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________________ ठकुर-फेरू-विरचित वैदूर्य विदूर में नहीं होता, वह तो बालवाय में होता है और विदूर में कमाया जाता है । पर शायद बालवाय शब्द विदूर में परिणत हो गया हो और इसीलिए उसमें य प्रत्यय लम गया हो। इसके माने यह हुए कि विदूर शब्द बालवाय का एक दूसरा रूप है । इस पर एक मत है कि विदूर बालवाय नहीं हो सकता; दूसरा मत है कि जिस तरह व्यापारी वाराणसी को जित्वरी कहते थे उसी तरह वैय्याकरण बालवाय को विदूर। उपर्युक्त कथन से यह बात साफ हो जाती है कि वैडूर्य बालवाय पर्वत में मिलता था और विदूर में कमाया और बेचा जाता था । यह पर्वत दक्षिण भारत में था । बुद्धभट्ट (१९९) के अनुसार विदूर पर्वत दो राज्यों की सीमा पर स्थित था। पहला देश कोंग है जिसकी पहचान आधुनिक सेलम, कोयंबटूर, तिन्नेवेली और ट्रावन्कोर के कुछ भाग से की जाती है। दूसरे देश का नाम बालिक, चारिक या तोलक आता है, जिसे श्री फिनो चोलक मानते हैं जिसकी पहचान चोलमंडल से की जा सकती है। इसी आधार पर श्री फिनो ने बालवाय की पहचान चीवरै पर्वत से की है। यह बात उल्लेखनीय है कि सेलम जिले में स्फटिक और कोरंड बहुतायत से मिलते हैं । । ठक्कुर फेरू ( ९४ ) का कुवियंग कोंग का बिगडा रूप है । समुद्र का उल्लेख कोरी कल्पना है । ठक्कुर फेरू ने लहसनिया और वैडूर्य अलग अलग रत्न माने हैं । संभव है कि देशभेद से एक ही रत्न के दो नाम पड गए हों। स्फटिक ___ प्राचीन रनशास्त्रों के अनुसार स्फटिक के दो भेद यानी सूर्यकांत और चन्द्रकांत माने गए हैं । ठक्कुर फेरू (९६) ने भी यही माना है पर अगस्तिमत के क्षेपक में स्फटिक के भेदों में जलकांत और हंसगर्भ भी माने गए हैं । पृथवीचन्द्र चरित्र (पृ० ९५) में भी जलकांत और हंसगर्भ का उल्लेख है। सूर्यकांत से आग, चन्द्रकान्त से अमृतवर्षा, जलकांत से पानी निकलना तथा हंसगर्भ से विष का नाश माना जाता था। बुद्धभट्ट के अनुसार स्फटिक कावेरी नदी, विंध्यपर्वत, यवन देश, चीन और नेपाल में होता था। मानसोल्लास के अनुसार ये स्थान लंका, ताप्ती नदी, विंध्याचल और हिमालय थे । ठक्कुर फेरू के अनुसार नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी नदी, जमुना, और विंध्याचल से स्फटिक आता था । पुख राज पुखराज की उत्पत्ति असुर बल के चमड़े से मानी गई है । इसका दाम लहसनिया जैसा होता था । बुद्धभट्ट के अनुसार पुखराज हिमालय में, अगस्तिमत के अनुसार सिंहल और कलहस्थ (१) में तथा रनसंग्रह के अनुसार सिंहल और कर्क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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