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________________ अशरण-सूत्र १०३ (१७३) यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, पहले या बाद में एक दिन इसे छोड़ना ही है, अतः इसके प्रति मुझे तनिक भी प्रीति ( प्रासक्ति) नहीं है। (१७४) मावन-शरीर प्रसार है, प्राधि-व्याधियों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है; अत: मैं इसकी ओर से क्षणभर भी प्रसन्न नहीं होता। (१७५) मनुष्य का जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है ! आश्चर्य है, हे राजन्, तुम इसपर मुग्ध हो रहे हो ! क्यों नहीं परलोक का खयाल करते ? (१७६) पापी जीव के दुःख को न जातिवाले बँटा सकते हैं, न मित्र वर्ग, न पुत्र; और न भाई-बन्धु । जब दुःख पा पड़ता है, तब वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योंकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य किसी के नहीं। (१७७) चित्र-विचित्र भाषा आपत्ति काल में त्राण नहीं, करती इसो प्रकार मंत्रात्मक भाषा का अनुशासन भी त्राण करनेवाला कैसे हो सकता है ? अतः भाषा और मान्त्रिक विद्या से त्राण पानेकी माशापाले पंडितमन्य मूढ जन पापकर्मों में मग्न हो रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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