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________________ प्रधान संपादकीय-किंचित् प्रासंगिक राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के ४४ वें ग्रन्थांक रूप में, ठकुर फेरू रचित ७ ग्रन्थों का यह एकत्र संग्रह प्रकट किया जा रहा है। __टक्कुर फेरू के इन ग्रन्थों की लिखी हुई प्राचीन पोथी का पता लगाने का श्रेय श्री अगर चन्दजी और भंवर लालजी नाहटा को है। इन साहित्यखोजी बन्धुओं की लगन ने, कलकत्ते के एक कोने में पड़े हुए जैन ग्रन्थों के पिटारे में से, इस मूल्यवान निधि को प्रकाश में लाने का अभिनन्दनीय यश प्राप्त किया है। ___ठक्कुर फेरू के ये प्रबन्धात्मक ग्रन्थ कैसे मिले और इन को प्रकाश में लाने का कैसा प्रयत्न किया- इस विषय में नाहटा बन्धुओं ने, अपने प्रस्तावनात्मक वक्तव्य में यथेष्ट लिखा है। इस से पहले भी इन्हों ने, कुछ पत्रों में लेख प्रकट करा कर इस विषय पर काफी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है ।। इस संग्रह की प्राचीन पोथी जब इन के देखने में आई, तो इन की शोधक . बुद्धि ने तत्काल उस का विशिष्ट महत्त्व पिछान लिया और तुरन्त उस पोथी पर से अपने हाथ से नकल उतार कर मेरे पास देखने के लिये भेज दिया। मैं ने भी ग्रन्थ के 'द्रव्यपरीक्षा' नामक प्रबन्ध में वर्णित सर्वथा अज्ञात विषय की उपलब्धि देख कर, इस को सुप्रसिद्ध सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट कर देने की अपनी इच्छा नाहटा बन्धुओं को व्यक्त की और उस असल प्राचीन लिखित पोथी को मेरे पास भेज देने को लिखा । पर उस समय कलकत्ते में सांप्रदायिक मार-पीट की तूफान वाली हल - चल मच रही थी इस लिये तुरन्त वह प्रति मेरे पास न आ सकी । प्रतिका प्रत्यक्ष अवलोकन किये विना किसी ग्रन्थ को छाप देने के लिये मेरी रुचि संतुष्ट नहीं रहती, इस लिये मैं उस की प्रतीक्षा करता रहा । बाद में, मेरा खयं जब कलकत्ता जाना हुआ तो मैं उस प्रति को देखने में समर्थ हुआ और नाहटा बन्धुओं के सौजन्य से वह प्रति कुछ समयके लिये मुझे मिल गई । बंबई आ कर मैं ने उस पर से अपने निरीक्षण में प्रतिलिपि करवाई और उसे प्रेस में छपवाने की व्यवस्था की । ... बाद में बंबई छोड कर मेरा अधिक रहना राजस्थान में होने लगा और मैं मेरे तत्त्वावधान में प्रस्थापित और संचालित राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर (अब, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ) के संगठन और संचालन के कार्य में अधिक व्यस्त रहने लगा, तो इस का प्रकाशन स्थगित सा हो गया। । पर इस ग्रन्थ को, इस रूप में, प्रकट करने-कराने की अभिलाषा नाहटा बन्धुओं को बहुत ही उत्कट रही और मुझे भी ये बहुत प्रेरणा करते रहे । तब मैं ने इसे राजस्थान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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