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ब्रह्मचर्य-सूत्र
( ३८ ) काम-भोगी का रस जान लेनेवाले के लिए अ-ब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्म वर्य महावत का धारण करना, बड़ा कठिन कार्य है।
( ३६ ) जो मुनि संयम घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में रहते हुए भी दुःसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयंकर अ-ब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते।
यह अ-ब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महा-दोषों का स्थान है, इसलिए निग्रन्थ मुनि मैथुन-संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं।
(४१ ) आत्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृंगार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन- सब तालपुट विष के समान महान् भयंकर हैं।
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