Book Title: Mahavira Vani
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Bharat Jain Mahamandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાવીર-વાપી પ્ર.વેવરદાસ વોશી-- It www.aurelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान महावीर Jain Education For Pivated Hainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर - वाणी माननीय श्री विनोबा भावे के दो शब्द और डॉ. भगवान्दासकी प्रस्तावनाके साथ : सम्पादक : बेचरदास दोशी Lates भारत जैन महामण्डल, वर्धा [ मार्च १९५३ ] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगणाबाई बड़जाते जैन ग्रन्थमाला-४ (दिल्ली सस्तासाहित्य मंडल) पहली बार; भूल और अनुवाद के साथ २००० (वर्धा भारत जैन महामंडल) दूसरी बार मात्र अनुवाद १९४२ १००० तीसरी बार मार्च १९५० २००० चौथी बार मार्च १९५३ २००० मूल्य : सवा दो रुपये प्रकाशकः जमनालाल जैन प्रबन्ध मंत्री भारत जैन महामंडल, वर्धा परमेष्टीदास जैन जैनेन्द्र प्रेस ललितपुर (उ० प्र०) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . समर्पण सौ. श्रीमती अजवाली कोजिनकी सप्रेम सहचारिता के बिना - साहित्य-क्षेत्र में मैं कुछ भी नहीं कर सकतासादर समर्पण -बेचरदास Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विषय-सूची १ विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ प्रकाशक की ओर से ५ १३ कषाय-सूत्र ... ८७ संपादकीय ७ १४ काम-सूत्र , ... ९३ महावीर और उनकी वाणी २० १५ अशरण-सूत्र '... मैं उन्होंका काम कर रहा हूँ २२ १६ बाल-सूत्र ५ ... महावीर वाणी के तृतीय १७ पण्डित-सूत्र .... संस्करण की प्रस्तावना २३ १८ आत्म-सूत्र : ... १ मंगल-सूत्र ... . ३ १९ लोकतत्त्व-सूत्र ... २ धर्म-सूत्र २ ... ७ २० पूज्य-सूत्र ४. ... १३५ ३ अहिंसा-सूत्रः ... ___२१ ब्राह्मण-सूत्र'"... १४१ ४ सत्य-सूत्र २२ भिक्षु-सूत्र " ... १४७ ५ अस्तेनक-सूत्र ... २३ मोक्षमार्ग-सूत्र ... १५५ ६ ब्रह्मचर्य-सूत्र ___ २४ जतिमदनिवारण-सूत्र १६५ ७ अपरिग्रह-सूत्र ... २५ क्षमापन-सूत्र ... १७१ ८ अरात्रिभोजन-सूत्र पारिभाषिक शब्दोंके अर्थ १७३ ९ विनय सूत्र ... १० चतुरंगोय-सूत्र ... महावीरवाणीके पद्योंकी ११-१ अप्रमाद-सूत्र अक्षरानुक्रमणिका १७९ ११-२ अप्रमाद-सूत्र ७१ शुद्धिपत्रक ... १८८ १२ प्रमादस्थान-सूत्र 3 ७९ संस्कृतानुवाद ... १-५० ५ असा ... AM - - - Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से पहली बार 'महावीर वाणी ' सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली की ओरसे जनवरी सन् १९४२ में प्रकाशित हुई थी । उसके बाद महामण्डल की ओर से, सुगणाबाई ग्रन्थमाला के अन्तर्गत ही, इसका केवल हिन्दी अनुवाद - अंश प्रकाशित किया और प्रायः अमूल्य ही वह वितरित हुआ । अब यह पुस्तक अपने पूर्व और पूर्ण रूप में सम्पादक और प्रकाशक की अनुमतिपूर्वक प्रकाशित की जा रही हैयह हमारे लिये प्रसन्नता की बात है । इस महंगाई में भी मूल्य में अधिक वृद्धि नहीं की गई है । हम चाहते हैं कि इस 'वाणी' का घर -घर में प्रचार हो । सुगणाबाई- ग्रन्थमाला श्री. चिरंजीलाल जी बड़जाते की माँ की स्मृति में चल रही है और यह उसका चौथा पुष्प है । इसकी बिक्री से प्राप्त होनेवाली रकम से यथा-शक्ति दूसरे प्रकाशन भी भेंट किए जा सकेंगे । आशा है, इस पुस्तक का समाजमें यथोचित आदर और उपयोग होगा । दृष्टि-दोष से यदि कुछ अशुद्धियाँ रह गई हों तो कृपया पाठक सुधार लें । } पन्ना भुवन, भुसावल वीर जयन्ती, २४७६ ता० ३१ मार्च १९५० फकीरचन्द पन्० जैन प्रबन्ध मंत्री भारत जैन महामण्डल Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनश्च तीन वर्ष के बाद 'महावीर-वाणी' का तीसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है। ___इस बार 'महावीर-वाणी' में सम्पादक ने कुछ संशोधन किए हैं। 'विवाद-सूत्र' निकालकर 'जाति-मद-निवारण सूत्र' दिए गए हैं तथा कुछ गाथाएं, निकाल दी गई हैं। पाठकों की सुविधा के लिए पुस्तक का हिन्दी अनुवादअंश अलग से छापा गया है। प्राकृत और संस्कृत में रुचि न रखने वालों के लिए यह संस्करण उपयोगी होगा। पुस्तक पं० परमेष्ठीदास जी के जैनेन्द्र प्रेस में छपी है। उनका जो सम्बन्ध है वह व्यावसायिकता से ऊपर है। उन्होंने छपाई के सम्बन्ध में पर्याप्त दिलचस्पी ली है और शुद्ध छपाई का ध्यान रखा है। हम छपाई के काम को झाडू देने का काम समझते हैं। कितना भी बारीकी से देखा जाय, कुछ न कुछ गलतियाँ-अशुद्धियाँ रह जाती हैं। जो हो; भाई परमेष्ठीदास जी को धन्यवाद देना अपनी ही प्रशंसा करने जैसा होगा। वर्धा १५ मार्च, ५३ -जमनालाल जैन [६] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAVA WASESAMAAVATAVANIAMAVASAVAVAVAYASAN VIDIOXIDY9 AR A संपादकीय - - "महावीरवाणी'नी आ जातनी आ श्रीजी आवृत्ति गणाय. प्रथम आवृत्ति २००० नकल दिल्लीसस्तासाहित्य मंडल द्वारा प्रकाशित थयेली. पछी मूळगाथा विनानो केवळ हिन्दी अनुवाद (१००० नकल) भाई श्रीचिरंजीलालजी बडजातेप पोतानां मातुश्रीना स्मरणमां वर्धाथी छपावेलो. भाईश्री चिरंजीलालजी बडजाते सद्गत श्री. जमनालालजी बजाजना विशेष संपर्कमा आवेला जैनधर्मपरायण एक सजन भाई छे. वर्धामा रहे छे अने यथाशक्ति जनसेवामां तत्परता बतावी रह्या छे. महावीरवाणी द्वारा मारो एमनी साथे स्नेहयुक्त मधुर गाढ परिचय थई गयो छे. मूळ अने हिन्दी अनुवादवाळु आ प्रस्तुत प्रकाशन तेमणे पोतानां मातुश्रीना स्मरणमा प्रकाशित करवा सारु मारे तत्परता दाखवी छे. ते अर्थ तेमनुं अहीं नामस्मरण सविशेष उचित छे. आ भाई भारत जैन महामंडळना सविशेष कार्यकर छे. [७] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारबाद मूळ साथेनी अनुवादवाळी बीजी आवृत्ति (२००० नकल ) भारत जैन महामंडलना कार्याध्यक्ष भाईश्री रिषभदास शंकाजीप पोतानी उक्त संस्था द्वारा प्रकाशित करेली. आ प्रस्तुत आवृत्ति ( २२०० नकल ) पण एज संस्था (भारत जैन महामंडल ) भाईश्री चिरंजीलालजी बडजातेनी सहायता द्वारा छापीने प्रकाशित करी रही छे. प्रकाशक संस्थाना प्राणरूप भाई रांकाजीनो परिचय मने वीसापुर जेलमां १९३० मां थयेल छे. तेओ त्यां सत्याग्रही तरीके एक के बे वरसनी जेल लईने आवेला. धर्मचर्चाने निमित्ते मारो अने एमनो सविशेष परिचय थई गयो. आ भाई हमणां हमणां पोतानो बधो समय राष्ट्रसेवा अने भारत जैन महामंडळनी सार्वजनिक प्रवृत्तिओमां रोकी रह्या छे. माननीय श्री. विनोबाजीनी अहिंसामूलक भूदान यज्ञनी सर्वोदयी प्रवृत्तिमां एमने विशेष रस छे. आ भाई पण वर्धामां रहे छे अने तेथी ज वर्धामां वसेला संतकोटिना महानुभावो सद्गत श्री. कि. घ. मशरुवाळा, निर्वाण पामेला पू. बापुजी वगेरेना संपर्कमा रहेनारा छे. वर्धा निवासने कारणे अने सद्गत जमनालालजीनी गोसेवा प्रवृत्तिमां विशेष रस होवाने लीधे तेओ माननीय श्री. विनोबाजीना पण विशेष संपर्कमां छे. [<] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारो अने एमनो जेलनिवास दरमियान थयेलो स्नेहसंपर्क महावीरवाणीने निमित्ते आज सुधी पवो ने एवो चालु रहेल छे– विशेष सुमधुर गाढ बनेल छे. आ भाईने महावीरवाणी प्रत्ये निर्व्याज प्रेम छे तेने लीधे ज तेओए माननीय विनोबाजीपासेधी आ पुस्तक विशे विशेष सूचन मागेलुं, पने परिणामे आ पुस्तकमां थोडी वधघट थयेली छे अने पाळळ संस्कृत अनुवादनो उमेरो पण थयेल छे. तथा आ वाणी माटे माननीय विनोबाजीना खास सूचक 'बे शब्दो' सुद्धां मळी शक्या छे. आ माटे हुं भाई रांकाजीनो सविशेष आभारी धुं अने राष्ट्रसेवानी असाधारण प्रवृत्तिमां रोकायेला होवा छतां श्री विनोबाजीप 'महावीरवाणी' प्रत्ये जे पोतानो सद्भाव व्यक्त करी बताव्यो छे ते माटे तेमनो. पण सविशेष आभार मानवानुं अहीं जतुं करी शकाय पम नथी. आ वखते माननीय डॉ. भगवानदास जीप पोते खास नवी प्रस्तावना लेखी मोकली छे एटलं ज नहीं पण तेमणे सर्व धर्म समभावनी दृष्टिए अने पोते खरेखर समन्वयवादी छे ए भावनाने लीघे नवी प्रस्तावनामां तेमणे महावीरवाणी प्रत्ये पोतानी असाधारण लागणी प्रगट करेल छे अने जैन बंधुओनी उदारता बाबत असाधारण विश्वास बताववा साथै [3] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरवाणीना प्रचार माटे पोतानो अंगत अभिप्राय पण दर्शावल छे. आथी खास आशा बंधाय छे के तटस्थ डॉ. था लाश बुधार भगवानदासजीनां वचनोनी जैन समाज जरूर कदर करशे. महावीरवाणी प्रत्ये डॉक्टर महाशयनी लागणी बदल अहीं हुं तेमनो पण सविशेष.आभार मानुं छु. १९४२ थी १९५३ सुधीमां मूळ अने अनुवाद साथेनी महावीरवाणीनी त्रण आवृत्तिो थई गणाय अने जो तेमां केवळ हिंदी अनुवादवाळी आवृत्तिने मेळवीए तो चार आवृत्तिओ पण थई गणाय. आम एकंदर बार वर्षना गाळामां आ पुस्तकनी सात हजार नकलो प्रजामा पहोंची कहेवाय. आवा विषम समयमां ज्यां अहिंसा अने सत्यना मार्ग तरफ प्रजानां मन डगमगतां देखाय छे अने ज्यारे लोको-भगवान महावीरना अनुयायी लोको पण त्यांसुधी य मानवा लाग्या छे के व्यवहारमा सत्य अने अहिंसानो मार्ग नहीं ज वाली शके, प तो मंदिरमां के सभामां बोली बताववानो मार्ग छे. एवे कपरे काळे आ पुस्तकनी सात हजार नकलो बार वर्षनायगाळामां गई ते पुस्तक- अहोभाग्य ज कहेवाय. सौथी प्रथम आवृत्ति वखते भाई मानमलजी गोलेच्छा (जोधपुर-खीचनवाळा) आर्थिक सहायता [.१.] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपी मने पोतानो ऋणी बनावेल ते माटे ते भाईर्नु नामस्मरण अवश्य करी लउं छु. पहेली आवृत्ति वखते हुं अमदावादमा, डॉ. भगवानदासजी बनारसमां बाटलुं लांचं अंतर होईने तेओ तत्काल प्रस्तावना लखी मोकले ए कठण हतुं, परंतु मारा उपरना निर्व्याज स्नेहने लीधे ए काम भाई गुलाबचंद जैन (वर्तमानमां अध्यक्ष श्री महावीर भवन पुस्तकालय अने वाचनालय दिल्ली ६) सारी रीते प्रयास करीने पण बजावी शक्या छे एटले ए स्वजननुं पण नाम संकीर्तन अहीं जरूर करी लर्ड छै. आ उपरांत मारा स्नेही कवि मुनिश्री अमरचंदजी, पंडित सुखलालजी, भाई दलसुखभाई (बनारस हिन्दु युनिवर्सिटी) तथा भाई शांतिलालजी (ब्यावर गुरुकुळ मुद्रणालय )नो पण आ प्रवृत्तिमां मने जे सहकार मळ्यो छे ते भूली शकाय तेम नथी. आ बधा महानुभावोनो पण हुं जरूर ऋणा छं. गुजरात युनिवर्सिटीए आ पुस्तकने इन्टरआर्टना प्राकृतभाषाना अभ्यासक्रममा योजेलुं छे ते माटे ए संस्थानो तेम ए संस्थाना संचालकोनो पण अहीं आभार मानवो जरूरी छे अने डॉ. भगवानदासजीए पण पोतानी प्रस्तावनामा ए संस्थाने अभिनंदन पाठवेल छे. छेल्ले भाई जमनालालजी जैन ('जैनजगत' [११] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना सहकारी संपादक) तथा आ पुस्तकना मूळ तथा हिन्दी अनुवादना मुद्रक भाई परमेष्ठीदासजी जैन (मालीक जैनेन्द्र प्रेसः ललितपुरः उत्तरप्रदेश) ए बन्ने महाशयोए आ पुस्तकना मुद्रणमा जे भारे दिलचस्पी बतावेल छे ते माटे तेमनो बनेनो हुँ सविशेष आभारी छु. अहीं आ बाबत खास जणाववी जोईए के जो आ बन्ने भाईओए पुस्तकना मुद्रण-संशोधन माटे दिलचस्पी न लीधी होत तो मुद्राराक्षसना प्रभावने लीधे पुस्तकने अंते आपेल शुद्धिपत्रक केटलु य लांबुं थई गयुं होत. डॉ. भगवानदासजीए पोतानी प्रस्तावनामां जणावेल छे के प्रस्तुत आवृत्तिना कागळ सारा नथी अने तेनुं समर्थक कारण पण पोते ज समजावेल छे. तेम हुँ पण अहीं आ वात नम्रपणे जणाववानी रजा लडं छु के प्रस्तुत पुस्तकमां मूळ गाथामोनुं अने अनुवादनुं मुद्रण मनपसंद नथी छतां महावीर वाणी प्रत्ये सद्भाव राखनारो वाचक वर्ग आ मुद्रण प्रत्ये पण उदारता दाखवी तेने वधावी लेशे ए आशा अस्थाने नथी. . महावीरवाणीनी कायापलट आगली बधी आवृतिमओ करतां आ संस्करणमा जे विशेषता छे ते आ प्रमाणे छ । [ १२ ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ महावीरवाणीनी तमाम प्राकृत गाथाओनो संस्कृत अनुवाद तेमना सळंग आंकडा आपीने पाछळ आपेल छे. जे वाचको हिन्दी नथी जाणता तेम ज प्राकृत पण नथी जाणता तेमने अर्थे श्री विनोबाजीए संस्कृत अनुवाद आपवानी सूचना करेली. ते प्रमाणे आ अनुवाद आपेल छे. तेमां क्यांय क्यांय संक्षिप्त टिप्पण पण आपेल छे. संस्कृत अनुवादनी भाषा आम तो सरळ संस्कृत राखी छे छतां तेमां छांदस प्रयोगो पण मूळ प्राकृत भाषा साथे तुलना करी जोवानी दृष्टिए आपेला छे. २ आगली आवृत्ति ओमां सौथी प्रथम आवृत्तिमां मूळ गाथाओ ३४५ हती, पछीनी आवृत्तिमां पंदरमा अशरणसूत्रमा छल्ले एक गाथा वधारेली तेथी तेमां मूळ गाथाओ ३४६ थई. आ आवृत्तिमां कुल गाथाओ ३१४ के पटले आगली आवृत्ति करतां आमांथी बत्रीश गाथाओ घटाडी छे. तेनी वीगत आ प्रमाणे छ। बीजा धर्मसूत्रमाथी चार गाथाओ घटाडी छे जे गाथाओ जूनी आवृत्तिमां पांचमी, छट्ठी, सातमी भने आठमी तथा अग्यारमी, बारमी अने तेरमी हती अर्थात् बीजा धर्मसूत्रमाथी कुले सात गाथाओ ओछी थई छे. त्रीजा अहिंसासूत्रमांथी जूनी आवृत्तिमा जे [१३], Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४मी अने २५मी गाथा तथा दसमा चतुरंगीयसूत्रमाथी जुना प्रमाणे ९७मी भने ९८मी गाथा हती ते गाथाओ आमां ओछी करी छे. पछी अगियारमा बीजा अप्रमादसूत्रमाथी जूनी आवृत्ति प्रमाणे १२७ थी १३५ सुधीनी पटले कुले नव गाथाओ ओछी करी छे. चोवीशमुं विवादसूत्र आज काढी नाख्यु छे पटले पनी कुले १९ गाथाओ ओछी थई. आम तो ७+२+२+१+१९ कुले ओगणचाळीश गाथाओ घटी के पटले बधी मळोने ३०७ गाथाओ रहेवी जोईए पण २४मा विवादसूत्रने बदले जातिमदनिवारणसूत्र नवु ज गोठव्युं छे. तेनी गाथाओ कुले सात छे पटले ३०७४७ मळी आ आवृत्तिमा कुले ३१४ गाथा थई, आ जोतां जूनी आवृत्ति करतां आमांथी कुले ३२ गाथाओ घटी. वाचकोनी रुचि प्रत्यक्ष जीवन तरफ रहे अने प्रत्यक्ष जीवन ज भविष्यना जीवननो पायो छे ए माटे ए तरफ ज विशेष ध्यान खेचाय ते दृष्टिने लक्ष्यमा राखी आ आवृत्तिमां थोडीघणी वधघट करी छे. धर्तमानमा आपणे जोईए छीप के तमाम धर्मावलंबीओनुं ध्यान प्रत्यक्ष सृष्टि करतां परोक्ष सृष्टि तरफ घणुं वधारे छे. तेओ ईश्वरने नामे, मंदिरने नामे, देवदेवीओने नामे, धर्मनां मनाता कर्म[१४] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांडोने नामे घणो घणो भोग आपे छे, घणो घणो त्याग करे के अने पq बीजु घj घणुं कष्ट सहन करे छे तेम छतां आपणुं वर्तमान जीवन सुखमय, संतोषमय, शांतिमय नथी बनी शकतुं. कुटुंबमा पवो ज विखवाद चाल्या करे छे अने समाजमां तथा राष्ट्रमां पण पवा ज हानिकारक विखवादो थया करे छे, नवा नवा वध्या करे छे. आपणुं लक्ष्य वर्तमान जीवननां शांति सुख संतोष अने वात्सल्य तरफ ज होय तो आq केम बनी शके ? | आ तरफ विशेष लक्ष्य खेचाय माटेज आ संस्करणमां थोडी कांटछांट करी छे. भाई रांकाजीनी सूचना आ ज हकीकतने लक्ष्यमा राखीने कांटछांट माटे थपली हती पटले पण आ कांटछांट करवानु गमी गयुं छे. आ महावीरवाणी आपणा प्रत्यक्ष जीवनमां सुख शांति संतोष अने वात्सल्य प्रेरनारी थाय प एक ज आकांक्षा छे. महावीरवाणीना जे वाचको अजैन छे तेमने साह महावीरवाणीमां पावेलु लोकतत्त्व सूत्र १९ मुं काईक वधारे पडतुं पारिभाषिक लागे खरं छतां य ते द्वारा ते वाचकोने जन प्रवचन विशे थोडी घणी माहिती जरूर मळशे एम मानीने तेने बदल्युं नथी. जैन प्रवचनमा जन्मजातिवादने मूळथी ज स्थान [१५] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नथी, खरूं कहेवामां आवे तो भगवान महावीरना धर्मचक्र प्रवर्तनना जे बीजा बीजा हेतुओ हता तेमां जन्मजातिवादने मीटावी देवानो पण एक खास हेतु हतो ज. ए वातने लक्ष्यमां लाववा खातर २४ मुं जातिमदनिवारण सूत्र खास सांकळवामां आव्युं छे. ते बधी गाथाओ अने एने मळती बीजी बीजी अनेक गाथाओ उत्तराध्ययन सूत्र वगेरे अनेक सूत्रोमां भरी पडी छे परंतु ते बधीने अहीं न आपतां मात्र आचारांग अने सूत्रकृतांग सूत्रमाथी थोडां वचनो वानगी रूपे अहीं गोठवेलां छे. ते उपरथी वाचको जोई शकशे के जैन प्रवचनमा मूळथी ज जन्मजातिवादने जराय स्थाल नथी पटलुंज नहीं पण एनो विशेष विरोध भगवान महावीरे ज पोते करेलो छे. दुःख अने खेदनी बात तो ए छे के वर्तमानमा जेओ जैन धर्मना आचार्य कहेवाय छे तेओ पण हजी सुधी अस्पृश्यताने जाळवी रह्या छे अने केम जाणे ते तेमनो सदाचार न होय तेम पाळी रह्या छे. खरी रीते ए रीतनुं वर्तन जैन प्रवचनथी तद्दन विरुद्ध छे, अहिंसानी दृष्टिए पण तद्दन अनुचित छे अने भगवान महावीरना वचनोथी तो ए सदंतर वेगळं छे. ए वात वर्तमान जैन उपदेशकोना अने तेमना अनुयायीओना खास ख्यालमां आवे माटे ज आ जातिमदनिवारण सूत्रने अहीं सांकळेलुं छे. [ १६ ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तकमां श्रमण भगवान महावीरनुं एक सुंदर चित्र जरूरी लागतुं हतुं तथा तेमनो मानवतानी दृष्टिए प्रामाणिक परिचय मापवानुं पण तेटलुंज जरूरी जणातुं हतुं छतां य आमांथी पेलं चित्र मूकवानुं तो बनी शक्युं छे अने तेमनो परिचय आपवानुं हाल तुरत नथी बनी शक्युं ते माटे वाचको जरूर क्षमा आपशे पण निकटना भविष्यमां महावीरवाणीनो गुजराती अनुवाद मारे वाचको समक्ष रजु करवानो मनोरथ छे ते वखते आ परिचय आपवा जरूर प्रयास करवानुं धारी राख्युं छे. उपरांत जे जे वचनो महावीरवाणीमां भावेलां छे तेवां ज वचनो बुद्धवाणीमां अने वैदिकवाणीमांउपनिषदो जने महाभारत वगेरेमां-सुद्धां मळी आवे छे ते अंगेनुं तुलनात्मक लखाण पण आ वाणीनी प्रस्तावनामां जरूरी छे अने डो. भगवानदासजीप पोतानी प्रस्तावनामां आ 'वचनो विशे जे एक बीजी सूचना करेली छे ते विशे पण खास लखवा जेतुं छे. तेमनी सूचना ए हती के आ वचनो भगवान महावीरे जे जे प्रसंगे कहेलां होय ते तमाम प्रसंगोवाळी ढूंकी नोंघ ते ते वचनो साथे आपी देवी जोईप जेथी आ वचनोने वांवतां ज तेमनो आशय हृदयमां जडाई जाय अते आ वचनो वधारे असरकारक बने. [१७] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. बन्ने मुद्दाओ विशे पण हवे पछी लखवानी कल्पना करी हाल तो भूकी छांडी छे. आ उपरांत केटलांक वचनोनो आशय समजाववा सारु थोड़े विवेचन कर जरूरी छे. जेमके दाखला तरीके-धर्मसूत्रमा आवेली चोथी गाथानो अर्थ आ प्रमाणे छः "जरा अने मरणना वेगथी धोधबंध चहेता प्रवाहमा तणाता प्राणीओने माटे धर्म ज बेटरूप छे अने धर्म ज शरणरूप छे." आनो अर्थ कोई एम न समजी बेसे के धर्म कोई पण देहधारीनां जरा अने मरणने अटकावी शके छे. जेम जन्म आपणे वश नथी तेम जरा अने मरण पण तमामने माटे स्वाभाविक छे. मोटा मोटा ज्ञानीओ, संतो, तीर्थकरो अने चक्रवर्तीओ खरा अर्थमां धर्मावलंबी थई गया पण तेओ घरडा थतां अटक्या नहीं तेम मरतां पण अटक्या नहीं. मात्र तेमनु धर्मावलंबन तेओने शांतिथी, संतोषथी अने अविषमभावे जीधन जीववामा खप लागतुं अने धर्मावलंबननो खरो अर्थ पण ए ज छे. - जे विकार स्वाभाविक छ तेने कोई अटकावी शके ज नही मात्र ते विकारो थतां आपण कदाच अज्ञानताथी अशांति असंतोष उपजे तो धर्मावलंबनथी तेमनुं समाधान थाय छे. आ अर्थ 'धर्म अ शरणरूप [१८] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे' ते वाक्यने बरोबर छे. आ ज सेते आ घचनो विशे आवां टिप्पणो करवानी जरूर छे. संपादकीय कथनमां हवे आधी वधारे लखवं आवश्यक नथी. आ महावीरवाणी तमाम प्राणीने, तमाम भूतोने, तमाम जीवोने अने तमाम सत्त्वाने सुखकर, संतोषकर अने समाधानकर नीवडो एत्री भावना भावी विरमुं छु मूळ अने अनुवाद पूरो थया पछी पाछळ आपेलो बधो भाग अमदावादमां शारदा मुद्रणालये छापेल छे. तेना मालीक अने व्यवस्थापके आ छापकाम घणुं ज सुंदर थाय तेम पूरती काळजी राखी छे है, ए काम ज कही आपे छेः पटलं ज नहीं चित्रनी पसंदगी पण श्रीबालाभाईए पोते घणी काळजीथी करी छे. आ बधा मारा अंगत स्वजनो छे छतां य आ मुद्रणालयना कामने विशेष प्रसिद्धि मळे र दृष्टिप ज अहीं आ प्रेसना नामनुं खास संकीर्तन करूं छं. बेचरदास दोशी ता. ९-७-५३ १२ / ब भारती निवास सोसायटी अलिसब्रिज : अमदावाद-६ [ ९ ] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और उनकी वाणी बुद्ध और महावीर भारतीय आकाश के दो उज्जवल नक्षत्र हैं. गुरु शुक्र के समान तेजस्वी और मंगल-दर्शन. बुद्ध का प्रकाश दुनिया में व्यापक फैल गया. महावीर का प्रकाश भारत के हृदय की गहराई में पैठ गया. बुद्धने मध्यम-मार्ग सिखाया. महावीर ने मध्यस्थ-दृष्टि दी. दोनों दयालु और अहिंसा-धर्मी थे. बुद्ध बोध-प्रधान थे, महावीर वीर्यवान तपस्वी थे। बुद्ध और महावीर दोनों कर्मवीर थे. लेखन-वृत्ति उनमें नहीं थी. ये निग्रंथ थे. कोई शास्त्र रचना उन्होंने नहीं की. पर वे जो बोलते जाते थे, उसीमें से शास्त्र बनते थे. उनका बोलना सहज होता था. उनकी बिखरी हुई वाणी का संग्रह भी पीछे से लोगों को एकत्र करना पड़ा. बुद्ध वाणी का एक छोटासा सारभूत संग्रह, धम्मपद के नाम से दो हजार साल पहिले ही हो चुका था, जो बौद्धसमाज में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में भगवद्गीता के समान प्रचलित हो गया है. महावीर की वाणी अभी तक जैनों के आगमादि ग्रंथों में, बिखरी पड़ी थी. उसमें से चुन करके, यह एक छोटासा संग्रह, आत्मार्थियों के उपयोग के लिये श्री रिषभदासजी की प्रेरणा से प्रकाशित किया गया है. वैसे तो इस पुस्तक की यह तीसरी आवृत्ति है. पर यह [२०] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्मुद्रण नहीं है, बल्कि परिवर्धित आवृत्ति है जिसमें अधिक व्यापक दृष्टिसे संकलन हुआ है. मेरे सुझाव पर इसमें मूल वचनों के संस्कृत रूपांतर भी दिये हैं. उससे महावीरवाणी समझने में सुलभता होगी। धम्मपद काल-मान्य हो चुका है. महावीर-वाणी भी हो सकती है, अगर जैन-समाज एक विद्वत्-परिषद के जरिये पूरी छानबीन के साथ, वचनों का और उनके क्रम का निश्चय करके, एक प्रमाणभूत संग्रह लोगों के सामने रक्खे. मेरा जैनसमाज को यह एक विशेष सुझाव है. अगर इस सूचना पर अमल किया गया तो, जैन विचार के प्रचार के लिये, जो पचासों किताबें लिखी जाती हैं, उनसे अधिक उपयोग इसका होगा. ऐसा अपौरुषेय संग्रह जब होगा तब होगा, पर तब तक पौरुषेय-संग्रह, व्यक्तिगत प्रयत्न से, जो होंगे वे भी उपयोगी होंगे। " साधक सहचरी” नाम से ऐसा ही एक संग्रह श्री संतबालजी का किया हुआ, प्रकाशित हुआ है. यह दूसरा प्रयत्न है. मैं चाहता हूं कि केवल जैन समाज ही नहीं, पर चित्त-शुद्धि की चाह रखनेवाले, जो जैन संप्रदाय के नहीं हैं वे भी, इसका चिंतन मनन करेंगे. पड़ाव छपरी (बिहार) ३०-३-५३ -विनोबा [२१] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं उन्हीं का काम कर रहा हूं महावीर वाणी मुझे बहुत ही प्रिय लगी है. संस्कृत छाया दे रहे हो उससे उसे समझने में सहूलियत होगी. आज तो में बुद्ध और महावीर की छत्र छाया में उन्हीं के प्यारे बिहार में घूम रहा हूं और मानता हूं कि उन्हीं का काम मैं कर रहा हूं. इन दिनों 'धम्मपद' की पुस्तक मेरे साथ रहती है. जब महावीर वाणी का आपका नया संस्करण निकलेगा तब वह भी रखूंगा. पढ़ने के लिए मुझे समय मिले या न मिले, कोई चिंता नहीं. ऐसी चीजें नजदीक रहीं तो उनकी संगति से भी बहुत मिल जाता है. वैसे पहेले महावीर - वाणी मैं देख चुका हूं. फिर भी प्रिय वस्तु का पुनर्दर्शन प्रियतर होगा. आजकल सैकड़ों पुस्तकों की हर भाषामें भरमार हो रहीं है. अगर मेरी चले तो बहुत से लेखकों को मैं खेती के काम में लगाना चाहूंगा और गीता, धम्मपद, महावीर वाणी जैसी चंद किताबों से समाजको उज्जीवन पहुँचाऊँगा । * 66 पड़ाव : अंबा (गया) ११-११-५२ -विनोबा * ऊपरकी पंक्तियां रांकाजीको लिखे गए एक पत्रसे ली गई है जो उन्होंने 'महावीर वाणी' पुस्तकके विषयमें लिखी थीं। [ २२ ] --- Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी के तृतीयसंस्करण की प्रस्तावना अध्यापक श्री बेचरदास जीवराज दोशीजी का पत्र, ति. १५-६-१९५३ ई. का मुझे ति: १८-६-'५३को मिला, और-नये संस्करणके छपे फ़र्मे भी मिले। द्वितीय की अपेक्षा इसमे जो परिवर्तन किया गया है, अर्थात् कुछ अंश छोड़ दिया है, कुछ बढ़ाया है, उसकी चर्चा. श्रीजमनालालजी जैनने अपने "पुनश्च" शीर्षकके निवेदनमे, किया है तथा श्रीबेचरदासजीने उक्त पत्रमे अधिक विस्तार से किया है; फलतः, प्रथम और द्वितीयमे ३४५ तथा ३४६ गाथा थीं, इसमे ३१४ हैं। 'जातिमदनिवारणसूत्र' जो बढ़ाया है वह बहुत ही अच्छा, शिक्षाप्रद, समयोचित, आवश्यक, समाजशोधक सूक्त है । यदि अन्य प्रमुख जैनाचार्योंकी उक्तियाँ, इसकी टीकाके रूपमे इसके 'परिशिष्ट ' के रूपमे, नहीं तो चौथे संस्करणमे, रख दी जाय तो और अच्छा हो; यथा रविषेण (५ वीं शती)के 'पद्मचरित'मे, [२३] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मनुष्यजातिरेकैव, जातिनामोद्भवोद्भवा, वृत्तिमेदाद् हितभेदात् चातुर्वर्ण्यमिहाऽश्नुते। ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात्, क्षत्रियाः शस्त्रधारणात, वणिजोऽर्थार्जनात् न्यायात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।" तृतीय संस्करण का एक और श्लाघ्य विशेष गुण यह है कि प्रत्येक श्लोकके नीचे, उस प्राचीन मूल ग्रंथका संकेत कर दिया है जिसमे वह मिलता है, यथा 'उत्तराध्यनसूत्र' 'दशवैकालिकसूत्र', आदि । एक और कार्य, आगामी संस्करणों मे कर्तव्य है। प्रसिद्ध है कि बुद्धदेवने 'धम्मपद'को प्रत्येक गाथा विशेष विशेष अवसर पर कही; उन अवसरों के वर्णन सहित 'धम्मपद'के कोई कोई संस्करण छपे हैं। प्रायः महावीरस्वामीने भी ऐसे अवसरों पर गाथा कही होंगी; उनको भी छापना चाहिये। यह रीति इस देश की बहुत पुरानी है; अति प्राचीन इतिहास, पुराण, रामायण, महाभारत, भागवत आदि मे, अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजशास्त्र, ब्रह्मविद्याके भी, गूढ सिद्धांत, आख्यानका कथानकाँकी लपेट मे कहे गये हैं, जो उदाहरणो का काम देते हैं। इस प्रकार से, रोचकता के कारण, सिद्धांत ठीक ठीक समझ मे भी आ जाते हैं और स्मृति मे गड़ जाते हैं, कभी भूलते नहीं। पुस्तकके अंतमें सब गाथाओँका संस्कृत रूपांतर छाप [२४] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया है, यह भी बहुत उत्तम काम किया है। कालके प्रभावसे, महावीरके समयकी प्राकृत भाषा (यथा उनके समकालीन बुद्धकी पाली) लुप्त हो गई है, किंतु संस्कृत उनसे सहसा वर्ष पहिले से आज तक भारत मे पढ़ी, समझी, और विद्वन्मंडली मे कुछ कुछ बोली भी जाती है; अतः इस संस्करणका, उक्त संस्कृत अनुवादके हेतु, उस मंडलीमें अधिक प्रचार और आदर होगा, विशेष कर भारतके उन प्रांतों मे जहां हिन्दी अभी तक समझी नहीं जाती है, यद्यपि भारतके नये संविधान मे उसे 'राष्ट्रभाषा' घोषित कर दिया है। स्मरणीय है कि महावीर निर्वाणके कुछ शतियाँ बाद, जिनानुयायी धुरंधर प्रकांड विद्वानोने प्राकृतभाषाका प्रयोग छोड़ दिया; क्योंकि प्राकृत भाषाएँ नित्य बदलती रहती हैं , यथा कालिदासादिके नाटकाँके समय की आठ प्राकृताँ मे से एक का भी व्यवहार आज नहीं है; इन विद्वानोने अपने रचे ग्रंथों कोचिरजीविता देने के लिये संस्कृतमें लिखा; यथा, उमास्वामी (द्वितीयशताब्दी ई०)ने नितांत प्रामाणिक 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र', जिसे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही मानते हैं; अकलंकने 'राजवार्तिक' नामकी टीका 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' पर; 'कलिकालसर्वज्ञ' राजगुरु हेमचंद्राचार्य (१२वीं शती)ने 'प्रमाणमोमांसा', 'हैम-बृहदभिधान' नामक संस्कृत शब्दों का कोष, तथा अन्य कई विशालकाय ग्रंथ; हरिभद्र [२५] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९ वी) ने षड्दर्शनसमुच्चय'; समंतभद्र (६वीँ ) ने 'आप्तमीमांसा' ; इति प्रभृति । मुझे यह त्रुटि जान पड़ती है कि इस नये संस्करण का काग़ज वैसा अच्छा नहीं है जैसा प्रथम संस्करण का था । क्या किया जाय ? समयके फेरसे सभी वस्तुओं के मूल्य मे अतिवृद्धि, एक ओर; पुस्तक इतनी महर्ष न हो जाय कि अल्पवित्त सज्जन क्रय न कर सकें, दूसरी और; इन दो कठिनाइयों के बीच ऐसा करना पड़ा । दूसरा खेद मुझे यह है की इस श्रेष्ठ ग्रंथ का प्रचार बहुत कम हुआ। सन् १९५१ की जनगणना मे, जैनो की संख्या, स्थूल अंकों मे, समग्र भारत मे १३००००० (तेरह लाख ) थी; सबसे अधिक बंबई राज्य मे, ५७२०००; फिर राजस्थान मे, ३२८०००; सौराष्ट्र मे, १२४०००; मध्यभारत मे, १०००००; उत्तर प्रदेशमे, ९८००० । तेरह लाख की संख्या प्रायः दो लाख परिवारों मे बँटी हुई समझी जा सकती है । जैन परिवार प्रायः सभी साक्षर होते हैं । यदि दो कुलोंके बीच मे भी एक प्रति रहै तो एक लक्ष प्रतियाँ चाहियें। सो, पहिले संस्करण को दो सहस्र प्रतियां छपीं; स्यात् दूसरे की भी [ २६ ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतनी ही; इस तीसरे की भी प्रायः इतनी छ मी। यह संख्या कथमपि पर्याप्त नहीं है। छः वर्षों बाद, मत अप्रैल मास मे, विशेष कार्यवश, मुझे कलकत्ता जाना पड़ा । वहाँ, कुछ जैन सज्जनोके निबंधसे २७ अप्रैलको, सुन्दर और विशाल 'जैन उपाश्रयभवन 'मे महावीरजयंती समारोहका प्रारंभ, एक प्रवचनसे करनेके लिये गया । प्रायः बारह सौ सज्जन और देविया एकत्र थी। मैंने पूछा कि 'महावीरवाणी' आप लोगोंने देखा है ? किसीने भी 'हाँ' नहीं कहा । मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। कलकत्तामें प्रायः पाँच सहस्र जैन परिवार, जिन मे पच्चीस सहस्र प्राणी हाँगे, निवास करते हैं, ऐसा मुझे बतलाया गया । परमेश्वरकी दयासे और अपनी व्यापारकुशलता और उत्साहसे, जैन सज्जन जैसे साक्षर हैं वैसे बहुवित्त धनी और कोई कोई कोटिपति भी हैं; यही दशा बंबई, राजस्थान, सौराष्ट्र आदि प्रान्ताँकी है। यदि उनके पास कोई प्रामाणिक सुख्यात सज्जन छपे परिपत्र लेकर जायँ तो निश्चयेन लाखों रुपये इस उत्तम धर्मकार्यके लिये सहज मे मिल जायँ, और एक लाख प्रतियाँका, नहीं तो कमसे कम पचास सहस्र का, उत्तम संस्करण, अच्छे पुष्ट काग़ज़ पर और अच्छी पुष्ट कपड़े की जिल्द का, छप जाय, जैसा प्रथम [२७ ] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण का था जो सस्ता-साहित्य-मंडल, नई दिल्ली से निकला था । जैन समाजने अौं रुपये सुंदरसे सुन्दर मंदिरों और मूर्तियाँ पर व्यय किया है। महावीर जिनके उपदेश आदेशके प्रचारके लिये लाखौँ रुपये व्यय करना उसके लिये क्या कठिन है? . श्रीबेचरदासजीके, ति. २९-६-१९५२के पोस्टकार्डसे विदित हुआ कि गुजरात युनिवर्सिटीने, प्राकृतभाषा के पाठ्यक्रममें, 'इन्टर' वर्गके लिये, महावीरवाणी को रख दिया है। यह बहुत सभाजनीय अभिनंदनीय काम किया है। इससे भी ग्रंथके प्रचार मे बहुत सहायता मिलेगी। सौर १९ आषाढ, २०१० वि० ) (डाक्टर) भगवानदास ( जूलाई, ३ १९५३ ई.) "शांतिसदन'', सिग्रा, बनारस-२ [२८] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : मंगल-सुतं नमोक्कारो नमो अरिहंतां । सिद्धाणं । नमो नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावपणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ मंगलं मंगलं । मंगलं । मंगलं । केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं । अरिहंता सिद्धा साहू [ पंचप्रति सू १] [ पंचप्रति संथारा० सू० ] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १: मङ्गल - सूत्र नमस्कार श्रर्हन्तों को नमस्कार; सिद्धों को नमस्कार; श्राचार्यों को नमस्कार; उपाध्यायों को नमस्कार; लोक (संसार) में सब साधुओं को नमस्कार । - यह पञ्च नमस्कार समस्त पापों का नाश करनेवाला है, सब मङ्गलों में प्रथम ( मुरूप ) मङ्गल है | मङ्गल अर्हन्त मङ्गल हैं; सिद्ध मङ्गल हैं; साधु मङ्गल हैं; केवली - प्ररूपित अर्थात् सर्वज्ञ-कथित धर्म मङ्गल है । - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। [पंचप्रति. संथारा. सू.] सरणं अरिहंते सरणं पवज्जामि । सिद्ध सरणं पवजामि । साहू सरणं पवज्जामि । केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि । [पंचप्रति० संथारा० सू०] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-सूत्र लोकोत्तम श्रर्हन्त लोकोत्तम (संसार में श्रेष्ठ) हैं; सिद्ध लोकोत्तम हैं; साधु लोकोत्तम हैं; केवली-प्ररूपित धर्म लोकोत्तम है । शरण अर्हन्त की शरण स्वीकार करता हूँ; सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूँ; साधुओं की शरण स्वीकार करता हूँ; केवली-प्ररूपित धर्म को शरण स्वीकार करता हूँ। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२: धम्म-सुतं (१) धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धन्मे सया मणो ॥१॥ [दश० अ० । गा० .] अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बम्भं अपरिग्गरं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज धम्म जिणदेसियं विदू ॥२॥ उत्तराः श्र० २१ गा० १२] पाणे य नाइवाएज्जा, अदिन्नं पि य नायए । साइयं न मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमो ॥३॥ [सू. श्रु० १ ० ८ गा० ११ ] जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्टा यू, गई सरणमुत्तमं ॥४॥ [ उत्तरा० अ० २३ गा०६८] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२: धर्म-सूत्र धर्म सर्वश्रेष्ठ मङ्गल है। ( कौन-सा धर्म ?) अहिंसा, संयम और तप । जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। (२) . अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन । पांच महावतों को स्वीकार करके बुद्धिमान मनुष्य जिन-द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे । छोटे-बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न करना; अदत्त ( बिना दी हुई वस्तु) न लेना, विश्वासघाती असत्य न बोलना-यह अात्मनिग्रही सत्पुरुषों का धर्म है। (४) जरा और मरण के वेगवाले प्रवाह में बहते हुए जीवों के लिये धर्म ही एक-मात्र द्वीप, प्रतिष्ठा, गति, और उत्तम शरण है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा. महापहं । विसम मगमोइएणो, अक्खे भग्गम्मि सोयई ॥५॥ [उत्तरा० अ०५ गा० १४] (६) एवं धम्म विउक्कम्म, अहम्म पडिवजिया । बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई ॥६॥ [उत्तरी अ०५ गा. ५] जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥७॥ [उत्तरा: अ. १४ गा० २४ ] (८) जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ ॥८॥ [उत्तरा. अ० १४ गा० २५] (६) जरा जाव न पीडेइ,, वाही जाव न वड्ढइ । जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ।।६।। [दश० अ०८ गा० ३६] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सूत्र (५) जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझकर साफ-सुथरे राज-मार्ग को छोड़ विषम (ऊँचे-नीचे, ऊबड़-खाबड़) मार्ग पर जाता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य धर्म को छोड़ अधर्म को ग्रहण कर, अन्त में मृत्यु के मुंह में पढ़कर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं पाते; जो मनुष्य अधर्म (पाप) करता है, उसके वे रात-दिन बिल्कुल निष्फल जाते हैं। ___ जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं पाते; जो मनुष्य धर्म करता है उसके वे रात और दिन सफल हो जाते हैं। जबतक बुढ़ापा नहीं सताता, जबतक व्याधियाँ नहीं बढ़तीं, जबतक इन्द्रियाँ हीन (अशक्त) नहीं होती, तबतक धर्म का भाचरण कर लेना चाहिये-बाद में कुछ नहीं होने का। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महावीर-बाणी मरिहिसि रायं ! जया तया वा, मणोरमे कामगुणे विहाय । इको हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विजई अन्नमिहेह किंचि ॥ १०॥ [उत्तरा० अ० १४ गा० ४.] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम-सूत्र (१०) हे राजन् ! जब आप इन मनोहर काम-मोगों को छोड़कर -लोक के यात्री बनेंगे, तब एक-मात्र धर्म हो आपको सा करेगा। हे नरदेव ! धर्म को छोड़कर जगत् में दूसरा कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सुत्तं (११) तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ॥१॥ [दश० श्र० ६ गा०६ (१२) जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुवा थावरा । ते जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घायए ॥२॥ [दश अ० ६ गा० ..] (१३) सयं तिवायाप पाणे, अदुवऽन्न हिं घायए । हरमन्तं वाऽणुशाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो ॥३॥ [सूत्रः श्रु. १ अ । उ० । गा८ ३] (१४) जगनिस्सिएहिं भूएहि, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ।। ४॥ [उत्तरा० अ०८ गा० १८] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सूत्र भगवान महावीर ने अठारह धर्म-स्थानों में सबसे पहला स्थान अहिंसा का बतलाया है। सब जीवों के साथ संयम से व्यवहार रखना अहिंसा है; वह सब सुखों को देनेवाली मानी गई है । संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन सब को, जान और अनजान में न स्वयं मारना चाहिए और न दूसरों से मरवाना चाहिए। (१३) जो मनुष्य प्राणियों को स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करनेवालों का अनुमोदन करता है, वह संसार में अपने लिये वैर को बढ़ाता है । (१४) संसार में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर,मन से, वचन से और शरीर से,-किसी भी तरह दंड का प्रयोग न करना चाहिए। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( १५ ) , सवे जीवा व इच्छति जीविडं न मरिजिष्ठं । तदा पारिवह बोरं, निगंधा वज्जयंति णं ॥ ५ ॥ १४ [ दश० अ० ( १६ ) त्थं सव्व सव्वं दिस्स, पाणे पियायए । न हरणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥ ६ ॥ [ उत्तरा० अ० ६ गा० ७] ६ गा० ११ ] ( १७ ) मईमं पडिलेहिया । सव्वाहि अरजुत्तीहिं, सव्वे तदुक्खा य, ओ सन् न हिंसया ॥ ७ ॥ [ सूत्रः श्र० १ प्र० ११ गा० है ] (१८) एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंवण । अहिंसासमयं चैव एयावन्तं वियाणिया ॥ ८ ॥ | स्व० श्र १० ११ गा० १0 ] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सूत्र ( १५ ) सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता इसीलिए निग्रन्थ (जैन मुनि) बोर प्राणि-वध का सर्वथा परित्याग करते हैं । (१६) भय और वैर से निवृत्त साधकको, जीवन के प्रति मोह-ममता रखनेवाले सब प्राणियों को सर्वत्र अपनी ही आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करनी चाहिए । (१७) बुद्धिमान् मनुष्य छहों जीव-निकायों का सब प्रकार की युक्तियों से सम्यक्ज्ञान प्राप्त करे और 'सबी जीव दुःख से घबराते हैं 'ऐसा जानकर उन्हें दुःख न पहुँचाये । १५ (१८) शानी होने का सार ही यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । - इतना ही श्रहिंसा के सिद्धान्त का ज्ञान श्रेष्ट है । यही अहिंसाका विज्ञान है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महावीर-वाणी (१६) संबुज्झमाणे उ नरे मईमं, पावाउ अप्पाणं निवएज्जा । हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता, वेरानुबन्धीणि महब्भयाणि ॥ ६ ॥ [ सूत्र० श्रु. । श्र. १८ गा० २१] (२०) समया सव्वभूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे । पाणाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्कर ॥१०॥ [उत्तरा : अ० १६ गा० २५] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सूत्र (१६) सम्यक बोध को जिसने प्राप्त कर लिया वह बुद्धिमान् मनुष्य हिंसा से उत्पन्न होनेवाले वैर-वद्धक एवं महाभयंकर दुःखों को जानकर अपने को पाप-कर्म से बचाये । (२०) संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति-फिर वह शत्रु हो था मित्र · समभाव रखना, तथा जीवन-पर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना-वास्तव में बहुत Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्च-सुत्तं (२१) निच्चकालऽप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं । भासियव्यं हियं सच्चं, निच्चाऽऽउत्तेण दुक्करं ॥१॥ [ उत्तराः अ १६ गा० २६ ] अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्न वयावए ॥२॥ दश० अ० ६ गा० १२ ] (२३ ) मुसावाओ य लोगम्मि, सञ्चसाहूहिं गरहिओ। अविस्सासों य भूया, तम्हा मोसं विवज्जए ॥३॥ [ दश० अ० ६ गा० १३ ] (२४) न लवेज्ज पुट्ठो सावज्ज, न निरहन मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥४॥ [ उत्तरा० अ० १ गा० २५ ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सूत्र (२१) सदा श्रप्रमादी और सावधान रहकर, असत्य को त्याग कर, हितकारी सत्य वचन हो बोलना चाहिए। इस तरह सत्य बोलना बड़ा कठिन होता है । : ४ः (२२) अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूसरों के लिए क्रोध से अथवा अय से किसी भी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचानेवाला सत्य वचन न तो स्वयं बोलना, न दूसरों से बुलवाना चाहिए | --- (२३) मृषावाद ( श्रसत्य ) संसार में सभी सत्पुरुषों द्वारा निन्दित राया गया है और सभी प्राणियों को अविश्वसनीय है; इसलिए मृषावाद सर्वथा छोड़ देना चाहिए | (२४) अपने स्वार्थ के लिए, अथवा दूसरों के लिए, दोनों में से किसी के भी लिए, पूछने पर पाप-युक्त, निरर्थक एवं मर्म-भेदक बचन नहीं बोलना चाहिए । -- Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-बाणी तहेव सावजऽगुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवधायणी । से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ।।५।। [ दश० श्र. ७ गा० ५४ ] दिट्ठ मियं असंदिद्ध, पडिपुरणं वियंजियं । श्रयंपिरमाणुविरगं, भासं निसिर अत्तवं ।।६।। [ दश० अ० ८ गा० ४६ ] भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुट्ठ परिवजए सया । छसु संजए सामणिए सया जए, वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं ॥७॥ [ दश० अ० ७ गा० ५६ ] ( २८ ) सयं समेच्च अदुवा वि सोच्चा, . भासेज्ज धर्म हिययं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पभोगा, न ताणि सेवन्ति सुधीरधम्मा ।।। [ सूत्र० श्रु० १ ० १३ गा० १६ ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सूत्र (२५) श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरों को दुःख पहुँचानेवाली वाणी न बोले । श्रेष्ठ मानव इसी तरह क्रोध, लोभ, भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोले । हँसते हुए भी पाप-वचन नहीं बोलना चाहिए। (२६) श्रात्मार्थी साधक को दृष्ट (सत्य), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट-अनुभूत वाचालता-रहित, और किसी को भी उद्विग्न न करनेवाली वाणी बोलना चाहिए। (२७) भाषा के गुण तथा दोषों को भली-भाँति जानकर दूषित भाषा को सदा के लिए छोड़ देनेवाला, घटकाय जीवों पर संयत रहनेवाला, तथा साधुत्व-पाजन में सदा तत्पर बुद्धिमान साधक केवल हितकारी मधुर भाषा बोले । श्रेष्ठ धीर पुरुष स्वयं जानकर अथवा गुरुजनों से सुनकर प्रजा का हित करने वाले धर्मका उपदेश करे । जो आचरण निन्छ हों, निदानवाले हों, उनका कभी सेवन न करे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( २६ ) सकसुद्धि समुपेहिया मुणी, गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया । २२ मियं अट्ठ अणुवीइ भासेए, सयारण मज्झे लहई पसंसरणं ॥ ६ ॥ [ दश० अ० ७ गा० ५५ ] ( ३० ) तव कारणं काणेत्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ||१०|| [ दश० श्र० ७ गा० १२ ] ( ३१ ) वित व तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । तम्हा सो पुट्ठो पावें, किं पुरण जो मुसं वए ? ॥ ११ ॥ [ दश० अ० ७ गा० ] ( ३२ ) । तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवधाइणी । सच्चा विसा न वक्त्तव्या, जो पावस्स श्रागमो ||१२|| [ दश० श्र० ७ गा० ११ ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सूत्र (२६) विचारवान मुनि को वचन-शुद्धि का भली-भांति ज्ञान प्राप्त करके दूषित वाणी सदा के लिए छोड़ देनी चाहिए और खूब सोच-विचार कर बहुत परिमित और निर्दोष वचन बोलना चाहिए । इस तरह बोलने से सत्पुरुषों में महान प्रशंसा प्राप्त होती है। (३०) काने को काना, नपुसक को नपुसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा नहीं कहना चाहिए ! (क्योंकि इससे उन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है।) जो मनुष्य भूलसे भी मूलतः असत्य, किन्तु ऊपर से सत्य मालूम होनेवाली भाषा बोल उठता है, और वह भी पापसे अछूता नहीं रहता, तब भला जो जान-बूझकर असत्य बोलता है, उसके पाप का तो कहना ही क्या ! (३२) जो भाषा कठोर हो, दूसरों को भारी दुःख पहुँचानेवाली हो-वह सत्य ही क्यों न हो-नहीं बोलनी चाहिए। क्यों कि उससे पाप का प्रास्रव होता है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : ५: अतेणग-सुत्तं चित्तमंतमचित्तं वा, अप्यं वा जइ वा बहु । दंतसोहणमित्तं पि, उगगह से अजाइया ॥१॥ [ दश अ. ६ गा० १४ ] तं अप्पणा न गिएहति, नो वि गिबहावए परं । अन्न वा गिएहमाणं पि, नागुजाणंति संजया ॥२॥ [दश० अ० ६ गा० १५ ] उड्ढे अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्न सु य नो गहेज्जा ||३|| [ सूत्र० श्रु० १ ० १. गा० २] ( ३६ ) तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, __ जे हिंसति आयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदत्तहारी, _ण सिक्खई सेयवियस्स किंचि ॥४|| . [ सूत्र शु. १ अ. ५ उ० १ गा० ४ ] | Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेनक-सूत्र ( ३३-३४ ) पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत और तो क्या, दाँत कुरेदने की सोंक भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो उसकी प्राज्ञा लिये बिना पूर्ण-संयमी साधक न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं, और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन हो करते हैं। (३५) ऊँची, नोची और तिरछी दिशा में जहाँ कहीं भी जो त्रस और स्थावर प्राणी हों उन्हें संयम से रह कर अपने हाथों से, परों से,-किसी भी अंग से पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिये। दूसरों की बिना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चाहिए । जो मनुष्य अपने सुख के लिये त्रस तथा स्थावर प्राणियों की क रता-पूर्वक हिंसा करता है उन्हें अनेक तरह से कष्ट पहुँचाता है, जो दूसरों की चोरी करता है, जो अादरणीय ब्रतों का कुछ भी पालन नहीं करता, ( वह भयंकर क्लेश उठाता है)। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावौर-वाणी ( ३७ ) दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । अणवज्जेसणिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुकरं ॥१॥ - [उत्तरा० अ. १६ गा० २७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेनंक-सूत्र ( ३७ ) दाँत कुरेदने की सींक श्रादि तुच्छ वस्तुएँ भी बिना दिए चोरी से न लेना, (बड़ी चीजों को चोरी से लेने की तो बात ही स्या ? ) निर्दोष एवं एषणीय भोजन-पान भी दाता के यहाँ से दिया हुआ लेना, यह बड़ी दुष्कर बात है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६ : बंभचरिय-सुतं ( ३८ ) विरई अबभचेरस्स कामभोगरसन्नुरणा । " गं महव्वयं बंभ, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥१॥ [ उत्तरा० अ० १३ गा० २८ ] ( ३६ ) अभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं नाऽऽयरन्ति कुणी लोए, भेयाययणवज्जिरणो ||२|| [ दश० श्र. ६ गा० १६ ] (8) महादोससमुस्सयं । ' मूलमेयमहम्मस्स तम्हा मेहुणसंसगं, निग्गंथा वज्जयन्ति गं ||३|| [ दश० श्र० ६ गा ( ४१ ) विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सत्तगवे सिरस, विसं तालउडं जहा ||४|| ,, ] [ दश: अ. ८ गा० २७ ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ( ३८ ) काम-भोगी का रस जान लेनेवाले के लिए अ-ब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्म वर्य महावत का धारण करना, बड़ा कठिन कार्य है। ( ३६ ) जो मुनि संयम घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में रहते हुए भी दुःसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयंकर अ-ब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते। यह अ-ब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महा-दोषों का स्थान है, इसलिए निग्रन्थ मुनि मैथुन-संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं। (४१ ) आत्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृंगार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन- सब तालपुट विष के समान महान् भयंकर हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० भ इत्थी महावीर वाणी ( ४२ ) रूबलावर विलासहासं, न चित्तंसि निवेसइत्ता, दर्ु द वबस्से समणे तवस्सी ||५|| जंपियं इगिय-पेहियं वा । [ उत्तरा० ० ३२ गा० १४ ] अदंसणं चेत्र अपत्थणं च, ( ४३ ) अचिंतणं चेत्र अकित्तं इत्थीजस्साऽऽरियज्भाणजुग्गं, समं च संथवं थीहिं, बंभचेररओ भिक्खु, हियं सया बंभवए रयाणं || ६ || च । मरणपल्हायजरणरणी, कामरागविवड्ढणी । बंभचेररओ भिक्खु, थीकहं तु विवज्जए ||७|| [ उत्तरा० अ० ३२ गा० १५ ] ( 88 ) [ उत्तराः श्र० १६ गा० २ ] ( ४५ ) संकह च श्रभिक्खणं । निच्चसो परिवज्जए ||६|| [ उत्तरा० अ० १६ गा० ३ ] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र 30 (४२) श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुरवचन, संकेत-चेष्टा, हाव-भाव और कटाक्ष श्रादि का मनमें तनिक भी विचार न लाये, और न इन्हें देखने का कभी प्रयत्न करे । (४३) स्त्रियों को राग-पूर्वक देखना उनकी अभिलाषा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कीर्तन करना, श्रादि कार्य ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिए । ब्रह्मचर्य व्रत में सदा रत रहने की इच्छा रखनेवाले पुरुषों के लिए यह नियम अत्यन्त हितकर है, और उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है । ( ४४ ) ब्रह्मचर्य में अनुरक्त भिक्षु को मनमें वैषयिकं अानन्द पैदा करनेवाली तथा काम-भोग की आसक्ति बढ़ाने वाली स्त्री-कथा को छोड़ देना चाहिए। ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियों के साथ बात-चीत करना और उनसे बार-बार परिचय प्राप्त करना सदा के लिए छोड़ देना चाहिये । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (४६) अंगपच्चंगसंठाणं, चारुल्लक्यि-पेहियं । बंभचेररो थीणं, चक्खुगिझ विवज्जए ॥६॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा० ४ ] (४७) कूइयं रुइयं गीयं, हसियं थणिय-कन्दियं । बंभचेररी थीणं, सोयगिज्म विवज्जए ॥१०॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा.५] (४८) हासं कि रई दप्पं, सहस्साऽवत्तासियाणि य । बंभचेररो थीणं, नाणुचिन्ते कयोइ वि ॥११॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा० ६ ] (४६) पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्ढणं । बंभचेररो भिक्खू , निच्चसो परिवज्जए ॥१२॥ [ उत्तरा० अ. १६ गा० . ] ( ५० ) धम्मलद्धमियं काले, जत्तत्थं पणिहाण । नाइमत्तं तु भुजेज्जा, बभचेररो सया ॥१३॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा. ८ ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ब्रह्मचर्यरत भितु को में तो स्त्रियों के अङ्ग-प्रत्यङ्गों की सुन्दर प्राकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न भाँखों में विकार पैदा करनेवाले हाव-भावों और स्नेह-भरे मोठे बचनों को ही ओर। (४७) ब्रह्मचर्य-रत भिनु को स्त्रियों का कूजन (अध्यक्त आवाज) रोदन, गीत, हास्य, सीस्कार और करुण-क्रन्दन--जिनके सुनने पर विकार पैदा होते हैं-सुनना छोड़ देना चाहिए । ब्रह्मचर्य-रत मिनु स्त्रियों के पूर्वानुभून हास्य, कोड़ा, रति, दर्प, सहसा-वित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे।। (४६) ब्रह्मा चर्य-रत भिक्षु को शीघ्र ही वासना-वर्धक पुष्टि कारक भोजन-पान का सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए । ब्रह्मचर्य-रत स्थिर-चित्त भिक्षु को संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए हमेशा धर्मानुकून विधि से प्राप्त परिमित भोजन हो करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यों न लगी हो, लानध-वश अधिक मात्रा में कभी भोजन नहीं करना चाहिए । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (५१) जहा दवंग्गी पउरिन्धणे वणे, . समारुओ नोवसम उवेइ एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न भयारिस्स हियाय करसई ॥१४॥ [ उत्तरा० अ० ३२ गा० ११ ] (५२) विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमंडणं । बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धोरए ॥१५|| [ उत्तरा० श्र) १६ गा० ६ ] (५३) सद्द रूवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ।।१६।। [ उत्तरा० अ १६ गा. 10 ] दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परियज्जए। संकट्ठाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पाणिहावं ॥१७॥ [ उत्तराम अय ६ मा ११ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ३५ जैसे बहुत ज्यादा इंधनवाले जङ्गल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त महीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इंद्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता। (५२) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को श्रृंगार के लिए, शरीर की शोभा और सजावट का कोई भी श्र ङ्गारी काम नहीं करना चाहिये । (५३) ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पाँच प्रकार के काम-गुणों को सदा के लिये छोड़ देना चाहिये। (५४) स्थिर-चित्त भिक्षु, दुर्गाय काम-भोगों को हमेशा के लिए छोड़ दे। इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुँचनेकी सम्भावना हो, उन सब शङ्का-स्थानों का भी उसे परित्याग कर देना चाहिए। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ महावीर-वाणी कामाणुगिद्धिप्पभयं खु दुक्खें, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । ज काइयं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तर्ग गच्छई वीयरागो ॥१८॥ [ उतरा थः ३२ गा "] देवदाएवगन्धव्या, जक्खरक्खसकिन्नरा । बंभयारि नमंसन्ति, दुक्कर जे करेन्ति तं ॥१६॥ [ उत्तरा अ गा० १६ ] एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेणं, सिभिस्सन्ति तहा परे॥२॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा० १७ ] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य - सूत्र (xx ) देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःख का मूल एक मात्र काम-भोगों को वासना ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में बीतराग हो जाता है, बहू शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है । ( ५६ ) जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं । (५७) यह ब्रह्मवयं धर्म ध्रुव है, मिष्य है, शाश्वत है और जिमोषदिष्ट है। इसके द्वारा पूर्वकाल में किसने ही जीव सिद्ध हो गये हैं. वर्तमान में हो रहे हैं, और भविष्य में होंगे । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७: अप्परिम्गह-सुतं (५८) न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुप्तों, इइ वुत्तं महेसिया ||१|| [ दश० अ० ६ गा० २९ ] ( ५६ ) परिग्रहविवज्जरणं । धरण - धन्न - पेसवग्गेसु, सव्वारंभ- परिच्चाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं ||२|| [ उत्तरा० अ० १६ गाः २६ ] ( ६० ) बिड्मुभेइमं लोणं, तेल्लं सप्पिं च फाणिये । न ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुत्त वोरया || ३ || - [ दश० अ० ६ ० १८ ] ( ६१ ) जं पिवत्थं च पायं वा, कंवल पायपुर छ पि संजमलज्जष्टा, धारेन्ति परिहरन्ति य । ||४|| [देश० अ० ६ ० २०] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७: अपरिग्रह - सूत्र (४८) प्राणिमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ( भगवान् महावीर ) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों को परिग्रह नहीं बतलाया है। वास्तविक परि तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मूछों का - शशक्ति का रखना बतलाया है । ( ४६ ) पूर्ण संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है । समस्त पाप कर्मो का परित्याग करके सर्वथा निर्ममत्व होना तो और भी कठिन बात है । ( ६० ) जो संयमी ज्ञातपुत्र ( भगवान् महावीर ) के प्रवचनों में रत हैं, वे बिढ़ और उद्वेय आदि नमक तथा तेज, घी, गुड़ आदि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं करते । ( ६१ ) परिग्रह-विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएँ रखते हैं, वे सब एक मात्र संयम को रक्षा के लिए ही रखते हैं काम में लाते हैं । (इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं है । ) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-बाणी (६२) सम्बत्थुबहिणा बुद्धा, संरक्खरण-परिग्गहे। श्रवि अपणो वि देहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममाइयं ॥५॥ दश० अ० ६ गा० २२] (६३) लोहस्सेस अणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामबि । जे सिया सन्निहीकामे गिही, पब्बइए न से ॥६॥ दिश. म. ६ गा० १५] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह-सूत्र (६२) ज्ञानी पुरुष, संयम-सापक उपकरणों के लेने और रखने में कही भी किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं करते। और तो क्या, अपने शरीर तक पर भी ममता नहीं रखते। संग्रह करना, यह अन्दर रहनेवाले लोभ की मज है। अतएव में मानता हूँ कि जो साधु मर्यादा-विरुख कुछ भी संग्रह करना चाहता है, वह गृहस्थ है-सा नहीं है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अराइभोयण-सुर्त अर्थगयमि श्राइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमाइयं सव्वं मणसा वि न पत्थए ।।१।। [दश० श्र: ८ गा० २८] सन्तिमे सुहमा पाणा, तसा अदु व थावरा । जाई राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे ? ॥२॥ [दश अ. ६ गा० २४] उदउल्लं बीयसं सत्तं, पागा निव्वड़िया महिं । दिया ताई विवज्जेज्जा, राओ तत्थः कई चरे ? ॥३॥ [दशः श्र. ६ गा० २५] (६७) एयं च दोसं दळूण, नायपुत्तेण भासियं । सव्वाहारं न भुजंति, निगंथा राइभोयणं ॥४॥ दश: श्र० ६ गा० २१ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्ररात्रि-भोजन-सूत्र (६४) सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जाने के बाद निर्ग्रन्थ मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करना चाहिए । (६५) संसार में बहुत से त्रस और स्थावर प्राणो बड़े ही सूपम होते हैं ये रात्रि में देखे नहीं जा सकते : तब रात्रि में भोजन कैसे किया जा सकता है? (६६) जमीन पर कहीं पानी पढ़ा होता है; कहीं बीज बिखरे होते हैं, और कहीं पर सूचम कीड़े-मकोड़े प्रादि जीव होते हैं। दिन में तो उन्हें देख-भालकर बचाया जा सकता है, परन्तु रात्रि में उनको बचा कर भोजन कैसे किया जा सकता है ? (६७) इस तरह सब दोषों को देखकर ही ज्ञातपुत्र ने कहा है कि निमन्ध मुनि, रात्रि में किसी भी प्रकार का भोजन न करें। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-बाणी घउव्धिहे वि आहारे, राईभोयणवजा । सत्रिही-संचओ चेव, पज्जेयम्बो सुदुक्कर ॥५॥ [सरा अ गा०३.] पाणिवह-मुसाधायाऽदत्त-मेहुण-परिगगहा विरओ । राइभोयणविर ओ, जीवो भवई प्रणासवो ॥६॥ (सरात्र ३. गा ] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरात्रि-भोजन-सूत्र (६८) अज बादि चारों ही प्रकार के आहार का रात्रि में सेक्स नहीं करना चाहिए । इतना ही नहीं, दूसरे दिन के लिए भी रात्रि में खाद्य सामग्री का सल्मा करना निषिद्ध है। अतः शरात्रिभोजन वास्तव में बड़ा दुष्कर है। (६६) हिंसा, भूट, चोरी, मैथुम, परिग्रह और रात्रि-भोजन-जो भीष इनसे विरत (पृथक) रहता है, वह 'अनाखवा (आत्मा में पाप-फर्म के प्रविष्ट होने के द्वार बामद कहलाते है, डमने रहित अमानव) हो जाता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणय-सुत्तं (७०) मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुन्ति साहा । साहा-प्पसाहा विरहन्ति पत्ता, तो य से पुष्कं फलं रसो य ॥१॥ [ दश. 4) ६ उ०२ ना०] एवं धम्मस्स विणश्रो, मूल परमो से मोक्यो । जेण कित्ति सुयं सिग्घ, निम्सेस चाभिगच्छद ॥२॥ [दश: अ. ६ उ० २ गा० २] (७२) अह पंचर्हि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लभइ । थम्भा कोहा पमाए, रोगेणाऽऽलस्सएण य ॥३॥ [ उत्तरा० भ० ११ गा० ३ ] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय--सूत्र (७०) वृक्ष के मूल से सबसे पहले स्कन्ध पैदा होता है, स्कन्ध के बाद शाखाएँ और शाखाओं से दूपरी छोटी-छोटी टहनिया निकलती हैं। छोटी टहनियों से पत्ते पैदा होते हैं। इसके बाद क्रमशः फूल, फल और रस उत्पन्न होते हैं। (७१) इसी भाँति धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम रस है । विनय से ही मनुष्य बहुत जल्दी श्लाघायुक्त संपूर्ण शास्त्र-ज्ञान तथा कोर्ति सम्पादन करता है। (७२) इम पाँच कारणों से मनुष्य सडची शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता: अभिभान से, क्रोध से, प्रमाद से, कुष्ठ श्रादि रोग से, और मानस्थ से। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ महावीर - वाणी (७३-७४) अद अहिं ठाणेहिं, सिक्खासीलि ति बुवइ । अहम्सिरे सयादन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥४॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सचरए, सिक्खासीलि ति वुञ्चइ ||५|| [ उत्तरा: अ ११ गा० ४-२ ] ( ७. 2) आणानिह सकरें, इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति [ उतरा गुरुणमुववाय कारए । वुच्चइ ||६|| अः १ गा० २ ] ( ७६-७६ ) अ पन्नरसहि ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चइ | नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुहले ॥७॥ अहिक्खिवई, पवन्धं च न कुव्वई । मेतिजमाणो भयइ, सुर्य लद्ध, न मज्जइ ||६|| न य पावपरिक्रखेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ । पियसाऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासइ ॥६॥ कलहडमरवज्जिए, बुद्ध अभिजाइए । हिरिमं पडिसलीणे, सुविणीए त्ति वुच्चइ ||१०|| [ उत्तराः भ० ११ गा० १०-११-१२-१३ ] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र ४६ (७३-७४) इन आठ कारणों से मनुष्य शिक्षा-शोल कहलाता है : हर समय हंसनेवाला न हो, सतत इंद्रिय-निग्रही हो, दूसरों को मर्म-भेदी वचन न बोलता हो, सुशीन हो, दुराचारी न हो, रसलोलुप न हो, सत्य में रत हो, क्रोधी न हो-शान्त हो। (७५) जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके इंगितों तथा श्राकारों को जानता है, वही शिष्य विनीत कहलाता है (७६-७६) इन पन्द्रह कारणों से बुद्धिमान मनुष्य सुविनीत कहलाता है : उद्धत न हो-नम्र हो, चपन न हो- स्थिर हो, मायावी । हो-सरल हो, कुतूहली न हो-गम्भीर हो, किसी का तिरस्कार मकरता हो, क्रोध को अधिक समय तक न रखना हो--शोघ्र हो गान्त हो जाता हो, अरने से मित्रता का व्यवहार रखनेवालों के प्रति. पूरा सद्भाव रखता हो, शास्त्रों के अध्ययन का गर्व न करता हो, किसी के दोषों का भण्डाफोड़ न करता हो, मित्रों पर कोधित म होता हो, अप्रिय मित्र को भी पोट-पीछे भलाई हो करता हो, किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो, बुद्धिमान हो, अभिजात अर्थात् कुशीन हो, सजाशील हो, एकाग्र हो। . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-बाणी (८०) आणाऽनि सकरे, गुरूणमणुबवायकारए । पडिणीए असंबुद्ध, अविणीए त्ति वुच्चइ ॥१॥ [ उत्तरा० अ. गा० ३ ] (८१-८३) अभिक्खणं कोही हवइ, पबन्धं च पकुव्वई । मेतिज्जमाणो वमइ, सुयं लद्ध ण मज्जई ।।१२।। अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुप्पियस्साऽवि मित्तम्स, रहे भासइ पावगं ॥१३॥ पइएणवादी दुहिले, थद्ध लुद्रु अणिग्गहे । असंविभागी अचियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चइ ॥१४॥ [ उत्तरा० अ० ११ गा० ७८-६ ] (४) जस्सन्तिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्सन्तिए वेणइयं पउंजे । सकारए सिरसा पंजलीप्रो. काय-गिरा भो ! मणसा य निच्च ।।१५।। [दश० अ० १ ० १ गा० १२] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र (८०) जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता, जो उनके पास नहीं रहता, जो उनसे शत्रुता का बर्ताव रखता है, जो विवेक-शून्य है, उसे अधिनीत कहते हैं। (८१-८३) जो बार-बार क्रोध करता है, जिसका क्रोध शीघ्र ही शान्त नहीं होता, जो मित्रता रखनेवालों का भी तिरस्कार करता है, जो शास्त्र पढ़कर गर्व करता है, जो दूसरों के दोषों को प्रकट करता रहता है, जो अपने मित्रों पर भी क्रुद्ध हो जाता है, जो अपने प्यारे-से-प्यारे मित्र को भी पीठ-पीछे बुराई करता है। जो मनमाना बोल उठता है-यवादी है, जो स्नेहीजनों से भी द्रोह रखता है, जो अहंकारी है, जो लुब्ध हैं, जो इन्द्रियनिग्रही नहीं, जी पाहार श्रादि पाकर अपने साधर्मी को न देकर अकेला ही खानेवाला अविसंभागी है, जो सबको अप्रिय है, वह भविनीत कहलाता है। (८४) शिष्य का कर्तव्य है कि वह जिस गुरु से धर्म-प्रवचन सीखे, उसको निस्तर विनय-भक्ति व रे । मस्तक पर अंजलि चढ़ाकर गुरु के प्रति सम्मान प्रदर्शित करे। जिस तरह भी होसके मन से, बच्चन से और शरीर से हमेशा गुरु की सेवा करे । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (८५) थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुसगासे विणयं न सिखे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥१६॥ [ दश० अ० उ. ) गा० ।] (८६) विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य । जस्सेयं दुहओ नाय, सिक्ख से अभिगच्छइ ॥१७॥ [दश० अ० उ० २ गा० २२] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र (८५) जो शिष्य श्रभिमान, क्रोध, मनु या प्रमाद के कारण गुरु को विनय ( भक्ति) नहीं करता. वह अभूति अर्थात् पतन को प्राप्त होता है। जैसे बाँसका फल उसके ही नाश के लिए होता है, उसी प्रकार श्रविनीत का ज्ञान-वन भी उसी का सर्व-नाश करता है । (८६) 'अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है, और विनीत को सम्पत्ति'- ये दो बातें जिसने जान बी हैं, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है । ५.३ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाउरंगिज्ज-सुत्तं (८७) चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥ [ उत्तरा० अ० ३ गा० १ ] (८८) एगया खत्तिो होइ, तो चंडाल-बुक्कसो। तो कीड-पयंगो य, तओं कुन्थु-पिवीलिया ॥२॥ [ उत्तरा ? ३ गा० ४ ] (८६) एवमावट्टजोणीसु पाणिरणो कम्मकिविसा । न निविज्जन्ति संसारे, सव्वसु व खत्तिया ॥१॥ [ उत्तरा० श्रः ३ गा० ५ ] (१०) कामसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥४॥ [ उत्तरा०प्र० ३ गा०६] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०: चतुरङ्गीय-सूत्र (८७) संसार में जीवों को इन चार श्र ेष्ठ अङ्गों ( जीवन विकास के साधनों ) का प्राप्त होना बढ़ा दुर्लभ है : मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थं । (55) कभी वह चत्रिय होता है और कभी चाण्डाल, कभी वर्ण संकर - बुक्कस, कभी कोड़ा, कभी पतङ्ग, कभी कुंथुआ, तो कभी चींटी होता है । (८) पाप कर्म करनेवाले प्राणी इस भाँति हमेशा बदलती रहने वाली योनियों में बारम्बार पैदा होते रहते हैं, किंतु इस दुःखपूर्ण. संसार से कभी खिन्न नहीं होते, जैसे दुःखपूर्ण राज्य से क्षत्रिय । (६०) जो प्राणी काम वासनाओं से विमूढ़ हैं, वे भयङ्कर दुःख तथा वेदना भोगते हुए चिरकाल तक मनुष्येतर योनियों में भटकते रहते हैं । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर वाणी ( ६१ ) कम्मारणं तु पहारणाए, आरणुपुत्री कयाइ उ । जीवा सोहिमगुपत्ता, आययन्ति मरणुस्सर्य ||५|| [ उत्तरा० अ : ३ गा० ७ ] ५६ ( १२ ) मागुस्सं विगह लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा | जं सोचा पडिवज्जन्ति, तवं स्वन्तिमहिंसयं ||६|| [ उत्तरा० अ० ३ गा० ८ ] ( ३ ) आहश्च सत्रणं लद्ध, सडा परमदुल्लहा । सोचा नेयाज्यं मग्गं, बहवे परिभस्सई ||७|| [ उत्तराः श्र० ३ गा० ६ ] ( ६४ ) सुईं च लख सद्ध च, वीरियं पुरण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो यं पडिवज्जए || || [ उत्तरा० अ० ३ गा० १० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरङ्गोय-सूत्र (६१) संसार में परिभ्रमण करते-करते जब कभी बहुत काल में पार-कर्मों का वेग क्षीण होता है और उसके फलस्वरूप अन्तरारमा क्रमशः शुद्धि को प्राप्त करता है, तब कहीं मनुष्य-जन्म मिलता है। (६२) मनुष्य-शरीर पा लेने पर भी सद्धर्मका श्रवण दुर्लभ है, जिसे सुनकर मनुष्य तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करते हैं। (६३) सौभाग्य से यदि कभी धर्म का श्रवण हो भी जाय, तो उस पर श्रद्धा. का होना अत्यन्त दुर्लभ है । कारण कि बहुत-से बोग न्याय-मार्ग को - सत्य-सिद्धान्त को-सुनकर भी उससे दूर रहते हैं-उसपर विश्वास नहीं रखते । ( ४) . सद्धर्म का श्रवण और उसपर श्रद्धा-दोनों प्राप्त कर लेने पर भी उनके अनुसार पुरुषार्थ करना तो और भी कठिन है। क्योंकि संसार में बहुत-से लोग ऐसे हैं, जो सद्धर्म पर. दृढ़ विश्वास रखते हुए भी उसे पाचरण में नहीं जाते ! Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( ६५ ) माणुसत्तम्मि आया, जो धम्मं सोच सद्द है । तबस्सी वीरियं लद्ध, संबुड़े निद्धणे रयं ॥६॥ [ उत्तरा० श्र० ३ गा० ११ ] ५८ ( ६६ ) सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ | निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्ते व पावए ||१०|| [उत्तरा० श्र० ३ गा० १२] (१७) विगिंच कम्मणो हेडं, जसं सरीरं पाढव हिचा उड 1 ( ६ ) चउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजमं• पडिवज्जिया । तवसा धुयंकम्मंसे, सिद्ध हधइ सासए ||१२|| [ उत्तरा० श्र ३ गा० २० ] संचिणु खन्तिए । पक्कमई दिस || ११ || [ उत्तरा० श्र० ३ गा० १३ ] ★ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरङ्गीय सूत्र ( १५ ) परन्तु जो तपस्वी मनुष्यत्व को पाकर, सद्धर्म का श्रवण कर, उसपर श्रद्धा जाता है और तदनुसार पुरुषार्थ कर आस्रव रहित हो जाता है, वह अन्तरात्मा पर से कर्म-रज को टक देता है । ( ६६ ) जो मनुष्य निष्कपट एवं सरल होता है, उसी को आध्मा शुद्ध होती है। और, जिस की आत्मा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है। घी से सींची हुई अग्नि जिस प्रकार पूर प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल और शुद्ध साधक ही पूर्ण निर्वाण की प्राप्त होता है । ५६ (६७) कर्मों के पैदा करनेवाले कारणों को दूँढो - उनका छेद करो, और फिर क्षमा आदि के द्वारा श्रचय यश का संचय करो । ऐसा करनेवाला मनुष्य इस पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा को प्राप्त करता है - अर्थात् उच्च और श्रेष्ठ गति पाता है । (£5) जो मनुष्य उक्त चार अंगों को दुर्लभ जानकर संयम मार्ग स्वीकार करता है, वह तप के द्वारा सब कर्माशों का नाश कर सदा के लिये सिद्ध हो जाता है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११ : अप्पमाय-सुत्तं (६६) असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवरणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विजाणाहि जणे पमत्ते, कं नु विहिंसा अजया गहिन्ति ? ॥१॥ [उत्तरा० अ० ४ गा. . ] (१००) जे पावकम्मे हि धणं मगुस्सा, समाययन्ति अमयं गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेरागुवद्धा नरयं उवेन्ति ।। [ उत्तरा० अ० ४ गा० २ ] (१०१) वित्तेण ताणं न लभे पमत्त, इमम्मि लोए अदुवा परत्थ । दीवप्पणठे व अणंतमोहे नेयाउयं दठुमदठुमेघ ॥३॥ [उत्तरा० म०४ गा० १ ] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :११: अप्रमाद-सूत्र (६६) जीवन प्रसंस्कृत है-अर्थात एक बार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुक्ता; अतः एक क्षण भी प्रमाद न करो । 'प्रमाद, हिंसा और असंयम में अमूल्य यौवन-काल बिता देने के बाद जब वृद्धावस्था प्रावेगी, तब तुम्हारी कौन रक्षा करेगा - तब किस की शरण लोगे ?' यह खूब सोच-विचार खो। (१००) जो मनुष्य अनेक पाप-कर्म कर, वैर-विरोध बढ़ाकर अमृत की तरह धन का संग्रह करते हैं, वे अन्त में कर्मों के दृढ़ पाश में बँधे हुए सारी धन-सम्पत्ति यहीं छोड़कर नरक को प्राप्त होते हैं । (११) प्रमत्त पुरुष धन' के द्वारा न तो इस लोक में ही अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में ! फिर भी धन के असीम मोह से मूद मनुष्य, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग नहीं दीख पड़ता, वैसे ही न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नहीं देख पाता। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ तेणे जहा सकम्मुरणा एवं पया पेच इह कडारण कम्माण घोरा महावीर वाणी ( १०२ ) न सुसु या वि वीससे मुहुत्ता भारंडपक्खी सन्धिमुहे गहीए. पावकारी | लोए, च न मुक्ख अत्थि किचाइ संसारमावन्न साहारां कम्मरस ते तरस उ वैयकाले, न वन्धवा ॥४॥ [ उतरा : श्र० ४ गा० ३ ] 1 ( १०३ ) परस्स अट्ठा, जं च करेइ कम्मं । बन्धवयं उवेन्ति ||५|| [ उत्तरा० अ० ४ गा० ४ ] ( १०४ ) अवलं व पडिबुद्धजीवी, पंडिए सुन्न । सरीरं, चरेत् ||६|| [ उत्तराः अ० ४ ना० ३ ] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र (१०२) जैसे चोर सेंध के द्वार पर पकड़ा जाकर अपने ही दुष्कर्म के कारण चीरा जाता है, वैसे ही पाप करनेवाला प्राणी भी इस नोक में तथा परलोक में दोनों ही जगह-भयङ्कर दुःख पाता है। क्योंकि कृत कर्मों को भोगे बिना कभी छुटकारा नहीं हो सकता । (१०३) संसारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्बियों के लिए बुरे-से-बुरे पाप-कर्म भी कर डालता है, पर जब उनके दुष्फल भोगने का समय प्राता है, तब अकेला ही दुःख भोगता है, कोई भी भाई-- बन्धु उसका दुःख बंटानेवाला--पहायता पहुँचानेवाला नहीं होता। (१०४) आशु-प्रज्ञ पंडित-पुरुष को मोह-निद्रा में सोते रहनेवाले संसारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब ओर से जागरूक रहना चाहिए-किसीका विश्वास नहीं करना चाहिए । 'काल निर्दय है और शरीर निर्बल' यह जानकर भारण्ड पक्षी की तरह हमेशा प्रप्रमत्त भाव से विचरना चाहिए । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-बाणी (१०५) चरे पयाइ परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मण्णमायो । लाभन्तरे जीवियं बूहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥ [उत्तरा० अ० ४ गा: ७] (१०६) छन्दनिरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय-वम्मधारी । पुब्बाई बासाई चरेऽप्पमत्ते, तम्हा मुणी . खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥८॥ [ उत्तरा० भ० ४ गा० ८ ] (१०७) स पुव्यमेवं न लभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले . आउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भए ।।६।। [उत्तरा० अ० ४ गा. ] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अप्रेमाद-सूत्र (१०५) संसार में जो धन जन आदि पदार्थ हैं, उन सब को पाशरूप जानकर मुमुक्षु को बड़ी सावधानी से फूक फूक कर पाँव रखना चाहिये । जबतक शरीर सशक्त है, तबतक उसका उपयोग अधिक से अधिक संयम-धर्म की साधना के लिए कर लेना चाहिए । बाद में जब वह बिलकुल ही अशक्त हो जाये तब बिना किसी मोहममताके मिट्टी के ढेले के समान उसका त्याग कर देना चाहिए। जिस प्रकार शिक्षित (सधा हुआ) तथा कवरधारी घोढ़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार विवेकी मुमुक्षु भी जीवनसंग्राम में विजयी होकर मोक्ष प्राप्त करता है। जो मुनि दीर्घकाल सक अप्रमत्तरूप से संयम-धर्म का श्राचरण करता है, वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष-पद पाता है। (१०७) शाश्वत-बादी लोग कल्पना किया करते हैं कि 'सरकर्म-साधना की अभी क्या जल्दी है, भागे कर लेंगे ! परन्तु यों करते-करते भोग-विलास में ही उनका जीवन समाप्त हो जाता है, और एक दिन मृत्यु सामने आ खड़ी होती है, शरीर नष्ट हो जाता है। अन्तिम समय में कुछ भी नहीं बन पाता; उस समय तो मूर्ख मनुष्य के भाग्य में केवल पछताना ही शेष रहता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावोर-वाणी (१०८) खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं, तम्हा समुठ्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी, आयागुरक्खी चरमप्पमत्त ॥१०॥ [उत्तरा० अ० ४ गा.१०] (१०६) मुहुँ मुहुँ मोहगुणे जयन्तं, अरणेगरूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ती असमंजसं च, न तेसि भिक्खू मणमा पउस्से ॥११॥ [उत्तरा० अ० ४ गा०11] (११०) मन्दा य फासा बहुलोहणिज्जा, तहप्पगारेसु मणं न कुजा । रक्विज कोहं विणएज माणं, मायं न सेबे परहेज लोहं ॥१२॥ [सरा० भ० ४ गा2 १२] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रप्रमाद सूत्र (१०८) आरम-विवेक भटपट प्राप्त नहीं हो जाता इसके लिए भारी साधना की आवश्यकता है । मद िजनों को बहुत पहले से ही संयम पथ पर दृढ़ता से खड़े होकर काम-भोगों का परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी संसार की वास्तविकता को समकर अपनी आत्मा की पापों से रक्षा करते हुए सर्वदा मादीरूप से विचरना चाहिये । ६७ ( १०६ ) मोह-गुणों के साथ निरन्तर युद्ध करके विजय प्राप्त करने -- वाले श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल स्पर्शो का भी बहुत बार सामना करना पड़ता है । परन्तु भिक्षु उनपर तनिक भी अपने मन को क्षुब्ध न करे - शान्त भाव से अपने लक्ष्य की भोर हो अग्रसर होता रहे । ( ११० ) संयम-जीवन में मन्दता लाने वाले काम भोग बहुत हो लुभावने मालूम होते हैं । परन्तु संयमी पुरुष उनकी ओर अपने मन को कभी आकृष्ट न होने दे । श्रात्म-शोधक साधक का कर्तव्य है कि वह क्रोध को दबाए, अहङ्कार को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ को छोड़ दे । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जे एए परपवाई, संख्या तुच्छ ते पिज्ज- दोसारगुगया परन्भा । अहम्मे त्ति दुगु छमाणो, कैखे गुणे जाव सरीरभेए ||१३|| [उत्तरा० : ४ गा० १३] महावीर वाणी (११२) • Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभमाद-मूत्र - (१११) जो मनुष्य जार-ऊपर से संस्कृत नाम पड़ते हैं परन्तु वस्तु नः तुच्छ हैं, दूसरों को निन्दा करनेवाले हैं, राग-द्वेषी हैं, परवंश हैं, वे सब अधर्माचरणवाले हैं.-इस प्रकार विचार-पूर्वक दुगुणों से घृणा करता हुआ मुमुक्षु शरीर-नाश पर्यन्त (जीवनपर्यन्त ) केवल सद्गुणों की ही कामना करता रहे। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :११-२ : अप्पमाय-सुत्तं (११२) दुमपत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणार अच्चए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१।। (११३) कुसग्गे जह ओसबिन्दुए, थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ।।२।। (११४) इइ इसरियम्मि आउए, जीवियए बहुपच्चवायए । विहुणाहि रयं पुरेकर्ड, समयं गोयम ! मा पमायए ॥३॥ (११५) दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्व-पाणि । गाढा य विवाग करमुणो, समयं गोयम ! मा पमायए॥४॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :११-२: अप्रमाद-सूत्र (११२) जैसे वृक्ष का पत्ता पतझड़-ऋतुकालिक रात्रि-समूह के बीत जाने के बाद पीला होकर गिर जाता है, वैसे ही मनुष्यों का जीवन भी श्रायु समाप्त होने पर सहसा नष्ट हो जाता है। इसलिए हे गौतम ! क्षण-मात्र भो प्रमाद न कर । जैसे मोस की बूंद कुशा की नोक पर थोड़ी देर तक ही रहती है, वैसे ही मनुष्यों का जीवन भी बहुत अल्प है-शीघ्र ही नष्ट हो जानेबाला है। इसलिये हे गौतम ! पण-मात्र मी प्रमाद न कर। (११४) अनेक प्रकार के विघ्नों से युक्त अत्यन्त अल्प भायुवाले इस मानव जीवन में पूर्व सञ्चित कर्मों को धूल को पूरी तरह झटक दे । इसके लिए हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर । (११५) दीर्घकाल के बाद भी प्राणियों को मनुष्य-जन्म का मिलना बड़ा दुर्लभ है, क्योंकि कृत-कर्मों के विपाक अत्यन्त प्रगाढ़ होते हैं। हे गौतम ! क्षण-मान भी प्रमाद न कर । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( ११६ ) एवं भवसंसारे संसरइ, सुहासुद्देहिं कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो, समय गोयम ! मा पमायए || ५ || [ उत्तरा० श्र० १० गा० १५ ] ७२ ( ११७ ) लद्धरण विमासत्तणं, आरियत्तं पुरारावि दुल्लभं । बहवे दसुया मिलक्खुया, समयं गोयम ! मा पमायए ||६|| ( ११८ ) लहू वि श्ररियत्तणं, अहीरणपंचिन्दिया हु दुल्लहा । विगलिन्दियया हु दी सई, समयं ! गोयम मा पमायए ||७|| ( ११६ ) अही पंचेन्दियत्तं पिसे लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ||८|| ( १२० ) लद्धरण वि उत्तमं सुइ, सद्दहरणा पुरणराचि दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवर जगणे, समयं गोयम ! मा पमायण ॥६॥ ܬ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र (११६) प्राद-बहुल जीन अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण अनन्त बार भव-चक्र में इधर से उधर धूमा करता है। हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर। (११७) मनुष्य-जन्म पा लिया तो क्या ? आर्यस्व का मिलना बड़ा कठिन है। बहुत-से जीव मनुष्यत्व पाकर भी दस्यु और म्लेच्छ जातियों में जन्म लेते हैं। हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर । (११८) श्राव पाकर भी पाँवों इन्द्रियों को परिपूर्ण पाना बड़ा कठिन है। बहुत-से लोग थार्य क्षेत्र में जन्म लेकर भी विकल इन्द्रियों वाले देखे जाते हैं। हे गौतम ! सण-मात्र भी प्रमाद न कर । (११६) पाँचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण पाकर भी उत्तम धर्म का प्रवण माप्त होना कठिन है। बहुत से लोग पाखण्डी गुरुओं की सेवा किया करते हैं । हे गौतम ! क्षण मात्र भो प्रमाद न कर । (१२०) उत्तम धर्म का श्रवण पाकर भी उसेपर श्रद्धा का होना बड़ा कठिन है । बहुत-से लोग सब कुछ जान-बूझकर भी मिथ्यात्व की उपासना में ही लगे रहते हैं। हे गौतम !क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १२१) धम्म पि हु सहहन्तया, दुल्लहया कारण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समय गोयम ! मा पमायए ॥१॥ [ उत्तरा० अ० १० गा० १६-२०] (१२२) परिमाइते सरीरयं, केसा पंडुरया हवन्ति ते । से सम्बबले य हायई, समय गोयम ! मा पमायए ।।११।। [उत्तरा० अ० १० गा० २६ ] (१२३) अरई गएड़े विसूहया, आयंका विविहा फुसन्ति ते । विहडइ विद्ध सइ ते सरीरयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१२॥ (१२४) वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सबसिणेहवजिए, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१३।। चिच्चारण धणं च भारिवं, पबइओ हि सि भणगारियं । मा वन्तं पुणो विश्राविए, समयं गोयम मा पमायए ॥१४|| Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमात्र-सूत्र ( १२१ ) धर्म पर श्रद्धा होने पर भी शरीर से धर्म का आचरण करना कठिन है। संसार में बहुत-से धर्म- अज्ञानी मनुष्य भी कामभोगों में हिते हैं। है गौतम ! इवन्मात्र भी प्रमान न कर । ( १.२ । तेरा शरीर दिन-प्रति-दिन जीर्ण होता जा रहा है, सिर के बाल पककर श्वेत होने लगे हैं, अधिक क्या - शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार का बल घटता जा रहा है । हे गौतम! चय-मान श्री प्रमाद न कर । ७५ ( १२३ ) अरुचि, फोड़ा, विसूचिका (हैजा ) चादि अनेक प्रकार के रोग शरीर में बढ़ते जा रहे हैं; इनके कारण तेरा शरीर 'बिस्कुल की तथा त्रस्त हो रहा है । है गौतम ! क्षण मात्र भी प्रमाद न कर । ( १२४ ) जैसे कमल शरत्काल के निर्मल जल को भी नहीं - अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तू भी संसार से अपनी समस्त श्रासक्तियाँ दूर कर, सब प्रकार के स्नेह बन्धनों से रहित हो जा । हे गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद न कर । (१२५) स्त्री और धन का परित्याग करके तू महान् अनगार पद को पा चुका है, इसलिए अब फिर इन नमन की हुई वस्तुओं का पान न कर । हे गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद न कर । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-बारगी उक्उज्मिय मित्तबन्ध, विउल चेव धोहसंचयं । मा तं विइयं गवेसए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१५॥ [ उत्तरा० अ० १. गा० २७-३० ] (१२७) अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छागुतावए, समय गोयम ! मा पमायए. ॥१६॥ (१२८) तिएणो सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ? अभितुर पार गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१४॥ [ उत्तराः अ० १० गा: ३३-३४ ] (१२६) बुद्धस्स निसम्म भासिय, सुकहिंयमपदोक्सोहियं । राग दोसं च छिन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमें ॥८॥ [ उत्तरा, १० १० गा० ३७ ] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमाद-सूत्र (१२६) वियुज धनराशि तथा मित्र-शन्धवों को ए बार सोच्छापूर्वक छोड़कर, अब दोबारा उनकी गोषणा (पूछताछ) न कर । हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर । (१२७) घुमावदार विषम मार्ग को छोड़कर तू सीधे और साफ मार्ग पर चल । विषम मार्ग पर चलनेवाले निर्बल भारवाहक की तरह बाद में पछतानेवाला न बन हे गौतम ! क्षण-मान भी प्रमाद न कर। (१२८) तू विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका है, अब भला किनारे श्राकर क्यों अटक रहा है ? उस पार पहुँचने के लिए जितनी भी हो सके शीघ्रता कर! हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर । (१२६) भगवान महावीर के इस भाँति अर्थयुक्त पदोंवाले सुभाषित वचनों को सुनकर श्री गौतम स्वामी राग तथा द्वेष का छेदन कर लिद्ध-ति को प्राप्त हो गये। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२: पमायट्ठाण-सुत (१३०) पमार्य कम्ममाईसु, अप्पमायं तहावरं । तभावादेसश्रो वावि, बालं पडियमेव वा ॥१॥ [ सूत्र० श्रु० १ ० गा० ३ ] . (१३१) अहा व अपभवा बलागा, अखं बलागप्पभवं जहा य एमेव मोहाययणं खु तराहा, मोहं च तराहाययणं वयन्ति ॥२॥ (१३२) रागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्मं च मोहापभबं वयन्ति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुवं च जाईमरणं बयन्ति ॥३॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१२ प्रमाद-स्थान-सूत्र (१३०) प्रमाद को कर्म कहा गया है और अप्रमाद को अकर्म--अर्थात जो प्रवृत्तियाँ प्रमाद-युक्त हैं वे कर्म-बन्धन करनेवाली हैं, और जो प्रवृत्तियाँ प्रमाद रहित हैं वे कर्म-बन्धन नहीं करती। प्रमाद के होने और न होने से ही मनुष्य क्रमशः मूर्ख और पंडित कहलाता है। (१३१) जिस प्रकार बगुली अंडे से पैदा होती है और अंडा बगुली से पैदा होता है, उसी प्रकार मोह का उत्पत्ति-स्थान तृष्णा है और तृष्णा का उत्पत्ति स्थान मोह है। (१३२) राग और तुष-दोनों कर्म के बीज हैं । अतः मोह ही कर्म का उत्पादक माना गया है। कम-सिद्धान्त के अनुभवी बोग कहते हैं कि संसार में जन्म-मरण का मूल कर्म है, और जन्ममरण यही एकमात्र है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० महावीर-चागी (१३३) दुक्खं यं जस्स न होइ मोहों, मोहो हो जस्स न होइ तराहा । तरहा हया जस्स न होइ लोहो, लोहों हो जरस न किंचणाई॥४ [ उत्तराः श्र. ३२ गाः ६-८] (१३४) रसो पगामं न निसेवियव्या, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिवन्ति, दुम जहा साउफलं व पक्वी ॥॥ [ उत्तरा० श्रा, ३२ गा० १०] (१३५) रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्यं, ____ अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, - आलोयलोले समुवेइ मच्चु ॥६॥ [ उत्तरा० अं० ३२ गा० २४ ] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद-स्थान-सूत्र (१३३) जिसे मोह नहीं उसे दुःख नहीं; जिसे तृष्णा नहीं उसे मोह नहीं; जिसे लोभ नहीं उसे तृष्णा नहीं; और जिसके पास लोभ करने योग्य कोई पदार्थ-संग्रह नहीं है, उसमें लोभ भी महीं। (१३४) दूध-दही आदि रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः मनुष्यों में मादकता पैदा करते है। मत्त मनुष्य की ओर काम-वासनायें वैसे ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फजवाले वृक्ष की ओर पक्षी ।। (१३५) जो मूर्ख मनुष्य सुन्दर रूप के प्रति तीव प्रासक्ति रखता है, यह अकाल में ही नष्ट हो जाता है। रागातुर व्यक्ति रूपदर्शन की लालमा में वैसे ही मृत्यु को प्राप्त होता है, जैसे दोपक की न्योति को देखने की लालसा में पतंग । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महावीर वाणी ( १३६ ) नरस्स एवं, रूवाणुरत्तस्स कुतो सुहं होज्ज कयाइ किंचि | तत्थोवभोगे वि किलेस - दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ||७|| (१३७) एमेव रूवम्मि गओ पसं दुक्खोहपरंपराओ । उवेइ पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे || 5 || (१३८) रूवे विरत्तो मणुश्रो विसोगो, दुक्खोहपरंपरे । एए न लिप्पए भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥६॥ [ उत्तरा० अ० ३२ गा० ३२-३४ ] ( १३६ ) एविन्दियत्था य मरणस्स अत्था, दुक्खरस हे मरणग्रस्त रागिणों । ते चैव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ॥ १० ॥ [ उत्तरा० अ० ३२ गा० १०० ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन -स्था -सूत्र ८३ (१३६) रूप में प्रासक्त मनुष्य को कहीं भी कभी किंचिन्मात्र सुख महीं मिल सकता । खेद है कि जिसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य महान् कष्ट उठाता है, उसके उपभोग में कुछ भी सुख न पाकर मलेश तथा दुःख हो पाता है । (१३७) जो मनुष्य कुरिसत रूपों के प्रति द्वेष रखता है, वह भविष्य में असीम दुःख-परंपरा का भागी होता है। प्रदुष्टचित्त द्वारा ऐसे पापकर्म संचित किये जाते हैं, जो विपाक-काल में भयंकर दुःखरूप होते हैं । (१३८) रूप-विरक्त मनुष्य ही वास्तव में शोक-रहित है । वह संसार में रहते हुये भी दुःख-प्रवाह से अलिप्त रहता है, जैसे कमन का पत्ता जल से ।। (१३६) रागी मनुष्य के लिए ही उपयुक्त इन्द्रियों तथा मन के विषय-भोग दुःख के कारण होते हैं। परन्तु वीतरागी को किसी प्रकार कभी तनिक-सा दुःख नहीं पहुँचा सकते । | Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ महावीर-वाणी (१४०) न कामभोगा समयं उबेन्ति, न यावि भोगा विगई उवेन्ति । जे तप्पभोसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहो विगई उवेइ ॥११॥ [उत्तरा० अ० ३२ गा० १.१ ] (१४१) अणाइकोलप्पभवस्स एसो, सव्यस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो । वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता, कमेण अच्चन्तसुही भवन्ति ॥१२॥ [ उत्तरा भ० ३२ गा० ..] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद-स्थान-सूत्र (१४०) काम-भोग अपने-आप न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्वेषरूप विकृति पैदा करते हैं। परन्तु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्धष के नाना संकल्प बनाकर मोह से विकार-ग्रस्त हो जाता है । (१४१) अनादि काल से उत्पन्न होते रहने वाले सभी प्रकार के सांसारिक दुःखों से छूट जाने का यह मार्ग ज्ञानी पुरुषों ने बतलाया है। जो प्राणी उक्त मार्ग का अनुसरण करते हैं वे क्रमशः मोक्ष धाम प्राप्त कर अत्यन्त सुखी होते हैं । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय-सुत्तं (१४२) कोहो य माणों य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्ढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाइ पुणब्भवस्स ॥१॥ [दश, अ० ८ गा० ४० ] (१४३) कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणो ॥२॥ [दश० अ० ८ गा० ३७] (१४४) कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सबविणासणी ॥३॥ [ दश० ० ८ गा० ३८ ] (१४५) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसो जिणे ॥४॥ [दशः ०८ गाः ३६ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३ : कपाय-सूत्र (१४२) अनिगृहीत क्रोध और मान; तथा प्रबद्ध मान ( बढ़ते हुए) माया और लोभ-ये चारों ही काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्म रूपी संसार-वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं । (१४३) जो मनुष्य अपना हित चाहता है उसे पाप को बढ़ानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार दोषों को सदा के लिये छोड़ देना चाहिए । (१४४) क्रोध प्रीति का नाश करता है; मान विनय का नाश करता है; माया मित्रता का नाश करती है, और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है । (१४५) शान्ति से क्रोध को मारो, नम्रता से अभिमान को जीतो; सरलता से माया का नाश करो; और सन्तोष से लोभ को काबू में लाश्रो । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (१४६) कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुराणं दलेज्ज इक्कस्स । तेणाऽवि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥१॥ (१४७) जहा लाहो तहा लोहा, लाहा लोही पवढइ । दोमासकयं कर्ज, कोडीए वि न निद्वियं ॥६॥ [ उत्तरा० अ० ८ गा० १६-१२] (१४८) अहे वयन्ति कोहेण, माणेणं अहमा गई । माया गइपडिग्घाओ, लोहाओं दुहओ भयं ॥७॥ [उत्तरा० अ० ६ गा० ५४ ] (१४६) सुवएण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ॥८॥ (१५०) पुढवी साली जवा चेव, हिरणणं पसुभिस्सह । पडिपुरणं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥॥ [ उत्तरा० अ० ६ गा० ४८-४६ ] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-सूत्र (१४६) अनेक प्रकार के बहुमूल्य पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व यदि किसी मनुष्य को दे दिया जाये, तो भी वह सन्तुष्ट न होगा। अहो ! मनुष्य की यह तृष्णा बड़ी दुष्पूर है ! (१४७) ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। देखो न, पहले केवज दो मासे सुवर्ण की आवश्यकता थी; पर बाद में वह करोड़ों से भी पूरी न हो सकी। (१४८) - क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति में जाता है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इस जोक तथा परलोक में महान् भय है। (१४६) चाँदी और सोने के कैलास के समान विशाल असंख्य पर्वत भी यदि पास में हों, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है। (१५०) “चाँवल और जौ प्रादि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथिवी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है-यह जानकर संयम का ही आचरण करना चाहिए । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी (१५१) कोहं च मारणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा | एयाणि वन्ता अरहा महेसी, न कुवई पावं न कारवेई ||१० ॥ [ सूत्रः श्र० १ ० ६ गा० २६ ] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-सूत्र (१५१) क्रोध, मान; माया और लोभ-ये चार अन्तरात्मा के भयंकर दोष हैं । इनका पूर्णरूप से परित्याग करने वाले अन्त महर्षि न स्वयं पाप करते हैं और न दसरों से करवाते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४ : काम-सुत्तं (१५२) सल्लं कामा विसं कामा, कामा सीविसोवमा । कामे य पत्थेमारणा, अकामा जन्ति दोग्गइं ॥१॥ [ उत्तरा० श्र० ६ गा० ५३ ] (१५३) सव्वं नहीं विडम्बियं । सव्वं विलवियं गोंयं सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ||२|| [उत्तरा० अ० १३ गा० १६ ] (१५४) बहुकाल दुक्खा, खमेत्तसोक्खा संसारमोक्रस विपक्खभूया, खाणी अणत्था‍ उ कामभोगा ||३| पगामदुक्खा गामसोक्खा | [ उत्तराः श्र० १४ गा० १३] ( १५५ ) जहा किंपागफलाण, परिणामो न सुदरो । एवं भुत्ता भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो || ४ || [ उत्तरा० अ० १६ गा० 1७ ] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१४: काम-सूत्र (१५२) काम-भोग शल्यरूप हैं, विषरूप हैं और विषधर के समान हैं । काम-भोगों की लालसा रखने वाले प्राणी उन्हें प्राप्त किए बिना ही अतृप्त दशा में एक दिन दुर्गति को प्राप्त हो जाते हैं। (१५३) गीत सब विजापरूप हैं; नाट्य सब विडम्बनारूप हैं; श्राभरण सब भाररूप हैं। अधिक क्या; संसार के जो भी काम-भोग हैं, सब-के-सब दुःखावह हैं। (१५४) काम-भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले हैं और चिरकाल तक दुःख देने वाले । उनमें सुख बहुत थोड़ा है, अत्यधिक दुःख-हो-दुःख है । मोक्ष-सुख के वे भयंकर शत्रु हैं, अनर्थों की खान हैं। (१५५) जैसे विपाक फलों का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी अच्छा नहीं होता। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (१५६) जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वरणेण य भुजमाणा । ते खुडुए जीविए पच्चमाणा । एसोवमा कामगुणा विवागे ॥५॥ [उत्तरा: अः ३२ गा० २०] (१५७) उबलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोबलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्रमुच्चई ॥६॥ [ उत्तरा० अः २५ गा० ३१ } (१५८) चीराजिणं नगिरिणणं, जड़ी संघाडि मुडिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥७॥ [उतरा० श्रः ५ गा० २१ ] (१५६) जे केइ सरीरे सत्ता, वरणे रूवे य सव्यसो । मणसा काय-बक्केरणं, सव्वे ते दुवखसंभवा ।।८।। [उत्तरा० श्रः ६ गा० १२] (१६०) अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-सूत्र (१५६) जैसे पिाक फल रूप-रंग और रस की दृष्टि से शुरू में खाते समय तो बड़े अच्छे मालूम होते हैं, पर खा लेने के बाद जीवन के नाशक हैं; वैसे ही कामभोग भी प्रारंभ में बड़े मनोहर लगते हैं, पर विपाक-काज में सर्वनाश कर देते हैं । जो मनुष्य भोगी है..... भोगासक्त है, वही कर्म-मल से लिप्त होता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में परिभ्रमण किया करता है और अभोगी संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। (१५८) मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, संघाटिका ( बौद्ध भिक्षुओं का-सा उत्तरीय वस्त्र ), और मुण्डन श्रादि कोई भी धर्मचिह्न दुःशील भिक्षु को रक्षा नहीं कर सकते । (१५६) जो अविवेकी मनुष्य मन, वचन और काया से शरीर, वर्ण तथा रूप में प्रासक्त रहते हैं, वे अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। (६६०) काल बड़ी द्रुत गति से चला जा रहा है, जीवन की एक-एक करके सब रानियाँ बीतती जा रही हैं, फल-स्वरूप काम-भोग Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खोण'फलं व पक्खी ॥६॥ [उत्तरा: अ० १३ गा० ३१] (१६१) अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया । विणिअट्ठोज भोगेसु, आउं परिमिअमप्पणो ॥१॥ [दशः ०८ गा० ३४] (१६२) पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियन्तं मगुयाण जीवियं । सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जन्ति नरा असंवुडा ॥११॥ [सूत्र० श्रु. १ अ० २ उ० । गा० ..] संबुज्झह ! किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । नो हूवणमन्ति राइओ, नो सुलभं पुणरवि जीवियं ॥१२॥ सूत्र० श्रु० १ ० २ उ० १ गा..] (१६४) , दुप्परिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुवयो साहू, जे तरन्ति अतरं वमिया व ॥१३॥ [ उत्तरा० अ० ८ गा० ६ ] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-सूत्र चिरस्थायी नहीं है। भोग-विलास के साधनों से रहित पुरुष को भोग वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे फलविहीन वृक्ष को पक्षी। मानव-जीवन नश्वर है, उसमें भी आयु तो परिमित है, एक मोक्ष-मार्ग हो भविचज है, यह जानकर काम-भोगों से निवृत्त हो जाना चाहिए। (१६२) __ हे पुरुष ! मनुष्यों का जीवन अत्यन्त अल्प है-क्षणभंगुर है, अतः शीघ्र ही पापकर्म से निवृत्त हो जा। संसार में आसक्त तथा काम-भोगों से मूञ्छित असंयमी मनुष्य बार-बार मोह को प्राप्त होते रहते हैं। (१६३) समझो, इतना क्यों नहीं समझते ? परलोक में सम्यक बोधि का प्राप्त होना बड़ा कठिन है। बीती हुई रात्रियों कभी लौटकर नहीं पाती। फिर से मनुष्य-जीवन पाना आसान नहीं। (१६४) काम-भोग बड़ी मुश्किल से छूटते हैं, अधीर पुरुष तो इन्हें सहसा छोड़ ही नहीं सकते । परन्तु जो महावतों का पालन करने वाले साधुपुरुष हैं, वे ही दुस्तर भोग-समुद्र को तैर कर पार होते हैं, जैसे-व्यापारी वणिक समुद्र को। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५ : असरण-सुतं ( १६५ ) वित्त' पसवो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नई | एए मम तेसु वि अहं, नो तारणं सरणं न विज्जई ॥१॥ [ सूत्र श्र० १० २ उ० ३ गा० १६ ] ( १६६ ) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तुणो ||२|| [ उत्तराः अ० १६ गा० १५] ( १६७ ) इमं सरीरं अणिच्चं, असासयावासमिणं, असुई दुक्ख के सा असुइसंभवं । भायणं ||३|| [ उत्तरा० श्र० १६ गा० १२] ( १६८ ) दाराणि सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा | जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नारणुवयन्ति य ॥४॥ [ उत्तरा० श्र० १८ गा० १४] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५ : अशरण-सूत्र (१६५) मूर्ख मनुष्य धन, पशु और जातिवालों को अपना शरण मानता है और समझता है कि ये मेरे हैं। और मैं उनका हूँ। परन्तु इनमें से कोई भी आपत्ति काल में त्राण तथा शरण नहीं दे सकता। जन्म का दुःख है, जरा (बुढ़ापा) का दुःख है, रोग और मरण का दुःख है। अहो ! संसार दुःखरूप ही है ! यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक प्राणी जब देखो तब क्लेश ही पाता रहता है। यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुःख और क्लेशों का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ ही क्षणों के लिए निवास है, अाखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है। (१६८) स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन सब जोते जो के हो साथी हैं, मरने पर कोई भी साथ नहीं पाता। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (१६६) वेया अहीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं, को नाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ॥॥ [उत्तरा० श्र. १४ गा. १२] (१७०) चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धण-धन्नं च सव्वं । कम्मप्पबीओ, अवसो पयाइ, परं भवं सुन्दरं पावगं वा ॥६॥ [उत्तरा० अ० १३ गा० २४] (१७१ ) जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तस्संसहरा भवन्ति ।।जा [ उत्तरा० श्र. १३ गा० २२] (१७२) जमिणे जगई पुढो जगा कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेजऽपुट्ठयं ॥८॥ [ सूत्र० श्रु० १ ० २ उ० १ गा० ४] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ पढ़े हुए वेद बचा नहीं सकते; जिमाये हुए ब्राह्मण अन्धकार से अन्धकार में ही ले जाते हैं, पैदा किये हुए पुत्र भी रक्षा नहीं कर सकते; ऐसी दशा में कौन विवेकी पुरुष इन्हें स्वीकार करेगा? (१७०) द्विपद (दास, दासी आदि), चतुष्पद (गाय, घोड़े मादि), क्षेत्र, गृह और धन-धान्य सब कुछ छोड़कर विवशता की दशा में प्राणो अपने कृत कर्मों के साथ अच्छे या बुरे परभव में चला जाता है। (१७१) . जिस तरह सिंह हिरण को पकड़कर ले जाता है, उसी तरह अंतसमय मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है। उस समय माता पिता, भाई श्रादि कोई भी उसके दुःख में भागीदार नहीं होतेपरलोक में उसके साथ नहीं जाते। (१७२) संसार में जितने भी प्राणी हैं, सन अपने कृत कर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, . उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महावीर वाणी ( १७३ ) असास सरीरम्मि, रई सरीरम्मि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुयसंनिभे ॥६॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा० १३ ] ( १७४ ) माणुसत्ते असारम्मि, वाहि - रोगाण आलए । जरामरणवत्थम्मि, खरणं पि न रमामहं ||१०|| [ उत्तरा० अ० १६ गा० १४ ] ( १७५ ) जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं । जत्थ तं मुज्झसि रायं ! पेच्चत्थं नावबुज्झसि ॥ ११ ॥ [ उत्तरा० अ० १८ गा० १३ ] ( १७६ ) न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा | एक्को सयं पच्चरणहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाई कम्मं ॥१२॥ [ उत्तरा० अ० १३ गा० २३ ] ( १७७ ) न चित्ता तायए भासा, विसन्ना कुत्रो विज्जारगुसासणं ? | पावकम्मे हिं. , बाला पंडियमारिणो || १३|| [ उत्तरा० श्र० ६ गा० १० ] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशरण-सूत्र १०३ (१७३) यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, पहले या बाद में एक दिन इसे छोड़ना ही है, अतः इसके प्रति मुझे तनिक भी प्रीति ( प्रासक्ति) नहीं है। (१७४) मावन-शरीर प्रसार है, प्राधि-व्याधियों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है; अत: मैं इसकी ओर से क्षणभर भी प्रसन्न नहीं होता। (१७५) मनुष्य का जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है ! आश्चर्य है, हे राजन्, तुम इसपर मुग्ध हो रहे हो ! क्यों नहीं परलोक का खयाल करते ? (१७६) पापी जीव के दुःख को न जातिवाले बँटा सकते हैं, न मित्र वर्ग, न पुत्र; और न भाई-बन्धु । जब दुःख पा पड़ता है, तब वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योंकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य किसी के नहीं। (१७७) चित्र-विचित्र भाषा आपत्ति काल में त्राण नहीं, करती इसो प्रकार मंत्रात्मक भाषा का अनुशासन भी त्राण करनेवाला कैसे हो सकता है ? अतः भाषा और मान्त्रिक विद्या से त्राण पानेकी माशापाले पंडितमन्य मूढ जन पापकर्मों में मग्न हो रहे हैं। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सुर्त (१७८) भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मन्दिए मूढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ॥१॥ _[ उत्तरा० अ० ८ गा. ५ ] (१७६) जे गिद्ध कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई । न मे दि8 परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई ॥२॥ [ उत्तरा? अ०५ गा०५] (१८०) हत्थागया इमे कामी, कालिया जे अणागया । को जाणइ परे लोए, अत्थिं वा नत्थि वा पुणो ॥३॥ (१८१) जरोण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगम्भइ । कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जइ ॥४॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१६: बाल-सूत्र (१७८) जो बाल-मूर्ख मनुष्य काम-भोगों के मोहक दोषों में प्रासत हैं, हित तथा निश्रेयस के विचार से शून्य हैं, वे मन्दबुद्धि संसार में वैसे ही फंस जाते हैं, जैसे मक्खी श्लेष्म (कफ) में । (१७६) जो मनुष्य काम-भोगों में प्रासक्त होते हैं, वे पाश में फंस कर बुरे-से-बुरे पाप-कर्म कर मालते हैं। ऐसे लोगों की मान्यता होती है कि-' परलोक हमने देखा नहीं, और यह विद्यमान काम-भोगों का मानन्द तो प्रत्यक्ष-सिद्ध है। (१९०) 'वर्तमान काल के काम-भोग हाथ में है-पूर्णतया स्वाधीन हैं। भविष्यकाल में परलोक के सुखों का क्या ठिकानामिलें या न मिलें ? और यह भी कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं।" (१८१) "मैं तो सामान्य बोगों के साथ रहूँगा-अर्थात् जैसी उनकी दशा होगी, वैसी मेरी भी हो जायगी"-मूर्ख मनुष्य इस प्रकार धृष्टता-भरी बातें किया करते हैं और काम-भोगों की आसक्ति के कारण अन्त में महान् क्लेश पाते हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महावीर-वाणी (१८२) तो से दंड समारभई, तसेसु थावरेसु य । अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयगामं विहिंसई ॥२॥ (१८३) हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥६॥ (१८४) कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्ध य इथिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुनागु व्व मट्टियं ॥४॥ (१८५) तो पुट्ठो आयंकणं, गिलाणो परितप्पइ । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणो ।।८।। [ उत्तरा० अ० ५ गा० ६-1 (१८६) जे केई बाला इह जीवियट्ठी, पावाई कम्माई करेन्ति रुद्दा । ते घोररूवे तमसिन्धयारे, तिव्वाभितावे नरगे पडन्ति ।। [ सूत्र० श्रु• ! अ० ५ उ01 गा०३] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सूत्र ( १८२ ) मूर्ख मनुष्य विषयासक्त होते ही त्रस तथा स्थावर जीवों को सताना शुरू कर देता है, और अन्त तक मतलब बेमतलब प्राणिसमूह की हिंसा करता रहता है । १०७ ( १८३ ) मूर्ख मनुष्य हिंसक, श्रसत्य-भाषी, मायावी, चुगलखोर और धूर्त इंता है। वह मांस-मद्य के खाने-पीने में ही अपना श्रय समझता है । ( १८४ ) जो मनुष्य शरीर तथा वचन के बल पर मदान्ध है, धन तथा स्त्री आदि में श्रासक्त है, वह राग और द्वेष दोनों द्वारा वैसे ही कर्म का संचय करता है, जैसे अलसिया मिट्टी का । ( १८१ ) पाप कर्मों के फलस्वरूप जब मनुष्य अन्तिम समय में असाध्य रोगों से पीड़ित होता है, तब वह खिन्नचित्त होकर अन्दर-ही-अन्दर पछताता हैं और अपने पूर्वकृत पाप कर्मों को याद कर-कर के परलोक की विभीषिका से काँप उठता है । ( १८६ ) जो मूर्ख मनुष्य अपने तुच्छ जीवन के लिये निर्दय होकर पाप-कर्म करते हैं, वे महाभयंकर प्रगाढ़ अन्धकाराच्छन्न एवं तीव्र तापवाले तमिस्र नरक में जाकर पड़ते हैं । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( १८७ ) जया य चयइ धम्मं, अणज्जो भोगकाररणा । से तत्थ मुछिए बाले, आयई नावबुज्झई ॥१०॥ [ दश० चूलिका १ गा० १] ( १८८ ) निच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसी मरणंडते वि, नाऽऽराहेइ संवरं ॥ ११ ॥ १०८ [ दश० : ५ उ० २ गा० ३६ ] ( १८६ ) पगामसो । जे केइ पव्त्रइए, निदासीले भोच्चा पिच्चा सुहं सुवइ, पावसमणि त्ति वुच्चइ ||१२|| [ उत्तराः अ० १७ गा० ३] ( १६० ) वेराईं कुव्वइ वेरी, तत्र वेरेहिं रज्जइ । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ||१३|| अ० ८गा० ७ ] [ सूत्र० अ० ( १६१ ) A मासे मासे तु जो बाले, कुसग्गेणं तु भुजए । न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥१४ [ उत्तरा० श्र० ६ गा? ४४ ] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सूत्र १०६ ( १८७) जब अनार्य मनुष्य काम-भोगों के लिये धर्म को छोड़ता है तब भोग-विजाप्स में मुञ्छित रहनेवाला वह मूर्ख अपने भयंकर भविष्य को नहीं जानता। (१८८) जिस तरह हमेशा भयभ्रान्न रहने वाला चोर अपने ही दुष्कर्मों के कारण दुःख उठाता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य अपने दुराचरणों के कारण दुःख पाता है और अन्तकाल में भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकता। (१८९) जो मिनु प्रव्रज्या लेकर भी अत्यन्त निद्राशील हो जाता है, खा-पीकर मजे से सो जाया करता है, वह 'पाप श्रमण' कहलाता है। (१९०) वैर रखने वाला मनुष्य हमेशा वैर ही किया करता है, वह वैर में ही प्रानन्द पाता है । हिंसा-कर्म पाप को उत्पन्न करनेवाले हैं, अन्त में दुख पहुँचाने वाले हैं। (१६१) यदि अज्ञानी मनुष्य महीने-महीने भर का घोर तप करे और पारणा के दिन केवल कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सत्पुरुषों के बताये धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुंच सकता । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( १६२ ) इह जीवियं अनियमित्ता, पब्भट्ठा समाहि-जोगेहि । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जन्ति श्रासुरे काये ||१५|| [ उत्तरा० श्र० ८ गा० १४ ] ११० ( १९३ ) जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अन्त ॥ १६ ॥ [ उत्तरा० अ० ६ गा० १] ( १६४ ) बालागं अकामं तु मरणं असई भवे । पंडिया सकामं तु, उक्कोंसे सई भवे ॥१७॥ [ उधराः अ० ५ गा० ३ ] ( १६५ ) } बालस्स परस बालत्तं अहम्मं पडिवज्जिया । चिच्चा धम्मं श्रहम्मिट्ठे, नरए उववज्जइ ॥ १८ ॥ [ उत्तरा० अ० ७ गा० २८ ] ( १६६ ) धीरस्स पस्स धीरतं सञ्चधम्मारणुवत्तिणो । चिच्च अधम्मं धम्मिट्ठे, देवेसु उववज्जइ ॥५६॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सूत्र १.११ (१६२) जो मनुष्य अपने जीवन को अनियंत्रित ( उच्छखल ) रखने के कारण समाधि-योग से भ्रष्ट हो जाते हैं वे काम-भोगों में श्रासक्त होकर अन्त में असुरयोनि में उत्पन्न होते हैं। (१६३) संसार के सब अविद्वान् ( मूर्ख) पुरुष दुःख भोगने वाले हैं। मूढ प्राणी अनंत संसार में बार बार लुप्त होते रहते हैं-जन्मते और मरते रहते हैं। (१६४) मूर्ख जीवों का संसार में बार बार अकाम-मरण हुआ करता है; परन्तु पंडित पुरुषों का सकाम मरण एक बार ही होता हैउनका पुनर्जन्म नहीं होता। (१६५) मूर्ख मनुष्य की मूर्खता तो देखो, जो धर्म छोड़कर, अधर्म को स्वीकार कर अधार्मिक हो जाता है, और अन्त में नरकगति को प्राप्त होता है। (१६६) सत्य-धर्म के अनुगामी धीर पुरुष को धीरता देखो, जो अधर्म का परित्याग कर धार्मिक हो जाता है, और अन्त में देवलोक में उत्पन्न होता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (१९७) तुलियारण बालभावं, अबालं चेव पडिए । चइऊणं बालभावं, अबाल सेवई मुणो ॥२०॥ [ उत्तरा० अ० गा० २६-३.] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सूत्र ११३ ( १९७) विद्वान् मुनि को बाल-भाव और अबाल-भाव का तुलनात्मक विचार कर बाल-भाव छेड़ देना चाहिये और अबालभाव हो स्वीकार करना चाहिये । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडिय-सुत्तं (१८) समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्ति भूएसु कप्पए ॥१॥ [उत्तरा० अ० ६ गा० २] (१६६) जे य कते पिए भोए, लद्ध' वि पिट्ठीकुव्वई । साहीणे चयइ भए, से हू चाइ त्ति वुचई ॥२॥ [दश० अ० २ गा० ३] ] वत्थगन्धमलंकारं, इथिओ सयणांणि य । अच्छन्दा जे न भुजन्ति, न से चाइ त्ति वुचई ॥३॥ [दश० अ० २ गा० २१ (२०१) डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे, ते अत्तो पासइ सव्वलोए । उन्हई लोगमिणं महन्तं, बुद्धो पमत्तेसु परिव्वएज्जा ॥४॥ [सूत्र० श्रु० १ अ० १२ गा० १८] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७ : पण्डित - सूत्र ( १६८ ) पण्डित पुरुष को संसार भ्रमण के कारणरूप दुष्कर्म-पाशों का भली भांति विचार कर अपने आप स्वतन्त्ररूप से सत्य की खोज करना चाहिये, और सब जीवों पर मैत्रीभाव रखना चाहिये | ( १६६ ) जो मनुष्य सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है । ( २०० ) जो मनुष्य किसी परतन्त्रता के कारण वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नहीं कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता । ( २०५ ) जो बुद्धिमान मनुष्य मोहनिद्रा में सोते रहने वाले मनुष्यों के बीच रहकर संसार के छोटे-बड़े सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, इस महान् विश्व का निरीक्षण करता है, सर्वदा श्रप्रमत्त भाव से संयमाचरण में रत रहता है वही मोक्षगति का सच्चा अधिकारी है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महावीर-वाणी (२०२) जे ममाइअमई जहाइ, से जहाइ ममाइअं। से हु दिट्ठभए मुणी, जस्स नस्थि ममाइअं॥५॥ [अाचा० १ श्रु० अ० २ उ० ६ सू० ६६ ] (२०३) जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अभप्पेण समाहरे ॥६॥ [सूत्र० श्रु० १ अ०८ गा० १६] (२०४) जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए । तस्स वि संजमो सेयो अदिन्तस्स वि किंचण ॥ ७॥ [उत्तरा० अ० ६ गा० ४० ] (२०५) नाणस्स सव्वस्स पगासणाय, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ ८ ॥ (२०६) तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा । सज्झायएगन्तनिसेवणा य, मुत्तत्थसंचिन्तणया धिई य॥६॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-सूत्र ११७ (२०२) जो ममत्व-बुद्धि का परित्याग करता है, वह ममत्व का परित्याग करता है। वास्तव में वही संसार से सच्चा भय खाने वाला मुनि है, जिसे किसी भी प्रकार का ममत्व-भाव नहीं है । (२०३) जैसे कछुआ आपत्ति से बचने के लिये अपने अंगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार पंडितजन भी विषयों की ओर जातो हुई अपनी इन्द्रियाँ आध्यात्मिक ज्ञान से सिकोड़कर रखें। (२८४) ___ जो मनुष्य प्रतिमास लाखों गायें दान में देता है, उसकी अपेक्षा कुछ भी न देने वाले का संयमाचरण श्रेष्ठ है। (२०५) सब प्रकार के ज्ञान को निर्मल करने से, अज्ञान और मोह के त्यागने से, तथा राग और द्वेष का क्षय करने से एकांत सुखस्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है । (२०६) सद्गुरु तथा अनुभवी बृद्धों को सेवा करना, मूखों के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत् शास्त्रों का अभ्यास करना और उनके गम्भीर अर्थ का चिन्तन करना, और चित्त में धृतिरूप अटल शान्ति प्राप्त करना, यह नि:श्रेयस का मार्ग है । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी (२८७) आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ १० ॥ (२०८) न वा लभेज्जा निउणं सहायं, . गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइ विवज्जयन्तो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ ११ ॥ [उत्तरा० अ० ३२ गा० २-५] (२०६) जाई च बुडिंढ च इहऽज्ज पास, भूएहिं सायं पडिलेह जाणे। तम्हाऽइविज्जो परमं ति नच्चा, सम्मत्तदंसी न करेइ पावं ॥ १२ ॥ [अाचा० श्रु०१ अ. ३ उ० २ गा० १] (२१०) न कम्मुणा कम्म खवेन्ति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेन्ति धीरा । मेहाविणो लोभ-भया वईया, संतोसिणों न पकरेन्ति पावं ॥ १३ ॥ [सूत्र० श्रु० १ अ० १२ गा० १५] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-सूत्र ११६ (२०७) समाधि की इच्छा रखने वाला तपस्वो श्रमण परिमित तथा शुद्ध आहार ग्रहण करे, निपुण-बुद्धि के तत्वज्ञानी साथी की खोज करे, और ध्यान करने योग्य एकान्त स्थान में निवास करे । (२०८) बाद अपने से गुणों में अधिक या समान गुणवाला साथी न मिले, तो पापकर्मों का परित्याग कर तथा काम भोगों में सर्वथा अनासक्त रहकर अकेला हो विचरे । परन्तु दुराचारी का कभी भूल कर भी संग न करे। (२०६) संसार में जन्म-मरण के महान् दुःखों को देखकर और यह अच्छी तरह जानकर कि.---'सब जीव सुख की इच्छा रखनेवाले हैं। अहिंसा को मोक्ष का मार्ग समझकर सम्यक्त्वधारी विद्वान कभी भी पाप कर्म नहीं करते । (२१०) मूर्ख साधक कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, किन्तु पाप-कर्मों से पाप-कर्मों को कदापि न नहीं कर सकते। बुद्धिमान साधक वे हैं जो पाप-कर्मों के परित्याग से पाप-कर्मों को नष्ट करते हैं। अतएव ले.भ और भय से रहित सर्वदा सन्तुष्ट रहने वाले मेधावी पुरुष किसी भी प्रकार का पाप कर्म नहीं करते । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८ : अप्प-सुत्तं (२११) अप्पा नई वेयवणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दनं वणं ॥ १ ॥ [उत्तरा० अ० २० गा० ३६ ] (२१२) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पटिओ ॥ २॥ [उत्तरा० अ० २० गा० ३७ ] (२१३) अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥३॥ [उत्तरा० अ० १ गा० १५] (२१४) वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मन्दो, बन्धणेहिं वहेहि य ॥ ४ ॥ [उत्तरा० अ० १ गा० १६] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८ : अात्म-सूत्र (२११) अात्मा हो. नरक की वैतरणो नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष है । आत्मा ही स्वर्ग की कामदुधा धेनु तथा नन्दनवन है । (२१२) अात्मा ही अपने दुःखों और सुखों का कर्ता तथा भक्ता है। अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा मित्र है, और बुरे मार्ग पर चलने वाला आत्मा शत्रु है। (२१३) अपने-आपको हो दमन करना चाहिये । वास्तव में यहो कठिन है । अपने-अापको दमन करनेवाला इस लोक तथा परलोक में सुखो होता है। (२१४) . दूसरे लोग मेरा वध बन्धनादि से दमन करें, इसकी अपेक्षा तो मैं संयम और तप के द्वारा अपने-अाप हो अपना (आत्मा का) दमन करू, यह अच्छा है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( २१५ ) जो सहस्सं सहस्सारणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पा, एस से परमो जओ ||५|| [ उत्तरा० अ० ६ गा० ३४ ] १२२ ( २१६ ) अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्मेण बज्झओ ? | अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ||६|| ( २१७ ) पंचिन्दियाणि कोहे. माणं मायं तद्देव लोहं च । दुज्जयं चेव अपागं, सव्त्रमप्पे जिए जियं ॥७॥ [ उत्तरा० अ० ६ गा० ३५-३६ ] ( २१८ ) न तं श्ररी कंठ छेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छागुतावेण दयाविहूणो ||८|| [ उत्तरा० श्र० २० गा० ४८ ] ( २१६ ) जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिश्रो, चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-सुत्र १२३ जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एक अपनी आत्मा को जीत ले, तो यही उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय होगी। (२१६) अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये, बाहरो स्थूल शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? अात्मा द्वारा आत्मा को जोतने वाला ही वास्तव में पूर्ण सुखी होता है। (२१७) . पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जय अपनी आत्मा को जीतना चाहिये । एक अात्मा के जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। (२१८) सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में लगी हुई अपनी आत्मा करती है । दयाशून्य दुराचारो को अपने दुराचरणों का पहले ध्यान नहीं पाता; परन्तु जब वह मृत्यु के मुख में पहुँचता है, तब अपने सब दुराचरणों को याद कर-कर पछताता है । (२१६) जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़निश्चयो हो कि 'मैं शरीर छोड़ सकता हूँ,परन्तु अपना धर्म-शासन छोड़ ही नहीं सकता: Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महावीर-वाणी तं तारिसं नो पयालेन्ति इन्दिया, — उवेन्ति वाया व सुदंसणं गिरिं ॥६॥ [ दश० चूलिका १ गा० १७ ] (२२.) अप्पा खलु सययं रक्खियव्यो, सव्विन्दिएहिं सुसमाहिएहिं । अरक्खिो जाइपहं उवेइ, सुरक्खिो सव्वदुक्खाण मुच्चइ ॥१०॥ [दश० चूलिका २ गा० १६ ] सरीरमाहु नाव त्ति, जीवों वुच्चइ नावित्रो । संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो ॥११॥ [उत्तरा० अ० २३ गा० ७३] (२२२) जो पव्वइत्ताण महव्वयाई, . सम्म च नो फासयई पमाया । अनिगहप्पा य रसेसु गिद्ध, न मूलओ छिन्दइ बन्धणं से ॥१२॥ [उत्तरा० अ०.२० गा० ३६ ] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-सूत्र १२५ उसे इन्द्रियाँ कभी विचलित नहीं कर सकतीं, जैसे—भीषण बवंडर सुमेरु पर्वत को । (२२) समस्त इन्द्रियों को खूब अच्छी तरह समाहित करते हुये पापों से अपनी आत्मा की निरंतर रक्षा करते रहना चाहिये। पापों से अरक्षित अात्मा संसार में भटका करती है, और सुरक्षित आत्मा संसार के सब दु:खों से मुक्त हो जाती है। (२२१) शरीर को नाव कहा है, जोव को नाविक कहा जाता है, और संसार को समुद्र बतलाया है । इसी संसार-समुद्र को महर्षिजन पार करते हैं । (२२२) जो प्रव्रजित होकर प्रमाद के कारण पांच महाव्रतों का अच्छी तरह पालन नहीं करता, अपने-आपको निग्रह में नहीं रखता, कामभोगों के रस में अासक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के बन्धन को जड़ से नहीं काट सकता । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगतत्त-सुत्तं (२२३) धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥१॥ [उत्तरा० अ० २८ गा० ७] (२२४) गइलक्खणो धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खखणो । भायणं सम्बदवाणं, नहं ओगाहलक्खणं ॥२॥ (२२५) वत्तणालखणो कालो, जीवो उवोगलक्खरणो । नाणेणं दसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥३॥ (२२६) नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उबोगो य, एयं जावस्स लक्खणं ॥४॥ (२२७) सहऽधयार-उज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इ वा । वरण-रस गन्ध-फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥५॥ [उत्तरा० अ० २८ गा० ६-१२] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६ : लोकतत्त्व-सूत्र (२२३) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छह द्रव्य है। केवलदर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा है। (२२४) धर्मद्रव्य का लक्षण गति है; अधर्मद्रव्य का लक्षण स्थिति है; सब पदार्थों को अवकाश देना-आकाश का लक्षण है। (२२५) काल का लक्षण वर्तना है, और उपयोग जीव का लक्षण है। जीवात्मा ज्ञान से, दर्शन से, सुख से, तथा दुख से जाना-पहचाना जाता है। (२२६) अतएव शन, दर्शन, चारित्र्य, तप, वीर्य और उपयोग-ये सब जीव के लक्षण हैं। (२२७). शब्द, अन्धकार, उजाला, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श'-ये सब पुद्गल के लक्षण हैं। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महावीर-वाणी (२२८) जीवाऽजीवा य बन्धो य पुण्णं पावाऽसो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव ॥६॥ (२२६) .. तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥७॥ [उत्तरा० अ० २८ गा० १४-१५ (२३०). नाणेण जाणइ भावे, दसणेणं य सद्दहे । चरित्तेण निगिरहाइ, तवेण परिसुज्झइ ॥८॥ [उत्तरा० अ० २८ गा० ३५] नाण च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सुगइं ॥६॥ [उत्तरा० अ० २८ गा० ३] तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं । .. अोहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ १० ॥ [उत्तरा० अ० २८ गा० ४ ] (२३३-२३४) नाणस्सावरणिज्जं. दंसगावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउम्मं तहेव य ॥ ११ ॥ नामकम्मं च गोत्तं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अठेव उ समासओ ॥ १२॥ [उत्तरा० अ० ३३ गा० २-३ ] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतस्व-सूत्र ( २२८ ) जीव, जीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा और मौन —— ये नव सत्य - तत्व हैं । १२६ ( २२६ ) जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व में सद्गुरु के उपदेश से, अथवा स्वयं ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व कहा गया है । ( २३० ) मुमुक्ष आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग - वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है । ( २३१ ) - ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप इस चतुष्टय अध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्ष जीव मोक्षरूप सद्गति पाते हैं । ( २३२ ) मंति, श्रुत, अवधि, मन: पर्याय और केवल —— इस भाँति ज्ञान पाँच प्रकार का है । ( २३३-२३४ ) ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और ग्रन्तराय - इस प्रकार संक्षेप में ये ग्राठ कर्म बतलाये हैं । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महावीर-वाणी (२३५) सो तवो दुविहो वुत्तों वाहिरब्भन्तरो तहा । बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमब्भन्तरो तवो ॥१३॥ (२३६) अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया रसपरिचाओ। कायकिलेसी संलीणया य, बज्भो तवो होई ॥१४॥ [उत्तरा० अ० ३० गा० ७-८] (२३७) पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। माणं च विउस्सगो, एसो अन्भिन्तरों तवो ॥१३॥ [उत्तरा० अ० ३० गा० ३०] ( २३८) किएहा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा, नामाई तु जहक्कम ।।१६।। [उत्तरा० अ० ३४ गा० ३] (२३६) किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाअो अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जइ ॥१७॥ तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुगई उववज्जइ ॥१८॥ [उत्तरा० अ० ३४ गा० ५६-५७] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतत्त्व-सूत्र ( २३५ ) तप दो प्रकार का बतलाया गया है—–बाह्य और श्रभ्यंतर | बाह्य तप छह प्रकार का कहा है, इसी प्रकार अभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है । १३१ ( २३६ ) अनशन, ऊनंदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, काय - क्लेश और संलेखना ये बाह्य तप हैं । ( २३७ ) प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग - ये अभ्यन्तर तप हैं । ( २३८ ) कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल — ये लेश्याश्रां के क्रमश: छह नाम हैं । ( २३६ ) कृष्ण, नील, कापोत — ये तीन अधर्म - लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है । ( २४० ) तेज, पद्म और शुक्ल — ये तीन धर्म- लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सद्गति में उत्पन्न होता है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महावीर-वाणी (२४१) अट्ठ पवयणमायाओ. समिई गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईओ, तो गुत्तीओ आहिया ॥१॥ (२४२) इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥२०॥ [उत्तरा० अ० २४ गा० १-२] (२४३) एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्यसो ॥२१॥ ससा प्रवर्णमाया, (२४४) एसा पवयणमाया, जे सम्म आयरे मुणी । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥२२॥ [उत्तरा० अ० २४ गा० २६-२७ ] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतत्त्व-सूत्र ( २४१ ) पांच समिति और तीन गुप्ति — इस प्रकार आठ प्रवचनमाताएं कहलाती हैं । १३३ ( २४२ ) ईर्ष्या, भाषा, एपणा, श्रादान-निक्षेप और उच्चार ये पाँच समितियाँ हैं । तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ हैं । इस प्रकार दोनों मिलकर आठ प्रवचन - माताएँ है । ( २४३ ) पाँच समितियाँ चारित्र की दया आदि प्रवृत्तियों में काम आती हैं और तीन गुप्तियां सब प्रकार के अशुभ व्यापारों से निवृत्त हेने में सहायक होती हैं । ( २४४ ) जो विद्वान् मुनि उक्त चाउ प्रवचन-माताओं का अच्छी तरह आचरण करता है, वह शीघ्र ही अखिल संसार से सदा के लिए, मुक्त हो जाता है । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२० : . पुज्ज-सुत्तं (२४५) पायारमहा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्म वनक जहोवइट्ठ अभिकखमाणो, गुरु तु नासाययई स पुज्जो ॥१॥ (२४६) अन्नायउँछं चरइ विसुद्ध, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं । अलद्ध यं नो परिदेवएज्जा, . लद्ध, न विकत्थई स पुज्जो ॥२॥ (२४७) संथारसेज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभे वि सन्ते । जो एवमप्पाणऽभितोसएज्जा, संतोसपाइन्नरए स पुज्जो ॥३॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य-सूत्र जो प्राचार-प्राप्ति के लिये विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनों को सुनता है एवं स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अशातना नहीं करता वही पूज्य है। ( २४६ ) जो केवल संयम यात्रा के निर्वाह के लिये अपरिचितभाव से दोष-रहित भिक्षावृत्ति करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता वहीं पूज्य है। (२४७) जो संस्तारक, शय्या, ग्रासन और भोजन-पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, सन्तोष की प्रधानता में रत होकर अपने-अापको सदा संतुध बनाये रखता है, वही पूज्य है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (२४८) सक्का सहेडं ओसाइ कंटया, अोमया उच्छहया नरेण । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए, वईमए करणसरे स पुज्जो ॥४॥ (२४६) समावयन्ता वयमाभिघाया, क्षणं गया दुम्मणियं जणन्ति । धम्मो त्ति किच्चा परमगसूरे, जिइन्दिए जो सहइ स पुज्जो ॥५॥ (२५०) अवगणवायं च परंमुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणिं च, भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥६॥ (२५१) अलोलुए अक्कुहए अमाई, अपिसुणे या वि अदीणवित्ती । नो भावए नो वि य भावियप्पा, अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ॥७॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य-सूत्र १३७ (२४८) संसार में लोभी मनुष्य किसी विशेष प्राशा की पूर्ति के लिये लोह-कंटक भी सहन कर लेते हैं, परन्तु जो बिना किसी अाशां-तृष्णा के कानों में तीर के समान चुभने वाले दुर्वचनरूपी कंटकों को सहन करता है, वही पूज्य है। (२४६) . विरोधियों की ओर से पड़नेवाली दुर्वचन की चोटें कानों में पहुँचकर बड़ी मर्मान्तक पीड़ा पैदा करती हैं, परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुष उन चोटों को अपना धर्म जानकर समभाव से सहन कर लेता है, वहीं पूज्य है । ( २५०) ___ जो पर.क्ष में किसी की निन्दा नहीं करता, प्रत्यक्ष में भी कलहवर्धक अंट-संट बातें नहीं बकता, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली एवं निश्चयकारो भाषा नहीं बोलता, वहीं पूज्य है। (२११) ____ जो रसलोलुप नहीं है, इन्द्रजाली (जादू-टे.ना करनेवाला) नहीं है, मायावो नहीं है, चुगलखे र नहीं है, दोन नहीं है, दूसरों से अपनो प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं रखता, स्वयं भी अपने मुह से अपनी प्रशंसा नहीं करता, खेल-तमाशे श्रादि देखने का भी शौर्क न नहीं है, वहीं पृथ्य है । | Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( २५२ ) गुणेहि साहू अगुरोहिऽसाहू, गिरहाहि साहू गुण मुञ्चऽसाहू | पगमपणं, १३८ वियाणिया जो रागदो सेहिं समोस पुज्जो ||८|| ( २५३ ) तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थी पुमं पव्वइयं गिहिं वा । नो होलए नो विय खिसएज्जा, थंभं च कोहं च च स पुज्जो ||६|| ( २५४ ) तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सोच्चारण मेहावी सुभासियाइं । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउकसायावगए स पुज्जो ||१०|| [ दश० ० ६ उ० ३ गा० २-४-५-६-८६१०-११-१२-१४ ] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ (२५२) गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु, अत: हे मुमुक्षु ! सद्गुणों को ग्रहण कर और दुगुणों को छोड़ । जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचान कर राग और द्वष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य है। (२५३) जो बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, साधु, और गृहस्थ आदि किसी का भी अपमान तथा तिरस्कार नहीं करता, जो क्रोध और अभिमान का पूर्ण रूप से परित्याग करता है, वही पूज्य है। (२५४) जो बुद्धिमान् मुनि सद्गुण-सिन्धु गुरुजनों के सुभाषितों को सुनकर तदनुसार पाँच महाव्रतों में रत होता है, तीन गुप्तियाँ धारण करता है, और चार कषाय से दूर रहता है, वही पूज्य है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१ : माहण-सुत्तं ( २५५ ) जो न सज्जइ आगन्तु, पव्वयन्तो न सोयई । रमइ अज्जवयम्मि, तं वयं बूम माहणं ॥ | १ || ( २५६ ) निद्धन्तमल - पावगं । जायरूवं जहा मट्ठा, राग - दोस - भयाईयं, तं वयं बूम माहरणं ||२॥ ( २५७ ) तवरिये किसं दन्तं अवचियमंससोशियं । सुत्रत्रयं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं ||३|| ( २५८ ) तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे | जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहरणं ||४|| Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण-सूत्र (२५५) जो आनेवाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो जाता हुआ शोक नहीं करता, जो अार्य-वचनों में सदा आनन्द पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२५६) जो अग्नि में डालकर शुद्ध किये हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है, जो इंद्रिय-निग्रही है, उग्र तप:साधना के कारण जिसका रक्त और मांस भी सूख गया है, जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण ( आत्म-शान्ति ) पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२५८) जो स्थावर, जंगम सभी प्राणियों को भलीभाँति जानकर, उनको तीनों हो प्रकार * से कभी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। * मन, वाणी और शरीर से; अथवा करने, कराने और अनुमोदन से। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( २५६ ) कोहा वा जइ हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुलं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ||५|| १४२ ( २६० ) 2 चित्तमन्तमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिरहाइ अदत्त जे, तं वयं बूम माहणं ||६|| ( २६१ ) दिव्व- माणुस - तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मरसा काय - बव केणं, तं वयं बूम माहणं ||७|| ( २६२ ) जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ||८|| ( २६३ ) अलोलुयं मुहाजीविं, अणगारं असंत्तं हित्थेसु तं वयं बूम " अकिंचनं । माहणं ॥६॥ • Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण-सूत्र १४३ ( २५६) जो क्रोध से, हास्य से, लभ अथवा भय से—किसी भी मलिन संकल्प से असत्य नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२६०) जो सचित्त या अचित्त के ई भी पदार्थ ---भले ही वह थोड़ा हो या अधिक,-मालिक के सहर्ष दिये बिना चोरी से नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२६१) जो देवता, मनुष्य तथा तियेच सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन का मन, वाणों और शरीर से कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२६२) जिप्त प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भो जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार में रहकर भी काम भोगों से सर्वथा अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२६३) जो अलोलुप है, जो अनासक्त-जीवी है, जो अनगार (बिना घरबार का ) है, जो अकिचन है, जो गृहस्थों से अलिप्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महावीर-वाणी (२६४) जहित्ता पुध-संजोगं, नाइसंगे य बन्धवे । जो न सज्जइ भोगेसु, तं वयं बूम माहणं ॥१०॥ ( २६५) न वि मुडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रगणवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ॥११॥ (२६६) समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥१२॥ (२६७) कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥१३॥ (२६८) एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा । ते समत्था समुद्धत्तु, परमप्पाणमेव य ॥१४॥ [ उत्तरा० अ० २५ गा० २० से २६,३१-३२-३३-३५ ] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण-सूत्र १४५ ( २६४ ) जो स्त्री-पुत्र आदि का स्नेह पैदा करनेवाले पूर्व सम्बन्धों को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को तथा बन्धु-जनों को एक बार त्याग देने पर उनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता, पुन: कामभोगों में नहीं फँसता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। - सिर मुडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, 'श्रोम्' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई. मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है । (२६६) समता से श्रमण होता है; ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है; ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बना जाता है । (२६७ ) _मनुष्यः कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्र भी अपने किए गए कर्मों से ही होता है। (अर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊँच या नीच हो जाता है।) (२६८) इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम [श्रेष्ठ ब्राह्मण] हैं, वास्तव में वे ही अपना तथा दूसरों का उद्धार कर सकने में समर्थ हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२ : भिक्खु-सुत्तं (२६६ ) रोइत्रा नायपुत्त-वयणे, अप्पसमे भन्न ज छ प्पि काए । पंच य फासे महत्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥१॥ (२७०) चत्तारि वमे मया कसाए, धुवजोगी य हविज्ज बुद्धवयणे । पाहणे निज्जायरूव-रयए, गिहिजोंगं परिवज्जए जे स भिक्खू ॥२॥ (२७१) सम्मदिट्ठी सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तव-संजमे य । तवसा धुणइ पुराण पावगं, मण-वय-कायसुसंवुडे जे स भिक्खू ॥३॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३ : भिक्षु-सूत्र (२६६) जो ज्ञातपुत्र-भगवान् महावर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छह काय के जीवों को अपनी प्रात्मा के समान मानता है,जो अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का पूर्ण रूप से पालन करता है, जे. पाँच प्रावों का संवरण अर्थात् निररोध करता है, वहो भिक्षु है । (२७ ..) जो सदा क्र.ध, मान, माया और लोभ इन चार इ.पाय का परित्याग करता है, जो ज्ञानी पुरघो के वचनों का दृढविश्वासी रहता है, जो चाँदो, सेना अादि किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, जो रहस्यों के साथ कोई भी सांसारिक स्नेह-सम्बन्ध नहीं जोड़ता, वही भित्तु है । (२७१) जो सम्यग्दर्शी है, जो कर्तव्य-विमूढ़ नहीं है, जो ज्ञान, तप और संयम का दृढ़ श्रद्धाल है, जो मन, वचन और शरर को पाप-पथ पर जाने से रे.क रखता है, जो तप के द्वारा पूर्व-कृत पाप-कर्मों को नष्ट कर देता है, वहीं भिक्षु है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( २७२ ) न य वुग्गहियं कहूं कहिज्जा, १४८ न य कुप्पे निहुइन्दिए पसन्ते । संजमधुवजोगजुत्ते, उवसंते अडिए जे स भिक्खू ||४|| जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोस -- पहार - तज्जरणाओ य । ( २७३ ) भय-भैरव-सह-- सप्पहासे, समसुह - दुक्खसहे जे स भिक्खू ||५|| ( २७४ ) अभिभूय कारण परिसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाई - मरणं महब्भयं, हत्थ संजए तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ||६|| वायसंजए ( २७५ ) पायसंजए, संनइन्दिए । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भिक्षु-सूत्र (२७२) जो कलहकारी वचन नहीं कहता, जो क्रोध नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अचंचल हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्रु वयोगी (सर्वथा तल्लीन ) रहता है, जो संकट आने पर ज्याकुल नहीं होता, जो कभी योग्य कर्तव्य का अनादर नहीं करता, वही भिन्तु है। (२७३) जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, तथा अयोग्य उपालंभों को शान्तिपूर्वक सह लेता है, जो भीषण अट्टहास और प्रचण्ड गर्जना वाले स्थानों में भी निर्भय रहता है, जो सुख-दु:ख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है। ( २७४ ) जो शरीर से परीपहों को धैर्य के साथ सहन कर संसार-गर्त से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर सदा श्रमणोचित तपश्चरण में रत रहता है, वही भिक्षु है। (२४) जो हाथ, पाँव, वाणी और इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में रत रहता है, जो अपने आपको Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर - वाणी सुसमाहिप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ॥७॥ ( २७६ ) उद्दिम्मि अमुच्छिए अमुच्छि गिद्ध, १५० अज्भापरए अन्नायउंछं, कयविक्कयसन्निहिओ पुलनिप्पुलाए । विरए, सत्रसंगाव गए य जे स भिक्खू ||५|| 1 ( २७७ ) अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्ध, उछ चरे जीविय नाभिकखे । + इडिंट च सक्कारण- पूयणं च, चए ठिया अहेि जे स भिक्खू ॥६॥ ( २७८) नं परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पेज्ज न तं वएज्जा । जारिणय पत्तेयं पुरण--पावं, अंताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ १० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु-सूत्र १५१ भली भाँति समाधिस्थ करता है, जो सूत्रार्थ को पूरा जाननेवाला है, वही भिक्षु है । ( २७६ ) जो अपने संयम-साधक उपकरणों तक में भी मूर्च्छा (श्रसक्ति) नहीं रखता, जो लालची नहीं है, जो अज्ञात परिवारों के यहाँ से भिक्षा माँगता है, जो संयम पथ में बाधक होनेवाले दोषों से दूर रहता है, जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धन्धों के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से निःसंग रहता है, वही भिक्षु है ( २७७ ) 1 अज्ञात कुल जो ऋद्धि, जो मुनि लुप है, जो रसों में श्रद्ध है, जो की भिक्षा करता है, जो जीवन की चिन्ता नहीं करता, सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा का मोह छोड़ देता है, जो स्थितात्मा तथा निस्पृही है, वही भिक्षु है । (२७८) जो दूसरों को "यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता, जो कटु वचन - जिससे सुननेवाला क्षुब्ध ह— नहीं बोलता, 'संब जीव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार हो सुख-दुःख भोगते हैं । ' — ऐसा जानकर जो दूसरों की निन्द्य चेष्टाओं पर लक्ष्य न देकर अपने सुधार की चिंता करता है, जो अपने-आपको उग्र तप और त्याग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिक्षु है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ महावीर-वाणी (२७६) न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न. लाभमत्ते न सुएण मन्ते । मयाणि सव्वाणि विवज्जयतो, धम्मज्भाणरए जे स भिक्खू ॥११॥ (२८०) पवेयए अज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिो ठावयई परं पि । निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिगं, . न यावि हासंकुहए जे स भिक्खू ।।१२।। (२८१.) तं देहवासं असुई असासयं, . सया चए निच्चहियट्ठियप्पा । छिदित्तु जाईमरणस्स बंधणं । उवेइ भिक्खू अपुरणागमं गई ।।१३।। [दश० अ० १० गा० ५-६-७-१०-११, १४ से २१]] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु-सूत्र १५३ जो जाति का अभिमान नहीं करता; जो रूप का अभिमान नहीं करता; जो लाभ का अभिमान नहीं करता, जो श्रुत (पांडित्य) का अभिमान नहीं करता; जो सभी प्रकार के अभिमानों का परित्याग कर केवल धर्म-ध्यान में ही रत रहता है; वही भिन्तु है। (२८०) ... जो महामुनि आर्यपद (सधर्म ) का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है, जो घर-गृहस्थी के प्रपंच से निकल कर सदा के लिये कुशील लिंग (निन्द्यवेश) को छोड़ देता है, जो किसी के साथ हंसी-ठट्टा नहीं करता, वही भिक्षु है। (२८१) इस भाँति अपने को सदैव कल्याण-पथ पर खड़ा रखनेवाला भितु अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में निवास करमा हमेशा के लिये छोड़ देता है; जन्म-मरण के बन्धनों को सर्वथा काटकर अपुनरागमगति ( मोक्ष ) को प्राप्त होता है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३ : मोक्खमग्ग-सुत्तं (२८२) कह चरे ? कह चिट्ठ ? कहमासे ? कहं सए ? कह भुजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धइ ? ॥१॥ (२८३) जयं चरे जयं चिट्ठ जयमासे जयं सए । जयं भुजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धइ ॥२॥ (२८४) सबभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासो । पिहियासवस्स दन्तस्स पावं कम्मं न बन्धइ ॥३॥ (२८५) पढमं नाणं तो दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही किंवा नाहिद छेय-पवागं ? ॥४॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२ : मोक्षमार्ग-सूत्र (२८२) भन्ते ! कैसे चले ? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे ? कैसे बोले ?—जिससे कि पाप-कर्म का बन्ध न हो। (२८३) अायुष्मन् ! विवेक से चले; विवेक से. खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोये; विवेक से भोजन करे; और विवेक से ही बोले, तो पाप-कर्म नहीं बाँध सकता । (२८४) जो सब जीवों को अपने समान समझता है, अपने-पराये, सबको समान हट से देखता है, जिसने सब आस्रवों का निरोध कर लिया है, जो चंचल इन्द्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। (२८५) पहले ज्ञान है, बाद में दया। इसी क्रम पर समग्र त्यागीवर्ग अपनी संयम-यात्रा के लिये ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पा को वह कैसे जान सकेगा ? Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( २८६ ) सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाराइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ||५|| १५६ ( २८७ ) जो जीवे वि न जाएाइ, अजीवे वि न जाणइ । जीवाजी तो कह सो नाहीइ संजम ? ॥ ६३॥ ( २ ) जो जीवे विवियागाइ, अजीवे वि त्रियः गइ | जीवाऽजीवे वियाणतो, सो हु नाहोइ संजमं ॥ ७॥ ( २८६ ) जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाइ । तया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणइ ||८|| ( २६० ) जया गइ बहुविधं सव्वजीवाण जाइ । तया पुराणं च पावं च बंध मोक्खं च जाइ ॥६॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र १५७ (२८६.). सुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुनकर जाने जाते हैं। बुद्विमान् साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे । (२८७) जो न तो जीव (चेतनतत्व) को जानता है, और न अजीव ( जड़तत्व) को जानता है, वह. जीव-अजीव के स्वरूप को न जाननेवाला साधक, भला किस तरह संयम को जान सकेगा ? (२८) जो जीव को जानता है और अजीव को भी वह नीव और अजीव दोनों को भलीभाँति जानने वाला. साधक ही संयम को जान सकेगा। (८६) जब जीव और अजीव दोनों को भलीभाँति जान लेता है, तब वह सब जीवों की नानाविध गति ( नरक तिथंच आदि ) को भी जान लेता है। (२६०) जब वह सब जीवों की नानाविध गतियों को जान लेता है, तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महावीर-वाणी (२६१) जया पुण्ण च पावं च बंधं मोक्खं च जाणइ । तया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणु मे ॥१॥ (२६२) जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं सन्भिन्तरं वाहिरं ।।११।। (२६३) जया चयइ संजोगं सन्भिन्तरं बाहिरं । तया मुण्डे भवित्ताणं पचयइ अगागारियं ॥१२॥ (२६४) जया मुण्डे भवित्ताणं पव्ययइ अणगारियं । तया संवरमुक्कि घर्म फासे अगुत्तरं ॥१३॥ (२६५) जया संवरमुक्कि धम्म फासे अगुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं ॥१४॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र १५६ (२६१) जय (साधक) पुण्य, पाप, बन्ध र मोक्ष को जान लेता है, तब देवता और मनुष्य संबन्धी काम-भोगों की निगुणता जान लेता है--अर्थात् उनसे विरक्त हो जाता हैं ! (२६२) ___ जब देवता और मनुष्य संबन्धी समस्त काम-भोगों से (साधक) विरक्त हो जाता है, तब अन्दर और बाहर के सभी सांसारिक सम्बन्धों को छोड़ देता है। (२६३) जब अन्दर और बाहर के समस्त सांसारिक सम्बन्धों को छेड़ देता है, तब मुण्डित (दीक्षित) होकर (साधक) पूर्णतया अनगार बृत्ति (मुनिचर्या) को प्राप्त करता है। (२६४) जब मुण्डित होकर अनगार वृत्ति को प्राप्त करता है, तब (साधक) उत्कृष्ट संवर एवं अनुसर धर्म का स्पर्श करता है (२६५) जब (साधक) उत्कृष्ट संवर एवं अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, तब ( अन्तरात्मा पर से ) अज्ञानकालिमाजन्य कर्म-मल को झाड़ देता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (२६६) जया धुइण कम्मरयं अयोहिकलुसं कडं । तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ ॥१५॥ (२६७) जया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छद । तया लोगमलोग च जिणों जाणइ केली ॥१६॥ (२६८) जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली । तया जोगे निरु भित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ॥१७॥ (२६६) जया जोगे निरु भित्ता सेलेसिं पडिवज्जा । तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरो ॥१८॥ (३००) जया कम्म खवित्ता सिद्धि गच्छइ नीरो। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ ॥१६॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना जब अन्तरात्मा पर से) अजानकालिमाजन्य कर्म-पल की मोक्षमार्ग-सूत्र : १६१ (२६६) जब ( अन्तरात्मा पर से) अशानकालिमाजन्य कर्म-मल को दूर कर देता है, तब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। (२६७) - जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है। (२६८) जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोकरूप समस्त संसार को जान लेता है, तब ( अायु समाप्ति पर ) मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध कर शैलेशी (अचल-अकम्प) अवस्था को प्राप्त होता है। (२६६) जब मन, वचन और शरीर के योगों का निरोध कर आत्मा शैलेशी अवस्था पाती है--पूर्णरूप से स्वन्दन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों को क्षय कर.--.-मुर्वथा मल रहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होती है। (३००) जब अात्मा सब कर्मों को क्षय कर-सर्वथा मलरहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तब लोक के मस्तक पर--ऊपर के अग्र भागपर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 . A . . M . जालपापही mastDos EET महावीरवाणी (३०१) सुहसायमस्सा समणस्स सायाउलंगरस निनामसाइस्स । उकोलापहाविस्स दुल्लहा सोग्गई तारिसगस्स ॥२०॥ (३०२) तवोगुणपहाणस्स . उज्जुमईखन्तिसंजमरयस्स । पैरीसहे जिणन्तस्स सुलहा सोग्गई तारिसगस्स ॥२॥ [ दश० अ० ४ गा० ७ से २७ ] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र ( ३०१ ) जो श्रमण भौतिक सुख की इच्छा रखता है, भविष्यकालिक सुख-साधनों के लिए व्याकुल रहता है, जब देखो तब सोता रहता है, सुन्दरता के फेर में पड़कर हाथ, पैर, मुँह श्रादि धोने में लगा रहता है, उसे सद्गति मिलनी बड़ी दुर्लभ है । ( ३०२ ) जो उत्कृष्ट तपश्चरण का गुण रखता है, प्रकृति से सरल है, क्षमा और संयम में रत है, शांति के साथ क्षुधा आदि परोष हां को जीतनेवाला है, उसे सद्गति मिलनी बड़ी सुलभ है: १६३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिमद-निवारण-सुतं [जैनसंघ में केवल जाति का कोई मूल्य नहीं, गुणों का है मूल्य प्रधान है, अत एव जातिमद अर्थात् 'मैं अमुक उच्च जाति में जन्मा हूँ' या 'अमुक उच्च कुलमें व गोत्र में जन्मा हूँ ऐसा कहकर जो मनुष्य अपनी जाति · का, कुल का व गोत्र का अभिमान करता है और इसी अभिमान के कारण दूसरों का अपमान करता है और दूसरों को नाचीज समझता है उसको मूर्ख, मूढ, अज्ञानी कह कर खूब फटकारा गया है और जातिमद, कुलमद,गोत्रमद,ज्ञानमद,तपमद तथा धनमद आदि अनेक प्रकार के मदों को सर्वथा त्याग करने को जैन शास्त्रों में बार-बार कहा गया है। इससे यह सुनिश्चित है कि जैनसंघ में या जैनप्रवचन में कोई भी मनुष्य जाति कुल व गोत्र के कारण नीचा-ऊँचा नहीं है अथवा तिरस्कार-पात्र नहीं है और अस्पृश्य भी नहीं है। अत: इस सूत्र का नाम अस्पृश्यता निवारण सूत्र भी रखें तो भी उचित ही है (३०३) एगमेगे खलु जीवे अईअद्धाए असई उचागोए, असई नीयागोए।' x x x . नो हीणे, नो अइरित्ते, इति संखाए के गोयावाई के मारणावाई ? कसि वा एगे गिज्झे ? तम्हा पंडिए नो हरिसे नों कुज्मे। भूएहिं जाण पडिलेह सायं समिए एयागुपस्सी । [अाचारांग सूत्र, द्वि० अध्ययन, उद्देशक तृ०, सूत्र १-२-३ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४ : जातिमद- निवारण सूत्र ( ३०३ ) यह सुनिश्चित है कि प्रत्येक जीव भूतकाल में यानी अपने पूर्व-जन्मों में अनेक बार ऊँचे गोत्र में जन्मा है और अनेक बार नीच गोत्र में जनमा है । केवल इसी कारण से वह न हीन है और न उत्तम । इस प्रकार समझ कर ऐसा कौन होगा जो गोत्रवाद का अभिमान रखेगा ब मानवाद की बड़ाई करेगा ? ऐसी परिस्थिति में किस एकमें श्रासक्ति की जाय ? अर्थात् गोत्र या जाति के कारण कोई भी मनुष्य आसक्ति करने योग्य नहीं है, इसी लिये समझदार मनुष्य जाति या गोत्र के कारण किसी पर प्रसन्न नहीं होता ओर कोप भी नहीं करता समझ-बूझ कर, सोच-विचार कर सब प्राणियों के साथ सहानुभूति से वर्तना चाहिए और ऐसा समझने वाला ही समतायुक्त है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (३०४) जे माहणे खत्तियजायए वा, तहुगापुत्ते तह लेच्छई वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थब्भति माणबद्ध ॥ [सूत्रकृ० १, अ० १३, १० ] (३:५) जे आवि अप्पं वसुमं ति मत्ता,. संखायवायं .अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाऽहं सहिउ त्ति मत्ता, अएणं जणं पस्सति बिंबभूयं ।। [सूत्रकृ० १, अ० १३,८] (३.६) न तस्स जाई व कुलं व ताणं, गएणत्थ विज्जाचरणं सुचिएणं । णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्म, ण से पारए होइ विमोयणाए ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिमद - निवारण सूत्र ( ३०४ ) जो ब्राह्मण है, क्षत्रियपुत्र है, तथा उग्रवंश की संतान है तथा लिच्छवी वंश की प्रजा है ऐसा जो भिक्षा से आजीवन रहने वाला भिक्षु है वह अभिमान में बंधकर अपने गोत्र का गर्व नहीं करता । .१६७ ( ३०५ ) जो अपने को घमंड से संयमयुक्त मानकर और अपनी बराबर परख न करके घमंड से अपने को ज्ञानी मान कर और मैं कठोर तप कर रहा हूं ऐसा घमंड करके दूसरे मनुष्य को केवल श्रीचा (सांचा ) के समान समझता है अर्थात् तृणपुरुष के समान निकम्मा समझता है वह दुश्शील है, मूढ़ है, मूर्ख है और बाल है । (- ३०६ ) वैसे घमंडी की रक्षा उसकी कल्पित जाति से या कुल से नहीं हो सकती, केवल सत्का ज्ञान व सदाचरण ही रक्षा कर सकता है । ऐसा न समझकर जो त्यागी साधु होकर भी घमंड में चूर रहता है वह साधु नहीं है, गृहस्थ है— संसार में लिपटा हुआ है और ऐसा मंडी मुक्ति के मार्ग का पारगामी नहीं हो सकता । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ महावीर-वाणी (३०७) णिक्किचणे मिक्खू सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणे, पुणो पुणो विपरियासुवेति ॥ [सूत्रकृ० १, १३, गा• ११, १२ ] (३०८) पन्नामयं चेव तवोमयं च, णिनामए गोयमयं च भिक्खू । आजीविगै चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ।। ( ३०६) एयाई मयाइ विगिंच धीरा ! ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते सव्यगोत्तावगया महेसी, उ अगोत्तं च गतिं वयंति ॥ [सूत्रकृ० १, १३ गा० १५, १६ ] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिमद-निवारण सूत्र (३०७) भिन्नु अकिंचन है, अपरिग्रहो है और लखा-सूखा जो पाता है उससे ही अपनी जीवनयात्रा निभाता है। ऐसा भितु होकर जो अपनी आजीविका के लिये अपने उत्तम कुल, जाति व गोत्र का उपयोग करता है अर्थात् 'मैं तो अमुक उत्तम कुल का था, अमुक उत्तम घराने का था, अमुक ऊँचे गोत्र का था व अमुक विशिष्ट वंश का था' इस प्रकार अपनी बड़ाई करके जीवन-यात्रा चलाता है वह तत्व को न समझता हुअा बारंबार विपर्यास को पाता है। (३०८) जो भिक्षु-मानव-प्रज्ञा के मद को, तप के मद को, गोत्र के मद को तथा चौथे धन के मद को नमाता है अर्थात् छोड़ता है वह पंडित है, वह उत्तम आत्मा है । (३०६) हे धीर पुरुष ! इन मदों को काट दे-विशेषरूप से काट दे, सुधीर धर्मवाले मानव उन मदों का सेवन नहीं करते। ऐसे मदों को जड़ से काटने वाले महर्षिजन सब गोत्रों से दूर होकर उस स्थान को पाते हैं जहाँ न जाति है, न गोत्र है. और न वंश है। अर्थात् महर्षिजन ऐसी उत्तम गति पाते हैं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५ : खामणासुत्तं (३१०). सव्वस्स जीवरासिस्स भावो धम्मनिहिअनिअचित्तो। सव्वे खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥१॥ (३११) सव्वस्स समसंघस्स भगवओ अंजलि करिअ सीसे । सव्वे खमावइत्ता खमामि सबस्स अहयं पि ॥२॥ (३१२) आयरिए उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल-गणे य । जे मे केइ कसाया सव्वे तिविहेण खामेमि ॥३॥ [पंचप्रति० आयरिअ० सू० ३-२-१] (३१३) खामेमि सब्वे जीवे. सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु वेरं ममं न केणइ ॥४॥ [पंचप्रति, वंदित्तु सू० गा० ४६ ] (३१४) ज. जं मणेण बद्ध जं. जं वायाए भासिधे पावं । जं जं. काएगा. कर्य मिच्छामि दुक्कडं तस्स शा [पंचप्रति० संथारासू० अंतिम गाथा] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५ : क्षमापन - सूत्र ( ३१० ) धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मैं सद्भावपूर्वक सब जीवों के पास अपने अपराधों की क्षमा माँगता हूँ और उनके सब अपराधों को मैं भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता हूँ । ( ३११ ) मैं नतमस्तक होकर भगवत् श्रमण संघ के पास अपने अपराधों की क्षमा मांगता हूँ और उनको भी मैं क्षमा करता हूँ । ( ३१२ ) आचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण और साधर्मी बन्धुओं तथा कुल और गण के प्रति मैंने जो क्रोधादियुक्त व्यवहार किया हो उसके लिये मन, वचन और काय से क्षमा माँगता हूँ । ( ३१३ ) मैं समस्त जीवां से क्षमा माँगता हूँ और सब क्षमा- दान दें। सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्रीवृत्ति है; साथ मेरा वैर नहीं है । मैंने जो जो पाप मन बोले हैं और शरीर से किये (३१४) संकल्पित किये हैं, वाणी से जीव मुझे भी किसी के भी से हैं, वे मेरे सब पाप मिथ्या हो जायँ 1 --- Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७३ ] पारिभाषिक शब्दोंका अर्थ अकाम-अविवेक-अज्ञान-पूर्वक दुःखसुख आदि सहन करनेकी प्रवृत्ति या इच्छा न होने पर भी परवशतः सहन करनेकी प्रवृत्ति । अगृद्ध-अलोलुप । अचित्त-सचित्तसे उलटा-निर्जीव । अनगार-अन्+अगार, अगारघर, जिसका अमुक एक घर नहीं है अर्थात् निरंतर सविधि भ्रमण-शील साधक, साधु । साधु, संन्यासी, भिक्षु, श्रमण ये सब 'अनगार के समनार्थ है। अनुत्तर-उत्तमोत्तम । अवधि-रूपादियुक्त परोक्ष या अपरोक्ष पदार्थको मर्यादित रीतिसे जान सकनेवाला विविध प्रकारका ज्ञान । आदाननिक्षेप-किसीको किसी भी प्रकारका क्लेश न हो इस तरहका संकल्प धारण कर कोई भी पदार्थको धरना या उठाना। आस्रव-आसक्ति युक्त अच्छी या बुरी प्रवृत्ति । आहार-अशन, पान, खादिम और स्वादिम, यह चार Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७४ ] प्रकारका भोजन, अशन--कोई भी खाद्य पदार्थका भोजन, पान---कोई भी पेय पदार्थका पीना-शरबत जल दूध आदि पीनेकी चीजोंको पीना, खादिम-फल, मेवा आदि, स्वादिम--मुखवास, लवंग, सुपारी आदि । इंगित-शारीरिक संकेत-नेत्र, हाथ, आदिके इशारे। ई -गमन-आगमन आदि क्रिया, ईर्या-समिति—किसीको किसी भी प्रकारका क्लेश न हो ऐसे संकल्पसे सावधानी पूर्वक चलना-फिरना आदि सब क्रियाओंका करना। उच्चार-समिति-शौचक्रिया या लघुशंका अर्थात् किसी भी प्रकारका शारीरिक मल, मलका मानी उच्चार, मलको ऐसे स्थानमें छोडना जहाँ किसीको लेश भी कष्ट न हो और जहाँ कोई भी आता-जाता न हो और देख भी न सके इसका नाम उच्चार-समिति है। उन्भेइमलोण-उभेदिम-लवण-समुद्रके पानीसे बना हुआ सहज नमक । ऊनोदरी-भूखसे कुछ कम खाना-उदरको ऊन रखना-- पूरा न भरना । एषणा-निर्दोष वस्त्र, पात्र और खानपानकी शोध करना, निर्दोषका मानी हिंसा, असत्य आदि दोषोंसे रहित । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७५] एषणीय- - शोधनीय - खोज करने लायक ——— जिनकी उत्पत्ति दूषित है या नहीं इस प्रकार गवेषणाके योग्य । औपपातिक — उपपात अर्थात् स्वर्ग में या नरकमें जन्म होना । औपपातिक का अर्थ हुआ स्वर्गीय प्राणी या नारकी प्राणी । कषाय - आत्माके शुद्ध स्वरूपको कष नाश करनेवाला, क्रोध, मान माया और लोभ ये चार महादोष । किंपाकफल – जो फल देखने में और स्वादमें सुन्दर होता है पर खानेसे प्राणका नाश करता है । केवली - केवलज्ञान वाला - सतत शुद्ध आत्म-निष्ठ । गुप्ति —गोपन करना - संरक्षण करना; मन, वचन और शरीरको दुष्ट कार्योंसे बचा लेना । तिर्यञ्च - देव, नरक और मनुष्यको छोड़कर शेष जीवोंका नाम ' तिर्यञ्च ' है । । स - धूपसे त्रास पाकर छाँहका और शीतसे त्रास पाकर धूपका आश्रय लेने वाला प्राणी त्रस । दर्शनावरणीय दर्शन - शक्तिके आवरणरूप कर्म । नायपुत्त——- भगवान महावीरके वंशका नाम 'नाय - ज्ञात है Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७६ ] अतः नाययुत्त-ज्ञातपुत्र-भगवान महावीरका खास नाम है। निकाय-समूह, जीवनिकाय-जीवोंका समूह । निर्ग्रन्थ-गाँठ देकर रखने लायक कोई चीज़ जिनके पास नहीं है-अपरिग्रही साधु । निर्जरा--कौंको नाश करनेकी प्रवृत्ति-~-अनासक्त चित्तसे । प्रवृत्ति करनेसे आत्माके सब कर्म नाश हो जाते हैं। परीषह-जब साधक साधना करता है तब जो जो विघ्न आते हैं उनके लिए 'परीषह' शब्द प्रयुक्त होता है। साधकको उन सब विनोंको सहन करना चाहिए इसलिए उनका नाम 'परीषह' हुआ । पुद्गल-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दवाले जड़ पदार्थ या या जड़ पदार्थके विविध रूप । प्रमाद-विषय कषाय मद्य अतिनिद्रा और विकथा आदिका प्रसंग-पांच इन्द्रियोंके शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पांच विषय, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय, मद्य-मद्य और ऐसी ही अन्य मादक चीजें, अतिनिद्रा-घोर निदा, विकथा--संयमको घात करने Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७७] वाली विविध प्रकारकी कुत्सित कथाएँ । मति — इंद्रिय - जन्य ज्ञान | मनः पर्याय --- दूसरोंके मनके भावोंको ठीक पहचाननेवाला ज्ञान । महाव्रत —— अहिंसाका पालन, सत्यका भाषण, अचौर्यवृत्ति, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत हैं । मोहनीय – मोहको उत्पन्न करनेवाले संस्काररूप कर्ममोहनीय कर्मके ही प्राबल्यसे आत्मा अपना स्वरूप नहीं पहचानता । ----- रजोहरण - रजको हरनेवाला साधन — जो आजकल पतली ऊनकी डोरियोंसे बनाया जाता है -- जैन साधु निरंतर पास रखते हैं —– जहाँ बैठना होता है वहाँ उससे झाड़कर बैठते हैं । जिसका दूसरा नाम ' ओघा' - ' चरवला' है । लेश्या - आत्माके परिणाम - अध्यवसायं । बिडलोण - गोमूत्रादिक द्वारा पका हुआ नमक । वेदनीय - शरीर से वा इंद्रियोंसे जिनका अनुभव होता है ऐसे सुख या दुःख साधनरूप कर्म । वैयावृत्त्य — बाल, वृद्ध, रोगी आदि अपने समान धर्मियोंकी सेवा । शैलेशी — शिलेश - हिमालय, हिमालयके समान अकंप स्थिति । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७८ ] श्रद्धान-श्रद्धा-स्थितप्रज्ञ वीतराग आप्तपुरुषमें दृढ विश्वास । श्रमण-स्वपरके कल्याणके लिए श्रम करनेवाला। यह शब्द जैन और बौद्ध साधुओंके लिए व्यवहारमें प्रचलित है। श्रुत-सुना हुआ ज्ञान-शास्त्रज्ञान । सकाम-विवेक-ज्ञान-पूर्वक दुःख सुखादि सहन करनेको प्रवृत्ति या स्वतंत्रविचारसे सहन करनेकी प्रवृत्ति। देखो अकाम । सचित्त-चित्तयुक्त-प्राणयुक्त-जीवसहित कोई भी पदार्थ। समिति-शारीरिक, वाचिक और मानसिक सावधानता। संवर-आश्रवोंको रोकना, अनासक्त आत्माकी प्रवृत्ति आत्माकी शुद्ध प्रवृत्ति । सल्लेखना-मृत्यु (शरीरान्त) तक चलनेवाली वह प्रवृत्ति जिससे कषायोंको दूर करनेके लिए उनका पोषण और निर्वाह करनेवाले तमाम निमित्त कम किए जाते हों। ज्ञानावरणीय-ज्ञानके आवरणरूप कर्म--ज्ञान, ज्ञानी या ज्ञानके साधनके प्रति द्वेषादि दुर्भाव रखनेसे ज्ञानावरणीय कर्म बंधते हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणीके पद्योंकी अक्षरानुक्रमणिका पद्यका आदिवाक्य अभिक्खणं अभिभूय अरई गण्ड अलोल भिक्खू पद्यका आदिवाक्य अइ कालो अज्झत्थं सव्वओ अट्ठ पवयण अणसण अणाइकाल अत्थंगयम्मि - अदंसणं चेव अधुवं जीवियं अन्नायउंछं अप्पणट्ठा अप्पा कत्ता अप्पा चेव अप्पाणमेव अप्पा नई अप्पा खलु अप्पं च अहिअबंभचरियं पद्यका अंक १६० १६ २४१ २३६ १४१ ६४ ४३ १६१ २४६ २२ २१२ २१३ २१६ २११ २२० ७७ ३९ अलोलुए अक्कुहए अलोलुयं अवण्णवायं अवि पावपरि- असासए सरीरम्मि असंखयं जीविय अह अट्ठहिं अह पन्नरसहिं अह पंच अहीणपंचेन्दियत्तं अहे वयंति अहिंस सच च अंगपचंगसंठाणं पद्यका अंक ८१ २७४ १२३ २७७ २५१ २६३ २५० ८२ १७३ ९९ ७३ ७६ ७२ ११९ १४८ २ ४६ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८० ] पद्यका अंक १३७ ३०९ २४३ ८९ १३९ ० ० २०७ ११४ २६८ १६७ ६७ पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक | पद्यका आदिवाक्य आणाऽनिदेसकरे एमेव रूवम्मि आणानिदेसकरे ७५ | एयाइं मयाई आयरिए उवज्झाए ३१२ एयाओ पंच आयारमट्ठा २४५ एवमावजोणीसु आहच्च एविन्दियत्था य आहारमिच्छे एवं खु नाणिणो इइ इत्तरियम्मि एवं गुणसमाउत्ता इमं सरीरं एवं च दोसं इरियाभासेसणा-- २४२ एवं धम्मस्स इह जीवियं १९२ उड्ढं अहे य एवं भवसंसारे उदउल्लं बीय एस धम्मे धुवे उवउझिय मित्त-- १२६ एसा पवयण-- उवलेवो होइ १५७ कम्मसंगेहि उवसमेण हणे १४५ कम्माणं तु उवहिम्मि २७६ कम्मुणा एगया खत्तियो कलहडमर-- एगमेगे खलु ३०३ । कसिणं पि ० ० एवं धम्म 0 ५७ २४४ ९० २६७ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यका आदिवाक्य पथका अंक कहं चरे ? कामाणुगिद्धि २८२ ५५ कायसा १८४ किण्हा नीला २३८, २३९ ११३ कुसग्गे कूइयं रुइयं ४७ कोहा वा जइ वा कोहो पीई कोहो य माणो य कोहं च माणं च कोहं माणं च खणमेत्तसोक्खा खामेमि सव्वे खिप्पं न सक्केइ गइलक्खणो [ १८१ ] मुणेहि साहू चउरंगं चउव्विहे वि २५९ १४४ १४२ १५१ १४३ १५४ ३१३ १०८ २२४ २५२ ९८ ६८ पद्यका आदिवाक्य चत्तारि परम- चित्तारि वमे चरे पयाई चिच्चादुपयं चिच्चाणं धणं चीराजिणं छन्दंनिरोहेण जगनिस्सिएहिं चित्तमतमचित्तं ३३, २६० १५८ १०६ १४ जणेण सद्धिं जम्मं दुक्ख जमिणं जगई जया कम्मं जया गईं बहुविहं जया चयइ जया जीव- जया धुणइ जया निव्विंदए पथका अंक ८७ २७० १०५ १७० १२५ १८१ १६६ १७२ ३०० २९० २९३ २८९ २९६ २९२ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८२ ] पक्षका आदिवाक्य पद्यका अंक पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक जया पुण्णं च २९१ जहा य किंपाग- १५६ जया मुंडे २९४ जहा लाहो १४७ जया चयइ २९३ जहा सागडियो जया य चयइ १८७ जहित्ता पुव-- २६४ जया लोग-- २९८ जहेह सोहो १७१ जया लोगे २९९ जाइं च बुढि २०९ जया सव्वत्तगं ९७ जा जा वच्चा ७,८ जया संवर-- २९५ जायरूवं २५६ जयं चरे २८३ जावन्तविज्जा जरा जाव जावन्ति लोए १२ जरा-मरण-- जीवा-ऽजीवा य. २२८ जस्संतिए जीवियं चेव १७५ जस्सेवमप्पा २१९ जे आवि अप्पं . ३०५ जहा किंपाग-- १५५ जे केइ पव- १८९ जहा कुम्मे २०३ - जे केइ बाला १८६ जहा दवग्गी ५१ जे केइ सरीरे जहा पोम्म जे गिद्धे जहा य अंड- १३१ । जे पाव १९३ mr 600 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८३ ] २५३ पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक । पद्यका आदिवाक्याः पद्यका अंक जे ममाइअमई २०२ तवोगुण ३०२ जे माहणे ३०४ तसपाणे २५८ जे य कंते तस्सेस मग्गो २०६ जे संखया १११ तहियाणं तु २२९ जो जीवे २८७, २८८ तहेव काणं जो न सज्जइ २५५ तहेव डहरं जो पव्वइत्ताण २२२ तहेव फरसा जो सहइ २७३ तहेव सावजजो सहस्सं २०४,२१५ । तिण्णो सि जं जं मणेण तिव्वं तसे जं पि वत्थं च तुलियाग डहरे य पाणे तेउ-पम्हाणिकिंचणे ३०७ तेणे जहा तओ पुट्ठो १८५ तेसिं गुरूणं तओ से १८२ । तं अप्पणा तत्थ पञ्चविहं २३२ । तं देहवासं २८१ ११ | थंभा व कोहा तवस्सियं २५७ । दंतसोहण-- ३७. ०. २४० 3 Vur in mo o o 5 mv v m तथिमं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८४ ] २६ पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक | पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक दाराणि सुया १६८ न जाइमत्ते २७९ दिळं मियं न तस्स जाई ३०६ दिव्व-माणुस- २६१ न तस्स दुक्खं दुक्खं हयं १३३ । न तं अरी २१८ दुज्जए ५४ । न परं वइजासि २७८ दुप्परिचया १६४ | न य पावपरिक्खेवी ७८ दुमपत्तए ११२ | न य वुग्गहियं २७२ दुल्लहे खलु ११५ । न रूवलावण्णदेव-दाणव न लवेज धण-धन न वा लभेजा धम्मलद्धं न वि मुंडिएण २६५ धम्मो अहम्मो न सो परिग्गहो धम्मो मङ्गल नाणस्स सव्वस्स धम्म पि हु १२१ नाणस्सावरणिजं २३३ धीरस्स पस्स १९६ नाणेणं जाणइ २३० न कम्मुणा २१० नाणं च दंसणं २२६,२३१ न कामभोगा १४० नामकम्म २३४ न चित्ता . १७७ । नासीले ५६ __२४ ५८ २०५ ७४ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८५] पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक १२९ १७८ ___ ४४ ११० १.. ९५ १७४ ९२ निच्चकाल-- २१ । बुद्धस्स निसम्म निच्चुम्विग्गो १८८ भासाए दोसे य पइण्णवादी भोगामिसदोस- पंढमं नाणं २८५ मणपल्हायजणणी पनामयं ३०८ मन्दा य फासा पणीयं भत्त मरिहिसि रायं! पमायं कम्म-- १३० माणुसत्तम्मि परिजूरह १२२ माणुसत्ते पवेयए अजपयं २८० माणुस्सं विग्गह पाणिवह-मुसावाया-- ६९ मासे मासे पाणे य नाइ-- मुसावाओ य पायच्छित्तं २३७ मुहं मुहं मोह-- पुढवी साली १५० मूलमेयमहम्मस्स पुरिसोरम १६२ मूलाओ खंधप्प-- पचिंदिय-- २१७ रसा पगाम न बालस्स पस्स १९५ रागो य दोसो बालाणं अकामं रूवाणुरत्तस्स बिडमुन्मेहमं ६० | रूवे विरत्तो १९१ २३ १०९ ४० १३४ १३२ १३६ १३८ | Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८६ ] पद्यका अंक २४८ ५३ २२७ ६५ २२५ २०० १०७ २६६ २० पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक ! पद्यका आदिवाक्य रूवेसु जो १३५ | वोच्छिन्द रोइअनायपुत्त- २६९ सक्का सहे लद्रूण वि ११७, ११८, सद्दे रूवे य १२० सबंधयारलोहस्सेस सन्तिमे वत्तणालक्खणो स पुवमेवं वत्थगन्ध-- समयाए वरं मे २१४ समया सव्व'विगिंच - ९७ सम्मदिट्ठी वितहं पि ३१ समावयंता वित्तेण ताणं समिक्ख वित्तं पसवो १६५ समं च विभूसा इत्थिसं-- सयं तिवायए विभूसं . ५२ सयं समेच्च विरई अबंभ-- ३८ सरीरमाहु विवत्ती अविणी-- ८६ सल्लं कामा वेया अहीया न १६९ सवक्कसुद्धिं वेराई कुव्वइ . १९० । सव्वत्थुवहिणा २७१ २४९ १९८ ४५ १३ २८ २२१ १५२ २९ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८७ ] पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक } पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक सञ्चभूयप्पभूयस्स २८४ सोचा जाणइ २८६ सव्वस्स जीव- ३१० सो तवो २३५ सव्वस्स समण- ३११ सोही उज्जुय-- संथारसेज्जा-- २४७ सव्वाहि अणुजु-- संबुझमाणे सव्वे जीवा संबुज्झह किं न १६३ सव्वं विलवियं १५३ संसारमावन्न सुई च लडु हत्थसंजए २७५ सुत्तेसु हत्थागया सुवण्णरुप्पस्स १४९ हासं किड्डं सुहसायगस्स ३०१ | हिंसे बाले . १८३ १०३ ० १८० ४८ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक मूल गाथामें और हिन्दी अनुवादमें कई जगह टाइप बराबर ऊठे नहीं है तथा संख्याके अंक भी बराबर स्पष्ट छपे नहीं है तथा अनुस्वार, अक्षरके ऊपरकी मात्राएंदीर्घकी मात्रा, एकारकी मात्रा वगेरे मात्राएं-स्पष्टतया ऊठी नही हैं। २ व और ब में भी छपनेमें संकरसा हो गया है। ३ कई जगह टाइपके बाजुमें और ऊपरमें कुछ धब्बासा भी छप गया है। ४ अक्षरके ऊपरके अनुस्वार कई जगह यथास्थान नहीं छपे परंतु खिसकर छपे हैं। ५ . ऐसा शून्य भी स्पष्ट छपा नहीं है। इस प्रकार मुद्रणकी भारी त्रुटिसे वाचकलोग गभराये नहीं परंतु उस तरफ उपेक्षाभाव रखकर ग्रंथको पढें ऐसी मेरी नम्र सूचना हैं। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध चतुरंगी जातिमद निवारण अर्हन्तकी धम-सूत्र सव्वं दिस्स, भयवेराओ सम्यक्ज्ञान सबी एवं दुक्वरं कर्म वि स्त्रियोंका स्वादिष्ट पाणिहाणवं श्रृंगार श्रृंगारी बंभयारि आशक्ति का सपिं एयं [ १८९ ] शुद्ध चतुरंगीय जातिमदनिवारणसूत्र अर्हन्तोकी धर्मसूत्र सव्वं, दिस्स भय-वेराओ सम्यग्ज्ञान सभी एवं दुक्करं मर्म - पि स्त्रियोंका स्वादिष्ठ पणिहाणवं शृंगार शंगारी ( विषयसूची) "" ( मंगलसूत्र - शरण ) पृ० ११ गा० १६ "" गा० १७ (अनुवाद) (",) "" गा० १८ गा० २१ गा० २४ (अनुवाद) गा० ३१ गा० ४१ (अनुवाद) गा० ४१ (,, ) गा० ५४ गा० ५२ "" बंभयारिं गा० ५६ आसक्ति का गा० ५८ गा० ६० सप्पिं एवं गा० ६७ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध अरात्रि-भोजन- लाते! पमत्त पंचिन्दिया विइयं स्वादिष्ट लोहा परित्याग विणिअटेज १९.] शुद्ध अरात्रिभोजन- गा० ६४ (शीर्षक अनुवाद) लाते गा० ९४ (अनुवाद) पमत्ते गा० १०१ पंचिन्दियया गा० ११८ बिइयं गा० १२६ स्वादिष्ठ गा० १३४ (अनुवाद) लोहो गा० १४७ परित्याग गा० १५१ (अनुवाद) विणिअट्टेज गा० १६१ पुणरावि गा० १६३ सुव्वया गा० १६४ राजन् ! गा० १७५ (अनुवाद) पंडितंमन्य गा० १७७ (,) गा० १७९ (,) भयभ्रान्त गा० १८८ (अनुवाद) चिच्चा गा० १९६ उच्छंखल गा० १९२ (अनुवाद) गा० १९८ गा० १९९ पुणरवि सुवया राजन्, पंडितमन्य भयभ्रान्न चिच उच्छंखल पडिए पंडिए Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९१ ] शुद्ध अशुद्ध मुत्तत्थ सम तत्वज्ञानी वेयवणी कामदुधा अप्पाणमेव कोहे लक्खखणो चरितं जावस्स नाण सुत्तत्थ गा० २०६ समं गा० २०८ तत्त्वज्ञानी गा० २०७ (अनुवाद) वेयरणी गा० २११ कामदुघा गा० २११ (अनुवाद) अप्पणामेव गा० २१६ कोहं गा० २१७ लक्षणो गा० २२४ चरित्तं गा० २२६ जीवस्स नाणं गा० २३१ ज्ञानावरणीय गा० २३३, २३४ (अनुवाद) आशातना गा० २४५ (,) माहणं गा० २५७ जइ वा हासा गा० २५९ वक्केणं गा० २६१ अकिंचन गा० २६३ (अनुवाद) रोइअनायपुत्त गा० २६९ पुराणपावगं गा० २७१ मत्ते गा० २७९ ज्ञानवरणीय अशातना माहण जइ हासा ववकेणं अकिचन रोइअ नायपुत्त पुराण पावगं मन्ते Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९२] शुद्ध बंध तत्व पुण्ण धर्म धुइण अशुद्ध छेयपवागं छेयपावगं गा० २८५ बंधं गा० २९० तत्त्व. गा० २८७ (अनुवाद) अजीवको भी यह अजीवको भी जाता है वह गा० २८८ (अनुवाद) सब्भिन्तरं बाहिर सन्भिन्तरबाहिरं गा० २९२, २९३ पुणं गा० २९१ धम्म गा० २९४ धुण गा० २९६ कम्म कम्म गा० २९९ नीच नं० ३०३ (सांचा) (चंचा) गा० ३०५ १७८ १६८ (पृष्ठांक) शब्दोंका शब्दोंके पृ० १७३ मोह दुक्ख काल घोर धारए क्षति मोहनीय रत वियाणइ श्रमणोचित मोक्षमार्ग होनेमें दुःख जीतने वाला सुखी वीर भोक्ता सया होता नै लोहो रूप जात है दुःखी स्वाधीन भविष्य लोक वत्तिणो मुणी लोए और परतंत्रता शरीर तपस्वी तत्व ऐसे अनेकानेक शब्द अस्पष्ट छपे है अतः सावधान होकर पढनेकी नम्र सूचना है। नीचे Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत जैन महामण्डल वर्धा के लोकप्रिय प्रकाशन प्यारे राजा बेटा (भाग 1 और 2) रिषभदास रांका त्र) जीवन जौहरी (स्व. जमनालालजी बजाज)रिषभदास रांका 11) गीता प्रवचनें आचार्य विनोबा 1 // ) धर्म और संस्कृति जमनालाल जैन समाज और जीवन जमनालाल जैन बुद्ध और महावीर तथा दो भाषण कि. घ. मशरुवाला- 1) उज्ज्वल प्रवचन उज्ज्वल कुमारीजी ) मणिभद्र (उपन्यास) उदयलाल काशलीवाला 11) महावीर वाणी (जन गीता) पं० बेचरदासजी 2) जो सन्तोंने कहा (स्टॉक में नहीं) सर्वोदय यात्रा आचार्य विनोबा 1) तत्त्व समुच्चय डॉ. हीरालाल जैन ) तत्त्वार्थ सूत्र पं० सुखलालजी 5 // ) महावीर का जीवन-दर्शन रिषभदास रांका आदर्श विवाह-विधि रिषभदास रांका ) जमनालाल जैन मारने की हिम्मत (कहानी संग्रह) म० भगवानदीन सलौना सच (भाग 1) बालकोपयोगी) म० भगवानदीन // )) मेरे साथी (संस्मरण और जीवन-चित्र, म० भगवानदीन ) महावीर और उनका साधना-मार्ग रिषभदास रांका महावीर वर्धमान डॉ. जगदीशचन्द्र जैन (1) धानको खेतीकी नई पद्धति रिषभदास शंका 3 ) सम्पत्तिदान-यज्ञ श्रीकृष्णदास जाजू, न चिनगारियां ताराचंद कोठारी %80% For Private & Personal use शारदा मुद्रणालय : अहमदाबाद