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________________ २३ चतुर्थ लग्नद्वार जा जहि काले छाया दिणडछाया वि हीण संकेजुया । दिणमाणं छ च गुणतेण फलं दिवसगयसेसं ॥ ३५ ॥ गतशेषदिनम् ॥ दिवसद्ध संकेजुयं गयघडियफलेण मञ्झछायजुयं । संकूणे सेसअंगुल जहिच्छकालस्स छायवरं ॥ ३६ ॥ इति इष्टच्छाया ॥ संकपहावग्गजुयं तस्स पए कंनु कन्नवग्गाओ। सोहेवि संकवग्गं सेसस्स पए हवइ छाया ॥ ३७ ॥कर्णच्छाया ॥ वासरभुत्त घडी पल संपइ तिहि वार रिक्ख जोयजुयं । तं तकालियवारं तिहिरिक्खं जोय जाणेह ॥ ३८ ॥तिथ्यादितकालिक योग ।। ॥ इति परमजैन श्री चन्द्राङ्गज- ठकुरफेरू-विरचिते ज्योतिषसारे गणितपदं तृतीयं द्वारं समाप्तम् ॥ * [चतुर्थ लमद्वारम्] गुरखित्तगए सूरे रविखित्ते जीउ गुर-रविक्कि गिहे। सुके य सुरगुरे वा बाले वुड्डे य अत्थमिए ॥ १ ॥ तिन्नि दह दियह बाले पक्खं पण दियह भिगु सुए वुड्ढे । पुव्यावरसुकमेणं तिदिण गुरू बाल पण वुड्ढे ॥२ हरिसयण अहियमासे रवि-ससिगहणाउ जाव सत्त दिणा । संकंति पढम अग्गिम इय ति दिण दिणत्तयाईए ॥ ३ जिट्ठस्स जिट्ठमासे वइधिइ वितिपाय विट्टि ससि नट्टे । न हु लग्गं दायव्वं जम्मदिणे जम्मभे मासे ॥ ४ ॥इति वर्ष- मासादिनिषेधः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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