवित्थरे य तम्मज्झे । बारूति उदइ दु वित्थरि का संखा हवइ पाहाणे ॥ ७२ अथ इहानां गणना दी वित्थरिपिंडे अद्धु तिहा अट्टमंसु इट्ट कमे । च रुदs दिवदु वित्थरि दह दीहे भित्ति के इट्टा ॥ ७३ १. अथ गोंमटमाह गोमट्टमूलपरिही अद्धं पा परिहि गुणिय सनवंसं । भित्ति (ति) गब्भाओ चयणं बाहिर मज्झाउ तं खित्तं ॥ ७४ भित्ति (? ति) गब्भाओ परिही उणवीस छ वित्थरस्स किं चयणं । बाहिर परिही पंडिय ! चउवीसं किं हवइ खेत्तं ॥ ७५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-तृतीयाध्याय परिहीविक्खंभद्धे गुणिय नवंसहिय खल्लु [मट्टे । अणुभवसहियं भणियं न संसयं इत्थ नायव्वं ॥ ७६ २. अथ पायसेवमाह चउरंस पायसेवं बाहिर भित्ती य मज्झिमं थंभं । वित्थरु दीहुदय गुणं जं हुइ तं कविया जाण ॥ ७७ भित्ति तह थंभ अंतरि कमुच्च मग्गं फिरंत तं दीहं । तल उवर जुयहुदयं वित्थर गुणियं हवइ पूरं ॥ ७८ ३. अथ वढेतह वट्टपायसेवे थंभं भित्ती य गणहु कूवु व्व । पूरंतर छत्तिदलं तं चउरंसु व्व जाणेह ॥ ७९ ४. अथ मुनारयावट्टपासेवसरिसा मुनारया होति सयल मज्झाओ। पुणु इत्तियं विसेसं तिकोणदल वट्टदलभित्ती ॥ ८० ५. अथ ताकवारिस्सुवरिम ताकं दीहुदए गुणिय भित्तिपिंडगुणं । सत्तंस दिवड्डणं सिहाजुयं जायए खल्लं ॥ ८१ सत्त कर ताक दीहं सिहासहिय हत्थ चारि जस्सुदयं । हत्थेग भित्तिपिंडं किं जायइ तस्स खल्लफलं ॥ ८२ ६. अथ सोपानम्सोवाणहिट्ठउवरिम जोयद्धं उदयवित्थरे गुणियं । नव हिट्ठि उवरि एगं दु पिहुल छह उदइ किमिह फलं ॥ ८३ ७. अथ पुलबंधमाहवित्थरु दीहं उदए गुणियं, ताकविहीणं भुवजुवसहियं । निग्गम अहियं तह खल्लूणं, जलपुलबंधं तं हुइ नूणं ॥ ८४ ८. अथ कूप कुवभित्तिमज्झि परिही वित्थर उदएण गुणिय हवइ फलं । दस उदइ दु कर वित्थरि अट्ठारस परिहि किं चयणं ॥ ८५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अथ वापी षट भेदि चउरंस दीह वट्टा खडंस अट्ठस संखवत्ताई । बहुछंदि होंति वाकी (१वी) ते दिट्ठपमाणि गुणियंति ॥ ८६ ॥ इति चितिव्यवहारसूत्र गा० १८ सम्मत्ता ॥ ठकुर- फेरू - विरचित अथ क्रकचव्यवहारसूत्रकरणमाह दारु जहच्छियमाणे तस्साउ जहिच्छ फलिह कीरंति । दुह दलु दीहु वित्रु गुणिज्ज फलहेहिं भागु ति ॥ ८७ अट्ट कर दीहु दारो करहु वित्थारि दलि तिहाउ करे । दीगु पाउ वित्थरि नवंसु दलि किमिह फलहेण ॥ ८८ अथ करवत्ते दारुच्छेदितगणना करवत लीह जे हुई ते दीहिण गुणिय होंति हत्थाइं । वित्थरवसाउ कोडी चिरावणी अग्घमाणेण ॥ ८९ इग दिवढ विस्व सइ गजि दुति वित्थरि गजि असीहिं कोडी य । चहुं विवहि सट्ठि गजे पंचाइ नवंति चालीसे ॥ ९० दस्साइ जाव तेरस विसुवा वित्थारि ताव तीसेहिं । उवरं जा सोलस ता वीसि गजेहि कोडी य ॥ ९१ उवरि जा वीस विसुवा ता कोडी दसि गजेहि जाणेह | उवरि करवत्तु न चलइ इय भणियं सुत्तहारी हिं ॥ ९२ दारु गज सत्त दीहे विसोवगा अट्ठ सत्त वित्थारे । दस लीह फलह गारस चीरिय कइ कोडिया होंति ॥ ९३ अट्ठ जब कंवियंगुलि जवेगु करवत्त लीह फलहि इगे । वट्टस्स खंडकरणे पिंडं तं दीहु जाणेह ॥ ९४ महुव वड साल सीसम निंव सिरीसाइ सम चिरावणियं । खयरंजण कीर सवा सेंवलु सुरदारु गुणि पउणं ॥ ९५ ॥ इति ऋकचव्यवहारो समत्तो ॥ गाहा ९ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-तृतीयाध्याय अथ राशिव्यवहारमाहसमभुवि कयऽन्नरासी तप्परिहि खडंस वग्गु उदयगुणे । जं हुइ ते घणहत्था घणहत्थे इक्कि पत्तो य ॥ ९६ तिल-कुद्दव धन्नाणं नवंसु उदओ य रासि परिहीओ। दसमंसु मुग्ग गोहुम वोर कुलत्था इगारसमो ॥ ९७ सिहरु व्व वट्टरासी चउरुदयं तस्स परिहि छत्तीसं । भित्तिसंलग्गअद्धा कूणंतरि पाय परिही य ॥ ९८ बाहिरकूणे पउणं परिही उदओ सएह जाणेह । किं जायइ करसंखा पिहु पिहु रासीण तं भणसु ॥ ९९ दल पाय पउण परिही गुणिवि कमे दु चउ सत्तिहाएण । पुव्वु व्व फलं पच्छा नियनियगुणयारए भायं ॥ १०० ॥ इति राशिव्यवहारसूत्रं सम्मत्तं ॥ गाहा ५॥ अथ च्छायाव्यवहारसूत्रकरणमाह थंभाइ भित्ति च्छाया दंडि मिणवि गुणहु दंडमाणेण । तस्सेव दंडच्छाया हरिज भायं फलेणुदयं ॥ १०१ चउवीसंगुल दंडे च्छाया थंभस्स तिन्नि दंड सवा । दंड सवा अट्ठारस अंगुल किं थंभु उच्चत्तं ॥ १०२ अथ साधनानयनकरणम्समभूमि दु कर वित्थरि दुरेह वट्टस्स मज्झि रविसंकं । पढमंत छाय गब्भे जमुत्तरा अद्वि उदयत्थं ॥ १०३ चउ चउ इग मयराई पण तिय इग कक्कडाइ धुव रासी । सत्तंगुल पह मुँणिजुव फल रूगयजुत्त दिवस गय सेसं ॥ १०४ ॥ इति च्छायाव्यवहारसूत्रं सम्मत्तं ॥ गाथा ४॥ एकत्र गाथा १०४॥ . ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठकुरफेरूविरचितायां. गणितकौमुदीपाट्यां अष्टौ व्यवहाराणि(?राः) समाप्तः(?प्ताः)॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चतुर्थोऽध्यायः।] अथ देसा(शा)धिकारमाहढिल्लिय रायट्ठाणे कजं भूय करण मझमि । जं देसलेहपयडी तं फेरू भणइ चंदसुओ॥१ जसु जसु वंटिवि दिजइ तसु तसु जीवलइ जं भवे दव्वो। सो गुणिवि लद्ध दम्मिहि सव्वाण य जीवलइ भायं ॥२ सेव रायह, [सेव रायह ] पंच जण गए य, तह सव्वह जीवलइ तीस सहस्स एगत्थ रासिण, तिय तेरस पंच दुइ सत्त सहस इय भिन्न रूविण, वय कारणि जा नवसहस ते सव्विवि पावंति । निय निय जिवला कड्डतहं किं किं कसु आवंति ॥ ३ उपक्खइ जं दव्वं हुइ तं पंडिय ! करिज सयगुणियं । चट्टीहरे वि भायं जं लब्भइ तं सई होइ ॥ ४ गामि नयरि देसे जइ नवि लखि पंचास सहसि चट्टी य । सत्तरि सहस उपक्खइ ता तस्स किसा सई होइ ॥ ५ जिसा सई भेइज्जइ जित्तियः धण कड्ड तहि स वट्टिज्जा । जुयलं तंक फुसिवि तह पणभागे होंति विसुवा य ॥ ६ सहसेति अंतिमंका फुसवि कमे लिहसु दु चउरट्ठ गुणा। ते विसुवाई जाणह एवं दस सहसि लक्खे वा ॥ ७ जइ चट्टी मूलधणं दु लक्खं नव सहस पंच इ[? ग] तीसा । चउक सई भेइज्जइ ताम धणं कित्तियं हवइ ॥ ८ (१) अथ देशांकेधणरासि अंतिमंको फुसिज्ज तं बिउण विसुव दसमंसो। दो अंतिमंक फुसिए पर्णसि तह विसुव सयमंसो ॥ ९ रासिस्स अंतिमंके विसुवा विसुवंसगाइ सेस कमा । आइम अंकाणद्धे दम्मा जाणेह वीसंसे ॥ १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गणितसार-चतुर्थाध्याय (२) अथ मुकातयमाहमुक्कातइ जं वरिसे तं गय दिण गुणवि वरिस दिणिभायं । पंचि सहस्सि मुकातइ नवि दिणि चउमासि किं हवइ ॥ ११ जित्ता दम्म मसेलिय दिजहि मासिक्कि ते तिभागूणा । सेस हवंति विसोवा दिवसे दिवसे मुणेयव्वा ॥ १२ (३) अथ धावकगतीलहुगइदिणसंखगुणं लहु-दीहगइस्स अंतरे भायं । लडदिणेहि मिलंती अप्पगई लहुगई दो वि ॥ १३ चउ जोयणीय पच्छा नवम दिणे सत्त जोयणी चलिओ। तस्स बहोडण हेऊ मिलेइ सो कइय दिवसेहिं ॥ १४ पंचाइ दु वडुंता जोयण दिवसेण चल्लए करहो।। जोयण चउदस करही कित्तिय दिवसेहि सो मिलइ ॥ १५ आइ - मज्झंत रासी अंताओ आइ हीण मज्झेण । भाए लडं बिउणं एगजुयं करह दिणमाणं ॥ १६ (४) अथ संवत्सरानयनमाहविक्कमाइ जे वरिस मास चित्ताइ करिवि दिण, छ मुणि नंद लदहिय मास ते वच्छर जुय पुण, नेव निहींण रस वरिस मास दुइ दुइ दिण ऊणय, ताजिय वच्छरु हवइ मास मुहरम माईणय,, ताजिक्कु पुणेवं करिवि पर अहिय मास सोहेवि पुणि । नेव मुंणि छ वरिस दुइ दिण अहिय पंडिय! विक्कमसमउ भणि ॥१७ ॥ इति देशाधिकारकरणसूत्रं सम्मत्तं ॥ (५) अथ वस्त्राधिकारमाह जुज पट्टोलय अतलस साराई पट्ट वत्थ एमाई । कर वासक ताणाई इय सुहमा थूल साडाई ॥ १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित सय हत्थि सयल कप्पडि सीवाणि कर दिवढ एगु कत्तरणे । इग दु तिय कोर धुवणे घट्टइ पटुंसुयाइ कमे ॥ १९ सयल खीमेहिं कप्पड समसंख नवार किंचि हीणहिया। दहली जविणा सव्वे थंभाउ सवाइया उदए ॥ २० । उदयस्स वार विसुवा कमरतले अट्ठ उवरि सव्वेहि । इग थंभि दु थंभे वा इत्तो सिय कप्पडं भणिमो ॥ २१ सव्वाण पडतलोवर जुयद्ध उदए गुणिज्ज जा कमरं । पिट्ठी वित्थर दीहं हय अटुंस हिय जुय वत्थं ॥ २२ मज्झिम डंडस्साओ चउणं खीमस्स कडयलपवेसो । तस्स दिवड्डा परिही बारसमंसूण चउरंसे ॥ २३ चउ कर मज्झिम थंभं सोलस कमरं च परिही बावीसं । तस्स खीमस्स पंडिय ! किं जायइ वत्थपरिमाणं ॥ २४ अट्ठस तह य वट्टे तिउणं कमरं तयद्ध जुय दउरं । इय धर हय सीमाणय थंभाउ तनाव चउगुणियं ॥ २५ तंगोटी इग थंभा हिट्ठवर जुयद्ध उदय गुण वत्थं । थंभा परिहि पणंगुण दुगथंभा मज्झ पड अहिया ॥ २६ खरिगह मंडव उवरं उभयदिसे जि कर तस्स अद्भुदयं । तत्तो पणगुण परिही परिहिदलं उदय गुण वत्थं ॥ २७ भित्तिवलय पड दोन्निवि दुवार पड बेवि उदयदीहगुणा । इय वत्थं अद्धद्धं मंडव सह वार तह भित्तिं ॥ २८ वारिगह खडटुंसा च्छत्तागारा य मंडवागारा । एयाणं च तरक्का हिट्ठवर जुयद्ध उदयगुणा ॥ २९ इग थंभ छगुण परिही दुथंभ परिही य मज्झ पड अहियं । अट्ठस जुत्त उदए थंभाउ तनाव पंचगुणा ॥ ३० मीराण वारिग हुइ चिलंग चउरस दु एग थंभा य। सम उदय चरण कमरं विउण परिहि अट्ठमंस हियं ॥ ३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - चतुर्थाध्याय वल्लहल पत्ती झुंबुक्काकलिय मज्झ झल्लुरिया । एयाण य कप्पडओ तह तइय पुडस्स पुण अहिओ || ३२ छायापड चंदोवय सराइ चाजमणियाइ भित्तिपडा । वित्रु दी गुणिया सुज्झति विणोयचित्त विणा ॥ ३३ दहली जरूइ ताका छज्जय कुत्र्त्राय चरख पडिरूवा । छत्तालंव निसाणा ते टिप्पपमाणि नायव्वा ॥ ३४ उद्देस सियावणियं सइ गजि नावार दम्म सोलसगं । चित्तं गजिक्कि पच्छा दहली जसराइ चेति दुगं ॥ ३५ किमसं गजिक्कि चित्ते सुहमे चउवीस थूलि वीसा य । चत्तारि टंक डोरी इग सुत्तं अरुण नीलं वा ॥ ३६ नावार सरज चम्मं नीलारुण कसिण वत्थ तं पयडं । सुतं नवार सइ गजि निव पउणं इयर सेरद्धं ॥ ३७ ॥ इति वस्त्राधिकारे गाहा २१ सम्मत्ता ॥ अथ जंत्राधिकारकरणसूत्रमाह दिर्णयेरग्गरसे तेरे चैउ [द] सिंदिये जुर्गे ईसरे । इय कुट्ठिहि ख (०) इगाइ इगिगि समहिय लिहि मणहर | १० कैर निहि सोलसैं तह य उहि सु तिहि दिसि ससिहरे । इच्छादलिरू हरिवि कमिण ठवि जंतु मुणहि पर । जा सुन्नु वारिताणुकमिहि जंतरि तव्दिवरीउ धुय । जा सव्वि गेहि विसम हव सम, सम - विसमाइ समंक जय || ३८ ॥ षट् गृहे जंत्र ॥ दाहिण कन्ने गाई सतहि य खडाइ पंचहि य वामे । देते चर्चेतीस सुरे सरे मुँणि उणवीस ठोर पणवीसं ॥ ३९ पणती तिच दुखी तेरहें जिर्णे ती रिक्ख सर्गेवीसं । णु सतरह दसैँ नवं नखे तेविसे पुवाइ जंत छहिं ॥ ४० Jain Educationa International ६५ For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर -फेरू-विरचित लिहि धुराउ पाओलि अद्ध अह मेलि पुणुवरिम। पायओलि इय कमिहिं जाव पा जंतु हवइ इम । मज्झिमडु उवकमिहि चरिम पा जंतु पुणु वि कमि । चउ गिहाइ चउ बुड्डि जंत इय हुइ इग चय कमि ॥ ४१ तिहि निहि रस जुये वर्स करें तेर गौर । ससि मुणि रवि मणु दिसि कल गुण सरें। अधु पउ चहु चहुठे चउसठि गिहि । रूति ? चउँ कमिऽणुकमेगाइ लिहि ॥ ४२ अथ विषमजंत्रानयने ख इगाइ जहिच्छोलिं गिह संखिग जुय सपुव्व पढमोलिं । तत्तो मज्झिम मज्झिम गिहाउ गिह जुत्त सुकमेहिं ॥ ४३ धुरि पंति चरिम अंकाउ जत्थ अहियंकु हवइ तित्थ गिहे । सव्वगिहसंख सोहिवि लिहिज इय विसमगिहजंतं ॥ ४४ जुगै गहे लोयणे हरनयणे इंदियं मुँणि अँटेहिं । ससि रस जंतु इगाइ लिहि, इक्कासी कुठेहि ॥ ४५ ॥ इति जंत्राधिकारो सम्मत्तो॥ गाहा ८॥ अथ प्रकीर्णकाधिकारमाह(१) कुसुमानयनमाह दुगुणा दुगुण जि उव्वरहि, वार वार तिहु जुत्त । अह जइ को कुसुमु न उबरइ, ता धुरि तिन्नि निरुत्त ॥१ इक्कु सुरगिहु चहु दुवारेहि, पत्तेय तहि जक्खु इगु वार तुल्ल तसु मज्झि सुरवइ । धम्मिउ कुसुमाण वि वहल सयल बिंब अद्वद्ध सुठवइ । जं तावंत इगेगु दे सविहि वारि जक्खस्स । सेस वीस जहि उव्वरहि सव्वे कई हुइ तस्स ॥ २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - चतुर्थाध्याय ६७ (२) अथ आम्रानयनमाह जे पत्ता ते अंसि गुणिज्जहि, आइ हीण करि बुडि हरिज्जहि । ला बिउण रूवसंजुत्ता, पंडिय ! ते जण गया निरुत्ता । सेढिय संकलिये फलसंखा, लद्ध विहते हुइ फलसंखा ॥ ३ अंसु अट्ठमु कटक मज्झाउ, गउ अंब तोडण वणिहि भक्खणत्थ आएसि राणय । चउरादि वडूंत छह एण परिहि सव्वेहि आणिय । जं कटक्क थिउ लद्ध तिहि, वीस वीस सव्वेहि । कय जण गय कित्तउ कटकु, कई अंबाणिय तेहि ॥ ४ (३) अथ जमात्रिक वरिसोला नयनमाहगुणक थप्पिविकमिण एगाइ, उवरुप्परि गुणिवि गुणि वार वार इक्किक्कु दीजइ । वरिसोला जे हवइ सव्वि तेइ पढमह भणिज्जहि । तेवि अंक रूवाह विणु, पुव्व परिहि गुणियंति । हुइ ति ति भक्खहि सव्वि जण, पंडिय इउ पभणंति ॥ ५ गय जमाइय पंच सासुरइ, वरसोलाऽणुक्क मिहि दियइ सासु तट्ठिय भरेविणु । तह भुंजिय रहहि जि ते बिउण ति चड पण गुण करेविणु । अंतिम सहि भक्खहि अवरि, भणहि एण बहु खद्ध । सविहि एगु सा भक्खिया, कइ थाकइ कइ खड ॥ ६ (४) अथ वस्त्रफलानयनमाहजे जण गहंति हत्थं ते चउण गुणिज्ज लद्ध वत्थकरे । तं वदी वित्रु कर जण गुप्ण चउण सव्वि जणा ॥ ७ वर वत्थु इगु चउद्दिसि इगेगु करु ठाहिउ तिहुं तिहु जहिं ॥ नव नव करि जण पत्ता कइ जण वरवत्थु कइ हत्था ॥ ८. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर -फेरू-विरचित (५) अथ करभगत्यामाह आइ-मझंतरासी अंताओ आइ हीण मज्झेण । भाए लडं बिउणं एगजुयं करह दिणमाणं ॥ ९ चउ जोयणाइ तिय तिय वडतो निच्च चल्लए करहो । सोलस जोयण करही कित्तिय दिवसेहि सा मिलइ ॥ १० (६) अथ विपरीतोद्देशकमाह सेसूण जुत्त वग्गं गय अहियं तस्स मूलभाय गुणं । गुणयारेण विहत्तं सो अमुणिय रासि नायव्वो ॥ ११ पंचगुण नवविहत्तं तवग्गं नवहियस्स मूलं च । दो हीण तिन्नि सेसं विविरिय उद्देसगो रासी ॥ १२ (७) अथ पत्रचिन्ताज्ञानमाह सत्तरि गुण तिउनेहिं पंचहि इगवीस पनर सत्तेहिं । पिंडेण सउ पणुत्तरु देवि हरिवि मुणह परचित्तं ॥ १३ चिंतिय सुयकरसहियं बिउणिगि जुय पंचगुण सुयासहियं । दह गुण ख पणक रूवं सेस कमे मुणह सुन्न विणा ॥ १४ (८) अथ मर्दितांकज्ञानमाह सयलंकपिंडु सोहिवि रासिस्संताउ सेसपिंडाओ। जं हीणु नवसु पाडइ पूरइ मलियंकु सुन्नु नवं ॥ १५ (९) अथ सदृशांकानयनमाह एगाई य नवंता अट्ट विणा इच्छियंकु नवि गुणिओ। पुव्वंकरासि गुणिया हवंति एगाइ सरिसंका ॥ १६ (१०) अथ गोसंख्यानयनमाह उवराओ जा हिट्टि हुई, ताणुक्कमिहि ठविज । उवरुप्परि सव्वेवि गुणि, गावि एम जाणिज्ज ॥ १७ चहुं दुवारिहिं गावि नीसरिय, गय पाणी पंच सरि सत्त रुक्ख तलि ते बइट्ठिय । आवंति वारिहि नविहि पइसि छच्च वाडिहि निविट्ठिय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार -चतुर्थाध्याय रक्खहि अट्ठ गुवाल तह, सारिच्छिय सहि तेवि । पंडिय ! कित्तिय गावि हुई, तम्मि नयरि सव्वे वि ॥ १८ (११) अथ गोदुगुधवंटनमाह गो जण समभागेणं जणसंख इगाइ ठवि कमु कमसो । जा अंतिम गोअंकं समपण्हे दुडु अंकसमं ॥ १९ इति श्रीचन्द्राङ्गजठक्कुरफेरूविरचिते गणितसारे देशा___धिकाराद्याः चत्वारि(?र.) अधिकारानि(?राः) ___सम्मत्ता ॥ गाहा ६४ ॥ अथ उद्देशपंचगं सूत्रमाहपणमेविणु सिट्टिकर भणामि निष्पत्तिपंचगुद्देसं । धन्निक्खुचुप्पडाणं देसकरग्घाणमाणाणं ॥ १ सव्वत्थ अन्न निप्पइ भूमिविसेसेण अंतरं बहुयं । ढिल्लिय आसिय नरहड वरुण पएसा इमं जाण ॥ २ खित्तस्स दीह-वित्थर विग्गहया गुणिय हवइ भूसंखा । वीस कमि दीह-वित्थरि अह कंविय सट्ठि वीगहओ ॥ ३ अन्नस्स फलं जायइ निप्पन्ने वीस विसुव वीगहओ। सट्ठि मण धन्न कुद्दव चउवीस मउट्ट जाणेह ॥ ४ चउला मण बावीसं तिल सोलस मुग्ग मास अट्ठारं । वीस कंगुणिय चीणय पनरह कूरी सवाईया ॥ ५ सोलस मण कप्पासा चालीस जुवारि दस सणो तह य । इक्खु सवाणिय साहा इत्तो आसाढियं जाण ॥ ६ गोहुव पणयालीसं कलाव मस्सूर चणय बत्तीसं । जव छप्पन मणाइं सरिसम अलसीइ करड दसं ॥ ७ वटुला तोरि कुलत्था चउदस मण होति सव्व कण तुलिया । जीरा धणिया दस मण पर सिकय मज्झि गणियंति ॥ ८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित सव्वे वि वेसवारा हालिम मेत्थी य सग्गवत्ती य । . कोर धन्नाइ सेंक्य सउ दम्म करस्स विग्गहए ॥ ९ ॥ इति धान्योत्पत्तिफलम् ॥ नव खारि पचास मणी इक्खुरसो तस्स पंचमंसु गुलो । सकर छटुंसे हुइ सोलसमंसे य खंडा य ॥ १० तस्स दिवड्डा रव्वा हीणाहिय पुण हवेइ नीरवसा । पुणु इत्तियं नवि चलइ जा भणियं दिट्ठ पत्तेणं ॥ ११ खंडाउ तिभागूणा निवात वरिसोलगा भवे पउणा । अइचुक्ख सेस सीरो इग वारा होइ खंडसमा ॥ १२ ॥ इति इक्षुरसफलम् ॥ तिल-सरिसम करड मणे तिल्लं नव सत्त पंच विसुव कमे । दुद्धि अडंसु नवंसो लूणिउ तत्तो य पउण घिओ ॥ १३ ॥ इति स्नेहफलम् ॥ दसि छालीएहि गावी महिसी तबिउण चहु वयल्लि हलो। चुल्हि पवाणे कुढिया नाविय वलहार महर विणा ॥ १४ "देवइ कन्नचला तह नीली कविलीय गो अदंतीय । विप्प सवासणि य पुणो करं चरं नत्थि एयाणं ॥ १५ टंका वत्तीस हलो तिविह कुढी एग दीवढ दु टकीय । महिसिक्कु गावि अडो वुड्डिय वसहस्स टंको य ॥ १६ इय भणियं उद्देसं हीणाहिय होति चट्टियणुसारे । अड तिहा पा अन्नं तिण चर पा हीण भा सकरं ॥ १७ ॥ इति देशकरफलम् ॥ जे पाई दम्मक्किहि भवंति ते तिउण निच्छए सेई । अन्नेवि विउण पाई टंकइ इक्केवि जाणिज्जा ॥ १८ जि किवि सेर भणियहि दम्मिकिहि, ते वि सवाया मण टंकिक्किहि । मणह भाउ पंचमु पाडिज्जहु, सेस सेर दम्मिक्कि मुणिज्जहु ॥ १९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - चतुर्थाध्याय जितिहि कितिहि दम्मिहि पंडिय ! मणु एगु वक्खरो होइ । तस्सद्धेहिं विसोइहि सेरो इको वियाणाहि ॥ २० गणिमवत्थूण जित्तिहि दम्मेहिं होइ कोडिया इक्का । तावय विसोवेहिं लब्भइ एगा गणिम वत्थू ॥ २१ ॥ इति अर्धस्य फलम् ॥ अथ मानानि वट्टस्स य विक्खंभं तिउणं तह छट्ठमंस जुय परिही । सा पाय वित्थरे गुणि जं जायइ तं जि खित्तफलं ॥ २२ - दर्शनं ( ६ ) परिधि १९ क्षेत्र फलं २८ इति वृत्तं ॥ वट्टाओ चउरंसं बारस विसुवा हवेइ सविसेसं । चउरंसाओ व तह वट्टड पंचमंसूणं ॥ २३ तिक्कोणयाओ वट्टं सङ्गृदुवालस विसोव हुइ खित्तं । वट्टाओ य तिकोणं विसोवगा सत्त अहिया ॥ २४ બીજ ०॥१ ०॥॥१ ०॥२॥ Jain Educationa International ॥ इति क्षेत्रमानम् ॥ विशेष एषां दर्शनमाह गोलस्स य उदयघणं पउणं पडणं व हवइ पाहाणं । परिहिचउत्थं भायं हयपरिहि नवंसजुयखित्तं ॥ २५ । अस्य नवांस १० एवं १०० क्षेत्रफलं ॥ घण कंविय इक्केणं ढिल्लिय संभूय पाहणं सव्वं । पन्नासमणं जायइ तुलिओ चउवीससय तु ॥ २६ For Personal and Private Use Only ०|२०|| न्यास ६ ) लब्धं गोलकफलं १२० क्षेत्रफलं १००ss६, घनि २१६ पण १६२ पुणु पउणं १२० फलं । परिहि ४ ||| गुणित १९ जात C Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित वंसी अडयालीसं सहि ममाणीय कसिणु बासठ्ठी । जज्जावर कन्नाणय उणवन्न कुडुक्कुडो सट्ठी ॥ २७ मट्टी मण पणवीसं तुसंन्न मण अट्ठबारस वर्णनं । दह मण तिल्ल घयं तह सोलस मण लवण उद्देसं ॥ २८ राजु इगु तिजणसहिओ वारस गज भित्ति पाहणे चिणइ। चउदससयाइं इट्टा उदेस जल गग्गरी तीसा ॥ २९ सगवीस मणा हक्कं नव चुन्नं बिउणु खोरु इक्कि गजे । पाहाण भित्ति चिजइ नव मणइ इमेव जाणेह ॥ ३० लेवे केवण चुन्नं पउण मणं पायसेर सण सहियं । तइयंस खोर जुत्तं तलवट्टे अडु जलठाणे ॥ ३१ ॥। छाणय मण चालीसं तह कक्कर सहि पक्क हुइ चुन्न । रक्ख पवाहिय सट्ठी अरक्ख चालीस कलिया य ॥ ३२ उद्देस पंचगमिमं चंदासुय फेरुणा अओ भणियं । जह देसकरुप्पत्ती चट्टिय समए मुणिजेइ ॥ ३३ ॥ इति उद्देसपंचगं सम्मत्तं ॥ ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठारफेरूविरचित गणितसार कौमुदीपाट्यां सूत्रं समाप्तः (प्तम्) ॥ ॥ सर्वे वस्तुबंध तथा गाथा मिश्रित ३११ ॥ लिखितं चैत्र सुदि ५ संवत् १४०४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-बीजक सूत्र सं० गाथा तथा वस्तुबंध गणित ३११ । गा० १५ मूल प्रबन्ध स्थापना। गा० २ भिन्न वर्गस्य गणना १३ गा० ७८ परिकर्माणि पाटी ... २५ , १भिन्न वर्गमूल गपाना १४ गा० ५ संकलित उत्पत्ति विधि १ " २भिन्न घनस्य गणना १५ गाह ६ विमल कलित गणना २ , ६ गुणाकार मेद २ गणना ३ , १भिन्न घन मूल गणना १६ , ९ त्रैराशिक गणना , १ भागाहर गणनोत्पत्ति ४ , ३ वर्गसं० उत्पत्ति गणना ५ ६पंच राशिक गणना १८ , २वर्गमूल सं०उत्पत्तिगणना १ सप्त राशिक गणना १९ , ४ घन उत्पत्ति गणना ७ . १ नव राशिक गणना २० , ३ घनमूलोत्पत्ति गणना ८ १ एकादश राशिक गणना २१ , ४ अभिन्न परिक्रम गणना ९ ,, ५व्यस्त त्रैराशिक गणना २२ , ३भिन्न संकलित गणना १० , ४क्रय विक्रय मेद गणना २३ , २ भिन्न गुणाकार गणना ११ , २ भांड प्रतिभांड गणना २४ " २ भिन्न भागाहर गणना १२ , २ जीव विक्रय गणना २५ ॥ इति गाथा ७८ परिकोणि २५ सूत्रस्य बीजकं यथा शुभमस्तु॥ अपरभाग जाति ८ अष्ट नामानि . सूत्र गाथा० १७ १ कलासवर्ननु गाथा २ प्रभागजाति गाथा । ३ भाग भागजाति गा० ४ भागानुबंधाजा० ५ भाग प्रवाह गणना ६ भाग मात जाति गा० ७ वल्ली सवर्णनु गाथा ८ स्थंभोइस जाति गाथा २ दुतीक सेढी व्यवहार गाथा ९ गा० २ सेढी व्यवहार गणित १ पानयन , १ नष्टोत्तरानयन , १ नष्टगच्छानयन , २ संकलितैक्यानयन , १ वग्गैकघनानयन , १संकलित वर्ग धनक० ७ orarms aamanar अपर व्यवहार ८ गणना। सूत्र गा० १०४ १ प्रथम मिश्रक व्यवहार गा०२५ गा० २ मिश्रक गणना प्रथ. १ , २ भाव्यक गणना दुती २ , २एगपत्री करण सूत्र ३ ४ प्रक्षेपक ४सम विसम २ सुवण्णी व्यव० ४ सुवर्ण भिन्नो ५नष्ट सुवर्ण वर्ण अष्टम ८ orrmw59 v ३ क्षेत्र व्यवहार सूत्र गाथा १९ १समचउरस २ दीर्घ चउरस ३ एकादि सालंब ४ त्रिकोण क्षेत्र ५पंचकोण क्षेत्र ६ त्रिकोण विकट ७ वृत्तमंडल ८धणुहाकार ९ गजदंताकार १० वज्राकार ११ मृदंगाकार १२ नानाविधि - -- १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर -फेरू-विरचित गणितसार-बीजक ४ खात व्यवहार गाथा १५ । ६क्रकच व्यवहार गाथा ९ गा० ४ खातनानाविधि गणन १ ० काष्ठ दीर्घ वि० " ३ कूपस्य फलानयन २ करवत्ती छेद " ६ पाषाण फलानयन नानाकाष्ठ ,,. २ पाषाण तोल्य गणन ४ एता गाथा ९ . 1 m ५ चिति व्यवहार गाथा १९ गा० १ मूलप्रबंध गा० । ,, ४ भित्ति ईटपाषाण , ३ गोमट चिणण ग० , २ पायसेवभित्ति २ मुनारा गणित संख्या २ ताक गणना सुद्धि , १ सोपान गणना , १ पुलबंधनग० ". १ कूप संगणना , १ वापीसंगणना ७ रासि व्यवहार गाथा ५ अन्न रासि दीर्घोदय विस्तर गणितसारि - - - ८ छाया व्यवहार गाथा ४ ० छाया साधना ० दिरसाधना ॥ इति अष्ट व्यवहार सूत्र गाथा १०४॥ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित वास्तु सार। [प्रथमं गृहलक्षणप्रकरणम् ।] _ नमो जिनाय। सयलसुरासुरविदं दंसण-वन्नाणुगाइ नमिऊणं । पयरण ति वत्थुसारं जहुत्त संखेवि भणिमो हैं ॥ १ . गेहे पनरहिय सयं, बिंबपरिक्खस्स गाह तीसाइं । पासाइ सहि भणियं, पणहिय सय दुन्नि सव्वेवं ॥ २॥ दारं ॥ वत्तीसंगुल भूमी खणेवि पूरिज पुणवि सा गत्ता । तेणेव मैट्टिएणं हीणाहिय सम फलं नेयं ॥ ३ . अहव तं भरिय नीरे चरणसयं गच्छमाण जा सुसइ । ति-दु-इग अंगुल कमि धरै अहं मज्झिम उत्तमा जाण ॥ ४ सिय विप्प, अरुण खत्तिय, पीयल वइसाण, कसिण सुदाण । मट्टियवन्नपमाणे सुहया विवरीय असुहयरी ॥ ५ ॥ इति भूमिपरीक्षा ॥ समभूमि दुकर वित्थरि दु रहचक्कस्स मज्झि रवि १२ संकं । पढमंत छाय गम्भे जमुत्तरा अद्धि उदयत्थं ॥ ६ पाठान्तरे-१ वण्णाणुगं पणमिऊणं । २ गेहाइ वत्थुसारं संखेवेणं भणिस्सामि। ३.इगवन्नसयं च गिहे बिंबपरिक्खस्स गाह तेवन्ना । तह सत्तरि पासाए दुगसय चउहुत्तरा सव्वे ॥२। ४ चउवीसंगुल। ५ मट्टियाए । ६ फला नेया। ७ अह सा भरियजलेण य। ८ भूमी। ९ अहम । १० सिय विप्पि अरुण खत्तिणि पीय वइसी अ कसिण सुद्दी अ । मट्टियवण्णपमाणा भूमी नियनियवण्ण सुक्खयरी ॥ ११ दुरेह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ठकुर फेरू-विरचित ॥ दिगुसाधनाचक्रं ॥ समभूमी तिठ्ठीए वटुंति छ अट्ठ कोण कक्कडए। कूण दु दिसि सतरंगुल मज्झि तिरिय हत्थु चउरंसे ॥ ७ चउरंसिक्किक्कि दिसे बारस भागाउ पंचे भा मझे । कूणेहिं सड्ड तिय तिय एवं हुइ सुद्ध अटुंसं ॥ ८ ॥ इति भूमिसाधना ॥ चउरंस अदिसिमोहा अवम्मियाऽफुट्ट तिदिणवीयरुहो । अक्कल्लर भूमिसुहा पुव्वेसाणुत्तरंबुवहाँ ॥ ९ वम्मइणी वाहिकरा रोरूसर फुट्टभूमि मच्चुयरी । ससल्ला बहुदुक्खा तं वुच्छं सल्लनाणमिमं ॥ १० व क च त्त ए है स प य इय नव वन्नी कमेण लिहिऊणं । नव कुट्ठा भूमिकया पुवाइ मुणह पन्हेणे ॥ ११ व प्पन्हे नरसल्लं सडकरे मिचुकारगं पुव्वे । क प्पन्हे खरसल्लं अग्गि दुहत्थेहि निवदण्डं ॥ १२ दाहिण च प्पण्हेणं नरसल्लं कडितलंमि मिच्चुकरं । त पन्हिसाण नेरइ डिंभाण य मिच्चु सडकरे ॥ १३ ए पन्हे अवरदिसे सिसुसल्लं सङ्घहत्थि परदेसं। वायवि ह पन्हि चउकरि अंगारा मित्तनासयरा ॥ १४ १ अट्ठ। २त्तरंगुल। ३ भाग पण। ४ इय जायइ। ५ दिण तिग बीयप्पसवा चउरंसाऽवाम्मिणी अफुट्टा य । ६ भू सुहया । ७°बुबुहा । ८ वम्मइणी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ रोरकरी। अइफुट्टा मिचुकरी दुक्खकरी तह य ससल्ला ॥ ९ हसपजा। १० वण्णा। ११ लिहियव्वा । १२ पुवाइ दिसासु तहा भूमि काऊण नवभाए ॥ ११॥ अहिमंतिऊण खडियं विहिपुव्वं कन्नाया करे दाओ। आणाविजइ पण्हं पण्हाइम अक्खरे सल्लं ॥ १२॥ १३ अग्गीए दुकरि । १४ जामे। १५ तप्पण्हे निरईए सहकरे साणु सल्ल सिसुहाणी ॥ १४॥ १६ पच्छिम दिसि ए पण्हे सिसुसलं कर दुगम्मि परएसं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बास्तुसार- प्रथमप्रकरण स पन्हि उत्तरेण ये दये वरस कैडीइ रोरकरं । पपहे गोसलं सर्केरीसाणि धणनासं ॥ १५ य पन्हि मज्झकुट्ठे केसं छारं कवाल अइसल्ला | वच्छत्थलप्पमाणा मिच्चुकरा होंति नायव्व ॥ १६ इय एवमाइ अनिवि जे पुव्वगयाई होंति सल्लाई । सव्य सोहवि वच्छबले कीरए गेहं ॥ १७ तं जहा । वच्छ्चक्रं कन्ना तिनि पुढे धणाइ तिय दाहिणे भवे वच्छो । पच्छिम मीणाइ तियं उत्तर मिहुणाई तिय पेयं ॥ १८ गिभूमि सतभायें पण ५ दह १० तिहि १५ तीस ३० तिहि १५ दर्स १० द्ध ५ कमे । इय दिणसंखं चउद्दिसि सिरि पुंछ समंकि वच्छठिई ॥ १९ अग्गिमओ आयुहरो धणक्खयं कुणइ पच्छिमो वच्छो । वाम य दाहिणो विय सुहावहो होई' नायो || २० धण मीण मिहुण कन्ने रवि ठिय गेहं न कीरए कैहवि । तुल विच्छिय मेस विसे पुव्वावर सेस सेस दिसे ॥ २१ ॥ इति वत्सं ॥ सोय १ धण २ मिच्चु ३ हाणी ४ अत्थं ५ सुन्नं च ६ कलह ७ उव्वसियं ८ । पूया ९ संपई १० अग्गी ११ सुह च १२ चित्ताइ मासफलं ॥ २२ ॥ इति गृहारंभे मासफलाफलम् ॥ ७७ १ उत्तरदिसि सप्पण्हे । २ दिय । ३ कडिम्मि । ४ करे धणविणासमीसाणे । ५ जपण्हे मज्झगिहे अइच्छार कवाल केस बहुसला । वच्छच उलप्पमाणा पाएण य हुंति मिशुकरा ॥ १७ ॥ Jain Educationa International ६ कन्नाइतिगे पुग्वे वच्छो तहा दाहिणे घणाइ तिगे । पच्छिम दिसि मीण तिगे मिहुण तिगे उत्तरे हवइ ॥ १९ ॥ भाए । ८ दहक्खकमा । ९ संखा चउदिसि । १० आउहरो । ११ हवइ । १२ धण मीण मिहुण कण्णा संकंतीए न कीरए गेहं । १३ संपई । For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित कन्या तुल ।१०१५ आ इसाण पूर्व | आग्नेय धननाश मृत्यू उत्तर य नृपदण्ड दक्षिण F मिथुन कर्क सिंह | १०/१५/३०/१५/१० दक्षिण || १०/१५३०/१५/१० | धन मकर कुंभ स मृत्युकर | दरिद्र । मृत्यू वायव्य पश्चिम नैऋत्य काको | ०६ | 5:/०४/ मित्तनास परदेश डिम्भमृत्यू वइसाहे मग्गसिरे सावणि फग्गुणि मयंतरे पोसे । सियपक्खे सुहदीहे' कए गिहे हवइ सुह रिडी ॥ २३ सुहलग्गे चंदबले खणिज नीमा अहोमुहे रिक्खे । उड्डमुहे नक्खत्ते चिणिज्ज सुहलग्गि चंदबले ॥ २४ सवणऽद्द पुस्सु रोहिणि ति उत्तरा सय धणि? उड्डमुहा । भरणिऽसलेस ति पुव्वा मू-म-वि कित्ती अहोवयणा ॥ २५ पुव्वुत्तर नींवैतले घिय अक्खय रयण पंचगं ठवियं । सिलानिवसं कीरइ सिप्पीण समाणणापुव्वं ॥ २६ लग्नं यथाभिगुलग्गे बुहदसमे दिणयरु लाहे ११ विहप्पई किंदे श७१। जइ गिहनींवारंभ ता वरिससयाउँ तम्मि गिहं ॥ २७ दसम चउत्थे गुरु-ससि-सणि कुज-लाहे ११ ( वरिस ताम असी । इग ति चउ छ मुणि. १।३।४।६।७ कमसो गुरु-सणि-सिये-रवि-बुहंमि सयं ॥ २८ १ दिवसे । २ नीमीउ। ३ नीम । ४ ठविउं। ५ बिहप्फई। ६ नीमारंमे । ७ सयाउयं हवई। ८ अलच्छि वरिस असी। ९भिगु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण सुक्कुदए रवितइए मंगलि छठेसु पंचमे जीवे । इय लग्गकए गेहे घेण-कणजुय दुसय वरिसाऊ ॥ २९ सुगिहत्थो ससिलग्गे गुरुकिंदे बलजुएसु विद्धिकरौं । कूरट्ठम अइअसुहा सोमा मज्झिम गिहारंभे ॥ ३० इक्केवि गिहे निच्छइ परगेहि परंसि सत्त- वारसमे । गिहसामि वण्णनाहे अवले परहत्थि हुईं गेहं ॥ ३१ बंभण सुक्क-बिहप्फइ रवि-कुज खत्तिय मँयंकु वइसो य । बुहु सुदु मिच्छ सणि तमु गिहसामिय वन्न जाणेह ॥ ३२ कूरा ति-छ-गारसगा सोमा किंदे तिकोणगे सुहया । १४११०।९।५ जइ अट्ठमो य कूरो अवस्स गिहसामि मारेइ ॥ ३३ ॥ इति गृहनीवनिवेशलग्नम् ॥ चित्तऽणुराह ति उत्तर रेवइ-मिय-रोहिणी य विद्धिकरा । मूलऽहा असलेसा जिट्ठा पुत्तं विणासेइ ॥ ३४ भैरणी महा ति पुव्वा गिहसामिहया विसाह तियनासं । कित्तिय अग्गिभयंकर गिहप्पवेसे य ठिइ समए ॥ ३५ तिहि रित्त ४।९।१४ वार कुज-रवि चरलग्ग विरुद्ध जोय दिणचंदं । वजिज गिहपवेसे सेसा तिहि-वार-लग्ग सुहा ॥ ३६ किंदैट्ठमंति कूरा १४७।१०।८।१२ असुहा ति छगारहा ३६।११ सुहा भणिया। सव्वे अट्ठम असुहा इय लग्गं गिहपवेसस्स ॥ ३७ १। २ दोवरिससयाउयं रिद्धी। ३ बलजुओ। ४ करो। ५गहे। ६ होइ गिह । ७ मयंअ वइसो अ। ८ वण्ण नाह इमे। ९ सयल सुहजोयलग्गे नीमारंभे य गिहपवेसे अ। १० पुव्वतिगं मह भरणी गिहसामिवहं विसाहत्थीनासं। ११ समत्ते। १२ किंदु दु अडत कूरा। १३ किंदुतिकोणतिलाहे सुहया सोमा समा सेसे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित सूरु गिहत्थो गिहिणी चंदु धणं सुक्कु सुरगुरू सुक्खं । जो सबलु तस्स भावं सबलं हुइ नत्थि संदेहो ॥ ३८ ॥ इति गृहप्रवेशलग्नं ॥ राया १ सेणाहिवई २ अमच्च ३ जुवराय ४ अणुज ५ रण्णीणं ६ । नैमित्तिय ७ विजाण य ८ उवरोहिये ९ पंच पंच गिहा ॥ ३९ एगसयं अट्ठहियं चउसट्ठी सट्टि असीअ चालीसं । तीसं चालीस तिगे कमेण करसंख वित्थारो ॥ ४० चउ छच्च अट्ठ तिय तिय अट्ठ छ तियगेसु अंसजुयदीहे । सेसगिहाण य माणं वित्थाराओ मुणेयवं ॥ ४१ अड छच्च चउ छ चउ छह चउ तिय गेहीण हीण सुकमेण । वित्थाराओ सेसा सेसगिहा हुंति एयाणं ॥ ४२ अस्यार्थ यंत्रेणाहहस्त संख्या राजा सेनाधिप अमात्य युवराज अनुज राज्ञीनां नैमित्तिक वैद्य उपरो विस्तर १०८ ६४ ६० २ दीर्घ १३५ ७४|| s ६७॥ १०॥ ५३॥ ३३॥ ४६॥ ४६॥४६॥s । ५६ ७४ ३६ / २४ । ३६ । ३६ ३६ दीर्घ १२५ ६७॥ ६३ । ९८॥ ४८ २७ ४२ ४२ ४२ 13 | विस्तर ९२ ५२ । ५२ । ६८ ३२ १८ । ३२ । ३२ ३२ ६०॥ ९०॥४२॥5/ २०। । ३७ ३७७ ३७15 ४८ ६२ । २८ । १२ । २८ । २८ २८ ५४ । ८२॥ ३७७ १३॥ ३२॥ ३२॥ ३२॥ ४४ । ५६ । २४ | २४.२४ ४९॥ ७॥ ३२६॥ २८ २८ २८ वन्न चउक्करर्स गिहं बत्तीस कराइं वित्थरं भणियं । . चउ चउ हीणं सुकमे जा खोडस अंतजाईणं ॥ ४३ ४० ४० ४०। ४० ४ ४६ ०५ ५३॥5 ६ ४० ५ ४६॥ २४ १ सूर। २ चंदो। ३ भावो सबलु भवे। ४ पुरोहियाण इह पंच गिहा । ५ छ छ छ भाग जुत्त वित्थरओ। ६ सेसगिहाण य कमसो माणं दीहत्तणे नेयं । ७ अड छह चउ छह चउ छह चउ चउ चउ हीणया कमेणेव । मूलगिह वित्थराओ सेसाण गिहाण वित्थारा ॥ ४२ ॥ ८ गिहेसु। ९ वित्थरो भणिओ। १० हीणो कमसो। ११ सोलस । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण दसमंस-अट्ठमंसं खडंस चउरंस वित्थरस्सहिये। दीहं सव्वगिहस्स य दिय-खत्तिय-वइस-सुद्दाणं ॥ ४४ हस्त विप्र क्षत्रिय वैश्य शूद्र अंत्यज अस्यार्थ पुनः यन्त्रेणाह विस्तर ३२ २८ २४ । २० दीर्घ ३५७४/३२॥ २८ | २५ १६ अंगुल सत्तहिय सयं उदए गब्भे य होइ पणसीई । गणियाणुसार दीहे सुगिहालिंदरस इय माणं ॥ ४५॥ पव्वंगुलि चउवीसिहिं वैत्तीसि करंगुलेहि कंवीया । अट्ठि जवि तिरिय गेहं पव्वंगुलु इकु जाणेह ॥ ४६ पासाय-रायमंदिर-तडाग-पायार-वत्थभूमाई । इय कंबीहि गणिजहि गिहसामिकरेहिं गिहवत्थू ॥ ४७ गिहसामिसुहत्थेणं नीम्व विणा मिणसु वित्थर-दीहं । गुणि अद्वेहि विहत्तं सेस धयाई भवे आया ॥ ४८ धय १धूम २ सीह ३ सोणे ४ विस ५खर६ गय७ धंखि ८एइअट्ठाया। पुव्वाइ धयाइ ठिई फलं च नामाणुसारेण ॥ ४९ विप्पे धयाउ दिज्जा खत्तिय सीहाउ वइसि वसहाओ।" सुद्दाणे कुंजराया धंखायु मुणीण दायव्वा ॥ ५० धय गय सीहं दिज्जा संते ठाणे धओ य सव्वत्थ । गय पंचाइणे वसहा खेडय तह कबडाईसु ॥ ५१ १गिहाण य । २ इकिक गइंदं इअ परिमाणं । । इसके बाद मुद्रित में निम्नोक्त गाथाएं हैं-जं दीहवित्वराई भणियं तं सयलमूलगिहमाणं । सेसमलिंदं जाणह जहत्थियं जं बहीकम्मं ॥ ४६॥ ओवरय साल कक्खो वराईयं मूलगिहमिणं सव्वं । - अह मूलसालमज्झे जं वइ तं च मूलगिहं ॥४७॥ ३ छत्तीसिं। ४ कंबिआ। ५ अट्ठहिं जव मज्झेहिं । ६ भूमीय। ७ गणिजइ । ८ गिहसामिणो करेणं भित्ति विणा। ९ साणा। १० अट्ठ आय इमे। ११ खित्ते । १२ सुद्दे अ कुंजराओ धंखाउ मुणीण नायव्यं । १३ पंचाणण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V ठकुर- फेरू - विरचित वावी - कूव - तडागे सयणे अ गओ अ आसणे सीहो । वसहो भोयणपत्ते छत्तालंबे धओ सिट्ठी ॥ ५२ विस- कुंजर सीहाया नयरे पासाय - सव्वगेहेसु । साणं मिच्छाईणं' धंखं कारु गिहाई ॥ ५३ धूमं रसोइठाणे तहेव गेहेसु वह्निजीवाणं । राहु वेसाण गिहे धय-गय- सीहाउ रायहरे ॥ ५४ दीहं वित्थरिगुणियं जं हुइ तं मूलरासि नायव्वं । बसुँ ८ हय रिक्ख २७ विहत्तं, गिहनक्खत्तं भवे सेसं ॥ ५५ गिरिक्खं वेय४हयं नवभाए लद्ध भुत्तरासि धुवं । गिहरासि सामिरासी छक्कट्ठे दुवार (ल) सं असुहं ॥ ५६ रिक्खं वसु ८ सेस वयं तं च तिहा जक्ख- रक्खस- पिसायं । अयं काउ कमेणं हीणाहिय सम मुणेयव्वं ॥ ५७ जक्ख aओ विकिरो धणनासं कुणइ रक्खस वओ य । मज्झिम वओ पिसाओ तहय जमंसं च वज्जिज्जा ॥ ५८ मूलरासिस्स (मूलंस्स रासि ? ) अंक गिहनामक्खर वयंकसंजुतं । तिये ३ सेस मुहु अंसा इंद-जमा तहय रायाणो ॥ ५९ गिर्हरिक्ख सामिरिक्खं पिंडं नव सेस छ चउ नव सुहया । मज्झिम दो पढमट्ठा ति पंच सत्ताऽहमा तारा ॥ ६० जह कन्ना वरपीई गणिजए तह य सामिय गिहाये । जोणि- गणे-रासि-सव्वं तं जाणह जोय (इ) साओ य ॥ ६१ १ मिच्छाईसुं । २ तं नेयं । ३ अट्ठ गुण उडु भक्तं । ४ हवइ । ५ गिहरिक्खं चउगुणिअं नवभत्तं लगु भुत्तरासीओ । ६ सडट्ठदु । ७ वसुभन्त रिक्वसेसं वयं । ८ आउ अंकाउ कमसो । ९ तिवित्तु सेस असा इंदंस- जमंसरायंसा । १० गेहभसामिभपिंडं नवभत्तं सेस छ चउ नव सुहया । मज्झिम दुग इग अट्ठा ति पंच सतहमा तारा ॥ ६० ॥। ११ गिहाण । १२ जोणि- गण - रासि पमुहा नाडी वेहो य गणियो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार प्रथमप्रकरण + मुद्रितपुस्तके एतदन्तरं निम्नलिखिता गाथा लभ्यन्ते ओवरय नाम साला जेणेग दुसालु भण्णए गेहं । गइ नामं च अलिंदो इग दु तिऽलिंदोइ पटसालो | ६५ पटसाल बार दुहु दिसि जालिय भित्तीहिं मंडवो हवइ । पिट्ठी दाहिण वामे अलिंद नामेहिं गुंजारी ॥ ६६ जालिय नामं मूसा थंभय नामं च हवइ खडदारं । भार पट्टो य तिरिओ पीढ कडी धरण एगट्ठा ॥ ६७ ओवरय-पसाला - पर्जतं मूलगेह नायव्वं । एअस्स चेत्र गणियं रंधण गेहाड़ गिहभूसा ।। ६८ ओवर- अलिंद-गई गुजारि - भित्तीण पट्टथंभाण । जालिय मंडवाण य भेएण गिहा उवजंति ।। ६९ चउदस गुरु पत्थारे लगुरुभेएहिं सालमाईणि । जायंति सव्व गेहा सोल सहस्स ति सय चुलसीआ ।। ७० ततो य जिं किवि संपइ व ंति धुवाइ संतणाईणि । ताणं चिय नामाई लक्खणचिण्हाई बुच्छामि ॥ ७१ ध्रुव १ धन्न २ जयं ३ नंं ४ खर ५ कंत ६ मणोरमं ७ सुमुह ८ दुमुहं ९ । कूर १० सुपक्ख ११ धणद १२ खय १३ अक्कंद १४ विउल १५ विजय १६ गिही ॥ ६२ षोडश गृहम् Ssss घुय 1555 धन्य 5155 जय . ।। ऽ ऽ नंद 5515 खर 1 515 कंत S 11s मनोरम ।।। ऽ सुमुह Sss | दुमुह 15 51 क्रूर S 151 सुपक्ष ॥ ऽ । धणद SS 11 क्खय | | 5 || अकंद |5|| विउल ।।।। विजय १ चत्तारि गुरुठविडं | Jain Educationa International 1 २ जाव । वि च गुराइ सुकमे लहुओ गुरु हिट्ठि सेस उवर समा । ऊणेहिं गुरु एवं पुणो पुणो जोम सव्वलहू ॥ ६३ For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ठकुर-फेरू विरचित तं धुव-धन्नाईणं पुव्वाइ लहूहिं साल नायव्वा । गुरुठाणि मुणह सुन्नं नामसमं भाव जाणेह ॥ ६४ + ॥ इति षोडशगृहम् ॥ षोडशगृहकोष्ठकानन्तरं मुद्रितपुस्तके एता निम्नगतागाथा लभ्यन्ते। संतण १. संतिद २ वड्डमाणं ३ कुक्कुडा ४ सत्थियं ५ च हंसं ६ च । वद्धण ७ कब्बुर ८ संता ९ हरिसण १० विउला ११ करालं १२ च ॥७५ वित्तं १३ चित्तं १४ धनं १५ कालदंडं १६ तहेव बंधूदं १७ । पुत्तद १८ सव्वंगा १९ तह वीसइमं कालचकं २० [च] ॥ ७६ तिपुरं २१ सुंदर २२ नीला २३ कुडिलं २४ सासय २५य सत्थदा२६सील २७। कुट्टर २८ सोम २९ सुभद्दा ३० तह भद्दमाणं ३१ च कूरकं ३२ ॥ ७७ सीहिर ३३ य सव्वकामय ३४ पुट्ठिद ३५ तह कित्तिनासणा ३६ नामा। सिणगार ३७ सिरीवासा ३८ सिरीसोभ ३९ तह कित्तिसोहणया ४०॥ ७८ जुगसीहर ४१ बहुलाहा ४२ लच्छिनिवासं ४३ च कुविय ४४ उजोया ४५ । बहुतेयं ४६ च सुतेयं ४७ कलहावह ४८ तह विलासा ४९ य॥ ७९ बहू निवासं ५० पुहिद ५१ कोहसन्निहं ५२ महंत ५३ महिता य ५४ । दुक्खं ५५ च कुलच्छेयं ५६ पयाववद्धण ५७ य दिव्या ५८ य ॥ ८० बहुदुक्ख ५९ कंठच्छेयण ६० जंगम ६१ तह सीहनाय ६२ हत्थीजं ६३ । कंटक ६४ इइ नामाई लक्खणभेयं अओ वुच्छं ॥ ८१ केवल ओवरय दुगं संतण नामं मुह तं गेहं । तस्सेव मज्झि पट्ट मुहेगलिंदं च सत्थियगं ॥ ८२ सत्थिय गेहस्सग्गे अलिंदु वीओ अतं भवे संतं । . संते गुजारि दाहिण थंभ सहिय तं हवइ वित्तं ॥ ८३ वित्तगिहे वामदिसे जइ हवइ गुजारि ताव बंधूदं । गुजारि पिट्टि दाहिण पुरओ दु अलिंद तं तिपुरं ॥ ८४ पिट्ठी दाहिण वामे इगेग गुंजारि पुरउ दु अलिंदा । तं सासयं आवासं सव्वाण जणाण संतिकरं ॥ ८५ १ भित्ति। २ हवइ फल मेसिं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण दाहिण वाम इगेगं अलिंद जुअलस्स मंडवं पुरओ। ओवरय मज्झि थंभो तस्स य नामं हवइ सोमं ॥ ८६ पुरओ अलिंद तियगं तिदिसिं इक्किक्क हवइ गुंजारी । थंभय पट्ट समेयं सीधर नामं च तं गेहं ॥ ८७ गुंजारि जुअल तिहुं दिसि दुलिंद मुहे य थंभ परिकलियं । मंडव जालिय सहिया सिरिसिंगारं तयं विति ॥ ८८ तिनि अलिंदा पुरओ तस्सग्गे भदु सेस पुव्वु व्व । तं नाम जुग्गसीधर बहुमंगल रिद्धि-आवासं ॥ ८९ दु अलिंद-मंडवं तह जालिय पिढेग दाहिणे दु गई। भित्तितरि थंभ जुआ उज्जोयं नाम धणनिलयं ॥ ९० उजोअगेह पच्छइ दाहिणए दुगइ भित्ति अंतरए । जइ हुंति दो भमंती विलासनामं हवइ गेहं ॥ ९१ ति अलिंद मुहस्सग्गे मंडवयं सेसं विलासु व्य । . तं गेहं च महंतं कुणइ महड्डिं वसंताणं ॥ ९२ मुहि ति अलिंद समंडव जालिय तिदिसेहि दु दु य गुंजारी । मज्झि वलय गय भित्ती जालिय य पयाववद्धणयं ॥ ९३ पयाववद्धणए जइ थंभय ता हवइ जंगमं सुजसं । इअ सोलस गेहाई सव्वाइं उत्तरमुहाई ॥ ९४ एयाई चिय पुव्वा दाहिण पच्छिम मुहेण बारेण । नामंतरेण अन्नाई तिनि मिलियाणि चउसहि ॥ ९५ संतणमुत्तरबारं तं चिय पुव्वमुह संतदं भणियं । . जम्ममुह वड्डमाणं अवरमुहं कुकुडं तहन्नेसु ॥ ९६ अग्गे अलिंद तियगं इक्किकं वाम दाहिणोवरयं । थंभजुयं च दुसालं तस्स य नामं हवइ सूरं ॥ ९७ वयणे य चउ अलिंदा उभयदिसे इक्कु इक्कु ओवरओ । नामेण वासवं तं जुगअंतं जाव वसइ धुवं ॥ ९८ मुहि ति अलिंद दु पच्छइ दाहिण वामे अ हवइ इक्किक्कं । तं गिह नामं वीयं हियच्छियं चउसु वन्नाणं ॥ ९९ दो पच्छइ दो पुरओ अलिंद तह दाहिणे हवइ इको । कालक्खं तं गेहं अकालि दंडं कुणइ नूणं ॥ १०० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ठक्कुर - फेरू - विरचित अलं जुअलं च वामदाहिणए । अलिंद तिनि वय एगं पिट्ठिदिसा बुद्धी बुद्धि वणयं ॥ १०१ दु अलिंद चउदिसेहिं सुव्वय नामं च सव्वसिद्धिकरं । पुरओ तिनि अलिदा तिदिसि दुगं तं च पासायं ॥ १०२ art अलिंदा पुरओ पिट्ठि तिगं तं गिहं दुवेहक्खं । इह सूराई गेहा अडवि नियनामसरिसफला ।। १०३ विमलाइ सुंदराई हंसाइ अलंकियाह पभवाई । पम्मो सिरिभवाई चूडामणि कलसमाई य ।। १०४ मासु सव्वे सोलस सोलस हवंति हि तत्तो । इकिकाओ चर चर दिसिमेअ अलिंद भेएहिं ॥ १०५ तिअलोयसुंदराई चउसडि गिहाई हुंति रायाणो । ते पुण अवट्ट संपइ मिच्छाण च रजभावेण ।। १०६ पुव्वैदिसे अत्थाणं अग्गीय रसोइ दाहिणे सयणं । tos नीहारठिई भोयठिइ पच्छिमे भणियं ॥ ६५ वायव्वे सव्वायु है कोसुत्तर धम्मठाणु ईसाणे । पुव्वाइविनिद्देसो मूलगिहद्दारविक्खाओ ॥ ६६ पुव्वेर्ण विजयवारं जमवारं दाहिणेण नायव्वं । अवरेण मयरवारं कुवेरवारुत्तरे पासे ॥ ६७ नामसमं फलमेयं वारं न कयावि दाहिणे कुज्जा । कारणवसाउ जइ हुइ चउदिसि भागट्ठ कायव्वा ॥ ६८ सुहवारु अंसमझे चहिं दिसेहिं पि अट्टभागाओ । चउ तिय १ दुन्नि छ २ पण तिय ३ तिय पण ४ पुव्वाइ सुकम्मेणं ॥६९ वाराउ गिहपवेसं सोवाण करिज्ज सिट्टिमग्गेणं । पयठाणं सूरमुहं जलकुंभ रसोइ आसन्नं ॥ ७० १ पुत्रे सीहदुवारं । २ अग्गी । ३ सव्वाउह । ४ विकखाए । ५ पुव्वाह । ६ दाहिणार । ७ बारं उईचीए । ८ मेसिं । ९ जइ होइ कारणेणं ताउ चउदिलि अट्ठ भाग कायव्वा । १० चउसुं पि दिसासु अट्ठभागासु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण सूईमुहाइ गेहाँ कायव्वा सिप्पि-हट्ट वग्धमुहा । गिहवाराउ कमुच्चा हट्टुच्चा पुरओ मज्झसमा ॥ ७१ पुव्वुन्नये अत्थहरं जमुन्नयं मंदिरं धणसमिद्धं । अवरुन्नये विद्धिकरं उत्तरुन्नय होइ उव्वसियं ॥ ७२ मूलाओ औरंभ कीरइ पच्छा कमे कमे कुज्जा । मूलं गणियविसुद्धं वेहं सव्वत्थ वज्जिज्जा ॥ ७३ तलवेह १ कोणवेहं २ तालुयवेहं ३ कवालवेहं ४ च । तह थंभ ५ तुलावेहं ६ दुवारवेहं च ७ सत्तमयं ॥ ७४ समविसम भूमिकुंभिय जलपूरं परगिहस्स तैलवेहं । कूणसमं जइ कूर्ण न होइ ता कूणवेह" तु ॥ ७५ इक्कखणे नीचुच्चं पीढं तं मुणह तालुयावेहं । वारस्सुवरिमपट्टे गब्भे पीढं च सिरवेहं ॥ ७६ गेहस्स मज्झि भाए थंभेगं तं मुणेह उरसल्लं । अह अनलो विनलाई हविज जा थंभवेह तं ॥ ७७ हिट्ठम उवरंमि खणे हीणाहिय पीढ तं तुलावेहं । पीढ़" पीढस्स समं हवेइ जइ तत्थ नहु दोसं ॥ ७८ कुव-थंभु-दुमै कोणय कीले विढे दुवारवेहो य । गेहुचविउण भूमी तं न विरुद्ध बुहा विति ॥ ७९ तलवेहि कुट्ठरोया हवंति उव्वेय कोणवेहमि । तालुयवेहेसु भयं कुलक्खयं थंभवेहेण ॥ ८० १ सगडमुहा वरगेहा। २ तहय। ३ पुवुचं। ४ दाहिण उच्चघरं । ५ अवरुञ्च । ६ उव्वसियं उत्तराउञ्चं । ७ आरंभो। ८ सव्वं । ९ वेहो। १० वेहो। ११ वेहो । १२ वेहो सो। १३ हिटिम उवरि खणाणं । १४ पीढा समसंखाओ हवंति जइ तस्थ नहु दोसो। १५ दूमकूव-थंभ । १६ वेहेण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित कावालु तुलावेहे धणनासो होई रोरभावो य । . इय वेहफलं नाउं सुद्धं गेहं सुकायव्वं ॥ ८१ वेहेगेण य कैलहं कमेण हाणिं च जत्थ वे हंति । तिहुँ भूयाण निवासो चहुं क्खयं पंचि सव्वरियं ॥ ८२ ॥ इति वेधः॥ अट्ठत्तरु सउ भाया पडिमारूवु व्व करिवि भूमि तओ। सिरि हियइ नाहि सिहणे थंभं वजह जत्तेणं ॥ ८३ वारं वारस्स समं अह वारं वारमज्झि कायव्वं । अह वजिऊण वारं कीरइ वारं तहालं च ॥ ८४ कूणं कूणस्स समं आलइ आलं च कीलए कीलं । थंभे थंभं कुज्जा अह वेहं वज्जि कायव्वा ॥ ८५ आलयसिरंमि कीलो थंभो वारुवरि वारु थंभुवरे।। वारद्धि वारु समखणि विसमा थमा महा असुहा ॥ ८६ थंभहीणं न कायव्वं पासायं मंद-मंदिरं । कूण-कक्खंतरेऽवस्सं देयं थंभं पयत्तओ ॥ ८७ कुंभीसिरंमि सिहरं वैट्ट अटुंस भद्दगायोरं । रूवगपल्लवसैहियं थंभेरिसगिहि न कायवं ॥ ८८ खणमझे कायव्वं कीलालय गैउखमुक्ख समसमुहं । अंतर छत्ती मंचं करिज खण तह य पीढसमं ॥ ८९ गिहमज्झि अंगणे वा तिकोणयं पंचकोणयं जत्थ । तत्थ वसंतस्स पुणो न होइ सुह-रिद्धि कईयावि ॥ ९० . १ हवइ । २ करेअव्वं । ३ इगवेहेण य कलहो। ४ दो। ५तिहु भूआण निवासो चउहि खओ पंचहिं मारी। ६ सिहिणो। ७कीला। ८ द्वि । ९खण । १० मठ। ११ वट्टा। १२ भद्दगायारा। १३ सहिआ। १४ गेहे थंभा न कायव्वा । १५ गओख। १६ मुहं । १७ छत्ता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण मूलगिहे पच्छिमदिसि' जो कारइ तिन्नि वार ओवरए । सो तं गिहं न मुंजइ अह भुंजइ दुक्खिओ हवइ ॥ ९१ कमलेगि जं दुवारो अहवा कमलेहिं वजिओ होई। हिट्ठाउ उवरि पिहुलो न ठाँइ थिरु लच्छि तम्मि गिहे ॥ ९२ वलयाकारं कूणेहिं संकुलं अहव एग दु ति कूणं । दाहिण-वामय दीहं न वासियव्वेरिसं गेहं ॥ ९३ सयमेव जे किवाडा पिहियंति य उग्घडंति ते असुहा । चित्त-कलसाइ-सोहा-सविसेसा मूलवारि सुहा ॥ ९४ छत्तितरि भित्तिरि मग्गंतरि दोस जे न ते दोसा । साल-ओवरय-कुखी-पिट्ठि-दुवारेहिं बहु दोसा ॥ ९५ . जोइणि नट्टारंभ भारह-रामायणं च निवजुद्धं । रिसिचरिय-देवचरियं इअ चित्तं गेहि नहु जुत्तं ॥ ९६ फलिहतरु कुसुमवल्ली सरस्सई नवनिहाणजुअलच्छी । कलसं वद्धावणयं सुमिणावलियाइ सुहचित्तं ॥ ९७ पुरिसु व्व गिहस्संगं हीणं अहियं न पावए सोहं । तम्हा सुद्ध कीरइ जेण गिहं हवइ रिद्धिकरं ॥ ९८ वजिज्जइ जिर्णपुट्ठी रवि ईसर दिट्टि विन्हु वामो य । सव्वत्थ असुह चंडी वम्हाँ पुण सव्वहा चयह ॥ ९९ अरिहंतदिट्टि दाहिण हर पुट्ठी वामए सुकल्लाणं । विवरीए बहु दुक्खं परं न मग्गंतरे दोसं" ॥ १०० पढमंत जाम वज्जिय धयाइ दु-तिपहरसंभवा छाया । दुहदायो नायव्वा तओ य जैत्तेण वजिज्जा ॥ १.१... १ मुहि। २ बारह दुन्नि बारा ओवरए। ३ हवह। ४ ढाइ । ५ वामह । ६ दारि। : ७ गेहु । ८ पिट्ठी। ९ विण्हु वामभुआ। १० बंभाणं चडदिसिं घयह। ११ दोसो। १२ हेऊ। १३ पयत्तेण । १२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर -फेरू-विरचित सम कट्ठा विसम खणा सव्वपयारेसु इय विही कुज्जा। पुव्वुत्तरेण पल्लव जमावरा मूल कायव्वा ॥ १०२* हल-घाणय-सगड-मई-अरहट्टजंताणि कंटई तह य । पंचुंबरि खीरतरू एयाण य कट्ठ वजिज्जा ॥ १०३ बिज्जउरि केलि दाडिम जंभीरी दो हलिद अंबिलिया। बब्बूलि बोरि माई कणयमया तहवि नो कुज्जा ॥ १०४ एयाणं जईये जडा पाडवसाओ पविस्सई अहवा। छाया वा जंमि गिहे कुलनासो हवइ तत्थेव ॥ १०५ संसुक्क भग्ग दड्डा मसाण खग निलय खीर चिरदीहा । निंब बहेडय रुक्खा नहु कट्टिजति गिहहेऊ ॥ १०६ पाहाणमयं थंभं पीढं पट्टं च बारउत्ताई। एए गेहिविरुद्धा सुहावहा धम्मठाणेसु ॥ १०७ पाहाणमए कट्टे कट्ठमए पाहणस्स थभाई। पासाए य गिहे वा वजियव्वा पयत्तेणं ॥ १०८ पासाय-कूव-वावी-मसाण-मठ-रायमंदिराणं च । पाहाण-इट्ट-कट्ठा सरिसममत्ता वि वजिज्जा ॥ १०९ सुगिहजलो उवरिमओ खिविज नियमज्झि नन्नगेहस्स । पच्छा कहवि न खिप्पइ इय भणियं पुव्वसत्थंमि ॥ ११० ईसाणाई कोणे नयरे गामे न कीरए गेहं । संतलोयाण असुहं अंतिमजाईण रिद्धिकरं ॥ १११ देव-गुरु-वहि-गोधण-समुहे चरणे न कीरए सयणं । उत्तर सिरं न कुजा न नग्गदेहा न अल्लपया ॥ ११२ *मु. पु. पाठभेदो यथा- 'सव्वेवि भारवटा मूलगिहे एगिसुत्ति कीरति । पीढ पुण एगसुत्ते उवरयगुंजारि-अलिंदेसु' ॥ १४५ ॥ १ जइवि । २ पाडिवसा; पाडोसा। ३ सुसुक्क। ४बारउचाणं । ५विधिकरं। ६संमुह । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण धुत्तामच्चासन्ने परवत्थुदले चउप्पहे न गिहं । गिह-देवलपुग्विल्लं मूलदुवारं न चालिज्जा ॥ ११३ गो-वसह-सगडठाणं दाहिणए वामए तुरंगाणं । गेहस्से वारभूमी संलग्गा साल ऐयाणं ॥ ११४ गेहाउ वाम दाहिण अग्गिम भूमी गहिज जइ कजं । पच्छा कहव न लिज्जइ इय भणियं परमैनाणीहिं ॥ ११५ ॥ इति श्रीचन्द्राङ्गज-ठकुर-फेरू-विरचिते वास्तुसारे गृहलक्षणप्रकरणं प्रथमं समाप्तम् ॥ १ गिहबाहिरभूमिए। २ सालए ठाणं। ३ पुव्वनाणीहिं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द्वितीयं बिम्बपरीक्षाप्रकरणम् ।। इय गिहलक्खणभावं भणिय भणामित्थ बिंबपरिमाणं ।' गुण-दोसलक्खणाई सुहासुहं जेण नज्जेई ॥ १. छत्तत्तयउत्तारं भाल-कवोलाउ सवण-नासाओ। सुहयं जिणचरणग्गे नवग्गहा जक्ख-जक्खिणिया ॥२ बिंबपरिवारमझे सेलस्स य वण्णसंकरं न सुहं । समअंगुलप्पमाणं न सुंदरं हवइ कइयावि ॥ ३ अन्नुन्नजाणु-कंधे तिरिए केसंत अंचलंते यं सुत्तेगं चउरंसं पजंकासण सुहं बिंबं ॥ ४ नव ताल हवइ रूवं रूवस्स य वारसंगुलो तालो । अंगुल अट्ठहियसयं उड्डे चासीण छप्पन्नं ॥ ५ भालं नासा २ वयणं ३ गीव ४ हियय ५ नाहि ६गुज्झ ७ जंघाइं८। जाणु ९ य पिंडि १० य चरणा ११ इक्कारस ठाण नायव्वा ॥६ चउ ४ पंच ५ वेय ४ रामा ३ रवि १२ दिणयर १२ सूर १२ तह य जिण २४ वेया ४ । जिण २४ वेय ४ भायसंखा कमेण इय उड्डरूवेण ॥ ७ भालं १ नासा २ वयणं ३ गीव ४ हियय ५ नाहि ६ गुज्झ७ जाणू या आसीणबिंबमाणं पुव्वविही अंक संखाई ॥ ८ १ जाणिजा। २ बासीण। + मुद्रितपुस्तके पाठान्तररूपेण उद्धृतः पाठःभालं नासावयणं थणसुत्तं नाहि गुज्झ उरू य । जाणुअ जंघा चरणा इय दह ठाणाणि जाणिज्जा ॥ ६॥ चउ पंच वेय तेरस चउदस दिणनाह तह य जिण वेया। . जिण वेया भायसंखा कमेण इय उड्डरवेण ॥७॥ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धास्तुसार- द्वितीयप्रकरण मुहकमलु चउदसंगुल कन्नंतरि वित्थरे दह ग्गीवा । छत्तीस उरपएसो सोलह कडि सोल तणुपिंडं ॥ ९ कन्नु दइ सोल वित्थरि चउ उवरे तिन्नि हिट्ठि लउलि खणं । नक्कु ति वित्थरि दुदए सिरिवच्छो दु दइ तिय पिहलो ॥१० [एतदतन्तरं मुद्रितपुस्तके निम्नलिखिता गाथा अधिका उपलभ्यन्तेनक्कसिहागन्माओ एगंतरि चक्खु चउरदीहत्ते । दिवढुदइ इकु डोलइ दुभाइ भउहद्ध छद्दीहे ॥१ नकु ति वित्थरि दुदए पिंडे नासग्गि इक्कु अडु सिहा । पण भाय अहर दीहे वित्थरि एगंगुलं जाण ॥२ पण उदइ चउ वित्थरि सिविच्छं बंभसुत्तमझमि । दिवढंगुल थणवढें वित्थरं उडसि नाहेगं ॥३] सिरिवच्छ सिहिण कक्खंतरंमि तह मुसल पण सर? ५।५।८ कमे। मुणि ७ चउ ४ रवि १२ ? ८ वेया कुहुणी मणिबंधु जंघ जाणुपयं ॥११ [ अत्र पुनः मु० पु० एतद्गाथानन्तरं अधोगता अधिका गाथा विद्यन्तेथणसुत्त अहोभाए भुय बारस अंस उवरि छहि कंधं । नाहीउ किरइ वर्ल्ड कंधाओ केस अंताओ॥१ कर - उयर-अंतरेगं चउ वित्थरि नंद दीहि उच्छंगं । जलवहु दुदय ति वित्थरि कुहुणी कुच्छितरे तिनि ॥२ बंभसुत्ताओ पिंडिय छ जीव दह कनु दु सिहण दु भालं । दु चिबुक सत्त भुजोवरि भुयसंधी अट्ठ पयसारा ॥३ जाणुअ मुहसुत्ताओ चउदस सोलस अढार पइसारं । समसुत्त जाव नाही पयकंकण जाव, छब्भायं ॥४ पइसार गन्भरेहा पनरसभाएहिं चरण अंगुटुं । दीहंगुलीय सोलस चउदसि भाए कणिडिया ॥५ मुद्रितपुस्तके पाठभेदो यथाकनु दह तिन्नि वित्थरि अड्डाई हिट्टि इकु आधारे । केसंत वड्ड समसिरु सोयं पुण नयणरेह समं ॥ १० १ मुसल छ पण अट्ट कमे। २ वसुवेया। ३ कुहिणी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू - विरचित करयल गम्भाउ कमे दीहंगुलि नंदे पक्खिमिया। छच्च कणिट्ठिय भणिया गीवुदए तिन्नि नायव्वा ॥ ६ मज्झि महत्थंगुलिया पण दीहे पक्खिमिअ चउ चउरो। लहु अंगुलि भाय तियं नह इक्किकं ति अंगुटुं ॥७] अंगुट्ठसहियकरयल वर्ल्ड सत्तंगुलस्स वित्थारे । चरणं सोलस दीहे तयद्धि वित्थिन्न चउ ऊदए ॥ १२ ॥ [ एतद्गाथानन्तरं मुद्रितपुस्तके निम्नगतैका गाथा अधिका लभ्यतेगीव तह कन्न अंतरि खणे य वित्थारि दिवड्ड उदइ तिगं । अंचलिय अट्ठ वित्थरि गद्दिय मुह जाव दीहेण ॥१ छब्भाय अहरदीहे चक्खूपण दीह अद्धपिहुलत्ते । तिन्नि सिहिण चउ नाही नासा उर नाहि सुत्तेगं ॥ १३ केसंत सिहा गद्दिय पंचट्ठ कमेण अंगुलं जाण । पउमुडरेहचकं करचरण विहूसियं निच्चं ॥ १४ . [ मुद्रितपुस्तके एतद्गाथानन्तरं निम्नोद्धृता गाथा अधिका लभ्यन्तेनक सिरिवच्छ नाही समगन्भे बंभसुत्तु जाणेह । तत्तो असयलमाणं परिगरबिंबस्स नायव्वं ॥१ सिंहासणु बिंबाओ दिवढओ दीहि वित्थरे अद्धो । पिंडेण पाउ घडिओ रूवग नव अहव सत्त जुओ ॥२ उभयदिसि जक्ख-जक्खिणि केसरि गय चमर मज्झि चकधरी। चउदस बारस दस तिय छ भाय कमि इअ भवे दीहं ॥३ चक्कधरी गरुडंका तस्साहे धम्मचक्क उभयदिसं । हरिणजु रमणीयं गद्दियमझमि जिणचिण्हं ॥ ४ चउ कणइ दुन्नि छज्जइ बारस हस्थिहिं दुन्नि अह कणए । अड अक्खरवट्टीए एवं सीहासणस्सुदयं ॥५ गद्दिय-सम-वसुभाया तत्तो इगतीस चमरधारी य । तोरणसिरं दुवालस इअ उदयं पक्खवायाण ॥ ६ सोलस भाए रूवं धुमुलियसमये छहि वरालीय । इअ वित्थरि बावीसं सोलस पिंडेण पखवायं ॥ ७ . १ वित्थारो। मु. पु. नास्तीयं गाथा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-द्वितीयप्रकरण छत्तद्धं दसभायं पंकयनालेग तेर मालधरा । दो भाए धुभुलिए तहट्ट वंसधर-वीणधरा ॥८ तिलयमझमि घंटा दुभाय थंभुलिय छच्चि मगरमुहा । इअ उभयदिसे चुलसी दीहं डउलस्स जाणेह ॥९ चउवीसि भाइ छत्तो बारस तस्सुदइ अट्ठि संखधरो। छहि वेणुपत्तवल्ली एवं डउलुदए पन्नासं ॥ १० मालधर सोलसंसे गइंद अट्ठारसंमि ताणुवरे । हरिणिंदा उभयदिसं तओ अ दुंदुहिअ संखी य ।। ११ छत्तत्तय वित्थारं वीसंगुल निग्गमेण दह भायं । भामंडल वित्थारं बावीस अट्ठ पइसारं ॥ १२ बिंबद्धि डउलपिंडं छत्तसमं गेहवइ नायव्वं । थणसुत्तसमा दिट्टि चामरधारीण कायव्वा ॥ १३ जइ हुंति पंच तित्था इमेहिं भाएहिं तेवि पुण कुजा । उस्सग्गियस्स जुअलं बिजुगं मूल बिंवेगं ॥ १४] वरिससयाओ उड़े जं बिंब उत्तमेहि संठवियं । विलयं(यल)गु वि पूइज्जइ तं बिंबं निकलं न जओ ॥ १५ मुह-नक्क-नयण-नोहिं कडिभंगे मूलनायगं चयह । आहरण-वस्थ-परिगर-चिन्हायुहभंगि पूइज्जा ॥ १६ धाउलेवाइ बिंबं विलय(यल)गं पुणवि कीरए सजं । कट्ठ-रयण-सीलमयं न पुणो सजं च कईयावि ॥ १७ पाहाणलेवकट्ठा दंतमया चित्तलिहिय जा पडिमा । अप्परिगर-माणाहिय न सुंदरा पूयमाण गिहे ॥ १८ इक्कंगुलाइ पडिमा इक्कारस जाम गेहि पूइजा। . उखु पासाइ पुणो इय भणियं पुव्वसूरीहिं ॥ १९ नह-अंगुलीय-वाहा-नासा-पयभंगिणुक्कमेण फलं । सत्तुभय-देसभंगं बंधण-कुलनास-दव्वखयं ॥ २० १ निष्फलं। २ नाही। ३ से ल। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित पयपीढ-चिन्ह-परिगरभंगे जण-जाण-भिचहाणि कमे । छत्त-सिरिवच्छ-सवणे लच्छी-सुह-बंधवाण खयं ॥ २१ पडिमा रउद्द जा सा कारावय हंति सिप्पि अहियंगा। दुव्वणं दव्वविणासा किसोयरा कुणइ दुभिक्खं ॥ २२ बहुदुक्ख वक्कनासा ह्रस्संग खयंकरी य नायवा । नयणनासा कुनयणा अप्पमुहा भोगहाणिकरा ॥ २३ कडिहीणायरियहया सुय-बंधव हणइ हीणजंघा य । हीणासण रिडिहया धणक्खया हीणकर-चरणा ॥ २४ उत्ताणा अत्थहरा वंकग्गीवा सदेसभंगकरा । अहोमुहा य सचिंता विदेसगा हवइ नीचुच्चा ॥ २५ विसमासण वाहिकरा रोरकरऽन्नायदव्वनिप्पन्ना । हीणाहीयंगपडिमा सपक्ख-परपक्खकठुकरा ॥ २६ उड्डमुही धणनासा अप्पूया तिरियदिहि विन्नेया । अइथड्डदिट्ठि असुहा हवइ अहोदिट्ठि विग्धकरा ॥ २७ चैउभुव सुराण आयुह हवंत केसंत उप्परे जइ ता । करण-करावण-थप्पणहाराणप्पाण देसहया ॥ २८ चउवीस जिण नवग्गह जोइणि चउसट्ठि वीर बावन्ना । चउवीस जक्ख-जक्खिणि दह दिहवइ सोल विजसुरी ॥ २९ नव नाह सिद्ध चुलसी हरि-हर-बभिंद-दाणवाईणं । वन्नंक-नाम-आयुह वित्थरगंथाउ जाणिज्जा ॥ ३० ॥ इति परमजैन-श्रीचन्द्राङ्गज-ठकुर-फेरुविरचिते वास्तुसारे बिम्बपरीक्षाप्रकरणं द्वितीयं समाप्तम् ॥ १ दुब्बल। २ चउभव; चउभे। ३ सोलस । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तृतीयं प्रासादविधिप्रकरणम् ।] भणिय गिहलक्खणाइं बिंबपरिक्खाइँ सयलगुणदोसं । संपइ पासायविही संखेवेणं निसामेह ॥ १ पढमं गड्डावरयं जलंत अह कक्कर भरियध्वं । कुंमनिवेसं अटुं खुरस्सिला तयणु सुत्तविही ॥२ पासायाओ अद्धं तिहायपायं च पीढ-उदओ य । तस्सद्धि निग्गमो हुई उववीदु जहिच्छ माणं तु ॥ ३ अड्डथरं १ फुल्लियओ २ जाडमुहो ३ कणउ ४ तह य कयवाली ५। गय १ अस्स २ सीह ३ नर ४ हंस ५ पंच थर इय भवे पीठं ॥४ सिरिविजउ १ महापउमो २ नंदावत्तो य ३ लच्छितिलओ ४ य । नरवेय ५ कमलहंसो ६ कुंजर ७ पासाय सत्त जिणो ॥ ५ [इतोऽग्रे मुद्रितपुस्तके निम्नोद्धृता अधिका गाथा लभ्यन्ते बहुभेया पासाया अस्संखा विस्सकम्मणा भणिया । तत्तो य केसराई पणवीस भणामि मुल्लिल्ला ॥१॥ केसरिअ सबभद्दो सुनंदणो नंदिसालु नंदीसो। तह मंदिरु सिरिवच्छो अमिअब्भुबु हेमवंतो अ॥२॥ हिमकूडु कईलासो पुहविजओ इंदनीलु महनीलो। भूधरु अ रयणकूडो वइडुज्जो पउमरागो अ॥३॥ वजंगो मुउडुजलु अइरावओ रायहंसु गरुडो अ। वसहो अतह य मेरू एए पणवीस पासाया ॥ ४ ॥ पण अंडयाइ सिहरे कमेण चउवुड्ढि जा हवइ मेरू । मेरूपासाय अंडयसंखा इगहिय सयं जाण ॥५॥ एएहि उवजंती पासाया विविह सिहरमाणाओ। नव सहस्स छ सय सत्तर वित्थरगंथाओ ते नेया ॥६॥ चउरसंमि उ खित्ते अट्ठाइ दु बुड्ढि जाव बावीसा । भायविराडं एवं सत्वेसु वि देवभवणेसु ॥७॥ १णिसा। २ गडाविवरं । ३ जलंतं । ४ कक्करतं। ५ कुणह। ६होह। १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ठकुर - फेरू - विरचित चउकूणा चउभद्दा सव्वे पासाय होंति नियमेण । कूणस्सुभयादिसेहिं दलाई जा होंति' भद्दाई ॥ ६ पडिरह १ बोलिंजरया २ नंदी ३ सुकमेण ति पण सत्त दला । पल्लवियं करणिक्कं अवस्स भइरस दुण्ह दिसे ॥ ७ दो भाय कुणओ हुइ कमेण पाऊण जा भवे नंदी | पायं ० ।, एग १, दुसडुं २||, पल्लवियं कैरणियं भदं ॥ ८ भर्द्धं दस भायं तरसाओ मूल नासियं एगं । पउणाति तिय सवातिय २||) ३) ३) दैलेहिं सुकमेण नायव्वं ॥ ९ कूणं पडिरह य रहं भदं मुहभद्द मूलअंगाई | नंदी करणिक पल्लव तिलय तवंगाइ भूसणयं ॥ १० ॥ इति विस्तरं ॥ १ खुर १ कुंभ२ कलस३ कइवलि४ मच्ची ५ जंघा य६ छज्जि७ उरजंघा ८ । भरणि ९ सिरवट्टि १० छज्जय ११ वइराडु १२ पहारु १३ तेर थरां ॥ ११ ३ १॥ | ५॥ १॥ १॥ १॥ २ Jain Educationa International १॥ २ १॥ इग तिय दिवड तिहुँढे पण सड्ढा इग दु दिवदु दिवढो य । दो दिवढु दिवदु भाया पणवीसं तेर थरमाणं ॥ १२ १॥ पासायरस पमाणं गणिज्ज सहभित्ति कुंभगथराओ । तस्य दस भागाओ दो दो भित्तीहि रस ६ गब्भे ॥ १३ इग दुति च पण हत्थे पासाइ खुराउ जा पहारथरो । नव सत्त पण ति एवं अंगुलजुत्तं कमेणुदयं ॥ १४ इच्चाइ ख-बाणते ५० पsिहत्थे चउदसंगुल विहीणा । इय उदयमाण भणियं अओ य उट्टं भवे सिहरं ॥ १५ 1 पsिहोंति १ दुनि । २ दो भाय हवइ कूणो । ३ करणिकं । पपि परिहाईसु । ५ तिसुकमि । ६ पहारू । For Personal and Private Use Only ४ कमेण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-तृतीय प्रकरण पाऊण दूण भूमजु नागरु सतिहार दिवढु सप्पाओ। देवड सिहरो दिवड्डो सिरिवच्छो पउणे दूणो य ॥ १६ छज्जउड उवरि तिहु दिसि रहिया जुयबिंब उवरि उरसिहरा । कूणेहिं चारि कूडा दाहिण - वामग्गि दो तिलया ॥ १७ उरसिहर कूडमज्झे सुमूलरेहाय उवरि चारि लया। अंतरि कूणेहि रिसी आवलसारो य तस्सुवरे ॥ १८ पिडिरह बिकन्नमज्झे आमलसारस्स वित्थरडुदए। गीवंडयचंदिकोमलसारिय पउणु संवा इगिगो॥ १९ आमलसारय मज्झे चंदणखट्टासु सेयपट्टवुया । तस्सुवरि कणयपुरिसो घयपूर तओ य वरकलसो ॥ २० पाहणकट्ठिट्टमओ जारिसु पासाउ तारिसो कलसो। जहसत्ति पइठ पच्छा कणयमओ रयणजडिओ वाँ ॥ २१ [एतद्गाथानन्तरं मुद्रितपुस्तके निम्नगतं गाथाद्वयमधिकं विद्यते छजाओ जाव कंधं [भायं] इगवीस करिवि तत्तो अ। नव आइ जाव तेरस दीहुदये हवइ सउणासो ॥१ उदयद्धि विहियपिंडो पासायनिलाड तिकं च तिलउ य । तस्सुवरि हवइ सीहो मंडपकलसोदयस्स समा ॥२] सुहयं इगदारुमयं पासायं कलस-दंड-मक्कडियं । सुहकट्ठ सुदि कीरं सीसम खयरंजणं महुवं ॥ २२ नीरतरदल विभत्ती भद्द विणा चउरसं च पासायं । पंसायारं सिहरं करति जे ते न नंदति ॥ २३ १ दूणु पाऊणु। २ दाविड। ३ पऊण। ४ अंतर। ५चंडिका। ६पऊण सवाइकिको। ७ अ। ८ सुदिट्ट । पिडिरह बिकनमज्झे आमलसारस्स वित्थरो होइ । तस्सद्धेण य उदओ तं मज्झे ठाण चत्तारि ॥ गीवंडय चंडिका आमलसारीय कमेण तब्भागा। पाऊण सवाउ इगेगो आमलसारस्स एस विही ॥ -इति पाठान्तरं मुद्रितपुस्तके । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ठकुर-फेरू-विरचित अदंगुलाइ कमसो पायंगुल बुड्डि कणयपुरिसो य । कीरइ धुव पासाए इग हत्थाई ख-बाणं ते (५०) ॥ २४ इगहत्थे पासाए दंडं पउणंगुलं भवे पिंडं। . अइंगुल वुड्डि कमे जा कर पन्नास कन्नुदए ॥ २५ निप्पन्ने वरसिहरे धयहीणसुरालयंमि असुरठिई । तेण धयं धुव कीरइ दंडसमा मुक्खसुक्खकरा ॥ २६ पासायाओ दुवारं हत्थप्पइ सोलसंगुलं उदए । नैव पंचम वित्थारे अहवा पिहुलाउ दूणुदए ॥ २७ [अत्र मुद्रितपुस्तके एषा गाथा अधिका विद्यते___ उदयद्धि वित्थरे बारे आयदोस विसुद्धए । अंगुलं सड्ढमद्धं वा हाणि वुड्ढि न दूसए ॥ १] निल्लाडि वारउत्ते बिंबं साहेहि हिहि पडिहारा । कूणेहि अट्ठ दिसिवइ जंघा-पडिरहइ पिक्खणयं ॥ २८ पासायतुरिय ४ भागप्पमाणबिंबं सउत्तमं भणियं । राउट्टै रयण विदुम धाउमय जहिच्छमाण वरं ॥ २९ दस भाय कयदुवारं उर्दुवर उत्तरंग मज्झेण । पढमसे सिवदिट्ठी वीए सिवसत्ति जाणेह ॥ ३० सयणासण सुर तइए लच्छीनारायणं चउत्थे य । वाराहं पंचमए छटुंसे लेवचित्तस्स ॥ ३१ सासण सुर सत्तमए सत्तम सेत्तंमि वीयरागस्स । चंडिय भइरव अडमे नवमिंदा छत्त - चमरधरा ॥ ३२ दसमे भाए सुन्नं जक्खा गंधव्व-रक्खसा जेण । हिट्ठाउ कमि ठविज्जइ सयलसुराणं च दिट्ठी य ॥ ३३ १ पासायस्स। २ हत्थंपइ । ३ जा हत्थ चउक्का हुँति तिगद्ग वुद्धि कमाउ पन्नासं। ४ रावट्ट । ५ सत्संसि। ६ अडसि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ वास्तुसार तृतीय प्रकरण भागढ़ भणंतेगे सत्तम सत्तंम दिहि अरहता। गिहदेवाले पुणेवं कीरइ जह होइ बुड्डिकरं ॥ ३४ गम्भगिह? पणंसा जक्खा पढमंसि देवया बीए। . जिण-किंन्ह-वी तइए बंभु चउत्थे सिवं पणगे ॥ ३५ नहु गब्भे ठाविजइ लिंगं गब्भे चइज नो कहवि । तिलअखं तिलमत्तं ईसाणे किं पि आसरि ॥ ३६ भित्तिसंलग्गबिंबं उत्तिमपुरिसं च सव्वहा असुहं । . चित्तमयं नागाइं हवंति एए सहावेणं ॥ ३७ ॥ जगई पासायंतरि रस ६ गुण पच्छा नवग्गुणा पुरओ। दाहिण-वामे तिउणा इय भणियं खित्तमजायं ॥ ३८ पासायकमलियग्गे गूढक्खयमंडवं तउ छक्कं । पुणु रंगमंडवं तह तोरण - सुवलाणमंडवयं ॥ ३९ दाहिण-वामदिसेहिं सोहामंडव गउक्खजुय साला । गीयं नट्टविणोयं गंधव्वा जत्थ पकुणंति ॥ ४० पासायसमं विउणं दिवडय पउण दूण वित्थारे । सोवाण तिन्नि उदए चउकीओ मंडवा होंति ॥ ४१ कुंभी थंभ भरण सिरपढें इग पंच पउण सप्पायं । इग इय नव भाग कमे मंडव पिहुलाउँ अट्ठदए ॥ ४२ पासायअट्ठमंसे पिंडं मक्कडिय-कलस-थंभस्स । दसमंसि बारसाहा सपडिग्घहु कलंसु दूणुदए ॥ ४३ पट्टस्स आयहिट्ट छज्जयहिटुं च सव्वसुत्तेगं । उदुंबरसम कुंभिय थंभसमा थंभ जाणेह ॥ ४४ १ सत्तंसि। २ अरिहंता । ३ देवालु। ४ गिहड्ड। ५ तलमितं । ६ आसरिओ । ७ समासेण । ८ गुणा। ९ मज्झायं । १० कमल अग्गे । ११ पुण । १२ सबलाण । १३ दिउहयं । १४ वित्थारो। १५. ति उदए चउदए पण । १६ वट्टाउ अद्भुदप। १७ कलसु दिवड्डदए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ठक्कुर -फेरू-विरचित जलनालयाउ फरिसं करंतरे चउ जवा कमेणुच्चं । जगईय भित्ति उदए छजये सम चउदिसेहिं पि ॥ ४५ अग्गे दाहिण-वामे अट्ठट्ठ-जिणिंद-गेह चउवीसं । मूल सैलागाउ इमं पकीरए जगइ मझंमि ॥ ४६ रिसहाई जिणपंती पासायाओ य वामियदिसाओ । ठाविज पिट्ठिमग्गे सव्वेहि जिणालए एवं ॥ ४७ चउवीसतित्थमझे जं एगं मूलनायगं हवइ । पंतीइ तस्स ठाणे सरस्सई ठवसु निन्भंतं ॥ ४८ चउतीस वाम-दाहिण नव पिट्ठी अट्ठ पुरउ देहुरियं । पासाय मूल एगं वावन्नजिणालयं एवं ॥ ४९ ।। पणवीसं पणवीसं दाहिण-बामेसु पिट्टि इक्कारं । दह अग्गे नायव्वं इय वाहत्तरि जिणिंदालं ॥ ५० अंगविभूसणसहियं पासायं सिहरबद्ध-कट्ठमयं । नहु गेहे पूइज्जइ न धरिजइ किंतु जत्त वरं ॥ ५१ जत्त कए पुणु पच्छा ठविज रहसाल अहव सुरभवणे । जेण पुणो तस्सरिसो करेइ जिणजत्त वर संघो ॥ ५२ गिहदेवालं कीरइ दारुमय विमाण पुप्फयं नाम । उववीढ पीढफरिसं जहुत्त चउरंस तस्सुवरें ॥ ५३ चउ थंभ चउ दुवारं चउ तोरण चउ दिसेहि छज्जउडं । पंच कणवीर सिहरं ईंग ति दुवारेग सिहरं वा ॥ ५४ अह भित्ति-छज्ज ओवम सुरालयं आयुसुद्ध कायव्वं । सम चउरंसं गन्भे तस्साउ सवायओ उदए ॥ ५५ १ नालियाउ । २ छजइ । ३ सिलागाउ। ४ सीहदुवारस्स दाहिणदिसाओ। ५ पुट्टि। ६ देहरयं । ७ मूल पासाय। ८ जत्तु। ९ तस्सुवरिं। १० एग दुति बारेग। ११ तत्तो अ सवायओ उदएसु। । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ वास्तुसार-तृतीयं प्रकरण गम्भाउ छजओ हुइ सवाउ सतिहाउ दिवढु वित्थारे । वित्थाराउ सवाओ उदएण य निग्गमे अद्धो ॥ ५६ छज्ज-उड-थंभ-तोरणजय उवरे मंडओवमं सिहरं । आलयमझे पडिमा छज्जयमझमि जलवढें ॥ ५७ गिहदेवालयसिहरे धयदंडं नो करिज कइयावि । आमलसारय कलसं कीरइ इय भणिय सत्थेहिं ॥ ५८ सिरिघंधकलस-कुलसंभवेण चंदासुएण फेरेण । कन्नाणपुरठिएण य निरक्खिउं पुव्वसत्थाई ॥ ५९ सिपरोवगारहेऊ नयण-मुणि-राम-चंद (१३७२) वरिसम्मि ! विजयदसमीइ रइयं गिहपडिमालक्खणाईणं ॥ ६० इति परमजैनश्रीचन्द्राङ्गजठकुरफेरूविरचिते वास्तुसारे प्रसादविधिप्रकरणं तृतीयं समाप्तं ॥ ॥ एवं वास्तु प्रपरणं त्रय गाथा २०५ ॥ १ हवइ छज्जु । २ करिजइ कयावि। ३ आमलसारं । + मुद्रितपुस्तके इयं गाथा पूर्व लिखिता, पश्चाद् उपरितनगाथा विद्यते । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरू रचिता खरतरगच्छयुगप्रधानचतुःपदिका। नमो जिनाय। सयल सुरासुर वंदिय पाय, वीरनाह पणमवि जगताय । सुमरेविणु सिरि सरसइ देवि, जुगवरचरिउ भणिसु संखेवि ॥ १ सुहमसामि गणहर पमुह, सिरि जुगपवर नाम वर मंत, सुमरहु अणुदिणु भत्तिजुय । लीलइ तरिवि भवोवहि जेम, कमि कमि पावहु सिद्धिसुह॥धूवर्क वडमाणजिणपट्टि पसिद्ध, केवलनाणीगुणिहि समिछ। पंचमु गणहरु जुगवरु पढमु, नमहु सुहंमसामि गुरु अममु ॥२ . भज्जा अट्ठ पंच सय तेण, इक्कि रयणि पडिवोहिय जेण । सुगुरपासि लिउ संजमभारु, सरहु सरहु सो जंबुकुमारु ॥३ पभवसूरि सिजंभउ सुगुरु, जसोभदु सूरीसरु पवरु । सिरि संभूयविजउ मुणितिलउ, पणमहु भद्दवाहु गुणनिलउ ॥ ४ भदवाह सूरीसरपासि, चउदस पुव्व पढिय गुणरासि । भंजिउ जेण मयणभडवाउ, जयउ सु थूलिभदु मुणिराउ ॥५ दूसमकालि तुलिउ जिणकप्पु, अज्ज महागिरि गुरु माहप्पु । अज सुहत्थि थुणहु धरि भाउ, जिणि पडिबोहिउ संपइ राउ॥६ संतिसूरि कय संघह संति, चउदिसि पसरिय जसु वरकित्ति । तासु पट्टि हरिभदु मुणिंदु, मोहतिमिरभर हरण दिणिंदु ॥ ७ संडिलसूरि तह अज समुदु, अज्ज मंगु जणकइरवचंदु। अज धम्मु धर पयडिय धम्मु, भदगुत्तु दंसिय सिवसम्म ॥८ वयरसामि पब्भाविय तित्थु, अज रक्खिउ वोहिय जणसत्थु । अज नंदि गुरु वंदहु नरहु, अन्ज नागहत्थीसरु सरहु ॥ ९ रेवयसामि सूरि खंडिल्ल, जिणि उम्मूलिय भवदुहसल्ल । हेमवंतु झायहु वहु भत्ति, तरहु जेम भवसायरु ज्झत्ति ॥ १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान चतु-पदिका नागज्जोयसूरि गोविंद, भूइदिन्न लोहिच्च मुणिंद ।। दुसमसूरि उम्मासय सामि, तह जिणभद्दसूरि पणमामि ॥ ११ सिरि हरिभहसूरि मुणिनाहु, देवभहसूरि वर जुगवाहु । नेमिचंद चंदुज्जलकित्ति, उज्जोयणसुरि कंचणदित्ति ॥ १२ पयडिय सूरिमंतमाहप्पु, रूविज्झाणि निजियकंदप्पु। कुंदुज्जल जस भूसिय भवणु, सलहहु वडमाणसुरि रयणु ॥ १३ अणहिलपुरि दुल्लह अत्थाणि, जिणसरसूरि सिद्धंतु वखाणि। चउरासी आइरिय जिणेवि, लउ जसु वसहिमग्गु पयडेवि ॥ १४ जिणि विरईय कहा संवेग-रंगसाल तह सत्थ अणेग। नियदेसण रंजिय नरराय, तसु जिणचंदसुरि सेवहु पाय ॥ १५ वर नव अंग वित्ति उद्धरणु, थंभणि पास पयड फुडकरणु । अभयदेवसुरि मुणिवरराउ, दिसि दिसि पसरिय जसु जसवाउ ॥ १६ नंदि न्हवणु वलि रहु सुपइट, तालारासु जुवइ मुणि सिट्ठ। निसि जिणहरि जिणि वारिय अविहि, थुणुहु सु जिणवल्लहसुरि सुविहि ॥ १७ जोइणिचकु उजेणिय जेण, वोहिउ जिणि नियझाणवलेण । सासणदेवि कहिउ जुगपवरु, सो जिणदत्तु जयउ गुरपवरु ॥ १८ सहजरूवि निजिय अमरिंद, जिणि पडिबोहिय सावयविंद । पंच महव्वय दुद्धर धरणु, नंदउ जिणचंद सुरिमुणिरयणु ॥ १९ अजयमेरि नरवइपच्चक्खि, करि विवाउ वुहियणजणसक्खि। जिणि पउमप्पहु लउ जयपत्तु, जिणवइसूरि जयउ सुचरित्तु ॥ २० नयरि नयरिं जिणमंदिर ठविय, तोरण दंड कलस धज सहिय । तेवीसा सउ दिक्खिय साहु, जिणसरसूरि जयउ गणनाहु ॥ २१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ठकुर-फेरू - विरचित तसु पय पउमज्जोयणु भाणु, जस निम्मलु गुणगणह निहाणु । जुगपवरागम संसयहरणु, जिणपवोह सुरिसुहगुरु सरणु ॥ २२ ॥ तसु पट्ठद्धरु गुरु मुणिरयणु, मयणविणासणु सिवसुहकरणु । भवियलोयजण मणआणंदु, संपइ जुगपहाणु जिणचंदु ॥ २३ इय इत्तिय सुहगुरु आमनइ, जिणचंदसुरि जुगवर जो मनइ । सुजि रमइ सासय सिवनारि, वलवि न पडइ इत्थ संसारि ॥ २४ जक्खिणि जक्ख विउण चउवीस, विजादेवि चहूणी वीस । इय चउ(स)ठि मिलि देहि असीस, जिणचंदसुरि जिउ कोडि वरीस ॥२५ संघसहिउ फेरू इम भणइ, इत्तिय जुगपहाण जो थुणइ । पढइ गुणइ नियमणि सुमरेइ, सो सिवपुरि वर रज्जुकरेइ ॥ २६ तेरह सइतालइ महमासि, रायसिहर वाणारिय पासि । चंद तणुभवि इय चउपईय, कन्नाणइ गुरुभत्तिहि कहिय ॥२७ सुरगिरि पंच दीव सव्वेवि, चंद सूर गह रिक्ख जि केवि । रयणायर धर अविचल जाम, संघु चउन्विहु नंदउ ताम ॥ २८ ॥ इति जुगप्रधान चदुपदिका समाप्ता ॥॥ जिणपबोह गुरराय चलणपंकय वर अलिवलु । नवविह जिय दयकरणु मयण गय सिंह महाबलु। चंदुज्जलु गुणविमलु कित्ति दस दिसिहि पसिद्धउ । दवणु पणंदिय चउ कसाय गुणगणिहि समिद्धउ । सुरिंदु पणय पण जण सहिउ, वंछिउ सुहियण निरु नरहु । रिउ अंतरंग मय अवहरणु पय पढमक्खरि गुरु सरहु॥१॥ ॥सं० १४०३ फा० शु०८ लि०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्। मूलप्रतौ ज्योतिषसारग्रन्थान्ते निम्नलिखितानि ज्योतिषविषयसम्बद्धानि कानिचित् स्फुटपद्यानि प्राप्तानि, तानि परिशिष्टरूपेणात्र मुद्रितानि । लाभ-विक्रम-ख-शत्रुषु स्थितः शोभनो निगदितो दिवाकरः खेचरैः। सुत-तपो- जलीत्यगैार्किभिर्यदि न विध्यते तदा ॥१ धून-जन्म-रिपुं-लाम-खं-त्रिंगश्चन्द्रमाः शुभफलप्रदस्तदा । खात्मजान्त्य-मृतिबन्धु-धर्मगैर्विध्यते न विबुधैर्यदि ग्रहैः ॥२ विक्रमाय-रिपुर्गः शुभः कुजः स्यात्तदान्त्य - सुत-धर्मगैः खगैः। चेन्न विद्ध इनसूनुरप्यसौ किंतु मर्म घृणिना न विध्यते ॥ ३ खायु-शत्रु मृति -खों - ऽयंगः शुभो ज्ञस्तदा न खलु विध्यते यदा। आत्म-त्रि-नव-आये-नैधन-प्रांत्यगैर्विधुभिर्नभश्वरैः॥४ खाय-धर्म-तनय-यूँनस्थितो नाकिनायकपुरोहितः शुभः। रिप्फ-रन्धं-खं-जलॅत्रिगैर्यदा विध्यते गगनचारिभिर्न हि ॥५ आसुताष्टमसुतो व्ययायगो विद्ध आस्फुजिदशोभनः स्मृतः। नैधास्त-तनु-कर्म-धर्मधी लाभ-वैरि'-सहजस्थखेचरैः ॥ ६ एवमत्र खचरा व्यधान्विताः सत्फलं नहि दिशन्ति गोचरे। वामवेधविधिना त्वशोभना अप्यमी शुभफलं दिशन्त्यलम् ॥७ ॥इति ग्रहाणां वामवेध-दक्षिणवेधयोः फलम् ॥ सर्वेषामेव दोषाणां वर्जयेद् घटिकाद्वयम् । उत्पातमृत्युकाणानां सप्त षट् पश्च नाडिका ॥१ बहवोऽप्येवं जगदुः सिंहारूढोऽपि वृत्रशत्रुगुरुम् । समतिकान्तमघों न विरुद्धः सर्वकार्येषु ॥ २ आत्मोपेक्षक-पोषक-वधकानिह जन्मराशि-चन्द्राभ्याम् । घटिकास्तिथिरसरुद्रार्द्धसार्द्धद्वयशकलचरमान्ताः ॥३ योगिनीचक्र प्रवक्ष्यामि दिव्यं परममुत्तमम् । जयं च विजयं चैव येन जायन्ति भूतले ॥१ इन्द्राणी पूर्वभागेषु योगिनी नाम नामतः। प्रतिपदानवम्यां च उदयं कुरुते सदा ॥२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार ग्रन्थान्ते लिखितानि कानिचित् पद्यानि उत्तरायां महिषीनाम योगिनी योगनामिनी। दशम्यां च द्वितीयायां उदयं कुरुते सदा ॥ ३ एकादश्यां तृतीयायां मेषरूढा तु योगिनी । कुमारी नामविज्ञेया आग्नेयी दृश्यते यथा ॥४ श्वानपृष्ठिगता देवी चतुर्थी द्वादशी तथा । नैर्ऋत्यां दिशमासृत्य सिंहनारायणी सदा ॥५ वाराही योगिनी नाम सिंहारूढा सुदुर्धरा । पंचम्यां त्रयोदश्यां च दक्षिणे उदयं सदा ॥ ६ वारुण्यां दिशमासृत्य ब्राह्मणी वृषगामिनी। चतुर्दश्यां तु षष्ठयां च उदयं कुरुते सदा ॥७ चटित्वा तु खरपृष्ठिं चामुंडी चण्डरूपिणी । सप्तम्यां पूर्णिमायां च वायव्ये उदयं सदा ॥८ महालक्ष्मी महादेवी ईशान्यां वृषसंस्थिता । काके रूढा सदा देवी अमावास्याष्टमीदिने ॥९ एवं तु योगिनीचक्रं ज्ञायते यस्तु मानवः । विजयं लभेत् संग्रामे युद्धेषु रणसंकटे॥ द्यूते वा विवहारे वा विवादे जायते शुभम् ॥ श्वानकुर्कुटनालानां मेषेण महिमादिषु। विजयं जायते तस्य यस्य पृष्ठे तु योगिनी ॥ अथ सन्मुखयोगिन्यां संग्रामेषु रणेषु च । गम्यते युध्यते पुंसां न सिद्धिर्जायते कचित् ॥ ॥ योगिनी चक्रम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jan Educationa International For Personal and Private Use Only www.ainelibrary org