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________________ रत्नपरीक्षा का परिचय को शास्त्रज्ञ, आंखवाला, अनुभवी, देश, काल और भाव का ज्ञाता और रत्नों के खरूप का जानकार होना आवश्यक था। हीनांग, नीच जाति, सत्य रहित और बदनाम व्यक्ति जानकार और मान्य होने पर भी असली जौहरी .कभी नहीं हो सकता । अगस्तिमत (६५) ने भी यही भाव प्रकट किए हैं। अगस्तिमत (५४-६६ ) के अनुसार चतुर जौहरी को मंडलिन् कहा गया है। यह नाम शायद इसलिए पड़ा कि जौहरी अपना काम करते समय मंडल में बैठता था। यह भी संभव है कि यहां मंडल से मंडली यानी समूह का मतलब हो। अगस्ति मत (६१-६६) के अनुसार जौहरी रत्नों का मूल्य आंकता था। उसे देश में मिलनेवाले आठ खानों तथा विदेशी और द्वीपों से आए हुए रत्नों का ज्ञान होता था। उसे रत्नों की जाति, राग रंग, वर्ति, तौल, गुण, आकर, दोष, आब (छाया) और मूल्य का पता होता था। वह आकर (पूर्वी मध्यभारत), पूर्वदेश, कश्मीर, मध्यदेश, सिंहल तथा सिंधु नदी की घाटी में रत्न खरीदता था तथा रत्न बेचने और खरीदने वाले के बीच मध्यस्थ का काम करता था। अगस्तिमत (७२) के अनुसार वह रत्न विक्रेता से हाथ मिलाकर अंगुलियों के इशारे से उसे रत्न के मूल्य का पता दे देता था। उसी के एक क्षेपक (१३-२३ ) के अनुसार १, २, ३, ४ संख्याओं का क्रमशः तर्जनी से दूसरी अंगुलियों को पकड़ने से बोध होता था । अंगूठे सहित चारों अंगुलियां पकड़ने से ५ की संख्या प्रकट होती थी। कनिष्ठा आदि के तलस्पशे से क्रमशः ६, ७, ८ और ९ की संख्याओं का बोध होता था; तथा तर्जनी से १० का। फिर नखों के छूने से क्रमशः ११, १२, १३, १४ और १५ का बोध होता था । इसके बाद हथेली छूने पर कनिष्ठादि से १६ से १९ तक की संख्याओं का बोध होता था। तर्जनी आदि का दो, तीन, चार और पांच बार छूने से २० से ५० तक की संख्याओं का बोध होता था । कनिष्ठा आदि के तलों को ६ वार तक छूने से ६० से ९० तक अंकों की ओर इशारा हो जाता था; तथा आधी तर्जनी पकड़ने से १००, आधी मध्यमा पकड़ने से १०००, आधी अनामिका पकड़ने से अयुत, आधी कनिष्ठिका से १०००००, अंगूठे से प्रयुत, कलाई से करोड़ । मुगल काल में तथा अब भी अंगुलियों की सांकेतिक भाषा से जौहरी अपना व्यापार चलाते हैं। प्राचीन साहित्य में भी बहुधा जौहरियों के सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं । दिव्यावदान (पृ० ३) में कहा गया है कि किसी रत्न की कीमत आंकने के लिए जौहरी बुलाये जाते थे। अगर वे रत्न की ठीक ठीक कीमत नहीं आंक सकते थे तो उसका मूल्य वे एक करोड़ कह देते थे। बृहत्कथाश्लोकसंग्रह ( १८, ३६६) से पता चलता है कि सानुदास ने पांड्य मथुरा में पहुंच कर वहां का जौहरी बाजार देखा और वहां एक क्रेता और विक्रेता को, एक जौहरी से, एक रत्नालंकार. का मूल्य आंकने को कहते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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