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________________ १२ ठक्कुर - फेरू - विरचित वैश्य और पैरों से शूद्र रत्नों की उत्पत्ति हुई । नवरत्न परीक्षा ( ८ से) में दैत्य का नाम वज्र दिया गया है । वज्रासुर को हराने के लिए इन्द्र ने उससे उसके शरीर का वर मांगा । ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर लेने पर यह जान कर कि उसका शरीर अमेद्य है, इन्द्र ने उसके मस्तक पर वज्र से प्रहार किया । उसके शरीर से - तरह तरह के रत्न निकले । देव, नाग, सिद्ध, यक्ष, राक्षस और किन्नरोंने तो वह रत्न जाल ग्रहण कर लिया, बाकी रत्न पृथ्वी पर फैल गए । ठक्कुर फेरु ( ६--१९ ) की रत्नोत्पत्ति सम्बन्धी अनुश्रुति का रूप भी बुद्धभट्ट वाली जनश्रुति जैसा ही है । एक दिन असुर बलि इन्द्रलोक को जीतने गया । वहां देवातओं ने उससे यज्ञ - पशु बनने की प्रार्थना की जिसे उसने स्वीकार कर लिया । उसकी हड्डियों से हीरे, दांतों से मोती, लहू से माणिक, पित्त से पन्ना, आंखों से नीलम, हृत् रस से वैडूर्य, मज्जा से कर्केतन, नखों से लहसुनिया, मेद से स्फटिक, मांस से मूंगा, चमड़े से पुखराज तथा वीर्य से भीष्म पैदा हुए । असुर बल के शरीर से निकले रत्नों में से सूर्य ने पद्मराग, चन्द्र ने मोती, मंगल ने मूंगा, बुद्ध ने पन्ना, बृहस्पति ने पुखराज, शुक्र ने हीरा, शनि ने नीलम, राहु ने गोमेद और केतुने वैर्य ग्रहण कर लिए और इसीलिए इन रत्नों को धारण करने वाले उपर्युक्त ग्रहों से पीड़ा नहीं पाते । चोखे रत्न ऋद्धिदायक और सदोष रत्न दरिद्रता देने वाले होते हैं ! पर रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्युक्त मत ही प्रचलित नहीं था, इसका निराकरण वराहमिहिर ( ८० । ३ ) ने कर दिया है। उनके अनुसार एक मत से रत्न दैत्यबल से उत्पन्न हुए, दूसरों का कहना है कि दधीचि से । कुछ इस मत के हैं कि उनकी उत्पत्ति पत्थरों के स्वभाववैचित्र्य से है । ठक्कुर फेरू ( १२ ) के अनुसार मी कुछ लोग ऐसे थे जिनका मत था कि रत्न पृथ्वी के विकार हैं । जैसे सोना, चांदी, तांबा आदि धातु हैं वैसे ही रत्न मी । 1 एक दूसरे विश्वास के अनुसार मनुष्य, सर्प तथा मेंढक के सर में मणि होती थी ( अगस्तिमत, ६३–६७ ) वराहमिहिर, ( ८५ - ५ ) के अनुसार सर्पमणि गहरे नीले रंग की और बड़ी चमकदार होती थी । (२) आकर - रत्नों की खान को आकर कहा गया है । वराहमिहिर ( ८०-१७ ) के अनुसार नदी, खान और छिटफुट मिलने की जगह आकर है । बुद्धभट्ट (१०) ने. आकरों में समुद्र, नदी, पर्वत और जंगल गिनाए हैं । (३) वर्ण, छाया - प्राचीन ग्रंथों में रत्नों के रंग को छाया कहा गया है । पर बाद के शास्त्रों में वर्ण के लिए छाया शब्द का व्यवहार हुआ है । बहुधा शास्त्रकार रत्नों को छाया की उपमा जानी पहचानी वस्तुओं से देते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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