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ठकुर- फेरू - विरचित -
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५० गुणा १२; पांच का ५० गुणा १६. ....इस तरह बढ़ते बढ़ते २० पिंड का दाम ३८०० पहुंच जाता है। पर इस मूल्यांकन में एक ही घनत्व के हीरे आते हैं; उनके हलके होने पर उनका दाम बढ़ जाता था तथा भारी होने पर घट जाता था । इस तरह एक हीरा एक पिंड के घनत्व का होते हुए भी १।४ हलके होने पर उसका दाम अठारह गुना होता था, १२ हलके होने पर छत्तीस गुना तथा ३।४ हलके होने पर बहत्तर गुणा हो जाता था । इसी तरह एक हीरा एक पिंड का घनत्व होते हुए मी भारी हो तो उसका दाम १।४ भारी होने पर आधा हो जाएगा इत्यादि । श्री फिनो की राय में अगस्तिमत का ही मूल्यांकन वास्तविक मालुम पड़ता है ।
ठक्कुर फेरूने हीरे का मूल्यांकन अलग न देकर मोती, मानिक और पन्ने के साथ दिया है। पर हीरे का मूल्य निर्धारण करते समय उसे अगस्तिमत का ध्यान अवश्य रहा होगा । उसके अनुसार ( ३३ ) समपिंड हीरे का भारी होने पर कम दाम और फार तथा हलके होने पर ज्यादा दाम होता था ।
अलाउद्दीन के समय जौहरियों की तौल का वर्णन ठक्कुर फेरू ने इस तरह से किया है -
३ राई
६ सरसों
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२ तंडुल १ जौ
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१ सरसों
१ तंडुल
४ मासा
१६ तंडुल या ६ गुंजा ( रत्ती ) १ टांक टांक के उपर्युक्त तौल में कई बातें उल्लेखनीय हैं। श्री नेल्सन राइट ( दि कॉयन्स एंड मेटालोजी आफ दि सुलतान्स् आफ देहली, पृ० ३९१ से ) ने अपनी खोज से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सुलतान युगके टांक में ९६ रत्तियां होती थीं। रत्ती का वजन १०८ ग्रेन मान कर उन्होंने टांक की तौल १७२ ग्रेन निर्धारित की है। पर ठक्कुर फेरू के हिसाब से तो २४ रत्ती १ टांक यानी १७२.८ ग्रेन के बराबर हुई यानी एक रत्ती का वजन करीब ६.३५ ग्रेन के करीब हुआ। अब यहां प्रश्न उठता है कि गुंजा से यहां साधारण गुंजा का ही अर्थ है अथवा यह कोई तौल थी जिसका वजन आधुनिक रत्तीसे करीब करीब पांचगुना अधिक था ।
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ठक्कुर फेरू (१११ ) ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि रत्नों का मूल्य बंधा हुआ न होकर अपनी नजर पर अवलंबित होता है, फिर भी अलाउद्दीन के समय रत्नों के जो दाम थे उनकी तौल के साथ उसने वर्णन किया है और यह भी बतलाया है की चार रत्न यानी हीरा, मोती, मानिक और पन्ने का दाम सोने के टंके में लगाया
१ मासा
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