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________________ रत्नपरीक्षा का परिचय धिक चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, प्रवाल, राजावर्त, कषाय और इन्द्रनील के नाम आए हैं। इस तालिका में रत्नपरीक्षा के महारत्नों में गोमेद, मरकत, मुक्ता, हीरा, पद्मराग, इन्द्रनील, प्रवाल और सूर्यकान्त हैं । मांसखंड, सौगंधिक, (शायद चुन्नी), तो पनराग या मानिक के ही भेद हैं । इसी तरह चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त और कषाय स्फटिक के भेद हैं । मारासेस. जिसका सम्बन्ध शेष (onyx) से हो सकता है; तथा लाजवर्द की गणना रत्नों में किस प्रकार की गई यह कहना सम्भव नहीं । ___ उपमणियों की तालिका वर्णरत्नाकर में दो जगह आई है [पृ० २१, ४१] इनमें [१] कूर्म, [२] महाकूर्म, [३] अहिछत्र, [४ ] श्यावगं (सं) घ, [५] व्योमरागं, [६] कीटपक्ष, [७] कुरू [ कूर्म ] विंद, [८] सूर्यभा (ना)ल, [९] हरि (री) तसार, [१०] जीविउ (जीवित), [११] यवयाति (यवजाति), [१२] शिखि (खी) निल, [१३] वंशपत्र, [१४] धू (चू ) लिमरकत, [१५] भस्मांग, [१६] जंबुकान्त, [१७] स्फटिक, [१८] कर्केतर, [१९] पारिपात्र, [२०] नन्दक, [२१] अंच (तु) नक, [२२] लोहितक, [२३] शैलेयक, [२४] शुक्तिचूर्ण, [२५] पुलक, [२६] तुल्य (त्थ ) क, [२७] शुकग्रीव [२८] गुरुत् (ड) पक्ष, [२९] पीतराग, [३०] वर्णरस (सर), [३१] कपूर्रक, [३२] काच । उपमणियों की उपर्युक्त तालिका में कुछ मणियों पर ध्यान दिलाना आवश्यक है । इसमें कूर्म और महाकूर्म तो मणियों की श्रेणी में नहीं आते । कछुए की खपडियों का व्यापार बहुत पुराना है और इसका उल्लेख पेरिप्लस में अनेक बार हुआ है (शाफ, पेरिप्लस आफ दि एरीथ्रियन सी, पृ० १३ इत्यादि) अहिछत्रक का उल्लेख हमारा ध्यान कौटिल्य (२।१।२९) के आहिच्छत्रक रन की ओर ले जाता है। धूलिमरकत से यहां शायद पन्ने के खड से मतलब है और इस तरह वह ठक्कुर फेरू की धूलिमराई भी शायद खड़ हो । भस्मांग से यहां शायद भीष्म से मतलब है । जंबुकान्त से शायद जमुनियां का मतलब है। अंजन, पुलक, नंदक और शुक्तिचूर्णक के नाम भी अर्थशास्त्र में आए हैं। कर्केतर से यहां कर्केतन का तथा लोहितक से लोहितांक का मतलब है । तुत्यक से हमारा ध्यान कौटिल्य के तुत्थोद्गत चांदी की और खींच जाता है (१२।१४।३२)। काच से काच मणि की और इशारा है। सन् १४२१ में लिखित पृथ्वीचन्द्र चरित्र (प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ० ९५, बडोदा, १९२०) में रनों और उपरत्नों की निम्न लिखित तालिका दी गई हैपनराग, पुष्पराग (पुखराज) माणिक, सींधलिया, गरुडोद्गार, मणि, मरकत, कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, जलकान्त, शिवकान्त, चन्द्रप्रभ, साकर प्रभ, प्रभनाथ, अशोक, वीतशोक, अपराजित, गंगोदक, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलिक, सौगंधिक, सुभग, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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