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आत्म-सुत्र
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जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एक अपनी आत्मा को जीत ले, तो यही उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय होगी।
(२१६) अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये, बाहरो स्थूल शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? अात्मा द्वारा आत्मा को जोतने वाला ही वास्तव में पूर्ण सुखी होता है।
(२१७) . पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जय अपनी आत्मा को जीतना चाहिये । एक अात्मा के जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।
(२१८) सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में लगी हुई अपनी आत्मा करती है । दयाशून्य दुराचारो को अपने दुराचरणों का पहले ध्यान नहीं पाता; परन्तु जब वह मृत्यु के मुख में पहुँचता है, तब अपने सब दुराचरणों को याद कर-कर पछताता है ।
(२१६) जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़निश्चयो हो कि 'मैं शरीर छोड़ सकता हूँ,परन्तु अपना धर्म-शासन छोड़ ही नहीं सकता:
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