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________________ रत्नपरीक्षा का परिचय जिनके घरों में निर्दोष हीरे होते हैं उनकी विघ्न, अकाल मृत्यु और शत्रुभय से रक्षा होती है। लाल और पीले हीरे पहनने से राजा को विजयश्री हाथ लगती थी। पुरुष लपलपाते हीरे में भूत, प्रेत, वृक्ष, मंदिर, इन्द्रधनुष इत्यादि देख सकते थे (३०)। हीरे का आरंभिक रूप अठपहला होता था और हीरे के इसी आकार को रनशास्त्रों में सबसे अच्छा माना है। प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार अच्छे हीरे में छ: या अष्ट कोण, बारह धाराएं, आठ दल, पार्श्व या अंग कहे गए हैं । हीरे की चोटी को कोटि, तल को विभाजित करने वाली रेखा को अग्र, चोटी की उठान को उत्तुंग, तथा नुकीली विभाजक रेखाओं को तीक्ष्ण कहते थे। तौल में कम, खच्छ, शुद्ध और निर्मल और भास्कर -ये हीरे के गुण माने गए हैं। ठक्कुर फेरू (२४) ने हीरे के आठ गुण कहे हैं-सम फलक, उच्च कोणी, तीक्ष्ण धारा, पानी (वारितक), अमल, उज्वल, अदोष और लघुतोल । __ रनशास्त्रों में हीरे के अनेक दोष भी उल्लिखित हैं। जिनमें टूटी चोटी या पहल, एक की जगह दो कोण, दल दीनता, बर्तुलता, दलहीनता, चपटापन, लंबोदरपन, भारीपन, बुलबुलापना, और कांतिहीनता मुख्य हैं । ठक्कुर फेरू (२५) ने नौ दोष यथाकाकपद, विंदुर (छींटा) रेखा, मैलापन, चिकट, एक शंगता, वर्तुलता, जोका आकार, तथा हीन अथवा अधिक कोण बतलाया है । उसके अनुसार (३१-३२) अत्यन्त चोखी तीखी धारा पुत्रार्थी स्त्रियों के लिए हानिकर थी । पर इसके विपरीत चिपटा, मलिन और तिकोना हीरा रमणियों को इसलिए सुख कर होता था कि पुत्ररत्नों की जननी होनेसे वे अपने को प्रथम रत्न मानतीं थीं, भला फिर उनका सदोष रत्न क्या कर सकता था। हीरे का मूल्य प्राचीन रत्नशास्त्रों में तौल के आधार पर निश्चित किया जाता था। इस सम्बन्ध में दो मत थे एक बुद्धभट्ट और वराहमिहिर का और दूसरा अगस्तिमत का । पहिली व्यवस्था में तौल तंडुल और सर्षप (१ तंडुल = ८ सर्षप) में थी तथा मूल्य रूपकों में। हीरे की सबसे अधिक तौल बीस तंडुल और दाम दो लाख रूपक निश्चित की गई थी। तौल के इस क्रममें हरे घटाव या चढ़ाव दो इकाइयों के बराबर होता था। २० तंडुल के हीरे का दाम दो लाख था और एक तंडुल के हीरे का एक हजार । देखने में तो यह हिसाब सीधा साधा मालूम पडता है, पर श्री फिनोने हिसाब लगा कर बतलाया है कि २० तंडुल यानी चार केरट के हीरे का दाम इस रीति से बहुत अधिक बैठ जाता है। __ अगस्तिमत के अनुसार तौल्य और स्थौल्य के आधार पर पिंड से हीरे का दाम निश्चित किया जाता था। पिंड का माप १ यव स्थौल्य और .१ तंडुल तौल्य मान लिया गया है । इस तरह एक पिंड के हीरे का दाम ५०; दो का ५० गुणा ४, चार का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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