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________________ १४ ठकुर - फेरू - विरचित मोतियों का दाम रूप्य टंकों में होता था ( १२४-१२६ ) । उसी तरह एक रती में १ से २ थान चढने वाले हीरे का मूल्य भी चांदी के टंको में कहा गया है ( १२७,२८ ) । गोमेद, स्फटिक, मीष्म, कर्केतन, पुखराज, वैडूर्य-इन सबके मूल्य भी द्रम्म में होते थे ( १३० ) । 1 मानसोल्लास ( १, ४५७-४६४ ) में रत्न तोलने की तुला का सुंदर वर्णन है । उसके तुलापात्र कांसे के बने होते थे । उनमें चार छेद होते थे । जिनसे डोरियां पिरोई जाती थीं । कांसे की दांडी १२ अंगुल की होती थी । जिसके दोनों बगल मुद्रिकाएँ होतीं थीं । दांडी के ठीक बीचोबीच पांच अंगुल का कांटा होता था । जिसका एक अंगुल छेद में फंसा दिया जाता था। कांटे के दोनों ओर तोरण की आकृति बनाई जाती थी। जिसके सिर पर कुंडली होती थी । उसी में डोरी लगती थी । तराजू साधने के लिए एक कलंज तौल का माल एक पलड़े में और पानी दूसरे पलडे में भरा जाता था । जब कांटा तोरण के ठीक बीच में बैठ जाता था तो तराजू सध गई मानी जाती थी । ( ८ ) विजाति - इस शब्द से कृत्रिम रत्नों का तथा कीमती रत्नों की तरह दिखनेवाले उपरत्नों से अभिप्राय है । ऐसे नकली रत्न भारत और सिंहल में बहुतायत से बनते थे । नवरत्न परीक्षा ( १७४ - १८३ ) के अनुसार सम भाग जले शंख और सिंदूर को सद्यः प्रसूता गाय के दूध में सान कर फिर उसे तृण से बांध कर बांस में भर कर, मिट्टी के बरतन में चावल के साथ पका कर फिर उसे निकाल कर धीमी आंच पर रख देते थे; फिर उसे तेल में बोरते थे । इससे बांस के भीतर नकली मूंगा बन जाता था । इन्द्रनील बनाने के लिए एक कुप्पे में एक पल नील का चूर्ण और दो पल शंख का चूर्ण मिलाकर खूब हिलाते थे। फिर पूर्वोक्त विधि से नकली इन्द्रनील बना लेते थे । नकली मरकत बनाने के लिए मंजीठ, ईंगुर और नील समभाग में लेकर उसे शीशे की कुप्पी में खूब मिलाते थे । फिर उनके रखे अलग करके उन्हें आग में पकाया जाता था । मानिक शंख के चूर्ण और ईंगुर के मेल से उपर्युक्त विधि से बनता था । -:४: इस प्रकरण में रत्न- परीक्षाओं के आधार पर उनमें आए रत्नों के उपर्युक्त आठ विशेषताओं की जांच पड़ताल करके यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि ठक्कुर फेरु ने अपनी रत्नपरीक्षा में कहां तक प्राचीनता का उपयोग किया है और कहां उसने रत्न सम्बन्धी अपने अनुभवों का । हीरा - हीरा रत्नों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । उसकी विशेषता यह है कि वह सब रत्नों को काट सकता है उसे कोई रत्न नहीं काट सकता । प्रायः सब शास्त्रों के अनुसार हीरे की उत्पत्ति असुरबल की हड्डियों से हुई । उसका नाम वज्र इसलिए पड़ा कि इन्द्र से पाहत होने पर ही वह निकला । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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