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________________ रत्नपरीक्षा का परिचय कि याकूत शब्द का व्यवहार माणिक और नीलम तया दूसरे रंगीन रत्नों के लिए मी होता था । सौ फनम से ऊंची मालियत के पत्थर राजा खयं रख लेता था । मार्कोपोलो (यूल, दि बुक आफ सर मार्कोपोलो, २, १५४ ) ने भी सिंहल के मानिक और दूसरे कीमती पत्थरों का उल्लेख किया है । तापनिये (दावेल्स, भा॰ २, पृ० १०१-१०२) के अनुसार भी मध्यसिंहल के पहाडी इलाकेकी एक नदी से मानिक और दूसरे रत्न मिलते थे । बरसात में यह नदी बहुत बढ जाती थी। पानी कम हो जाने पर लोग इसमें मानिक इत्यादि की खोज करते थे। उपर्युक्त उद्धरणों से रावणगंगा अथवा रामागंगा की वास्तविकता सिद्ध हो जाती है। सर ए० टेनेंट के अनुसार इब्नबतूता का कुनकार या कनकार गंपोला था जिसका दूसरा नाम गंगाश्रीपुर या गंगेली था। पर गिब्स के अनुसार कुनकार की पहचान कोर्नेगल्ले (कुरूनगल) से की जा सकती है जो इब्नबतूता के समय सिंहल के राजाओं की राजधानी थी। (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० ३६५ नोट ६). क (का) लपुर-कलशपुर -प्राचीन रत्नशास्त्रों में मानिक का एक, प्राप्तिस्थान कलपुर दिया है । यह पाठ ठीक है अथवा नहीं यह तो कहना संभव नहीं, पर खोटे मानिक का वर्णन करते हुए बुद्धभट्ट (१२९-१३१) ने कलंशपुर का उल्लेख किया है । अगर कलपुर (मानसोल्लास-कालपुर ) पाठ ठीक है तो शायद उसका मिलान तामिल काव्य पट्टिन्नप्पाले के कालगम् से किया जा सकता हैं जिसे श्री नीलकंठशास्त्री कडारम् अथवा आधुनिक केदा मानते हैं (नीलकंठशास्त्री, हिस्ट्री आफ श्रीविजय, पृ० २६, मद्रास १९४६) पर केदा में मानिक कैसे पहुंचे यह प्रश्न विचारणीय है । संभव है कि स्याम और बर्मा के मानिक यहां बिकने के लिए पहुंचते हो और बाजार के नाम से ही उत्पत्तिस्थल का नाम पड गया हो। कलशपुर की पहचान लिगोर के इस्थमस पर स्थित कर्मरंग से श्री लेवी ने की है (वही, पृ० ८१) । अगर यह पहचान ठीक है तो कलशपुर में शायद मानिक का व्यापार होता रहा होगा। अंध्र-आंध्रदेश में मानिक मिलने का और दूसरा उल्लेख नहीं मिलता। तुंबर - मार्कंडेय पुराण (पार्जिटर का अनुवाद, पृ० ३४३ ) के तुंबर, जैसा श्री पार्जिटर का अनुमान है, शायद विंध्यपाद पर रहनेवाली एक जंगली जाति के लोग थे पर तुंबर देश की स्थिति का ठीक पता नहीं चलता । विंध्य में मानिक मिलने का भी पता नहीं है। .. रत्नशास्त्रों में मानिक के बहुत से रंग कहे गए हैं जिनमें चटकीला ( पमराग) पीतरक्त (कुरुविंद) और नीलरक्त (सौगंधिक) मुख्य है । प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार सब तरह के मानिक एक ही खान में मिलते थे। बुद्धभट्ट के अनुसार सिंहल की नदी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003822
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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