SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठक्कुर फेरू और उनके ग्रन्थों के विषय में . प्रास्ता वि क कथन (लेखक-अगरचन्द, भंवरलाल नाहटा) कनाणा निवासी ठक्कर फेरू का नाम यों तो उन की सुप्रसिद्ध कृति 'वास्तसार प्रकरण के कारण सर्व विदित था, परन्तु उन के बहुमुखी प्रतिभासंपन्न एवं महान् ग्रंथकार होने का अब तक पता नहीं था। १५ वर्ष पूर्व, कलकत्ते की श्रीमणि जीवन जैन लायब्रेरी की सूची में 'सारा कौमुदी गणित ज्योतिष' नाम से उल्लिखित फेरू ग्रंथावली की प्रति देखने पर ठक्कर फेरू की कई नई कृतियाँ ज्ञात हुई । इस प्रति की प्राप्ति से केवल हमने ही नहीं, पर जिस किसीने सुना परम आनंद प्राप्त किया । इन ग्रंथों की उपलब्धि से ठक्कुर फेरू की गणना, भारतीय साहित्य में, एक अनूठा स्थान प्राप्त करने वाले विद्वानों में की जा सकती है। ठक्कर फेरू विक्रम की चौदहवीं शती के राजमान्य जैन गृहस्थों में प्रमुख व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी कृतियों में जो परिचय दिया है उससे विदित होता है कि ये कन्नाणा निवासी श्रीमाल वंश के धांधिया (धंधकुल ) गोत्रीय श्रेष्ठि कालिय या कलश के पुत्र ठकुर चंद के सुपुत्र थे। इनकी · सर्व प्रथम रचना 'युगप्रधान चतुष्पदिका' है जो संवत् १३४७ में वाचनाचार्य राजशेखर के समीप, अपने निवासस्थान कन्नाणा में बनी थी। इन्होंने अपनी कृतियों के अंत में “परम जैन" और अपने आप को “जिणंद पय भत्तो" लिख कर अपना कट्टर जैनत्व सूचित किया है । इन्होंने 'रत्नपरीक्षा में अपने पुत्र का नाम हेमपाल लिखा है, जिसके लिये इस ग्रंथ की रचना की है। इनके भाई का नाम अज्ञात है परन्तु भ्राता और पुत्र के लिए 'द्रव्यपरीक्षा' नामक विशिष्ट ग्रंथ की रचना की थी। दिल्लीपति सुरत्राण अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी या मंत्रिमंडल में होने के कारण, पीछे से इनका निवास स्थान अधिकतर दिल्ली हो गया था। इन्होंने 'द्रव्यपरीक्षा' दिल्ली की टंकसाल के अनुभव से तथा 'रत्नपरीक्षा' ग्रंथ सम्राट् के रत्नागार के प्रत्यक्ष अनुभव से, एवं 'गणितसार' में भी दी हुई तत्कालीन राजनैतिक गणित प्रश्नावली आदि से, यह फलित होता है कि ये अवश्य शाही दरबार में उच्च पदासीन व्यक्ति थे। संवत् १३८० में दिल्ली से श्रीमाल सेठ रयपति ने महातीर्थ शत्रुञ्जय का संघ निकाला था, जिसमें ठक्कुर फेरू भी सम्मिलित हुए थे। १-पं. भगवानदासजी जैन ने जयपुर से “वास्तुसार” (गुजराती अनुवाद सहित संस्करण) के साथ "रत्नपरीक्षा" और "धातोत्पत्ति” का अपूर्ण अंश भी प्रकाशित किया है। २-देखें हमारी “दादा जिन कुशल सूरि" पुस्तक । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy