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. रत्नपरीक्षा का परिचय (४) जाति-रत्नशास्त्रों में इस शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग हुआ है । यथा असली रत्न, रत्न की किस्म और जाति । अंतिम विश्वास के अनुसार रत्नों में भी जातिभेद होता था। यह विश्वास शायद पहिले पहल हीरे तक ही सीमित था । इसके अनुसार ब्राह्मण को सफेद हीरा, क्षत्रिय को लाल, वैश्य को पीला और शूद्र को काला हीरा पहनने का विधान था । बाद में यह विश्वास ओर रत्नों के सम्बन्ध में भी प्रचलित हो गया ।
(५) गुण, दोष-रत्नों के सम्बन्ध में इन शब्दों का प्रयोग उनकी शुद्धता और चमत्कार लेकर हुआ है । पहिले अर्थ में वे रत्न के गुण और दोष परक हैं । दूसरे अर्थ में वे रत्न के बुरे और भले प्रभाव के द्योतक हैं।
रत्नों के गुण निम्नलिखित हैं-महत्ता ( भारीपन ) गुरुत्व, गौरव ( घनत्व) काठिन्य, स्निग्धता, राग-रंग, आब ( अर्चिस् , द्युति कांति, प्रभाव ) और स्वच्छता ।
(६) फल सभी रत्नों के फल की विवेचना की गई है। अच्छे रत्न खास्थ्य, दीर्घजीवन, धन और गौरव देने वाले, सर्प, जंगली जानवर, पानी, आग, बिजली, चोट, बिमारी इत्यादि से मुक्ति देनेवाले तथा मैत्री कायम रखने वाले माने गए हैं। उसी तरह खराब रत्न दुख देनेवाले माने गए हैं। ___ यह ध्यान देने योग्य बात है, कि रत्नों के बीमारी अच्छा करने के गुणों का रत्न शास्त्रों में उल्लेख नहीं है । रत्नों के फलों की जांच पड़ताल से यह भी पता चलता है कि उनके लिखने में दिमागी कसरत को अधिक प्रश्रय दिया गया है । पर इसमें संदेह नहीं कि शास्त्रकारों ने रत्न-फल के सम्बन्ध में लोकविश्वासों की भी चर्चा कर दी है। हीरे का गर्भस्रावक फल और पन्ने का सर्पविष को रहना इसी कोटि के विश्वास हैं।
(७) रनों के मूल्य-उनके तौल और प्रमाण पर आश्रित होते थे। प्राचीन ग्रंथों में रत्नों का मूल्य रूपकों और कार्षापणों में निर्धारित किया गया है। यह पता नहीं चलता कि रत्नों का मूल्य सोना अथवा चांदी के सिक्कों में निर्धारित होता था पर कार्षापणके उल्लेख से इनका दाम चांदीके सिक्को ही में मालूम पडता है । अगस्तिमत के एक क्षेपक (१२) से पता चलता है कि गोमेद और मूंगे का दाम चांदी के सिक्कों में होता था, तथा वैडूर्य और मानिक का सोने के सिक्कों में । ठक्करफेरु (१३७) ने, बडे हीरे, मोती, मानिक और पन्ने का मूल्य खर्णटंकोंमें बतलाया है।'
आधे मासे से चार मासे तक के लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील और फिरोजा के दाम भी : वर्णमुद्राओं में होते थे ( १२१-१२३ ) एक टांक में १० से १०० तक चढने वाले
- यहां यह बात उल्लेखनीय है कि दिव्य शरीर का रत्नों में परिणत होजाने का विश्वास वैदिक है . (जे० आर० एस०. १८९४, पृ० ५५८-५६०) ईरानियों का भी कुछ ऐसा ही विश्वास था
(जे० आर० एस० १८९५, पृ० २०२-२०३)
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