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________________ रत्नपरीक्षा [पाठान्तर-इय सत्थुत्तयरना भणिय भणामित्थ पारसी रयणा । वण्णागर संजुत्ता अन्ने जे धाउसंजाया ॥५७] अइतेय-अग्गिवन्नं लालं वंदखसाण देसंमि । जमणदेसे यकीकं लहु मुल्लं पिल्लुसमरंगं ॥ १०४ ॥ [पाठान्तर-अइतेय अग्गीवणं लालं वद्दक्खसाए देसम्मि । यमणदेसे यकीकं लहु मुल्लं पिल्लुसमरंगं ॥ ५८] नीलामल पेरुज्जं देसे नीसावरे मुवासीरे । उप्पजइ खाणीओ दिट्ठिस्स गुणावहं भणियं ।।१०५॥ [पाठान्तर-नीलनिहं पेरुज देसे नीसावरे गुवासीरे । ___ उप्पजइ खाणीओ दिहिस्स गुणावहं भणियं ॥ ५९] ॥ इति वज्रादिसर्वरत्नानां स्थानज्ञातिस्वरूपाणि समाप्तः (१) ॥ अर्थतेषामेव मूल्यानि वक्ष्यते जथागाहा। पुनः भावानुसारेण जथा जे सत्थ-दिट्ठिकुसला अणुभूया देस -काल-भावन्नू । जाणिय रयणसरूवा मंडलिया ते भणिज्जंति ॥ १०६ ॥ हीणंग अंतजाई लक्खण - सत्तुज्झया फुडकलंका । अय जाणमाणया विहु मंडलिया ते न कईयावि ॥ १०७ ॥ मंडलिय रयण दटुं परोप्परं मेलिऊण करसन्नं । जंपति ताम मुल्लं जाम सहासम्मयं होइ ॥ १०८ ॥ धणिओ अमुणियमुल्लो हीणहियं मुणइ तस्स नहु दोसो। मंडलिय अलियमुलं कुणंति जे ते न नंदति ॥ १०९॥ अहमस्स अहियमुलं उत्तमरयणस्स हीणमुल्लं च । जे मयलोहवसाओ कुणंति ते कुट्ठिया होंति ॥११॥ रयणाण दिट्ठ मुलं निरुद्ध वद्धं न होइ कईयावि । तहवि समयाणुसारे जं वट्टइ तं भणामि अहं ॥ १११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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